Friday 31 August 2018

जातीय संघर्ष का खतरा बढ़ रहा


चिकित्सा विज्ञान भी कहता है कि बीमारी की रोकथाम उसके इलाज से बेहतर है। दूसरे संदर्भ में देखें तो कहने का आशय ये है कि किसी समस्या को गंभीर होने से पहले ही हल कर दिया जावे। उस दृष्टि से हम भारतीयों का स्वभाव विपरीत दिशा में सोचते रहने का है जिसमें पानी सिर से ऊपर आने के बाद बचाव का रास्ता तलाशने पर विचार शुरू होता है। जातिगत आरक्षण भी ऐसा ही मुद्दा है जो इन दिनों राजनीतिक जमात से फिसलकर आम जनता के हाथ में आ गया है जिसकी बानगी सोशल मीडिया पर आ रही प्रतिक्रियाओं में देखी जा सकती है। सवर्ण जातियों के लोग अगले चुनाव में मौजूदा केन्द्र सरकार पर अपना गुस्सा निकालने के लिए जहां नोटा नामक विकल्प उपयोग करने की कह रहे हैं वहीं ये कहने वाले भी कम नहीं हैं कि इससे कोई लाभ नहीं है क्योंकि जो विपक्ष में हैं वे भी आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था को जारी रखने में बराबर के हिस्सेदार हैं। एक ही थैली के चट्टे-बट्टे वाली उक्ति भी इस बारे में पूरी तरह सटीक बैठती है। ये सब न होता यदि पदोन्नति में आरक्षण को रद्द करने संबंधी अदालती फैसलों के विरुद्ध सरकारें अपील में नहीं जातीं। आग में घी डालने वाला काम तब हो गया जब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा खत्म किये जाने के बाद भी अनु. जाति/जनजाति कानून के उस प्रावधान को केन्द्र सरकार ने दोबारा लागू करवा दिया जिसके अंतर्गत उनके उत्पीडऩ की शिकायत पर आरोपी को बिना जांच किए ही गिरफ्तार करने की व्यवस्था थी। हो सकता है मोदी सरकार सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से छेड़छाड़ नहीं करती परन्तु दलित विरोधी होने के आरोप से बचने के साथ-साथ चौतरफा विरोध के चलते उसने संसद के जरिये सबसे बड़ी अदालत के फैसले को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। न्यायपालिका की स्वतंत्रता को लेकर हाय तौबा मचाने वाली पार्टियां तथा अन्य लोगों ने भी उसके बचाव में एक शब्द नहीं कहा। आरक्षण से परेशान सवर्ण समुदाय इस निर्णय से और भन्ना गया। चूंकि देश में चुनावी बादल मंडराने लगे हैं इसलिए जनसाधारण में भी ज्वलंत मुद्दों को लेकर चर्चा एवं बहस शुरू हो गई है। इनमें आरक्षण सबसे प्रमुख है क्येांकि इससे समाज का हर तबका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित होता है। खासकर युवा पीढ़ी जो सरकारी नौकरी में अपना भविष्य झांक रही है। पढ़ाई में अव्वल रहने वाले का अवसर छीनकर जब किसी कम योग्य या पूरी तरह से अयोग्य को दे दिया जाता है तब उसके मन में असंतोष और गुस्से का भाव उत्पन्न होना सहज स्वाभाविक है। इसी के साथ जब बरसों से साथ काम करने वाले को महज जातिगत आरक्षण के नाम पर पदोन्नति मिल जाती है तब अपनी काबलियत की उपेक्षा से उसके मन में सामाजिक समरसता के प्रति वितृष्णा आ जाती है। यही वजह है कि आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी देश में जाति प्रथा का असर और उसके कारण समाज में होने वाली फूट घटने की जगह बढ़ती ही जा रही है। सदियों से उपेक्षित और सामाजिक, शैक्षणिक तथा आर्थिक दृष्टि से वंचित समाज के बड़े वर्ग को मुख्य धारा में लाकर विकास के समान अवसर तथा यथोचित सम्मान देने के लिए शुरू की गई आरक्षण व्यवस्था भी दुर्भाग्यवश उसी बुराई का रूप ले बैठी जिसके कारण जातियों के नाम पर समाज को टुकड़ों में बांटा गया। दरअसल अनु. जाति और जनजाति के लोगों के उत्थान का उद्देश्य तो पीछे छूट गया और वोट बैंक की सियासत हावी हो गई। वरना न तो आरक्षण की व्यवस्था को लगातार बढ़ाया जाता रहता और न ही अदालतों द्वारा समय-समय पर दिये गये फैसलों को उलटने का दुस्साहस राजनीतिक बिरादरी करती। अब जबकि जातिगत वैमनस्य एवं दुर्भावना एक बार फिर राष्ट्रीय विमर्श का मुद्दा बन गई है तब देश को चलाने वाले राजनेताओं को समय रहते कोई समाधान निकालने के लिए आगे आना चाहिए। मौजूदा आरक्षण प्रणाली बुखार उतारने वाली दवा की तरह है जो बीमारी के मूल कारण का इलाज करने में समर्थ नहीं है। ये भी कहा जा सकता है कि जिस तरह चिकित्सा विज्ञान नई-नई दवाएं खोजता रहता है क्योंकि पुरानी दवाएं असर नहीं करतीं उसी तरह अब आरक्षण नामक दवा भी बेअसर होती जा रही है। यही नहीं तो उसके नुकसान भी सामने आने लगे हैं। प्रतिभावान युवाओं को धकेलकर योग्यता के पैमाने पर कमतर या फिसड्डी रहने वाले को आगे बढ़ाने का दुष्प्रभाव विभिन्न क्षेत्रों में खुलकर सामने आ रहा है। नौकरी में आरक्षण के कारण जो असंतोष दबा हुआ था वह पदोन्नति में भी आरक्षण जारी रहने की वजह से उभरकर सामने आने लगा। केन्द्र के साथ ही विभिन्न राज्य सरकारों की हालिया भूमिका से स्पष्ट है कि राजनीतिक जमात समस्या के स्थायी इलाज की बजाय तदर्थ सोच में जकड़ा हुआ है जिसकी वजह से वह सही को सही कहने की हिम्मत ही नहीं बटोर पा रहा। केन्द्र सरकार के परिवहन मंत्री नितिन गडकरी की अवश्य तारीफ करनी होगी जिन्होंने बिना लाग-लपेट के कह दिया कि जब सरकार के पास नौकरियां ही नहीं हैं तब आरक्षण से भी क्या हासिल होगा? दूसरी तरफ आरक्षित वर्ग के नेता अब निजी क्षेत्र में भी नौकरियों में आरक्षण का दबाव बनाने लगे हैं। इस उथल-पुथल के बीच ये सोचने की महती आवश्यकता है कि आरक्षण का उद्देश्य अनु. जाति/जनजाति और ओबीसी के अंतर्गत आने वालों को अपने पैरों पर खड़े होने में सक्षम बनाना था या सरकार के आश्रित रहकर याचक बनाए रखने में। बेहतर होता अच्छी शिक्षा देते हुए अंतर्निहित प्रतिभा को उभारकर उन्हें प्रतिस्पर्धा में सफल होने लायक बनाया जाता न कि कम योग्यता के बावजूद उन पर दया करते हुए हीनता का ठप्पा उनकी पीठ पर लगाने जैसी भूल होती। सामाजिक क्रांति के पवित्र उद्देश्य से प्रारंभ किया गया आरक्षण भस्मासुर बनने लगा है। इसके पहले कि यह बचे-खुचे सामाजिक सद्भाव को भी भस्म कर दे उससे मुक्ति पाना जरूरी हो गया है। इसका निदान जाति की बजाय आर्थिक स्थिति हो या कुछ और इस पर खुले रूप में विचार मंथन होना चाहिए। भारतीय मानसिकता परिवर्तन को आसानी से स्वीकार नहीं करती। सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद जाति व्यवस्था का कायम रहना इसका प्रमाण है। आरक्षण को लेकर भी यही हुआ। भले ही छुआछूत शारीरिक दृष्टि से नहीं नजर आती हो परन्तु मन के भीतर वह यथावत है इसे स्वीकार करने में कुछ भी गलत नहीं है। ये देखने के बाद अब ये जरूरी लगता है कि कोई ऐसा निर्णय लिया जाये जो अगले चुनाव के मद्देनजर न होकर अगली पीढ़ी के लिए फायदेमंद हो। यदि वोटबैंक के भय से मौजूदा व्यवस्था को ढोया जाता रहा तो ये कहते हुए डर लगता है कि देश जातीय संघर्ष के रास्ते पर बढ़ रहा है जो सांप्रदायिक दंगों से भी कहीं भयावह होगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 30 August 2018

कुप्रबंधन का शिकार हो गई नोटबंदी

कुशल प्रबंधन के अभाव में कोई भी अच्छी योजना या काम किस तरह उद्देश्य से भटक जाता है उसका सबसे बड़ा उदाहरण हाल ही के वर्षों में देखना हो तो वह थी 8 नवंबर 2016 की आधी रात लागू हुई नोटबंदी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित पूरी भाजपा उसे आज भी अपना मास्टर स्ट्रोक मानती है और शुरु में वैसा लगा भी था। 500 और 1000 रु. के करेंसी नोटों को अचानक बंद करने का फैसला आसान नहीं था। जिस तरह की गोपनीयता उच्चस्तर पर बरती गई वह भी बड़ी बात रही। प्रारंभिक तौर पर बिना कहे जो समझाया गया उसके अनुसार नोटबंदी के पीछे सबसे बड़ा उद्देश्य कालेधन पर अंकुश लगाने का था। दूसरा आतंकवादियों को मिलने वाली मदद रोकना, तीसरा नकली नोटों पर रोकथाम तथा अंत में नगद लेन-देन में कमी लाकर डिजिटल को बढ़ावा देना। कोई भी समझदार व्यक्ति उक्त चारों में से किसी को भी गलत नहीं बता सकता। कालेधन पर अंकुश मोदी सरकार की प्राथमिकता थी तथा पहले दिन से ही उसने उस दिशा में कदम भी बढ़ाये। इसी तरह ये बात भी सही थी कि आतंकवादियों को विदेशों से हवाला के जरिये पैसा उपलब्ध करवाया जाता था। नकली नोटों के चलन की समस्या भी बढ़ती जा रही थी। इन तीनों उद्देश्यों को पूरा करने के लिए डिजिटल लेन-देन एक सार्थक उपाय था क्योंकि कालेधन का समूचा कारोबार नगदी में ही होता है। प्रधानमंत्री का सोचना था कि उस एक तीर से वे सारे निशाने लगा लेंगे। ये तो सर्वविदित था कि कालाधन बड़े नोटों के रूप में ही लोगों के पास था। अचानक उन्हें बंद करने से काली कमाई वालों में हड़कम्प मच गया क्योंकि उन्हें बदलना आसान नहीं था। आतंकवादियों को मिलने वाली आर्थिक सहायता पर भी कुछ समय के लिए ही सही, नियंत्रण तो लगा। एक बात जो उस दौरान अधिकृत तौर पर तो नहीं कही गई किन्तु चर्चा में रही कि खुफिया सूत्रों के मुताबिक चीन और पाकिस्तान द्वारा बहुत बड़ी मात्रा में 500 और 1000 के नकली नोट भारत में भेजे जाने वाले थे। जिसकी भनक लगते ही प्रधानमंत्री ने ताबड़तोड़ फैसला लिया। जहां तक बात डिजिटल लेन-देन को बढ़ावा देने की थी तो निश्चित रूप से बाजार में नगदी का अभाव हो जाने से लोग इस हेतु पे्ररित भी हुए और बाध्य भी। बीते 22 महीनों में भले ही नगदी में लेन-देन संबंधी लक्ष्य पूरी तरह हासिल न हो सका हो परन्तु उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि तो हो ही रही है। गत दिवस रिजर्व बैंक ने अधिकृत तौर पर वे आंकड़े जारी कर दिये जिन्हें उजागर करने के लिए विपक्ष लगातार दबाव बना रहा था। मशीनी युग में रिजर्व बैंक को वापिस आए नोट गिनने में लगभग दो वर्ष लग गये जो निश्चित रूप से रहस्यमय लगता है और इसीलिए सरकार को कटघरे में खड़ा किया जाता रहा। अपनी वार्षिक रिपोर्ट में रिजर्व बैंक ने जो आंकड़े दिये उनके अनुसार नोटबंदी के बाद 99.3 फीसदी प्रतिबंधित नोट वापिस आ गये। इसका सीधा अर्थ ये हुआ कि जिस कालेधन के डूब जाने की प्रत्याशा थी वह घूम-फिरकर सफेद हो गया। इस आधार पर उस कदम का पहला मकसद ही फुस्स होकर रह गया। उक्त रिपोर्ट आते ही विपक्ष सरकार पर चढ़ बैठा। प्रधानमंत्री से स्तीफा मांगा जाने लगा। सोशल मीडिया पर भी खूब आलोचनाएं हुईं। चूंकि नोटबंदी से हर वर्ग को अकल्पनीय मुसीबतों का सामना करना पड़ा। इसलिए निश्चित रूप से उसकी विफलता पर उस दौर से गुजरे हर व्यक्ति के मन में नाराजगी है तथा प्रधानमंत्री के उस निर्णय के औचित्य पर उठ रहे प्रश्न बेमानी नहीं हैं किंतु ये कहना कि नोटबंदी अनावश्यक तथा जल्दबाजी में उठाया कदम था पूरी तरह सही नहीं होगा। यदि वह अपेक्षाानुसार सफल नहीं रही तो उसकी वजह सरकार का दबाव में आ जाना तथा बैंकिंग उद्योग द्वारा की गई गड़बड़ी थी। समाचार माध्यमों के जरिये जनता की तकलीफों के दृश्य दिखाए जाने से सरकार घबरा गई और उसने नोट बदलने की अवधि में जिस तरह वृद्धि की उसने सारा गुड़-गोबर कर दिया। सरकारी भुगतान (बिजली, टेलीफोन बिल, स्थानीय निकायों के कर) में प्रतिबंधित नोटों के प्रचलन में सीमित अवधि के लिए दी गई छूट तो युक्तिसंगत थी किन्तु पेट्रोल पंपों के जरिये जिस तरह से कालाधन बैंकों में आया वह अभूतपूर्व था। 8 और 9 नवम्बर की दरम्यानी रात स्वर्ण आभूषणों के शोरूम खोलने की अनुमति देना भी निरी मूर्खता थी। राष्ट्रीयकृत बैंकों में एक व्यक्ति को 4 हजार तक प्रतिबंधित नोट बदलने की सुविधा का किस तरह दुरुपयोग हुआ वह भी किसी से छिपा नहीं रह सका। दिहाड़ी मजदूरों को पैसा देकर दिन-दिन भर खड़ा रखा गया जिसकी तस्वीरें देख जनता का गुस्सा बढ़ता गया। सरकार ने बिना नये नोट छापे पुराने बंद कर दिये ये आरोप व्यवहारिक नहीं है क्योंकि ऐसा होने पर तो अचानक नोटबंदी का अर्थ ही नहीं जाता। सही बात तो ये है कि जिस दृढ़ता का परिचय प्रधानमंत्री ने अपना निर्णय लागू करते समय दिया वे उस पर बाद में कायम नहीं रह सके तथा लोगों के गुस्से से बचने के लिए रियायतें और मोहलतें देते गए जिसका लाभ उन लोगों ने उठा लिया जिनके पास वाकई काला धन था। इसमें कोई दो मत नहीं है कि नोटबंदी ने भारतीय अर्थ व्यवस्था में भूकंप ला दिया। उसका असर आज तक दिख रहा है। लंबे समय तक कारोबार ठप्प रहा। लोग अपने ही पैसे का उपयोग करने को तरस गए। शादी-ब्याह तथा अस्पताल में इलाज कराने तक में दिक्कतें गईं। ये कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि समूचा आर्थिक प्रबंधन लकवाग्रस्त होकर रह गया। चूंकि उस कदम के पीछे की कई बातें अब तक सामने नहीं आ सकी हैं और शायद आगे भी न आएं इसलिए नोटबंदी की विफलता अथवा सफलता का सही विश्लेषण करना कठिन ही है परन्तु उसका प्रत्यक्ष परिणाम ये जरूर हुआ कि जमीन-जायजाद का जो कारोबार समानांतर अर्थव्यवस्था के तौर पर कालेधन के बलबूते चल रहा था वह काफी हद तक रुक गया। कालाधन सफेद में बदल जाने का एक और लाभ ये भी हुआ कि आयकर दाताओं की संख्या बढ़ी तथा प्रत्यक्ष कर की वसूली में भी वृद्धि हुई। नोटबंदी रूपी दु:स्वप्न से देश धीरे-धीरे ही सही लेकिन उबर चुका है। लेकिन अपने उस अच्छे कदम के औचित्य को सिद्ध करने के लिए सरकार के पास जो तर्क हैं वे बौद्धिक स्तर पर तो भले ही स्वीकार कर लिये जावें किन्तु आम नागरिक तथा कारोबारी के गले उतरना संभव नहीं है। यही वजह है कि नेक उद्देश्य से उठाया गया एक कदम सरकार की बदनामी और विफलता का कारण बन गया। भले ही उसके बाद उ.प्र. और उत्तराखंड के चुनाव में भाजपा को उल्लेखनीय जीत हासिल हो गई लेकिन केवल चुनावी सफलता ही किसी नीति की सार्थकता का मापदंड नहीं हो सकती क्योंकि अधिकांश मतदाता अर्थशास्त्र की तकनीकी जानकारी से अनभिज्ञ रहते हैं। रिजर्व बैंक की रिपोर्ट से सामने आई जानकारी के आधार पर विपक्ष द्वारा सरकार पर किये जा रहे हमले अपनी जगह सही हैं। प्रधानमंत्री को स्तीफा देने की जरूरत तो नहीं है किन्तु उन्हें ये तो स्वीकार कर ही लेना चाहिए कि नोटबंदी को लागू करने में उनकी सरकार प्रबंधन के मोर्चे पर पूरी तरह विफल रही है। अपनी सफलताओं पर अपने हाथों अपनी पीठ ठोंकने वाले प्रधानमंत्री को अपनी उन गल्तियों को भी स्वीकार करने में पीछे नहीं हटना चाहिए जिनसे जनता को बेतहाशा परेशानियांं उठाना पड़ीं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 29 August 2018

वामपंथियों की चालों से बचे कांग्रेस

भीमा कोरेगांव में हुए जातीय संघर्ष में वामपंथी चरमपंथियों की भूमिका के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री राजनाथ सिंह की हत्या की योजना के संदर्भ में गत दिवस कुछ लोगों की गिरफ्तारियां हुईं जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर वामपंथी विचारधारा से सम्बद्ध हैं। देश के विभिन्न शहरों में छापेमारी के बाद हुई गिरफ्तारियों के विरुद्ध पूरी वामपंथी जमात मुखर हो उठी है वहीं कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी ट्वीट कर सरकार पर हमला बोला है। इसे लोकतन्त्र के लिए खतरा बताया जा रहा है। राहुल ने तो यहाँ तक कह दिया कि देश में एनजीओ के नाम पर केवल रास्वसंघ को काम करने की इजाजत है। वामपंथी लॉबी से सहानुभूति  रखने वाले या यूँ कहें कि नरेंद्र मोदी से खुन्नस खाए बैठे कतिपय पत्रकार और बुद्धिजीवी भी उक्त गिरफ्तारियों की मुखालफत करने सामने आए हैं। जो लोग गिरफ्तार हुए हैं वे सक्रिय राजनीति से दूर रहकर विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत थे किन्तु जांच एजेंसियों को शक है कि नक्सलियों से उनके संबंध हैं जो प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की हत्या की योजना बना रहे हैं। सच-झूठ का फैसला तो न्यायालय ही करेगा लेकिन इस तरह के मामलों में राजनीतिक नेताओं को त्वरित प्रतिक्रिया देने से बचना चाहिये। खास तौर पर राहुल और कांग्रेस को तो अतिरिक्त सावधानी बरतने की जरूरत है क्योंकि सुरक्षा प्रबंधों की अनदेखी के करण ही इंदिरा जी और राजीव गाँधी को जान गंवानी पड़ी थी। दुर्भाग्य से जिन आतंकवादी नेताओं को उन्होंने प्रश्रय दिया वे ही उनकी जान के दुश्मन बन बैठे। देश की जो वर्तमान राजनीतिक स्थिति है उसमें वामपंथ पूरी तरह अप्रासंगिक होता जा रहा है। केरल छोड़ कहीं भी उसकी मौजूदगी नहीं है। बंगाल में भाजपा उससे आगे निकल आई है। त्रिपुरा का वामपंथी किला भी बीते साल भगवा लहर में ढह गया। ज्योति बसु के बाद कोई ऐसा चेहरा भी वामपंथियों के पास नहीं बचा जिसे जनता के समक्ष पेश कर वे चुनावी जंग जीत सकें। यही वजह है कि अब वामपंथी पूरी तरह से नक्सलियों के भरोसे रह गए हैं। उनके अतिरिक्त समाज के विभिन्न क्षेत्रों में भी वे अपनी पहिचान उजागर किये बिना सक्रिय हैं तथा व्यवस्था के विरुद्ध समाज में व्याप्त असंतोष को हिंसक रूप देकर अपने निहित उद्देश्य को पूरा करना चाहते हैं। वैसे ये कोई नई बात नहीं है। आज़ादी के आंदोलन के समय भी वामपंथियों की भूमिका को लेकर तरह-तरह की बातें इतिहास में दर्ज हैं। उस आधार पर इनकी कार्यशैली सदैव रहस्यमयी रही जिसमें देशहित की अनदेखी की जाती है। बीते कुछ समय से नक्सली आंदोलन को अपेक्षित सफलता न मिलते देख वामपंथियों ने नरम नक्सली वर्ग तैयार किया जो जंगलों में हथियार लेकर लडऩे की बजाय समाज के भीतर शिक्षा, साहित्य और मानवाधिकार जैसे क्षेत्रों में घुसकर काम कर रहा है। दिल्ली के जेएनयू जैसे संस्थान इसकी नर्सरी हैं जहां से कन्हैया सरीखे लोग तैयार किये जाते हैं। अरुंधती रॉय सदृश लेखिका लेखन से ज्यादा देश को कमजोर करने वाली ताकतों की प्रवक्ता के तौर पर कुख्यात हैं। कश्मीर में आतंकवादियों की हिसंक गतिविधियां तो इस वर्ग को आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा लगता है वहीं सुरक्षा बलों की कार्रवाई पर मानवाधिकार हनन का हल्ला ये लोग मचा देते हैं। दुर्भाग्य ये है कि कांग्रेस इनके चंगुल में फंसकर अपने साथ-साथ देश का भी नुकसान करवाती रही है और आज भी उससे वही गलतियां हो रही हैं। जेएनयू में अफजल गुरु के समर्थन में नारे लगाने वालों के विरुद्ध कार्रवाई को मानवाधिकारों का हनन बताने में कांग्रेस भी बिना सोचे शामिल हो गई जिससे उसे तो कोई लाभ हुआ नहीं किन्तु देश विरोधी ताकतों का हौसला बढ़ गया। गत दिवस जिनकी गिरफ्तारियां हुईं वे सभी समाज के बीच रहकर काम करने के लिए जाने जाते हैं लेकिन उनका रुझान किस तरफ  है ये किसी से छिपा नहीं है। चूंकि गिरफ्तारी के पीछे देश के शीर्ष नेतृत्व की हत्या के षड्यंत्र की आशंका है इसलिए उसकी इतनी जल्दी आलोचना करना औचित्यहीन लगता है। भीमा कोरेगांव में जिस तरह हिंसा भड़की उसके पीछे कोई न कोई योजना अवश्य रही होगी वरना दशकों से चली आ रही परंपरा में कभी भी उस तरह का बवाल नहीं मचा। उपद्रव के बाद जिस तरह से वहां जातिवादी नेताओं के अलावा वामपंथी तबका सक्रिय हुआ वह भी संदेहास्पद ही था। जांच एजेंसियां काफी समय से इस दिशा में सक्रिय थीं। यदि उन्होंने गलत ढंग से गिरफ्तारी की है तो अदालत उसका संज्ञान लेते हुए हस्तक्षेप करेंगी किन्तु उसका इंतज़ार किये बिना कोई आपातकाल लगने का रोना रो रहा है तो किसी को मानवाधिकारों की चिंता सताने लगी। बेहतर हो ऐसे मामलों में प्रतिक्रिया देते समय थोड़ा धैर्य रखा जावे। याकूब मेनन की फांसी रुकवाने के लिए जो लॉबी सीना पीट रही थी तकरीबन वही कल हुई गिरफ्तारियों के विरुद्ध खड़ी हो गई है। कन्हैया और उनके साथियों के बचाव में भी इन्हीं की सक्रियता देखी गई थी। ऐसा लगता है देश विरोधी शक्तियों को प्रश्रय देना ही इनका काम है। काँग्रेस जिस दौर से गुजर रही है उसमें जरूरी हो जाता है कि वह ऐसे संवेदनशील मामलों में सोच-समझकर अपनी भूमिका तय किया करे। सुरक्षा संबंधी चेतावनियों की उपेक्षा ही इंदिरा जी और राजीव गांधी की हत्या की वजह बन गई थी। ऐसे में यदि श्री मोदी और राजनाथ सिंह की जान को खतरे संबंधी कोई जानकारी मिलने पर सुरक्षा एजेंसियों ने कोई गिरफ्तारी की है तो सीधे-सीधे सरकार पर आरोप लगाने की बजाय जांच शुरू होने का इंतज़ार करना उचित है। आखिरकार जो भी होगा वह अदालत ही तय करेगी। राहुल गाँधी को इस तरह के मसलों में वामपंथियों की तरफदारी से परहेज करना चाहिए क्योंकि उनके प्रति सहानुभूति रखने की वजह से ही उनकी पार्टी का सैद्धांतिक आधार कमजोर होता चला गया। अन्य दलों से भी अपेक्षा है कि वे देश की न्याय प्रक्रिया पर विश्वास रहते हुए अपने स्तर पर कोई फैसला न करें क्योंकि इससे उन ताकतों का हौसला मजबूत होता है जिनका एकमात्र उद्देश्य इस देश को भीतर से कमजोर करना है ताकि सीमा पार बैठे दुश्मन अपने मंसूबों में कामयाब हो जाएं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 28 August 2018

