Saturday 30 December 2017

विधायक को चांटा : सर्दी में भी गर्मी का एहसास

गत दिवस शिमला में जो हुआ उसे अपवाद स्वरूप मानकर उपेक्षित कर देना ठीक नहीं होगा । हिमाचल प्रदेश में  कांग्रेस की पराजय का विश्लेषण करने पहुंचे पार्टी अध्यक्ष राहुल गाँधी के कार्यक्रम में धक्का-मुक्की के माहौल में पहुंची डलहौजी की महिला विधायक आशा कुमारी को भीतर जाने से रोकने पर उन्होनें महिला कांस्टेबल को थप्पड़ रसीद कर दिया । यहीं तक बात सीमित रहती तब तक भी ठीक था लेकिन महिला कांस्टेबल ने भी एक थप्पड़ खाने के बाद दूसरा गाल आगे करने के गांधीवादी तरीके की बजाय जैसे को तैसा जैसा का उदाहरण पेश करते हुए तत्काल उधारी चुका दी और विधायक जी को  जवाबी तमाचा लगाकर शिमला की सर्दी में भी गर्मी का एहसास करवा दिया । एक अदना सी महिला कांस्टेबल माननीय विधायक जी की शान में गुस्ताखी कर जाए ये मामूली बात नहीं होती । लोकतंत्र के ये नये सामन्त ही तो देश के असली मालिक बन बैठे हैं । लेकिन बुरा हो इन मोबाइल कैमरों का जिन्होंने थप्पड़ के आदान-प्रदान का पूरा दृश्य पलक झपकते पूरे देश को दिखा दिया । अब चूंकि हिमाचल की सरकार भी बदल गई है इसलिए विधायक जी पहले जैसा तुर्रा नहीं दिखा सकीं और मौके की नजाकत को भांपते हुए राहुल ने भी उन्हें कांग्रेस की संस्कृति का हवाला देते हुए कांस्टेबल से क्षमा याचना का आदेश दिया । चांटे के जवाब में चांटा खा चुकी विधायक जी के पास जब कोई और चारा नहीं बचा तो उन्होनें दिल पर पत्थर रख़कर उस महिला कांस्टेबल से अपनी विधायकगिरी हेतु माफी मांग ली । विधायक को चांटा मारने के एवज में चांटा जडऩे पर राज्य सरकार कांस्टेबल पर क्या कार्रवाई करेगी ये तो पता नहीं चला लेकिन इस छोटी से घटना से भविष्य की कई पटकथाएं तैयार हो गईं । वर्दीधारी ने चुनी हुई विधायक को सरे आम थप्पड़ मारकर बेशक अनुशासनहीनता दिखाई किन्तु उसके पूर्व विधायक द्वारा जो व्यवहार किया गया वह उससे कई गुना आपत्तिजनक और घटिया था । राहुल गांधी की प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने प्रकरण को बड़ी ही चतुराई से निपटा दिया वरना इससे पार्टी की भी बदनामी होती । बहरहाल विधायक जी की ये सफाई हास्यास्पद है कि वे राजपूत हैं इसलिए उनका खून कांस्टेबल द्वारा उन्हें  आयोजन के प्रवेश द्वार पर रोके जाने से खौल गया और उसी जातिगत संस्कार ने उन्हें वैसा करने उकसा दिया । ज़ाहिर है राहुल दबाव न डालते तब विधायक जी कभी भी माफी न मांगतीं , उल्टे बेचारी कांस्टेबल नप जाती लेकिन श्री गांधी को भी धीरे-धीरे ये समझ आती रही है कि सामन्ती सोच अब गुजरे जमाने की चीज रह गई है । समय के साथ राजनेताओं का सम्मान भी पहले जैसा नहीं रहा । निश्चित तौर पर वे विशिष्ट होते हैं किंतु महामानव कदापि नहीं। यही वजह है कि देश भर से आए दिन उनके अमर्यादित व्यवहार पर हल्ला मचने की खबरें आया करती हैं। कभी विमान में तो कहीं ट्रेन में राजसी सत्कार की उम्मीद पूरी न होने पर विधायक और सांसदों द्वारा किये जाने वाले उत्पात पर उनकी जिस तरह खिंचाई होने लगी है वह इस बात का संकेत है कि अब निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को भगवान मानने वाली अवधारणा लुप्त हो रही है और उनकी उल्टी सीधी हरकतों को हाथ जोड़कर बर्दाश्त करने की बजाय उन पर हाथ उठाने का दुस्साहस सामने आने लगा है । शिमला में जो हुआ उसे किसी पार्टी से जोडऩे की जगह व्यापक परिदृश्य के रूप में देखा जाए तो ये उस मामूली सी महिला कांस्टेबल के आहत स्वाभिमान का जीवंत प्रगटीकरण ही था । जनप्रतिनिधियों के भीतर पनपने वाले श्रेष्ठता के अहंकार को दूर करने का काम यदि उनके नेता नहीं करेंगे तो जनता कर देगी ये शिमला के उस प्रसंग ने बता दिया । इसका ये अर्थ नहीं कि पुलिस वालों को सांसद-विधायकों पर हाथ उठाने की छूट मिल गई है किंतु इतना तो कहा ही जा सकता है कि विधायक जी का राजपूती खून यदि अपनी तौहीन सहन नहीं कर सका तो पुलिस की वर्दी पहिनकर कानून व्यवस्था लागू करने के काम में लगी उस महिला कांस्टेबल के खून को पानी मानने की मानसिकता भी बदलनी चाहिये । उक्त घटना को मील का पत्थर या आदर्श भले न माना जाए किन्तु वह समाज की बदलती सोच और व्यवस्था के प्रति आक्रोश की अभिव्यक्ति तो कही ही जा सकती है। गऩीमत है एक दूसरे को थप्पड़ मारने वाली दोनों महिलाएं ही थीं । खुदा न खास्ता किसी पुरुष विधायक को महिला कांस्टेबल पीट देती तब और भी किरकिरी हो जाती । समय आ गया है जब सभी पार्टियां अपने निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को शुद्ध हिंदी में समझा दें कि चुनाव जीतने का अर्थ ये नहीं कि वे सर्वशक्तिमान हो गए हैं ।  21 वीं सदी का देश और नई पीढ़ी इन जनप्रतिनिधियों के सम्मान के प्रति पूरी तरह सजग है किंतु ये तभी सम्भव हो पायेगा जब वे भी अपने पांव ज़मीन पर रखें। जनता का अपमान करने की ठसक के बदले उन्हें भी वही नसीब होगा जो गत दिवस हिमाचल की महिला विधायक महोदया को हासिल हुआ ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

अक्षम्य अपराध है मुंबई हादसा

मुम्बई एक अंतरराष्ट्रीय नगर है। देश की व्यावसायिक राजधानी की हैसियत भी इसे हासिल है। ज़ाहिर है ऐसे महानगर में सारी व्यवस्थाएं नियमानुसार होनी चाहिए लेकिन गत दिवस एक चार मंजिला इमारत की छत पर बने पब में लगी आग ने 14 लोगों को मौत के मुंह में धकेल दिया। खुली छत पर शेड डालकर चलाए जा रहे इस पाश्चात्य संस्कृति के आमोद प्रमोद के स्थान पर आग लगने का एक कारण हुक्का पार्लर बताया जा रहा है। आग लगते ही अनेक महिलाओं को सुरक्षा हेतु बाथरूम में बंद किया गया किन्तु वहां हवा का कोई रास्ता न होने से वे सब धुएं में घुटकर दम तोड़ बैठीं। उन्हें बचाने गए कुछ पुरुष भी हादसे का शिकार हो गए। मरने वालों में कुछ अप्रवासी भारतीय भी हैं जो नववर्ष मनाने देश आए थे। घटना की गूंज पूरे देश में हो गई। मुंबई महानगरपालिका पर हमला तेज हो गया। अवैध रूप से चल रहे पब के संचालन की अनुमति थी या नहीं ये साफ  नहीं हो पा रहा। लेकिन महानगरपालिका के कुछ लोग निलम्बित किये गए । मुख्यमंत्री ने जांच के आदेश देने में देर नहीं लगाई। फायर सेफ्टी , हुक्का पार्लर और भवन की छत पर अस्थायी शेड  के नाम पर स्थायी निर्माण जैसी बातें उठ रही हैं। महानगरपालिका के अलावा पुलिस और स्थानीय प्रशासन ने नियम विरुद्ध संचालित उक्त पब का संज्ञान क्यों नहीं लिया ये भी जांच का विषय है। कुल मिलाकर समझ ये आता है शासन-प्रशासन नामक व्यवस्था या तो बिक चुकी है या पूरी तरह निकम्मी हो गई है।। मुंबई में इस तरह के बार, क्लब,और पब अनगिनत हैं। रईसों की औलादों की मौजूदगी यहां आम होती है। मनोरंजन के अलावा ये जगहें व्यवसायिक सौदों के लिए भी उपयोग आती हैं किन्तु सबसे ज्यादा ये शराब, शबाब और कबाब के दीवानों की पसंदीदा होती हैं। महानगरों में बढ़ते व्यभिचार को भी इस तरह के अड्डे संरक्षण देते हैं। गत दिवस जो हुआ उसका असली कारण तो जांच से ही पता चलेगा बशर्ते वह ईमानदारी से की जाए वरना अब तक तो पुलिस और प्रशासन पर चौतरफा दबाव आ गए होंगे। इन अड्डों पर बड़े बड़े लोगों का वरदहस्त होने से पुलिस भी उनकी अनदेखी करती है। बताया जाता है कि पब का मालिक मशहूर गायक शंकर महादेवन का बेटा है। हो सकता है वे अपने पैसे और प्रभाव का उपयोग करते हुए मामला रफा-दफा करवा दें लेकिन मुंबई सदृश महानगर में इस तरह के हादसे किसी भी तरह से अक्षम्य हैं जिसके लिए जिम्मेदार व्यक्ति को बख्शा नहीं जाना चाहिए, फिर चाहे वह कोई भी हो। इंसान को कीड़े मकोड़े समझने की प्रवृत्ति खत्म करना जरूरी है। मुआवजे से किसी मनुष्य की भरपाई नहीं होती।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 29 December 2017

शाह बानो वाली गलती दोहराने से बचे कांग्रेस

लोकसभा में तीन तलाक़ को दण्डनीय अपराध बनाने वाले  विधेयक के पारित होने के बाद भी उसके कानून बनने में अभी राज्यसभा रूपी बाधा है, जहां विपक्ष संख्याबल में भारी पड़ता है। यद्यपि कांग्रेस ने तीन तलाक़ पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का स्वागत किया और उसके परिप्रेक्ष्य में बनाए जाने वाले कानून पर भी रजामन्दी दी किन्तु विधेयक को और असरदार बनाने के नाम पर उसने और अन्य विपक्षी दलों ने विधेयक के कुछ पहलुओं को अव्यवहारिक मानते हुए सदन की प्रवर समिति के पास विचारार्थ भेजने की रट लगाई। सत्ता पक्ष जान रहा था कि कांग्रेस विधेयक को टांगे रखना चाहती है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के ऐलानिया विरोध को देखते हुए भी पार्टी को लगा कि विधेयक को जस का तस पारित करवाने से वह मुस्लिम पुरुषों की नाराजगी का पात्र बन जाएगी जबकि मुस्लिम महिलाओं की सहानुभूति और समर्थन भाजपा में चला जाएगा जिसकी चर्चा उप्र विधानसभा चुनाव में भी सुनी गई थी। लोकसभा में सरकार ने तयशुदा रणनीति के तहत विदेश राज्यमंत्री एम जे अकबर को विधेयक के पक्ष में बोलने खड़ा किया जिन्होंने शरीया को कानून की बजाय जीने का तरीका बताया और ये भी कहा कि पवित्र कुरान में शरीया का जि़क्र केवल एक जगह है। उन्होंने इस्लाम को खतरे में बताने वालों की भी जमकर बखिया उधेड़ी। विधेयक पर सबसे मुखर विरोध था असदुद्दीन ओवैसी का किन्तु उनके सभी संशोधन भारी बहुमत से अस्वीकार कर दिए गए और अंतत: विधेयक एक-दो मतों के औपचारिक विरोध के बाद आसानी से पारित हो गया। विभिन्न दलों के सांसदों ने विधेयक की मूल भावना से सहमति जताते हुए तीन तलाक़ देने वाले मुस्लिम मर्द को जेल भेजने जैसे प्रावधान की व्यवहारिता पर सवाल उठाते हुए कहा ऐसा होने पर प्रभावित महिला के हित बुरी तरह प्रभावित होंगे तथा वह आर्थिक सुरक्षा से वंचित हो जाएगी। दरअसल तीन तलाक़ विरोधी इस विधेयक के कतिपय प्रावधानों पर ऐतराज जताकर उसे प्रवर समिति के हवाले करने का दबाव बनाने के पीछे मकसद विधेयक को ठंडे बस्ते में डाले रखना था जिससे भाजपा को उसका श्रेय पूरा का पूरा न मिल सके। कांग्रेस की चिंता भी यही है कि मुस्लिम समाज की महिलाओं के बीच प्रधानमंत्री की लोकप्रियता को कैसे  रोका जाए किन्तु फिलहाल तो भाजपा जो चाहती थी उसने हासिल कर लिया। अब यदि राज्यसभा में कांग्रेस भले ही अन्य विपक्षी दलों को पटा-पटूकर विधेयक को और विचार  करने के नाम पर अटका दे या फिर बहुमत से गिरवा दे तो भी भाजपा फायदे में ही रहेगी। ऐसा लगता है बचते-बचते एक बार फिर कांग्रेस तुष्टीकरण के आरोप में फंस रही है। संसद और विधानमण्डलों में एक तिहाई महिला आरक्षण और लोकपाल सम्बन्धी विधेयकों को जिस प्रारूप में पेश किया गया उनमें सुधार और संशोधन के नाम पर रोके जाने का नतीजा ये निकला कि वे त्रिशंकु बनकर रह गए। माकपा सांसद स्व. गीता मुखर्जी ने महिला आरक्षण विधेयक को पारित करवाने के अनुरोध के साथ कहा था कि संशोधन बाद में होते रहेंगे लेकिन ओबीसी लॉबी ने किसी भी कीमत पर विधेयक पारित न होने की जि़द पकड़ ली। एक बार तो शरद यादव ने मंत्री के हाथ से छीनकर विधेयक फाड़ दिया था। मुलायम-लालू और उमा भारती ने भी खुलकर विरोध किया। तीन तलाक़ विधेयक का भी यही हश्र न हो ये सोचकर ही सरकार ने विरोध कर रहे विपक्ष को न मौका दिया न मोहलत। इसी सत्र में विधेयक पारित करवाने का  कारण सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तीन तलाक़ को असंवैधानिक बताते हुए इस सम्बंध में छह महीने में कानून बनाने सम्बन्धी निर्देश भी है। विपक्ष को लग रहा है कि विधेयक पारित होने पर भाजपा खुद को मुस्लिम महिलाओं की एकमात्र हितचिंतक साबित करने में कामयाब हो जाएगी। टीवी चैनलों के जरिये जो तस्वीरें और मुखर प्रतिक्रियाएँ मुस्लिम महिलाओं की देखने मिल रही हैं वे विपक्ष की आशंकाओं को सही ठहराती हैं। भले ही वे सभी मुस्लिम महिलाओं की प्रतिनिधि नहीं कही जा सकतीं किन्तु उनकी खुशी काफी कुछ ज़ाहिर कर देती है। अब शिया मुस्लिम समाज से मिले समर्थन ने भी सरकार का हौसला बढ़ा दिया है। विधेयक की मुखालफत मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने खुलकर भले की हो किन्तु मुसलमानों के भीतर तीन तलाक़ के मुद्दे पर जो अपराध बोध है उसकी वजह से विरोध के जैसे स्वर उठने चाहिये वैसे नहीं उठने से वे मुल्ला-मौलवी अकेले पड़ते दिख रहे हैं जिन्हें तीन तलाक़ के दण्डनीय अपराध बन जाने से अपनी दुकानदारी खतरे में पड़ती दिख रही है। इस विधेयक के विरोधियों को दरअसल ये फिक्र खाए जा रही है कि इसके बाद कहीं समान नागरिक संहिता लागू करने की तैयारी न होने लगे जो भाजपा का प्रमुख मुद्दा रहा है और इस पर भी सर्वोच्च न्यायालय टिप्पणी कर चुका है। भाजपा को भी ये लग रहा था कि मुस्लिम समाज में सेंध लगाने का इससे बेहतर अवसर नहीं मिलेगा। और फिर विधेयक सर्वोच्च न्यायालय की भी मंशा के अनुरूप है। कुल मिलाकर मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक़ जैसी मध्ययुगीन कुप्रथा से मुक्ति दिलवाने की गई ये पहल हर दृष्टि से ऐतिहासिक और साहसिक कदम है जिसके लिए नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार अभिनन्दन की हकदार है। इस विधेयक को राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश कहा जाना पूरी तरह गलत नहीं है लेकिन फिर स्व.राजीव गांधी की सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को ठेंगा दिखाते हुए शाह बानो सम्बन्धी फैसले को उलट देने को क्या कहेंगे? बेहतर हो कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल राज्यसभा में तीन तलाक़ सरीखी महिला विरोधी प्रथा का अंतिम संस्कार करने में सहायक बनें जिससे वे मुस्लिम तुष्टीकरण की तोहमत से भी बच जाएंगे और भाजपा भी मुस्लिम महिलाओं की एकमात्र संरक्षिका बनने से वंचित हो जाएगी। कांग्रेस को ये भी ध्यान रखना चाहिए कि भले ही ये विधेयक मुस्लिम महिलाओं को राहत देने वाला हो लेकिन इससे उस हिन्दू समाज में भाजपा के प्रति लगाव और पुख्ता हो सकता है जिसको आकर्षित करने के लिए राहुल गांधी मन्दिर-मन्दिर जाकर खुद को हिंदुओं का नया हृदय सम्राट साबित करने हाथ-पाँव मार रहे हैं। शाह बानो मामले में आत्मघाती कदम उठाने से हुए नुकसान के बाद भी यदि कांग्रेस को बुद्धि नहीं आई तो यही कहा जा सकता है कि उसकी विचारशक्ति अभी तक लकवाग्रस्त ही है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 28 December 2017

संसद को बाधित करना दण्डनीय अपराध बने

गुजरात चुनाव के कारण संसद का शीतकालीन सत्र आगे बढ़ाने की लेकर विपक्ष ने प्रधानमंत्री पर सीधे हमले किये। राहुल गाँधी ने तो प्रचार के दौरान भी आरोप लगाया कि राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद में हुए घपले की चर्चा टालने के लिए सत्र को गुजरात चुनाव के बाद रखा गया। लेकिन जब सत्र शुरू हुआ तब वही विपक्ष नरेंद्र मोदी द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह पर की गई एक टिप्पणी को मुद्दा बनाकर सदन को बाधित करने पर आमादा हो गया। राज्यसभा में संख्याबल ज्यादा होने से विपक्ष हावी होने की स्थिति में चूंकि है इसलिए उच्च सदन को ठप्प करना उसके लिए आसान रहता है। श्री मोदी से मांग की गई कि वे डॉ सिंह से क्षमा मांगे। हंगामे के कारण सदन स्थगित होता रहा। आखिरकार गत दिवस वित्तमंत्री और सदन के नेता अरुण जेटली ने सफाई दी कि मोदी जी ने मनमोहन सिंह जी के बारे में कोई आपत्तिजनक बात नहीं कही और वे उनका सम्मान करते हैं। नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आजाद उनके स्पष्टीकरण से संतुष्ट हो गए और विवाद खत्म कर दिया गया। सवाल ये है कि जब इतना ही करना था तो पूरा हफ्ता काहे खराब किया? सदन के नेता तो पहले दिन से ही समझौते के मूड में थे लेकिन कांग्रेस अड़ी रही और आखिर में गर्म पानी की जि़द करते-करते ठंडे पानी से नहाने को तैयार हो गई। ये पहला अवसर नहीं था जब सदन का मूल्यवान समय हंगामे की भेंट चढ़ाकर विपक्ष इस तरह पीछे हट गया। संसद के हर घण्टे पर लाखों रुपया खर्च होता है। ऐसे में उसका कामकाज बाधित करना दण्डनीय अपराध होना चहिये। सभापति वेंकैया नायडू पहले दिन से समझा रहे थे कि श्री मोदी ने जो कुछ कहा वह चूंकि सदन के बाहर की बात थी इसलिए उसकी चर्चा सदन में करना गलत है। लेकिन विपक्ष अड़ा रहा। जब उसे लगा कि उसे कोई राजनीतिक लाभ नहीं हो रहा तब उसने किसी तरह इज्जत बचा ली। इस खेल में कौन जीता और किसकी हार हुई ये उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना सदन का कीमती समय बर्बाद होना था, जिसमें जनहित के मुद्दों पर सार्थक चर्चा हो सकती थी। सरकार को घेरना विपक्ष का संसदीय अधिकार है। यदि जनहित में जरूरी हो तब सत्ता पक्ष को झुकाने के लिए सदन बाधित करने का भी औचित्य हो सकता है किंतु निरुद्देश्य विरोध से विपक्ष की साख गिरती है। सत्तापक्ष भी प्रत्येक सत्र में विपक्ष को ऐसी गलती करने का मौका दे देता है जिसमें उलझकर वह सरकार को घेरने का अवसर गंवा बैठता है। गत दिवस श्री जेटली ने जो कहा वह व्यक्तिगत रूप से भी  कहा और सुना जा सकता था। बच्चों जैसी जिद पालकर देश की संसद को सब्जीमंडी बना देने वाले ऐसे नेताओं के कारण ही लोकतंत्र के भविष्य को लेकर शंकाएं होने लगती हैं। वैसे सत्तापक्ष भी इस मामले में दूध का धुला नहीं है। विपक्ष में रहते वह भी यही करता रहा। शीतकालीन सत्र वैसे भी छोटा होता है। महत्वपूर्ण विषयों पर विचार कर निर्णय लेने के बजाय व्यर्थ के मुद्दों पर संसद के समय को नष्ट करना लोकतंत्र का अपमान नहीं तो और क्या है?

-रवीन्द्र वाजपेयी

राजस्व बढ़ाना है तो पेट्रोल-डीजल जीएसटी में लाओ

खबर आ गई कि गत माह का जीएसटी अपेक्षा से कम जमा हुआ। पूरे रिटर्न भी नहीं भरे गए। इसके पीछे एक कारण सम्भवत: जीएसटी दरों में कमी के साथ प्रक्रिया  में दी गई रियायत हो सकती है। लेकिन इससे राजस्व घट गया। राजकोषीय घाटा सीमा पार कर जाने से केंद्र सरकार को सरकारी सिक्युरिटीज से 50 हजार करोड़ कर्ज लेना पड़ रहा है। निश्चित रूप से ये अच्छी खबर नहीं है। मोदी सरकार के जिस आर्थिक प्रबंधन के कारण भारत की वैश्विक छवि में सुधार हुआ वह राजकोषीय घाटे को कम किये जाने पर आधारित था। जीएसटी की दरों में अभी और कमी का दबाव सरकार पर बना हुआ है। 2018-19 के बजट में जो कुछ हो जाए तो ठीक वरना लोकसभा चुनाव के कारण 2019-20 का बजट तो नीतिगत निर्णयों से मुक्त रहेगा। 2018 में छोटे बड़े मिलाकर आधा दर्जन राज्यों में विधानसभा चुनाव होना हैं। मोदी सरकार के ऊपर ये दबाव है कि वह अब लोक लुभावन कदम उठाकर भाजपा की संभावनाओं को बल प्रदान करे वरना 2018 के सेमी फाइनल में जरा सी चूक से 2019 के फाइनल का मज़ा किरकिरा हो सकता है। 2004 में वाजपेयी सरकार भी इसी तरह चली गई थी। सवाल ये है कि प्रधानमंत्री अब अच्छे दिन आने वाले हैं के नारे को फिर दोहराएंगे या ये  बताने की स्थिति में होंगे कि अच्छे दिन किस रूप में आये हैं। शुरू में लगता था कि पुराने घाटे की भरपाई की आड़ में पेट्रोल - डीजल में की जा रही मुनाफाखोरी कुछ समय बाद बन्द कर दी जावेगीं तथा कच्चे तेल की कीमतों में  वैश्विक गिरावट का लाभ भारतीय उपभोक्ता को भी मिलेगा किन्तु वैसा कुछ भी नहीं हुआ। महंगाई बढऩे के पीछे एक कारण परिवहन की अधिक लागत भी है। यदि मोदी सरकार अभी भी जीएसटी के अंतर्गत लाकर पेट्रोल-डीजल को उनकी सही कीमतों पर ले आए तो मानकर चला जा सकता है ये अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाने में बेहद सहायक कदम होगा। सरकार में बैठे लोग ये तर्क देंगे कि इससे राजस्व घटेगा किन्तु वे यह भूल जाते हैं  कि ईंधन सस्ता होने का सीधा असर कारोबार में वृद्धि के तौर पर होगा जिससे कि खजाने में आने वाला कर संग्रह बढ़ जायेगा। सबसे बड़ा लाभ होगा विकास दर में आशातीत वृद्धि, जो रोजगार सृजन में भी मददगार बने बिना नहीं रहेगी इसी तरह सरकार को चाहिए वह रिजर्व बैंक को ऋणों पर ब्याज दर घटाने राजी करे जिससे घरेलू उद्योग अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में खड़े रह सकें। विशेषकर चीन के उत्पाद भारत में आने कम हों। हो सके तो सरकार को खैरात बांटने की बजाय इंफ्रास्ट्रक्चर के कार्यों को तेज कर ज्यादा से ज्यादा हाथों को काम मुहैया करवाना चाहिए। 2018 को भारत की अर्थव्यवस्था के लिए स्वर्णिम बताने वाला आकलन आने के तत्काल पश्चात केंद्र सरकर को काम चलाने के लिए 50 हज़ार करोड़ के कर्ज की जरूरत घड़ी की सुई के पीछे जाने का इशारा है। नए साल के जश्न को ये स्थिति फीका कर सकती है और भाजपा की सम्भावनाओं को भी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 27 December 2017

अर्थव्यवस्था की विरोधाभासी स्थिति नए खतरे का संकेत

एक तरफ 2018 में देश की अर्थव्यवस्था विश्व के समृद्ध देशों को पीछे छोड़ने की तरफ बढ़ती दिखाई दे रही है जिसके प्रारंभिक संकेत शेयर बाजार में आ रही उछाल के तौर पर सामने आ रहे हैं वहीं दूसरी तरफ देश के विभिन्न हिस्सों से आ रही खबरों के मुताबिक उप्र में आलू तो कर्नाटक में टमाटर पैदा करने वाला किसान खून के आंसू बहाने मजबूर है । गुजरात के मूंगफली उत्पादक भी फसल के पर्याप्त दाम नहीं मिलने से परेशान हैं । मप्र में प्याज उगाने वाले किसानों का हिंसक आंदोलन अभी भी कड़वी यादों के रूप में बरकरार है तो दाल के बढ़े हुए उत्पादन ने भी किसानों की मुसीबत बढ़ा दी । सरकार चाहे केंद्र की ही या राज्य की वह न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित तो कर देती है किंतु सरकारी अमले की लापरवाही और भ्रष्टाचार के कारण न तो सरकारी एजेंसियां ठीक से खरीदी करती हैं और न ही किसान को समय पर भुगतान होता है । एक तरफ तो सरकार और उसके कृषि विभाग द्वारा किसानों को पैदावार बढ़ाने हेतु प्रोत्साहित किया जाता है । उन्हें उन्नत तकनीक, बीज , खाद आदि देकर अधिकाधिक उत्पादन के जरिये ज्यादा कमाने का प्रलोभन दिया जाता है लेकिन उत्पादन बढ़ने के बाद किसान की बिगड़ती आर्थिक स्थिति अर्थव्यस्था में आ रहे सुधारों की सत्यता को सवालों के घेरे में खड़ा कर देती है । आलू , प्याज , टमाटर, दाल , कपास सहित अन्य कृषि उत्पादनों के दाम जिस तरह से ऊपर नीचे होते रहते हैं उससे किसान और जनता दोनों परेशान हैं । बाज़ारवादी व्यवस्था के दुष्प्रभाव के रुप में किसान को कम दाम और उपभोक्ता की जेब काटने का उपक्रम एक साथ चला करता है । इस पूरे खेल में बिचौलिए और सरकारी अफसर किस तरह मालामाल होते हैं उसका प्रमाण मप्र में हुआ प्याज घोटाला है जिसमें किसान को क्या मिला ये तो किसी को नहीं पता लेकिन मंडी में बैठे दलालों और सरकारी साहबों ने जी भरकर चांदी काटी । शिवराज सिंह चौहान की सरकार व्यापमं के बाद प्याज खरीदी में भी भरपूर बदमाम हुई । ये स्थिति  पूरे देश की है । कृषि उत्पादन में गिरावट , खेती का घटता रकबा और घाटे का व्यवसाय बनते जाने से खेती छोड़ते जा रहे किसानों की बढ़ती संख्या कृषिप्रधान देश के नाम पर एक धब्बा है । गुजरात चुनाव में ग्रामीण क्षेत्रों में सत्तारूढ़ भाजपा की सीटों में भारी गिरावट ने देश भर में किसानों के मन में बढ़ते गुस्से  का ऐलान कर दिया । किसानों की आय दोगुनी करने के सब्जबाग सूखने के कगार पर आ  गये । गुजरात के झटके ने  भाजपा को ग्रामीण भारत की समस्याएं दूर करने के लिए सार्थक उपाय करने हेतु बाध्य कर दिया है । सुना है आगामी बजट ग्रामीण क्षेत्रों के विकास पर केंद्रित रहेगा । औद्योगिक उत्पादन तो नोटबन्दी के बाद यूँ भी पटरी  पर नहीं आ सका । रही सही कसर पूरी कर दी जीएसटी ने । अब यदि खेती की दशा भी बिगड़ गई तब विकास दर का कबाड़ा होना तय है । 2018 में ऐसा कौन सा चमत्कार हो जाएगा जिसके कारण भारत की अर्थव्यवस्था के दुनिया में सबसे मजबूत होने की भविष्यवाणी को पुख्ता समझा जा सके। इसीलिए शेयर बाज़ार का सूचकांक किस उम्मीद के भरोसे कूद रहा है ये साधारण व्यक्ति की तो समझ में नहीं आ रहा । भाजपा सांसद डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने विकास दर सम्बन्धी मोदी सरकार के दावों को खोखला बताते हुए यहां तक कह दिया कि ये सब अफसरशाही की बाजीगरी से अधिक कुछ भी नहीं है। रोजगार के सिमटते अवसर , खेती और उद्योगों के उत्पादन में गिरावट , बैंकों में बढ़ती डूबन्त राशि , राज्य सरकारों पर बढ़ता कर्ज का बोझ इत्यादि को मिलाकर देखें तो कहीं से भी अर्थव्यवस्था की सेहत वैसी नहीं लगती जिसमें शेयर बाज़ार में देशी-विदेशी निवेशक दिल खोलकर पैसा लगा दें । उस  दृष्टि से गत दिवस शेयर बाज़ार का सूचकांक अब तक के उच्चतम स्तर को छू गया तो ये एक गंभीरता से मंथन का विषय है । बीते कुछ समय से बिट क्वाइन नामक अदृश्य मुद्रा के कारोबार में भी रहस्यमय वृद्धि ने अर्थशास्त्रियों को सांसत में डाल दिया था । जिस मुद्रा को न कोई देख सका और जो किसी विनिमय का माध्यम भी नहीं थी उसकी कीमतें सोने और हीरे से भी ज्यादा उछलना अर्थव्यवस्था के स्थापित मान्य नियम सिद्धांतों के सर्वथा विरुद्ध थी । किसी भी देश ने बिट क्वाइन को न मान्यता दी न ही उसके जनक का कोई अता पता चला । फिर भी उसका मूल्य गुब्बारे की तरह फूलने लगा । अचानक खबर आई कि अमिताभ बच्चन सरीखे निवेशक बिट क्वाइन में 650 करोड़ से उतर गए । छोटे-छोटे निवेशक जिन्हें कोई नहीं जानता उनका तो पता चलना सम्भव ही नहीं है । ये देखते हुए तमाम विरोधाभासी परिस्थितियों के बावजूद यदि भारत में शेयर बाज़ार ऐतिहासिक बुलंदियों को छू रहा है और 2018 में भारत  की अर्थव्यवस्था विश्व  भर में सबसे आगे निकलने के दावे किए जा रहे हैं तो इस पर विश्वास करने का जी नहीं करता । कहीं न कहीं , कुछ न कुछ ऐसा जरूर है जो सशंकित करता है । अतीत में भी शेयर बाजार की हवाई उड़ानों और अर्थव्यस्था के स्वर्ण मृग की तरह लोगों को ललचाने के कारण छोटे छोटे निवेशकों का अरबों रुपया डूब चुका है । हर्षद मेहता को लोग अब भी याद कर लेते हैं । दोबारा वैसा न हो ये चिंता केंद्र सरकार को करनी चाहिए वरना न्यू इंडिया का सुंदर सपना एक झटके में टूटकर रह जाएगा ।

-रवीन्द्र वाजपेयी