Friday 31 August 2018

जातीय संघर्ष का खतरा बढ़ रहा


चिकित्सा विज्ञान भी कहता है कि बीमारी की रोकथाम उसके इलाज से बेहतर है। दूसरे संदर्भ में देखें तो कहने का आशय ये है कि किसी समस्या को गंभीर होने से पहले ही हल कर दिया जावे। उस दृष्टि से हम भारतीयों का स्वभाव विपरीत दिशा में सोचते रहने का है जिसमें पानी सिर से ऊपर आने के बाद बचाव का रास्ता तलाशने पर विचार शुरू होता है। जातिगत आरक्षण भी ऐसा ही मुद्दा है जो इन दिनों राजनीतिक जमात से फिसलकर आम जनता के हाथ में आ गया है जिसकी बानगी सोशल मीडिया पर आ रही प्रतिक्रियाओं में देखी जा सकती है। सवर्ण जातियों के लोग अगले चुनाव में मौजूदा केन्द्र सरकार पर अपना गुस्सा निकालने के लिए जहां नोटा नामक विकल्प उपयोग करने की कह रहे हैं वहीं ये कहने वाले भी कम नहीं हैं कि इससे कोई लाभ नहीं है क्योंकि जो विपक्ष में हैं वे भी आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था को जारी रखने में बराबर के हिस्सेदार हैं। एक ही थैली के चट्टे-बट्टे वाली उक्ति भी इस बारे में पूरी तरह सटीक बैठती है। ये सब न होता यदि पदोन्नति में आरक्षण को रद्द करने संबंधी अदालती फैसलों के विरुद्ध सरकारें अपील में नहीं जातीं। आग में घी डालने वाला काम तब हो गया जब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा खत्म किये जाने के बाद भी अनु. जाति/जनजाति कानून के उस प्रावधान को केन्द्र सरकार ने दोबारा लागू करवा दिया जिसके अंतर्गत उनके उत्पीडऩ की शिकायत पर आरोपी को बिना जांच किए ही गिरफ्तार करने की व्यवस्था थी। हो सकता है मोदी सरकार सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से छेड़छाड़ नहीं करती परन्तु दलित विरोधी होने के आरोप से बचने के साथ-साथ चौतरफा विरोध के चलते उसने संसद के जरिये सबसे बड़ी अदालत के फैसले को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। न्यायपालिका की स्वतंत्रता को लेकर हाय तौबा मचाने वाली पार्टियां तथा अन्य लोगों ने भी उसके बचाव में एक शब्द नहीं कहा। आरक्षण से परेशान सवर्ण समुदाय इस निर्णय से और भन्ना गया। चूंकि देश में चुनावी बादल मंडराने लगे हैं इसलिए जनसाधारण में भी ज्वलंत मुद्दों को लेकर चर्चा एवं बहस शुरू हो गई है। इनमें आरक्षण सबसे प्रमुख है क्येांकि इससे समाज का हर तबका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित होता है। खासकर युवा पीढ़ी जो सरकारी नौकरी में अपना भविष्य झांक रही है। पढ़ाई में अव्वल रहने वाले का अवसर छीनकर जब किसी कम योग्य या पूरी तरह से अयोग्य को दे दिया जाता है तब उसके मन में असंतोष और गुस्से का भाव उत्पन्न होना सहज स्वाभाविक है। इसी के साथ जब बरसों से साथ काम करने वाले को महज जातिगत आरक्षण के नाम पर पदोन्नति मिल जाती है तब अपनी काबलियत की उपेक्षा से उसके मन में सामाजिक समरसता के प्रति वितृष्णा आ जाती है। यही वजह है कि आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी देश में जाति प्रथा का असर और उसके कारण समाज में होने वाली फूट घटने की जगह बढ़ती ही जा रही है। सदियों से उपेक्षित और सामाजिक, शैक्षणिक तथा आर्थिक दृष्टि से वंचित समाज के बड़े वर्ग को मुख्य धारा में लाकर विकास के समान अवसर तथा यथोचित सम्मान देने के लिए शुरू की गई आरक्षण व्यवस्था भी दुर्भाग्यवश उसी बुराई का रूप ले बैठी जिसके कारण जातियों के नाम पर समाज को टुकड़ों में बांटा गया। दरअसल अनु. जाति और जनजाति के लोगों के उत्थान का उद्देश्य तो पीछे छूट गया और वोट बैंक की सियासत हावी हो गई। वरना न तो आरक्षण की व्यवस्था को लगातार बढ़ाया जाता रहता और न ही अदालतों द्वारा समय-समय पर दिये गये फैसलों को उलटने का दुस्साहस राजनीतिक बिरादरी करती। अब जबकि जातिगत वैमनस्य एवं दुर्भावना एक बार फिर राष्ट्रीय विमर्श का मुद्दा बन गई है तब देश को चलाने वाले राजनेताओं को समय रहते कोई समाधान निकालने के लिए आगे आना चाहिए। मौजूदा आरक्षण प्रणाली बुखार उतारने वाली दवा की तरह है जो बीमारी के मूल कारण का इलाज करने में समर्थ नहीं है। ये भी कहा जा सकता है कि जिस तरह चिकित्सा विज्ञान नई-नई दवाएं खोजता रहता है क्योंकि पुरानी दवाएं असर नहीं करतीं उसी तरह अब आरक्षण नामक दवा भी बेअसर होती जा रही है। यही नहीं तो उसके नुकसान भी सामने आने लगे हैं। प्रतिभावान युवाओं को धकेलकर योग्यता के पैमाने पर कमतर या फिसड्डी रहने वाले को आगे बढ़ाने का दुष्प्रभाव विभिन्न क्षेत्रों में खुलकर सामने आ रहा है। नौकरी में आरक्षण के कारण जो असंतोष दबा हुआ था वह पदोन्नति में भी आरक्षण जारी रहने की वजह से उभरकर सामने आने लगा। केन्द्र के साथ ही विभिन्न राज्य सरकारों की हालिया भूमिका से स्पष्ट है कि राजनीतिक जमात समस्या के स्थायी इलाज की बजाय तदर्थ सोच में जकड़ा हुआ है जिसकी वजह से वह सही को सही कहने की हिम्मत ही नहीं बटोर पा रहा। केन्द्र सरकार के परिवहन मंत्री नितिन गडकरी की अवश्य तारीफ करनी होगी जिन्होंने बिना लाग-लपेट के कह दिया कि जब सरकार के पास नौकरियां ही नहीं हैं तब आरक्षण से भी क्या हासिल होगा? दूसरी तरफ आरक्षित वर्ग के नेता अब निजी क्षेत्र में भी नौकरियों में आरक्षण का दबाव बनाने लगे हैं। इस उथल-पुथल के बीच ये सोचने की महती आवश्यकता है कि आरक्षण का उद्देश्य अनु. जाति/जनजाति और ओबीसी के अंतर्गत आने वालों को अपने पैरों पर खड़े होने में सक्षम बनाना था या सरकार के आश्रित रहकर याचक बनाए रखने में। बेहतर होता अच्छी शिक्षा देते हुए अंतर्निहित प्रतिभा को उभारकर उन्हें प्रतिस्पर्धा में सफल होने लायक बनाया जाता न कि कम योग्यता के बावजूद उन पर दया करते हुए हीनता का ठप्पा उनकी पीठ पर लगाने जैसी भूल होती। सामाजिक क्रांति के पवित्र उद्देश्य से प्रारंभ किया गया आरक्षण भस्मासुर बनने लगा है। इसके पहले कि यह बचे-खुचे सामाजिक सद्भाव को भी भस्म कर दे उससे मुक्ति पाना जरूरी हो गया है। इसका निदान जाति की बजाय आर्थिक स्थिति हो या कुछ और इस पर खुले रूप में विचार मंथन होना चाहिए। भारतीय मानसिकता परिवर्तन को आसानी से स्वीकार नहीं करती। सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद जाति व्यवस्था का कायम रहना इसका प्रमाण है। आरक्षण को लेकर भी यही हुआ। भले ही छुआछूत शारीरिक दृष्टि से नहीं नजर आती हो परन्तु मन के भीतर वह यथावत है इसे स्वीकार करने में कुछ भी गलत नहीं है। ये देखने के बाद अब ये जरूरी लगता है कि कोई ऐसा निर्णय लिया जाये जो अगले चुनाव के मद्देनजर न होकर अगली पीढ़ी के लिए फायदेमंद हो। यदि वोटबैंक के भय से मौजूदा व्यवस्था को ढोया जाता रहा तो ये कहते हुए डर लगता है कि देश जातीय संघर्ष के रास्ते पर बढ़ रहा है जो सांप्रदायिक दंगों से भी कहीं भयावह होगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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