साथ बैठने से कटुता खत्म न सही कम तो होगी

हाल ही में दिल्ली में स्व.अटल बिहारी वाजपेयी के निधन पर आयोजित सर्वदलीय शोकसभा में लगभग सभी दलों के शीर्ष नेताओं ने उपस्थित होकर दिवंगत नेता के प्रति श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए जो विचार व्यक्त किये उनका सार ये था कि अटल जी अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के बावजूद सभी दलों के लोगों के साथ आत्मीय संबंध रखते थे और इसी कारण उन्हें अजातशत्रु जैसा सम्मानजनक सम्बोधन प्राप्त हुआ। कांग्रेस नेता गुलामनबी आज़ाद ने तो यहां तक कहा कि जीवन भर सभी को साथ लेकर चलने वाले वाजपेयी जी ने मृत्यु उपरांत भी सभी को एक कर दिया। उन्होंने ये कहने में भी कोई संकोच नहीं किया कि ऐसी शोकसभा उन्होंने पहले कभी नहीं देखी। सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी तक ने पूर्व प्रधानमंत्री के बारे में कहा कि वे अपनी बात कहते और हमारी सुनते थे। कहने का आशय ये है कि अटल जी की निर्विवाद लोकप्रियता और सम्मान का कारण उनका सभी से संपर्क और संवाद बनाए रखना था। लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान भाषण के बाद राहुल गांधी ने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के पास जाकर उनके गले से लिपट जाने के पीछे राजनीतिक नफरत मिटाने का संकेत दिया अपितु कुछ क्षण बाद ही अपने बगल में बैठे ज्योतिरादित्य सिंधिया को आंख मारकर उन्होंने अपने कृत्य की गम्भीरता नष्ट कर दी। उसके बाद गत सप्ताह जर्मनी और ब्रिटेन की यात्रा के दौरान रास्वसंघ पर तीखे आरोप लगाकर तनातनी फिर बढ़ा दी। लेकिन गत दिवस खबर आई कि सितंबर माह में दिल्ली के विज्ञान भवन में रास्वसंघ द्वारा दो दिवसीय संवाद कार्यक्रम आयोजित किया जाने वाला है जिसमें राहुल और श्री येचुरी सहित विभिन्न दलों के नेताओं को आमंत्रित किया जाएगा। यद्यपि उसमें भाषण संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत का ही होगा किन्तु आमंत्रित नेता उनसे प्रश्न पूछ सकेंगे। संघ की ओर से कहा गया है कि उक्त कार्यक्रम का खुला आमंत्रण सभी दलों को दिया जावेगा जिसके पीछे उद्देश्य संघ के प्रति उनके मन में व्याप्त गलतफहमियों को दूर कर स्वस्थ संवाद की प्रक्रिया को शुरू करना है। वैसे इसे संघ द्वारा कुछ माह पहले पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और हाल ही में सुप्रसिद्ध उद्योगपति रतन टाटा को आमंत्रित करने की अगली कड़ी के तौर पर देखा जा रहा है जिसके जरिये संघ विरोधी विचारधारा के प्रमुख लोगों से संवाद बढ़ाने का प्रयास कर रहा है। राहुल इस निमन्त्रण को स्वीकारेंगे या नहीं ये अभी स्पष्ट नहीं है। सीताराम येचुरी की तरफ  से भी प्रतिक्रिया आनी शेष है। लेकिन यदि ऐसा होता है तो इसे एक शुभ शुरुवात कहा जाना चाहिए क्योंकि देश में सियासत ही नहीं अपितु सार्वजनिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वैचारिक मतभेद व्यक्तिगत शत्रुता का रूप लेते जा रहे हैं। देश के भीतर ही नहीं वरन विदेशों में जाकर भी राजनीतिक वैमनस्यता का प्रगटीकरण खुलकर होने लगा है। राहुल की हालिया विदेश यात्राओं में उन्होंने जिस तरह के आरोप भाजपा और संघ पर लगाए उनसे ये बात साबित हो गई। उधर कांग्रेस प्रधानमंत्री पर भी विदेशी दौरों में कांग्रेस के शासनकाल की आलोचना करने का आरोप लगाती रही है। यद्यपि राहुल ने पहले भी विदेशी धरती पर मोदी सरकार की तीखी आलोचना की किन्तु जर्मनी और ब्रिटेन में बीते हफ्ते उन्होंने रास्वसंघ पर भी निशाना साधा जिसके बाद सम्भवत: संघ ने उन्हें अपने आयोजन में बुलाने का दांव चल दिया। उल्लेखनीय है प्रणब मुखर्जी के संघ के मंच पर जाने पर कांग्रेस के कई नेताओं ने उनकी आलोचना की थी। उस दृष्टि से श्री गाँधी संघ के निमंत्रण का क्या करेंगे ये देखने वाली बात होगी क्योंकि वे नहीं जाते तब उन पर छुआछूत करने का आरोप लग जायेगा और जाने पर रास्वसंघ के विरोध में बोलने के पहले सौ बार सोचने  की मजबूरी आ खड़ी हो जाएगी। कुल मिलाकर संघ ने एक सुविचारित योजना के अंतर्गत ऐसा करने का निर्णय लिया जिससे वह अपने सबसे कटु आलोचकों को साथ बिठाकर अपनी बात कह सके। अब जरा अलग हटकर देखें तब ये लगता है कि संघ जो सोचकर भी ये कदम बढ़ा रहा हो लेकिन ये राजनीतिक ही नहीं अन्य क्षेत्रों में भी शत्रुता के वर्तमान वातावरण को मिटाकर आपसी समझ को बढ़ावा देने में सहायक होगा जो सही अर्थों में देश की सर्वोच्च जरूरत है। संवाद और संपर्क के अभाव में तमाम ऐसी समस्याएं उलझी पड़ी हैं जिनसे देश का बहुत नुकसान हो रहा है। वोटों की राजनीति जिस स्तर तक जा पहुंची है उसने सभी राजनीतिक दलों को बुरी तरह फंसा दिया है। चाहकर भी सच बोलने का साहस कोई नहीं कर पा रहा। विभिन्न पार्टियों के बीच यद्यपि गठबंधन होते हैं किंतु उनका मकसद केवल चुनाव जीतना रह गया है। ऐसे में यदि आपसी संवाद और संपर्क का सिलसिला रास्वसंघ शुरू करने की सोच रहा है तो इसे सकारात्मक तौर पर देखा जाना ही उचित रहेगा। बेहतर हो अन्य राजनीतिक एवं जाति आधारित संगठन भी ऐसा ही करने की कोशिश करें। एक दूसरे को समझने से कटुता पूरी तरह  खत्म भले न हो लेकिन कम तो होती ही है। कम से कम अपने विरोधी को कुछ हद तक बर्दाश्त करने की सौजन्यता तो पनपती है। संघ द्वारा प्रणब मुखर्जी और रतन टाटा को अपने बीच बुलाकर जो पहल की उसे आगे बढ़ाने का उसका प्रयास हर दृष्टि से स्वागतयोग्य और देशहित में है। टुकड़ों-टुकड़ों में बंटे अच्छे विचार यदि एक साथ आयें तो उससे निकलने वाली सामूहिक सोच अनेक ऐसी समस्याओं का समाधान कर सकती है जो नासूर बन गईं हैं। जाति, प्रांत, भाषा के झगड़ों ने देश को जो नुकसान पहुंचाया उसकी भरपाई तभी सम्भव है जब केवल चुनावी लाभ-हानि से ऊपर उठकर भी विचार हो। रास्वसंघ यदि आमंत्रण देता है तो राहुल और सीताराम सहित सभी आमंत्रितों को जाना चाहिए क्योंकि इससे कुछ हो न हो कड़वाहट तो घटेगी ही। जब घोर विरोधी विचारधारा वाले संगठन क्षणिक लाभ के लिए एकजुट हो सकते हैं तब देश के दूरगामी हितों की खातिर रास्वसंघ के साथ संपर्क और संवाद से भी किसी को परहेज नहीं होना चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी