Thursday 2 August 2018

सबकी निगाह वोटों की फसल पर

दो खबरें एक साथ आईं। पहली सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनु.जाति/जनजाति कानून में किये गए बदलाव को बेअसर करने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा संसद के मौजूदा सत्र में संशोधन पेश किये जाने का फैसला और दूसरी मप्र सरकार द्वारा पदोन्नति में आरक्षण पर उच्च न्यायालय द्वारा लगाई गई रोक को हटवाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में अर्जी लगाना। ये दोनों खबरें आरक्षित वर्ग से संबंधित हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में अनु. जाति/जनजाति के व्यक्ति की शिकायत पर पुलिस द्वारा किसी व्यक्ति की तत्काल गिरफ्तारी के प्रावधान को रद्द करते हुए फैसला दिया कि शिकायत की समुचित जांच उपरांत ही गिरफ्तारी की कार्रवाई हो। दूसरी तरफ मप्र उच्च न्यायालय ने सरकारी नौकरी में पदोन्नति के लिए भी आरक्षण दिए जाने की व्यवस्था पर रोक लगा दी। दोनों ही मामलों में अदालतों ने संवैधानिक प्रावधानों के साथ न्याय के मौलिक सिद्धांतों का पालन किया लेकिन बात-बात में न्यायपालिका की गरिमा और सम्मान की बात करने वाले स्वनामधन्य राजनेताओं को उक्त दोनों निर्णय नागवार गुजरे क्योंकि उनकी वजह से आरक्षण प्राप्त बहुत बड़ा वर्ग नाराज हो गया था। चूंकि हमारे देश में हर चीज का विश्लेषण वोट बैंक के आधार पर होता है इसलिये दोनों फैसले राजनीतिक जमात को नागावर गुजरने लगे। उनके विभिन्न पहलुओं का अध्ययन किये बगैर उन्हें दलित और पिछड़ा विरोधी कहा जाने लगा। गनीमत है संबंधित न्यायाधीशों पर सवर्ण मानसिकता से प्रेरित होने का आरोप नहीं लगा क्योंकि उससे अवमानना का प्रकरण बन जाता लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के सन्दर्भित फैसले को देने वाली पीठ के एक न्यायाधीश श्री गोयल को सेवा निवृत्ति के बाद हाल ही में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का अध्यक्ष नियुक्त किये जाने पर ऐतराज करते हुए उन्हें हटाने का दबाव बनाया जाने लगा जिसमें रामविलास पासवान जैसे वरिष्ठ मंत्री भी आगे आ गए। बात केंद्र सरकार से समर्थन वापिस लेने तक की होने लगी। मायावती सहित दलित वर्ग के अन्य नेता ही नहीं वरन बाकी विपक्षी पार्टियां भी मोदी सरकार को दलित विरोधी बताने में जुट गईं। यहां तक कहा जाने लगा कि सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आरक्षण समाप्त करने की दिशा में एक कदम है। इसी तरह मप्र उच्च न्यायालय द्वारा पदोन्नति में आरक्षण दिए जाने की व्यवस्था पर रोक लगाने के फैसले को भी आरक्षित वर्ग के हितों पर कुठाराघात बताकऱ शिवराज सिंह चौहान सरकार पर दबाव बनाने की मुहिम चल पड़ी। चूंकि लोकसभा और मप्र विधानसभा के चुनाव सन्निकट हैं इसलिए नरेंद्र मोदी और शिवराज सिंह दोनों को चीख-चीखकर कहना पड़ा कि वे आरक्षण बचाये रखने के लिए जान तक दे देंगे । बहरहाल दबाव काम कर गए तथा न्यायपालिका के विवेक और अधिकारों पर राजनीतिक लाभ-हानि भारी पड़ गए लेकिन एक प्रश्न जो रामविलास पासवान ने उठाया उस पर चर्चा कोई नहीं कर रहा। अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान भी श्री पासवान ने इस विषय को छेड़ते हुए बताया कि मायावती ने उप्र की मुख्यमन्त्री रहते हुए ये आदेश जारी करवाया था कि अनु.जाति/जनजाति की शिकायत पर किसी की गिरफ्तारी के पहले प्रकरण की समुचित जांच करवाई जानी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय का फैसला भी लगभग वही था। अब श्री पासवान बसपा नेत्री को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं लेकिन वे इस बारे में मुंह तक खोलने से बच रहीं हैं। जहां तक बात मप्र उच्च न्यायालय के फैसले की है तो पदोन्नति का आधार योग्यता और कार्यकुशलता की बजाय जाति होना न सिर्फ  अव्यवहारिक अपितु योग्यता की अवहेलना भी है। इसकी वजह से समाज के प्रतिभाशाली तबके में बढ़ता जा रहा असंतोष भी धीरे-धीरे सतह पर आने लगा है। लेकिन जातिगत सोच से ऊपर उठकर विचारणीय मुद्दा ये है कि पदोन्नति के लिए योग्यता को नजरअंदाज करने का परिणाम शासकीय सेवाओं की गुणवत्ता को किस हद तक प्रभावित कर रहा है ? नौकरी में योग्यता को नजरअंदाज किये जाने की वजह से उत्पन्न समस्याओं को हल करने के बजाय उन्हें और बढ़ाना किसी भी तरह से बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती। सात दशक से चली आ रही आरक्षण व्यवस्था के बावजूद भी समाज के दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के लोग यदि अब भी विकास की मुख्य धारा से दूर बने हुए हैं तो इससे साबित होता है कि ये उपाय भी अपेक्षानुसार कारगर नहीं हो सका। इसका कारण यही है कि आरक्षण का मूल उद्देश्य वंचित वर्ग का उत्थान न होकर केवल उनको वोट बैंक बनाकर रखना है। दलित, आदिवासी और पिछड़ों के नाम पर सियासत करने वाले तो सम्पन्न हो गए लेकिन उनका समर्थक वर्ग यदि अभी भी आरक्षण का मोहताज है तो इसका सीधा अर्थ यही है कि उनकी स्थिति सुधारने में आरक्षण कामयाब नहीं हो सका। पहले केवल अनु.जाति/जनजाति ही आरक्षण का लाभ लेती थीं लेकिन 1990 के बाद से मंडल आयोग की सिफारिशें मंजूर होते ही अन्य पिछड़ी जातियों के रूप में एक बड़ा वर्ग भी इस सुविधा से जुड़ गया। इसके परिणामस्वरूप आरक्षण के कोटे को लेकर बवाल मचा और तब सर्वोच्च न्यायालय ने 50 फीसदी की अधिकतम सीमा तय कर दी लेकिन तमिलनाडु जैसे राज्य उसका उल्लंघन कर रहे हैं। महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण आंदोलन से परेशान राज्य सरकार भी सर्वोच्च न्यायालय से 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण देने की अनुमति मांगने जा रही है। हरियाणा, गुजरात और राजस्थान के सामने भी यही स्थिति है। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि आरक्षण अपना मूल उद्देश्य खोता जा रहा है और बजाय दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक उत्थान का जरिया बनने के ये राजनीतिक दलों और नेताओं की दुकानदारी चमकाने का माध्यम बन चुका है। मोदी और शिवराज सरकार के मन में इस वर्ग के लिए हमदर्दी होने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं  होनी चाहिए क्योंकि उक्त वर्ग के विकास के बिना देश के सर्वतोमुखी उत्थान की कल्पना नहीं की जा सकती लेकिन केवल चुनावों की दृष्टि से उनका तुष्टीकरण किसी काम का नहीं रहेगा। मोदी सरकार जिस कानून को दोबारा प्रभावशाली बनाने के लिए संसद में संशोधन लाने जा रही है जब वह अस्तित्व में था तब भी दलितों पर अत्याचार होते थे। इसी तरह मप्र सहित पूरे देश में आरक्षण प्राप्त वर्ग के शैक्षणिक उत्थान के लिए दी गईं तमाम सुविधाओं और अवसरों के बाद भी यदि वे पदोन्नति के समय प्रतिस्पर्धा का सामना करने में सक्षम नहीं हो पा रहे तब भी उस व्यवस्था पर प्रश्न उठना लाजमी है। हाल में रामविलास पासवान इलाज हेतु विदेश गए थे क्योंकि उन्हें देश के चिकित्सकों और इलाज की सुविधाओं पर भरोसा नहीं था। इस बात को आधार मानते हुए सांकेतिक तौर पर आरक्षण की समीक्षा की जा सकती है। केवल दबाव बनाकर सरकार को झुका लेने की ये प्रवृत्ति खतरनाक स्तर तक पहुंचकर जातिगत वैमनस्य का कारण बनती जा रही है। सर्वोच्च न्यायालय के सेवा निवृत्त न्यायाधीश श्री गोयल को नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल के अध्यक्ष पद से हटाने की जिद कल श्री पासवान और उनके सांसद बेटे ने फौरन छोड़ दी ज्योंही केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के उक्त निर्णय को पलटने का फैसला सार्वजनिक किया। इससे स्पष्ट हो गया कि आरक्षण के नाम पर किस तरह की राजनीतिक ब्लैकमेलिंग हो रही है। केंद्र और मप्र सरकार जिस तरह की तत्परता इन मामलों में दिखा रही हैं अगर उतनी दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्ग के उत्थान हेतु दिखाई जाती तो आरक्षण की जरूरत कभी की खत्म हो जाती लेकिन राजनीतिक बिरादरी को सदैव ये भय सताता रहता है कि यदि समाज के सभी लोग सुशिक्षित और सम्पन्न हो गए तब उनकी नेतागिरी चौपट हो जाएगी। भाजपा जो अपने को दूसरों से अलग बताती थी वह भी आखिर जाति की राजनीति में उलझकर रह गई जिसका उद्देश्य केवल और केवल वोटों की फसल काटना है, किसी का भला करना नहीं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment