Thursday 23 August 2018

कुलदीप नैयर : दो सदियों के गवाह

वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार कुलदीप नैयर नहीं रहे । 95 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया । वे पत्रकारों की उस पीढ़ी के सदस्य थे जिसने अपनी युवावस्था में देश का विभाजन खुली आँखों से देखा और उसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव सदैव उन पर बना रहा । उच्च शैक्षणिक योग्यता से सम्पन्न स्व.नैयर ने अनेक पुस्तकें लिखीं जो आज के पत्रकारों के लिए पठनीय हैं क्योंकि उनमें उनके निजी अनुभवों के साथ विख्यात व्यक्तित्वों से जुड़ी वे बातें भी हैं जिनका देश की राजनीति से गहरा सम्बन्ध रहा । नेहरू सरकार के गृहमंत्री रहे स्व.लालबहादुर शास्त्री के प्रेस सलाहकार रहते हुए स्व.नैयर ने उनसे नेहरू के बाद कौन जैसा प्रश्न  पूछा तब शास्त्री जी ने जवाब दिया था कि उनके दिमाग में तो सिर्फ  उनकी लड़की (इंदिरा) ही हैं । इस वार्तालाप को कुलदीप जी ने अपनी एक चर्चित पुस्तक में उद्धृत भी किया था । शायद यही वजह रही कि आपातकाल के विरोध के कारण इंदिरा जी ने उन्हें जेल भेज दिया किन्तु वे डरे नहीं और मीसा कानून के विरुद्ध अदालत में जोरदार लड़ाई लड़ी। अनेक प्रतिष्ठित अखबारों के सम्पादक रहने के बाद वे बतौर स्तम्भ लेखक सक्रिय रहे । लंदन में भारत के उच्चायुक्त और राज्यसभा के नामांकित सदस्य के रूप में भी उन्होंने अपनी सेवाएं दीं । भारत-पाकिस्तान के संबंधों को सुधारने के लिए उन्होंने खूब कोशिशें कीं। 15 अगस्त को वाघा चौकी पर मैत्री स्वरूप मोमबत्तियां जलाने वाले आयोजन के वे सूत्रधार रहे किन्तु जीवन के अंतिम दौर में स्व.नैयर पत्रकारीय स्वतंत्रता से अलग वैचारिक भटकाव में फंस गए जिससे उनकी निर्विवाद स्वीकार्यता प्रभावित हुई लेकिन एक निर्भीक पत्रकार और विद्वान लेखक के रूप में उनका सम्मान सदैव बना रहा । उनके अवसान से पत्रकारिता जगत की बड़ी हस्ती चली गई । कुलदीप नैयर ने आज़ादी के 25 बरस पहले जन्म लिया और आज़ादी के 70 बरस  बाद तक जीवित रहे । इस प्रकार वे बीसवीं और इक्कीसवीं सदी के बेहद महत्वपूर्ण दौर के साक्षी रहे । युवा पत्रकारों को स्व.नैयर के व्यक्तित्व और कृतित्व का अध्ययन करना चाहिए क्योंकि वे उस पीढ़ी के प्रतिनिधि थे जिसने महात्मा गांधी से लेकर राहुल गाँधी , डॉ राममनोहर लोहिया से लेकर अखिलेश यादव, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी से लेकर नरेंद्र मोदी और मोहम्मद अली जिन्ना से लेकर असदुद्दीन ओवैसी तक को देखा । 1947 में पाकिस्तान बनने और 1971 में उससे बांग्ला देश के अलग होने का दौर भी उनकी आंखों के सामने से गुजरा । इस आधार पर वे लगभग एक सदी के हालातों के गवाह रहे । उनका निधन एक मूर्धन्य पत्रकार के साथ देश के अतीत से जुड़े एक ऐसे बुजुर्ग का उठ जाना है जिसके पास सुनाने और बताने को बहुत कुछ था । विनम्र श्रद्धांजलि ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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