Tuesday 28 August 2018

साथ बैठने से कटुता खत्म न सही कम तो होगी

हाल ही में दिल्ली में स्व.अटल बिहारी वाजपेयी के निधन पर आयोजित सर्वदलीय शोकसभा में लगभग सभी दलों के शीर्ष नेताओं ने उपस्थित होकर दिवंगत नेता के प्रति श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए जो विचार व्यक्त किये उनका सार ये था कि अटल जी अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के बावजूद सभी दलों के लोगों के साथ आत्मीय संबंध रखते थे और इसी कारण उन्हें अजातशत्रु जैसा सम्मानजनक सम्बोधन प्राप्त हुआ। कांग्रेस नेता गुलामनबी आज़ाद ने तो यहां तक कहा कि जीवन भर सभी को साथ लेकर चलने वाले वाजपेयी जी ने मृत्यु उपरांत भी सभी को एक कर दिया। उन्होंने ये कहने में भी कोई संकोच नहीं किया कि ऐसी शोकसभा उन्होंने पहले कभी नहीं देखी। सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी तक ने पूर्व प्रधानमंत्री के बारे में कहा कि वे अपनी बात कहते और हमारी सुनते थे। कहने का आशय ये है कि अटल जी की निर्विवाद लोकप्रियता और सम्मान का कारण उनका सभी से संपर्क और संवाद बनाए रखना था। लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान भाषण के बाद राहुल गांधी ने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के पास जाकर उनके गले से लिपट जाने के पीछे राजनीतिक नफरत मिटाने का संकेत दिया अपितु कुछ क्षण बाद ही अपने बगल में बैठे ज्योतिरादित्य सिंधिया को आंख मारकर उन्होंने अपने कृत्य की गम्भीरता नष्ट कर दी। उसके बाद गत सप्ताह जर्मनी और ब्रिटेन की यात्रा के दौरान रास्वसंघ पर तीखे आरोप लगाकर तनातनी फिर बढ़ा दी। लेकिन गत दिवस खबर आई कि सितंबर माह में दिल्ली के विज्ञान भवन में रास्वसंघ द्वारा दो दिवसीय संवाद कार्यक्रम आयोजित किया जाने वाला है जिसमें राहुल और श्री येचुरी सहित विभिन्न दलों के नेताओं को आमंत्रित किया जाएगा। यद्यपि उसमें भाषण संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत का ही होगा किन्तु आमंत्रित नेता उनसे प्रश्न पूछ सकेंगे। संघ की ओर से कहा गया है कि उक्त कार्यक्रम का खुला आमंत्रण सभी दलों को दिया जावेगा जिसके पीछे उद्देश्य संघ के प्रति उनके मन में व्याप्त गलतफहमियों को दूर कर स्वस्थ संवाद की प्रक्रिया को शुरू करना है। वैसे इसे संघ द्वारा कुछ माह पहले पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और हाल ही में सुप्रसिद्ध उद्योगपति रतन टाटा को आमंत्रित करने की अगली कड़ी के तौर पर देखा जा रहा है जिसके जरिये संघ विरोधी विचारधारा के प्रमुख लोगों से संवाद बढ़ाने का प्रयास कर रहा है। राहुल इस निमन्त्रण को स्वीकारेंगे या नहीं ये अभी स्पष्ट नहीं है। सीताराम येचुरी की तरफ  से भी प्रतिक्रिया आनी शेष है। लेकिन यदि ऐसा होता है तो इसे एक शुभ शुरुवात कहा जाना चाहिए क्योंकि देश में सियासत ही नहीं अपितु सार्वजनिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वैचारिक मतभेद व्यक्तिगत शत्रुता का रूप लेते जा रहे हैं। देश के भीतर ही नहीं वरन विदेशों में जाकर भी राजनीतिक वैमनस्यता का प्रगटीकरण खुलकर