Thursday 30 August 2018

कुप्रबंधन का शिकार हो गई नोटबंदी

कुशल प्रबंधन के अभाव में कोई भी अच्छी योजना या काम किस तरह उद्देश्य से भटक जाता है उसका सबसे बड़ा उदाहरण हाल ही के वर्षों में देखना हो तो वह थी 8 नवंबर 2016 की आधी रात लागू हुई नोटबंदी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित पूरी भाजपा उसे आज भी अपना मास्टर स्ट्रोक मानती है और शुरु में वैसा लगा भी था। 500 और 1000 रु. के करेंसी नोटों को अचानक बंद करने का फैसला आसान नहीं था। जिस तरह की गोपनीयता उच्चस्तर पर बरती गई वह भी बड़ी बात रही। प्रारंभिक तौर पर बिना कहे जो समझाया गया उसके अनुसार नोटबंदी के पीछे सबसे बड़ा उद्देश्य कालेधन पर अंकुश लगाने का था। दूसरा आतंकवादियों को मिलने वाली मदद रोकना, तीसरा नकली नोटों पर रोकथाम तथा अंत में नगद लेन-देन में कमी लाकर डिजिटल को बढ़ावा देना। कोई भी समझदार व्यक्ति उक्त चारों में से किसी को भी गलत नहीं बता सकता। कालेधन पर अंकुश मोदी सरकार की प्राथमिकता थी तथा पहले दिन से ही उसने उस दिशा में कदम भी बढ़ाये। इसी तरह ये बात भी सही थी कि आतंकवादियों को विदेशों से हवाला के जरिये पैसा उपलब्ध करवाया जाता था। नकली नोटों के चलन की समस्या भी बढ़ती जा रही थी। इन तीनों उद्देश्यों को पूरा करने के लिए डिजिटल लेन-देन एक सार्थक उपाय था क्योंकि कालेधन का समूचा कारोबार नगदी में ही होता है। प्रधानमंत्री का सोचना था कि उस एक तीर से वे सारे निशाने लगा लेंगे। ये तो सर्वविदित था कि कालाधन बड़े नोटों के रूप में ही लोगों के पास था। अचानक उन्हें बंद करने से काली कमाई वालों में हड़कम्प मच गया क्योंकि उन्हें बदलना आसान नहीं था। आतंकवादियों को मिलने वाली आर्थिक सहायता पर भी कुछ समय के लिए ही सही, नियंत्रण तो लगा। एक बात जो उस दौरान अधिकृत तौर पर तो नहीं कही गई किन्तु चर्चा में रही कि खुफिया सूत्रों के मुताबिक चीन और पाकिस्तान द्वारा बहुत बड़ी मात्रा में 500 और 1000 के नकली नोट भारत में भेजे जाने वाले थे। जिसकी भनक लगते ही प्रधानमंत्री ने ताबड़तोड़ फैसला लिया। जहां तक बात डिजिटल लेन-देन को बढ़ावा देने की थी तो निश्चित रूप से बाजार में नगदी का अभाव हो जाने से लोग इस हेतु पे्ररित भी हुए और बाध्य भी। बीते 22 महीनों में भले ही नगदी में लेन-देन संबंधी लक्ष्य पूरी तरह हासिल न हो सका हो परन्तु उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि तो हो ही रही है। गत दिवस रिजर्व बैंक ने अधिकृत तौर पर वे आंकड़े जारी कर दिये जिन्हें उजागर करने के लिए विपक्ष लगातार दबाव बना रहा था। मशीनी युग में रिजर्व बैंक को वापिस आए नोट गिनने में लगभग दो वर्ष लग गये जो निश्चित रूप से रहस्यमय लगता है और इसीलिए सरकार को कटघरे में खड़ा किया जाता रहा। अपनी वार्षिक रिपोर्ट में रिजर्व बैंक ने जो आंकड़े दिये उनके अनुसार नोटबंदी के बाद 99.3 फीसदी प्रतिबंधित नोट वापिस आ गये। इसका सीधा अर्थ ये हुआ कि जिस कालेधन के डूब जाने की प्रत्याशा थी वह घूम-फिरकर सफेद हो गया। इस आधार पर उस कदम का पहला मकसद ही फुस्स होकर रह गया। उक्त रिपोर्ट आते ही विपक्ष सरकार पर चढ़ बैठा। प्रधानमंत्री से स्तीफा मांगा जाने लगा। सोशल मीडिया पर भी खूब आलोचनाएं हुईं। चूंकि नोटबंदी से हर वर्ग को अकल्पनीय मुसीबतों का सामना करना पड़ा। इसलिए निश्चित रूप से उसकी विफलता पर उस दौर से गुजरे हर व्यक्ति के मन में नाराजगी है तथा प्रधानमंत्री के उस निर्णय के औचित्य पर उठ रहे प्रश्न बेमानी नहीं हैं किंतु ये कहना कि नोटबंदी अनावश्यक तथा जल्दबाजी में उठाया कदम था पूरी तरह सही नहीं होगा। यदि वह अपेक्षाानुसार सफल नहीं रही तो उसकी वजह सरकार का दबाव में आ जाना तथा बैंकिंग उद्योग द्वारा की गई गड़बड़ी थी। समाचार माध्यमों के जरिये जनता की तकलीफों के दृश्य दिखाए जाने से सरकार घबरा गई और उसने नोट बदलने की अवधि में जिस तरह वृद्धि की उसने सारा गुड़-गोबर कर दिया। सरकारी भुगतान (बिजली, टेलीफोन बिल, स्थानीय निकायों के कर) में प्रतिबंधित नोटों के प्रचलन में सीमित अवधि के लिए दी गई छूट तो युक्तिसंगत थी किन्तु पेट्रोल पंपों के जरिये जिस तरह से कालाधन बैंकों में आया वह अभूतपूर्व था। 8 और 9 नवम्बर की दरम्यानी रात स्वर्ण आभूषणों के शोरूम खोलने की अनुमति देना भी निरी मूर्खता थी। राष्ट्रीयकृत बैंकों में एक व्यक्ति को 4 हजार तक प्रतिबंधित नोट बदलने की सुविधा का किस तरह दुरुपयोग हुआ वह भी किसी से छिपा नहीं रह सका। दिहाड़ी मजदूरों को पैसा देकर दिन-दिन भर खड़ा रखा गया जिसकी तस्वीरें देख जनता का गुस्सा बढ़ता गया। सरकार ने बिना नये नोट छापे पुराने बंद कर दिये ये आरोप व्यवहारिक नहीं है क्योंकि ऐसा होने पर तो अचानक नोटबंदी का अर्थ ही नहीं जाता। सही बात तो ये है कि जिस दृढ़ता का परिचय प्रधानमंत्री ने अपना निर्णय लागू करते समय दिया वे उस पर बाद में कायम नहीं रह सके तथा लोगों के गुस्से से बचने के लिए रियायतें और मोहलतें देते गए जिसका लाभ उन लोगों ने उठा लिया जिनके पास वाकई काला धन था। इसमें कोई दो मत नहीं है कि नोटबंदी ने भारतीय अर्थ व्यवस्था में भूकंप ला दिया। उसका असर आज तक दिख रहा है। लंबे समय तक कारोबार ठप्प रहा। लोग अपने ही पैसे का उपयोग करने को तरस गए। शादी-ब्याह तथा अस्पताल में इलाज कराने तक में दिक्कतें गईं। ये कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि समूचा आर्थिक प्रबंधन लकवाग्रस्त होकर रह गया। चूंकि उस कदम के पीछे की कई बातें अब तक सामने नहीं आ सकी हैं और शायद आगे भी न आएं इसलिए नोटबंदी की विफलता अथवा सफलता का सही विश्लेषण करना कठिन ही है परन्तु उसका प्रत्यक्ष परिणाम ये जरूर हुआ कि जमीन-जायजाद का जो कारोबार समानांतर अर्थव्यवस्था के तौर पर कालेधन के बलबूते चल रहा था वह काफी हद तक रुक गया। कालाधन सफेद में बदल जाने का एक और लाभ ये भी हुआ कि आयकर दाताओं की संख्या बढ़ी तथा प्रत्यक्ष कर की वसूली में भी वृद्धि हुई। नोटबंदी रूपी दु:स्वप्न से देश धीरे-धीरे ही सही लेकिन उबर चुका है। लेकिन अपने उस अच्छे कदम के औचित्य को सिद्ध करने के लिए सरकार के पास जो तर्क हैं वे बौद्धिक स्तर पर तो भले ही स्वीकार कर लिये जावें किन्तु आम नागरिक तथा कारोबारी के गले उतरना संभव नहीं है। यही वजह है कि नेक उद्देश्य से उठाया गया एक कदम सरकार की बदनामी और विफलता का कारण बन गया। भले ही उसके बाद उ.प्र. और उत्तराखंड के चुनाव में भाजपा को उल्लेखनीय जीत हासिल हो गई लेकिन केवल चुनावी सफलता ही किसी नीति की सार्थकता का मापदंड नहीं हो सकती क्योंकि अधिकांश मतदाता अर्थशास्त्र की तकनीकी जानकारी से अनभिज्ञ रहते हैं। रिजर्व बैंक की रिपोर्ट से सामने आई जानकारी के आधार पर विपक्ष द्वारा सरकार पर किये जा रहे हमले अपनी जगह सही हैं। प्रधानमंत्री को स्तीफा देने की जरूरत तो नहीं है किन्तु उन्हें ये तो स्वीकार कर ही लेना चाहिए कि नोटबंदी को लागू करने में उनकी सरकार प्रबंधन के मोर्चे पर पूरी तरह विफल रही है। अपनी सफलताओं पर अपने हाथों अपनी पीठ ठोंकने वाले प्रधानमंत्री को अपनी उन गल्तियों को भी स्वीकार करने में पीछे नहीं हटना चाहिए जिनसे जनता को बेतहाशा परेशानियांं उठाना पड़ीं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment