Wednesday 29 August 2018

वामपंथियों की चालों से बचे कांग्रेस

भीमा कोरेगांव में हुए जातीय संघर्ष में वामपंथी चरमपंथियों की भूमिका के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री राजनाथ सिंह की हत्या की योजना के संदर्भ में गत दिवस कुछ लोगों की गिरफ्तारियां हुईं जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर वामपंथी विचारधारा से सम्बद्ध हैं। देश के विभिन्न शहरों में छापेमारी के बाद हुई गिरफ्तारियों के विरुद्ध पूरी वामपंथी जमात मुखर हो उठी है वहीं कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी ट्वीट कर सरकार पर हमला बोला है। इसे लोकतन्त्र के लिए खतरा बताया जा रहा है। राहुल ने तो यहाँ तक कह दिया कि देश में एनजीओ के नाम पर केवल रास्वसंघ को काम करने की इजाजत है। वामपंथी लॉबी से सहानुभूति  रखने वाले या यूँ कहें कि नरेंद्र मोदी से खुन्नस खाए बैठे कतिपय पत्रकार और बुद्धिजीवी भी उक्त गिरफ्तारियों की मुखालफत करने सामने आए हैं। जो लोग गिरफ्तार हुए हैं वे सक्रिय राजनीति से दूर रहकर विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत थे किन्तु जांच एजेंसियों को शक है कि नक्सलियों से उनके संबंध हैं जो प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की हत्या की योजना बना रहे हैं। सच-झूठ का फैसला तो न्यायालय ही करेगा लेकिन इस तरह के मामलों में राजनीतिक नेताओं को त्वरित प्रतिक्रिया देने से बचना चाहिये। खास तौर पर राहुल और कांग्रेस को तो अतिरिक्त सावधानी बरतने की जरूरत है क्योंकि सुरक्षा प्रबंधों की अनदेखी के करण ही इंदिरा जी और राजीव गाँधी को जान गंवानी पड़ी थी। दुर्भाग्य से जिन आतंकवादी नेताओं को उन्होंने प्रश्रय दिया वे ही उनकी जान के दुश्मन बन बैठे। देश की जो वर्तमान राजनीतिक स्थिति है उसमें वामपंथ पूरी तरह अप्रासंगिक होता जा रहा है। केरल छोड़ कहीं भी उसकी मौजूदगी नहीं है। बंगाल में भाजपा उससे आगे निकल आई है। त्रिपुरा का वामपंथी किला भी बीते साल भगवा लहर में ढह गया। ज्योति बसु के बाद कोई ऐसा चेहरा भी वामपंथियों के पास नहीं बचा जिसे जनता के समक्ष पेश कर वे चुनावी जंग जीत सकें। यही वजह है कि अब वामपंथी पूरी तरह से नक्सलियों के भरोसे रह गए हैं। उनके अतिरिक्त समाज के विभिन्न क्षेत्रों में भी वे अपनी पहिचान उजागर किये बिना सक्रिय हैं तथा व्यवस्था के विरुद्ध समाज में व्याप्त असंतोष को हिंसक रूप देकर अपने निहित उद्देश्य को पूरा करना चाहते हैं। वैसे ये कोई नई बात नहीं है। आज़ादी के आंदोलन के समय भी वामपंथियों की भूमिका को लेकर तरह-तरह की बातें इतिहास में दर्ज हैं। उस आधार पर इनकी कार्यशैली सदैव रहस्यमयी रही जिसमें देशहित की अनदेखी की जाती है। बीते कुछ समय से नक्सली आंदोलन को अपेक्षित सफलता न मिलते देख वामपंथियों ने नरम नक्सली वर्ग तैयार किया जो जंगलों में हथियार लेकर लडऩे की बजाय समाज के भीतर शिक्षा, साहित्य और मानवाधिकार जैसे क्षेत्रों में घुसकर काम कर रहा है। दिल्ली के जेएनयू जैसे संस्थान इसकी नर्सरी हैं जहां से कन्हैया सरीखे लोग तैयार किये जाते हैं। अरुंधती रॉय सदृश लेखिका लेखन से ज्यादा देश को कमजोर करने वाली ताकतों की प्रवक्ता के तौर पर कुख्यात हैं। कश्मीर में आतंकवादियों की हिसंक गतिविधियां तो इस वर्ग को आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा लगता है वहीं सुरक्षा बलों की कार्रवाई पर मानवाधिकार हनन का हल्ला ये लोग मचा देते हैं। दुर्भाग्य ये है कि कांग्रेस इनके चंगुल में फंसकर अपने साथ-साथ देश का भी नुकसान करवाती रही है और आज भी उससे वही गलतियां हो रही हैं। जेएनयू में अफजल गुरु के समर्थन में नारे लगाने वालों के विरुद्ध कार्रवाई को मानवाधिकारों का हनन बताने में कांग्रेस भी बिना सोचे शामिल हो गई जिससे उसे तो कोई लाभ हुआ नहीं किन्तु देश विरोधी ताकतों का हौसला बढ़ गया। गत दिवस जिनकी गिरफ्तारियां हुईं वे सभी समाज के बीच रहकर काम करने के लिए जाने जाते हैं लेकिन उनका रुझान किस तरफ  है ये किसी से छिपा नहीं है। चूंकि गिरफ्तारी के पीछे देश के शीर्ष नेतृत्व की हत्या के षड्यंत्र की आशंका है इसलिए उसकी इतनी जल्दी आलोचना करना औचित्यहीन लगता है। भीमा कोरेगांव में जिस तरह हिंसा भड़की उसके पीछे कोई न कोई योजना अवश्य रही होगी वरना दशकों से चली आ रही परंपरा में कभी भी उस तरह का बवाल नहीं मचा। उपद्रव के बाद जिस तरह से वहां जातिवादी नेताओं के अलावा वामपंथी तबका सक्रिय हुआ वह भी संदेहास्पद ही था। जांच एजेंसियां काफी समय से इस दिशा में सक्रिय थीं। यदि उन्होंने गलत ढंग से गिरफ्तारी की है तो अदालत उसका संज्ञान लेते हुए हस्तक्षेप करेंगी किन्तु उसका इंतज़ार किये बिना कोई आपातकाल लगने का रोना रो रहा है तो किसी को मानवाधिकारों की चिंता सताने लगी। बेहतर हो ऐसे मामलों में प्रतिक्रिया देते समय थोड़ा धैर्य रखा जावे। याकूब मेनन की फांसी रुकवाने के लिए जो लॉबी सीना पीट रही थी तकरीबन वही कल हुई गिरफ्तारियों के विरुद्ध खड़ी हो गई है। कन्हैया और उनके साथियों के बचाव में भी इन्हीं की सक्रियता देखी गई थी। ऐसा लगता है देश विरोधी शक्तियों को प्रश्रय देना ही इनका काम है। काँग्रेस जिस दौर से गुजर रही है उसमें जरूरी हो जाता है कि वह ऐसे संवेदनशील मामलों में सोच-समझकर अपनी भूमिका तय किया करे। सुरक्षा संबंधी चेतावनियों की उपेक्षा ही इंदिरा जी और राजीव गांधी की हत्या की वजह बन गई थी। ऐसे में यदि श्री मोदी और राजनाथ सिंह की जान को खतरे संबंधी कोई जानकारी मिलने पर सुरक्षा एजेंसियों ने कोई गिरफ्तारी की है तो सीधे-सीधे सरकार पर आरोप लगाने की बजाय जांच शुरू होने का इंतज़ार करना उचित है। आखिरकार जो भी होगा वह अदालत ही तय करेगी। राहुल गाँधी को इस तरह के मसलों में वामपंथियों की तरफदारी से परहेज करना चाहिए क्योंकि उनके प्रति सहानुभूति रखने की वजह से ही उनकी पार्टी का सैद्धांतिक आधार कमजोर होता चला गया। अन्य दलों से भी अपेक्षा है कि वे देश की न्याय प्रक्रिया पर विश्वास रहते हुए अपने स्तर पर कोई फैसला न करें क्योंकि इससे उन ताकतों का हौसला मजबूत होता है जिनका एकमात्र उद्देश्य इस देश को भीतर से कमजोर करना है ताकि सीमा पार बैठे दुश्मन अपने मंसूबों में कामयाब हो जाएं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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