Monday 20 August 2018

इमरान : अंजाम खुदा जाने.....


पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के तौर पर नई पारी खेलने उतरे पूर्व क्रिकेटर इमरान खान ऑक्सफोर्ड विवि से शिक्षित हैं। आधुनिक सोच उनकी पहिचान रही है तथा एक कट्टर इस्लामी देश में रहने के बाद भी वे उन मूलभूत मुद्दों पर बात करते रहे हैं जो विकास एवं जनहित से जुड़े हों। बीते दो दशक से वे बतौर राजनीतिक नेता सत्ता में आने के लिए जद्दोजहद कर रहे थे। हाल ही में हुए चुनाव में उनकी पार्टी को बहुमत नहीं मिलने पर भी सबसे बड़े दल के  तौर पर उभरने की वजह से उन्हें सरकार बनाने का अवसर मिला और उन्होंने नेशनल असेम्बली में संख्याबल जुटाकर दिखाने के बाद बाकायदा पदभार ग्रहण भी कर लिया। उसके बाद प्रसारित अपने संदेश में इमरान ने पाकिस्तान को आर्थिक बदहाली से उबारने तथा आतंकवाद पर लगाम लगाने जैसी बातें कहीं। बलूचिस्तान में मचे विद्रोह की चर्चा भी उन्होंने की। देश में फैली बेरोजगारी को लेकर भी इमरान ने अपनी चिंता व्यक्त की लेकिन सबसे बड़ी बात उन्होंने ये कही कि यदि मुल्क ने अपनी दिशा और तौर-तरीके नहीं बदले तो उसकी बरबादी तय है। चुनाव प्रचार के दौरान भी इमरान ने विकास को प्रमुख मुद्दा बनाकर देश की राजनीति को नया रूप देने की कोशिश की थी। उल्लेखनीय है इमरान ने क्रिकेट से सन्यास लेने के बाद अपनी मां की स्मृति में एक अत्याधुनिक कैंसर अस्पताल बनवाकर सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश किया तथा अपनी छवि एक जनसेवक के तौर पर स्थापित भी की। हालांकि अपनी शादियों तथा रोमांस के किस्सों के चलते वे प्लेबॉय के तौर पर भी प्रसिद्ध हुए। कठमुल्लों की जमात ने तो उन्हें तवज्जो नहीं दी लेकिन आखिरकार इमरान सत्ता तक पहुंच ही गए जिसमें पाकिस्तान के उन युवा मतदाताओं की बड़ी भूमिका मानी जा रही है जो देश की बदहाली से ऊबकर बदलाव चाहते थे। कहने को तो नवाज शरीफ और भुट्टो परिवार के लोग भी इमरान की तरह से ही विदेशों में पढ़े तथा आधुनिक खयालों के हैं किन्तु लंबे समय से मुल्क की सत्ता इन्हीं दो परिवारों के इर्द-गिर्द घूमती रही। इसलिए लोगों में ये धारणा मजबूत हो गई कि पाकिस्तान की दुरावस्था के लिए शरीफ और भुट्टो परिवार ही जिम्मेदार हैं। लेकिन एक बात पूरे चुनाव और उसके बाद स्पष्ट रूप से देखने मिली कि सेना ने इमरान की ताजपोशी के लिए पूरा इन्तजाम किया। नवाज शरीफ की गिरफ्तारी से उनकी पार्टी कमजोर पड़ चुकी थी वहीं बेनजीर भुट्टो के बेटे बिलावल को पाकिस्तानी अवाम ने अपरिपक्व मानकर किनारे कर दिया। ले-देकर इमरान ही बतौर विकल्प बच रहे थे। सेना को भी ये लगा कि राजनीति के घाघ खिलाडिय़ों की बजाय इमरान पर हाथ रखना उसके लिए कहीं ज्यादा सुविधाजनक रहेगा। जहां तक बात भारत के साथ रिश्तों की है तो इमरान ने पहले वक्तव्य में बातचीत से मसला सुलझाने की इच्छा तो जाहिर की लेकिन उनकी शपथ विधि में गये पंजाब के मंत्री तथा पूर्व क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्दू को पाक अधिकृत कश्मीर के राष्ट्रपति के बगल में बिठाकर उसी धूर्तता और कुटिलता का परिचय दे दिया जो पाकिस्तान की नीति और नीयत का पर्याय है। पता नहीं इसके पीछे इमरान की सोच थी या पाकिस्तान की नौकरशाही ने जान-बूझकर श्री सिद्दू को ऐसी जगह बिठाया जिससे भारत को चिढ़ाया जा सके लेकिन इमरान को ये समझना चाहिए कि 21वीं सदी की दुनिया में 19वीं सदी की सोच से काम नहीं चलेगा। जिस इस्लामी कट्टरपन की दुहाई पाकिस्तान के हुक्मरान तथा आतंकवादी नेता देते आए हैं उसकी वजह से पूरा अरब जगत आग के मुहाने पर खड़ा हुआ है। सीरिया तबाह हो चुका है वहीं ईराक अब तक उबर नहीं सका है। तेल की दौलत पर इतराने वाला सऊदी अरब भी आने वाले खतरों को लेकर चौकन्ना हो चुका है। सबसे बड़ी बात ये है कि पाकिस्तान की जनता ने हाफिज सईद सहित अन्य आतंकवादी नेताओं द्वारा प्रायोजित प्रत्याशियों को बुरी तरह हरवाकर ये साबित कर दिया है कि कट्टरपंथियों के तमाम दावों के बाद भी पाकिस्तानी अवाम उन्हें सत्ता के गलियारों के करीब पहुंचने की अनुमति नहीं देता। यदि इमरान में तनिक भी व्यवहारिकता है तो उन्हें इस तथ्य को गंभीरता से समझना होगा। यद्यपि फौज उन्हें विकास और आधुनिकता के सपने साकार करने से रोकने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी तथा चीन भी पाकिस्तान की मजबूरियों का लाभ उठाने से बाज नहीं आयेगा किंतु यही वक्त है जब इमरान इस उपमहाद्वीप में एक नई सोच वाले नेता के रूप में उभरकर पाकिस्तान की छवि और भविष्य दोनों सुधार सकते हैं। एक बात और भी महत्वपूर्ण है कि जो जनता आतंकवादी संगठनों के उम्मीदवारों को थोक के भाव हरा सकती है वह जरूरत पडऩे पर सेना के दबाव से भी सत्ता को मुक्त करने आगे आ सकती है। चुनाव के दौरान पाकिस्तानी समाचार माध्यमों में भारत में चल रहे विकास के एजेंडे की खूब चर्चा हुई। आतंकवाद के कारण देश की छवि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खराब होना भी मुद्दा बना। यहां तक कि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से तुलना करते हुए वहां के नेताओं को निकम्मा तक ठहराया गया लेकिन इमरान के पास पूर्ण बहुमत नहीं होने के कारण वे मजबूत की बजाय मजबूर प्रधानमंत्री हो सकते हैं। एक तरफ सहयोगी दल जहां उन्हें दबायेंगे वहीं राजनीतिक अस्थिरता की आड़ में सेना भी भयभीत करती रहेगी। भारत के साथ सीमा पर तनाव बनाए रखते हुए पाकिस्तानी सत्ताधीश अपनी जनता का भावनात्मक शोषण करते आए हैं। कश्मीर में आतंकवाद को प्रश्रय देकर आतंकवादी संगठनों को खुश करने की कोशिश भी होती रही है लेकिन इसके कारण मुल्क के अंदरूनी हालात बुरी तरह से खराब होते गए। बलूचिस्तान के लोग विद्रोह पर उतारू हैं। देर सबेर पृथक सिंध की दबी हुई चिंगारी भी भड़क सकती है। सबसे बड़ी बात अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को पहले सरीखी खैरात न दिया जाना है। जिसकी वजह से उसकी माली हालत दिन ब दिन बिगड़ती जा रही है। जैसे संकेत मिल रहे हैं उनके मुताबिक चीन की अर्थव्यवस्था भी डॉवाडोल होने लगी है, क्योंकि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की आक्रामक नीतियों के कारण चीन भारी दबाव में आ गया है। ये सब देखते हुए इमरान खान के सामने चुनौतियों के पहाड़ खड़े हुए हैं। पूर्ण बहुमत मिलने पर वे शायद बहुत कुछ कर सकते थे किन्तु एक लंगड़ी सरकार का नेतृत्व तथा सत्ता संचालन में अनुभवहीनता के चलते उनमें वह पैनापन नहीं रहेगा जो क्रिकेट खेलते समय बतौर तेज गेंदबाज उनकी गेंदों में रहा करता था। बहरहाल भारत को इमरान की इस नई भूमिका पर सतत निगाह रखनी पड़ेगी क्योंकि अपनी निजी जिंदगी में चलते रहे अस्थायित्व की तरह सत्ता-सुंदरी के साथ उनका गठबंधन कितना स्थायी रहेगा ये कहना मुश्किल है। और फिर पाकिस्तान की सत्ता में होने वाली हर छोटी-बड़ी हलचल से हमारे हित प्रभावित होते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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