Saturday 4 August 2018

गुजराल के विधेयक को सर्वदलीय समर्थन मिले

चूंकि हमारे देश में हंगामा ही खबर बनता है इसलिए कई ऐसी महत्वपूर्ण बातें दबकर रह जाती हैं जिन पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस होनी चाहिए । गत दिवस राज्यसभा में अकाली सदस्य नरेश गुजराल ने एक निजी विधेयक पेश करते हुए मांग की है कि साल भर में संसद की कम से कम 120 बैठकें होनी चाहिए क्योंकि तमाम महत्वपूर्ण विधेयक और विषय बिना चर्चा के पड़े रह जाते हैं । बकौल श्री गुजराल अब संसद की बैठकें घटते- घटते 50 -60 दिनों में सिमटकर रह गईं हैं । उन्होंने ये भी कहा कि संसद में होने वाले हंगामे की वजह से नष्ट हो जाने वाले  समय की भरपाई के लिए आवश्यक है कि बैठकों की संख्या बढ़ाकर कम से कम 120 की जावे । पूर्व प्रधानमंत्री इंदर कुमार गुजराल के भाई होने के बावजूद  श्री गुजराल मूलतः गैर राजनैतिक व्यक्ति हैं । इसलिए ही उन्होंने दलगत राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर ऐसी बात कही जिससे देश का हर समझदार नागरिक सहमत होगा । यद्यपि इस विधेयक के पारित होने की कोई संभावना नहीं है क्योंकि मौजूदा सत्र अब समाप्ति की ओर है लेकिन उन्होंने उच्च सदन में अपने चयन को साबित तो कर ही दिया । इसमें कोई दो मत नहीं है कि संसद की छवि में गिरावट आई है । बहस का स्तर घटने की वजह से गंभीर से गंभीर विषयों पर भी समुचित विचार नहीं हो पाता जबकि जरूरी मुद्दे बिना चर्चा के ही लंबित पड़े रह जाते हैं । संसद का बीता बजट सत्र जिस तरह से हंगामे की बलि चढ़ गया उससे ये पता चल जाता है कि मोटी तनख्वाह और भत्ते पाने वाले हमारे जनप्रतिनिधि अपने कर्तव्य के  निर्वहन के प्रति कितने लापरवाह और उदासीन हैं ।  व्यर्थ के मामले उठाकर गर्भगृह में चले आने की घटनाएं पहले कभी-कभार होती थीं किन्तु अब तो  आसंदी के करीब पहुंचकर हंगामा करना मानो  रोजमर्रे का काम हो गया है । लोकसभा में जितने भी महत्वपूर्ण विषय विचारार्थ आते हैं उनमें भी शांति के साथ बहस होने के अवसर अपवादस्वरूप ही होते हैं । उस दृष्टि से देखें तो श्री गुजराल द्वारा पेश प्रस्ताव बहुत ही सामयिक , प्रासंगिक और विचारणीय है जिस पर दोनों सदनों को  विचार करते हुए कोई न कोई ठोस निर्णय ऐसा लेना चाहिए जिससे संसदीय प्रणाली की सार्थकता और उपयोगिता के प्रति जनमानस में खंडित होती जा रही आस्था पुनर्स्थापित हो सके । भले ही राजनीतिक बिरादरी न माने लेकिन देश के हर तबके के मन में  व्याप्त असन्तोष का एक कारण संसद का कामकाज ठीक से नहीं चलना भी है । पिछले दिनों लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर हुई बहस के दौरान भी सदन में अपेक्षित गम्भीरता का अभाव देखा गया । सत्ता और विपक्ष दोनों एक तरह से रस्मअदायगी करते रहे । मुख्य मुद्दों को छोड़कर अप्रासंगिक और गैर जरूरी विषयों पर हंगामा जरते हुए सदन का मूल्यवान समय बर्बाद करने के लिए कौन ज्यादा और कौन कम दोषी है इस बहस में पड़े बिना ही ये कहा जा सकता है कि  सांसदों की  रुचि भी संसदीय बहस और चर्चा में पूर्वापेक्षा बहुत घट गई है । संविधान सभा में भी यदि ऐसे ही सदस्य रहते तथा बहस के प्रति इसी तरह की उदासीनता रहती तो क्या होता ये सोचकर ही चिंता होने लगती है । ये सब देखते हुए जिस तरह विवादास्पद मुद्दों पर पूरे देश का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास होता है वैसा ही श्री गुजराल द्वारा प्रस्तुत विधेयक के संबंध में भी होना चाहिए क्योंकि 71 साल के होने जा रहे हमारे लोकतंत्र की विश्वसनीयता बनाये रखने के लिए जरूरी है कि संसद का कामकाज सुचारू रूप से चले । जरूरत तो वर्ष में 120 दिन से भी ज्यादा बैठकों की हैं लेकिन फिलहाल यदि इतनी भी अनिवार्य हो जाएं तो बहुत सा विधायी कार्य समय पर सम्पन्न किया जा सकता है जिससे देश के समक्ष विद्यमान अनेक समस्याएं भी हल करना सम्भव हो सकेगा । भले ही श्री गुजराल का विधेयक निजी तौर पर पेश हुआ हो लेकिन उसे सर्वदलीय समर्थन मिले और वह इसी लोकसभा के कार्यकाल में पारित हो जाए तो ये देश के लिए सबसे बड़ा उपहार होगा ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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