होने लगा है। राहुल की हालिया विदेश यात्राओं में उन्होंने जिस तरह के आरोप भाजपा और संघ पर लगाए उनसे ये बात साबित हो गई। उधर कांग्रेस प्रधानमंत्री पर भी विदेशी दौरों में कांग्रेस के शासनकाल की आलोचना करने का आरोप लगाती रही है। यद्यपि राहुल ने पहले भी विदेशी धरती पर मोदी सरकार की तीखी आलोचना की किन्तु जर्मनी और ब्रिटेन में बीते हफ्ते उन्होंने रास्वसंघ पर भी निशाना साधा जिसके बाद सम्भवत: संघ ने उन्हें अपने आयोजन में बुलाने का दांव चल दिया। उल्लेखनीय है प्रणब मुखर्जी के संघ के मंच पर जाने पर कांग्रेस के कई नेताओं ने उनकी आलोचना की थी। उस दृष्टि से श्री गाँधी संघ के निमंत्रण का क्या करेंगे ये देखने वाली बात होगी क्योंकि वे नहीं जाते तब उन पर छुआछूत करने का आरोप लग जायेगा और जाने पर रास्वसंघ के विरोध में बोलने के पहले सौ बार सोचने  की मजबूरी आ खड़ी हो जाएगी। कुल मिलाकर संघ ने एक सुविचारित योजना के अंतर्गत ऐसा करने का निर्णय लिया जिससे वह अपने सबसे कटु आलोचकों को साथ बिठाकर अपनी बात कह सके। अब जरा अलग हटकर देखें तब ये लगता है कि संघ जो सोचकर भी ये कदम बढ़ा रहा हो लेकिन ये राजनीतिक ही नहीं अन्य क्षेत्रों में भी शत्रुता के वर्तमान वातावरण को मिटाकर आपसी समझ को बढ़ावा देने में सहायक होगा जो सही अर्थों में देश की सर्वोच्च जरूरत है। संवाद और संपर्क के अभाव में तमाम ऐसी समस्याएं उलझी पड़ी हैं जिनसे देश का बहुत नुकसान हो रहा है। वोटों की राजनीति जिस स्तर तक जा पहुंची है उसने सभी राजनीतिक दलों को बुरी तरह फंसा दिया है। चाहकर भी सच बोलने का साहस कोई नहीं कर पा रहा। विभिन्न पार्टियों के बीच यद्यपि गठबंधन होते हैं किंतु उनका मकसद केवल चुनाव जीतना रह गया है। ऐसे में यदि आपसी संवाद और संपर्क का सिलसिला रास्वसंघ शुरू करने की सोच रहा है तो इसे सकारात्मक तौर पर देखा जाना ही उचित रहेगा। बेहतर हो अन्य राजनीतिक एवं जाति आधारित संगठन भी ऐसा ही करने की कोशिश करें। एक दूसरे को समझने से कटुता पूरी तरह  खत्म भले न हो लेकिन कम तो होती ही है। कम से कम अपने विरोधी को कुछ हद तक बर्दाश्त करने की सौजन्यता तो पनपती है। संघ द्वारा प्रणब मुखर्जी और रतन टाटा को अपने बीच बुलाकर जो पहल की उसे आगे बढ़ाने का उसका प्रयास हर दृष्टि से स्वागतयोग्य और देशहित में है। टुकड़ों-टुकड़ों में बंटे अच्छे विचार यदि एक साथ आयें तो उससे निकलने वाली सामूहिक सोच अनेक ऐसी समस्याओं का समाधान कर सकती है जो नासूर बन गईं हैं। जाति, प्रांत, भाषा के झगड़ों ने देश को जो नुकसान पहुंचाया उसकी भरपाई तभी सम्भव है जब केवल चुनावी लाभ-हानि से ऊपर उठकर भी विचार हो। रास्वसंघ यदि आमंत्रण देता है तो राहुल और सीताराम सहित सभी आमंत्रितों को जाना चाहिए क्योंकि इससे कुछ हो न हो कड़वाहट तो घटेगी ही। जब घोर विरोधी विचारधारा वाले संगठन क्षणिक लाभ के लिए एकजुट हो सकते हैं तब देश के दूरगामी हितों की खातिर रास्वसंघ के साथ संपर्क और संवाद से भी किसी को परहेज नहीं होना चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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