Thursday 14 December 2017

ऊंची आवाज से ज्यादा जरूरी है मोटी फीस पर लगाम


सर्वोच्च न्यायालय सभी को फटकार लगाया करता है लेकिन हाल ही में न्यायाधीशों द्वारा कतिपय वरिष्ठ वकीलों को तेज आवाज में बहस करने के लिए जमकर डांट पिलाई गई। इससे नाराज होकर सर्वोच्च न्यायालय के प्रख्यात अधिवक्ता राजीव धवन ने तो वकालत से ही सन्यास लेने की घोषणा कर डाली। दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच अधिकारों की जंग को लेकर चल रहे प्रकरण में श्री धवन दिल्ली सरकार की तरफ  से पैरवी कर रहे थे। उस दौरान उन्होंने ऊंची आवाज में अपनी दलीलें रखीं तो अदालत ने इस पर ऐतराज जताते हुए जिस तरह की टिप्पणियां कीं वे श्री धवन को बेहद अपमानजनक लगीं।  इसी तरह राम जन्मभूमि मामले में मुस्लिम संगठनों के वकील कपिल सिब्बल ने अदालत को भाजपा के जाल में न फंसने जैसी बात कहकर  पीठासीन न्यायाधीशों को गुस्से में ला दिया। उसी के बाद प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने वकीलों को अदालत के भीतर तेज आवाज में बहस न करने की हिदायत देते हुए कह दिया कि या तो बार काउंसिल इस सम्बंध में कोई आचार संहिता बनाए या फिर वे खुद इस दिशा में कदम उठाएंगे। उनकी वह फटकार काफी चर्चा में आई जिसका तात्कालिक असर राजीव धवन द्वारा वकालत का पेशा छोड़ देने की घोषणा के तौर पर सामने आया। यद्यपि अन्य किसी वकील ने सर्वोच्च न्यायालय की डाँट फटकार पर श्री धवन जैसा कदम नहीं उठाया किन्तु अधिवक्ता समुदाय में इसे लेकर काफी चर्चाएं व्याप्त हैं। कुछ न्यायालय की बात के समर्थन में हैं तो कुछ को लगता है न्यायालय अपनी विशिष्ट स्थिति का बेजा फायदा उठा रहा है। कल फिर सर्वोच्च न्यायालय में किसी प्रकरण पर बहस के दौरान न्यायाधीश की ओर से अधिवक्ताओं को आवाज़ नीची रखने की नसीहत दी गई। इस सम्बंध में सवाल ये है कि क्या इसके पहले इस तरह के अनुशासन की अपेक्षा कभी की गई थी या नहीं? यदि हाँ, तो वकीलों की ओर से उसका पालन क्यों नहीं किया गया और यदि नहीं तो फिर अधिवक्ताओं को अचानक सुधरने के लिए डांटना फटकारना उनके साथ नाइंसाफी है। बार काउंसिल इस सम्बंध में कोई आचार संहिता बना भी ले तो बड़े वकील उसका कितना पालन करेंगें ये कहना मुश्किल है। दरअसल कुछ अधिवक्ताओं की हैसियत इतनी बड़ी हो चुकी है कि वे अदालत को भी कुछ नहीं समझते। ये स्थिति कब से बनना शुरू हुई, कहना कठिन है क्योंकि इसके पहले किसी दिग्गज अधिवक्ता को अदालत के भीतर ऊंची आवाज में बहस करने पर न्यायाधीशों द्वारा टोके जाने जैसे वाकये निचली अदालतों में भले हुए हों किन्तु सर्वोच्च न्यायालय में इस तरह की बात सम्भवत: पहली मर्तबा सुनी जा रही है। राम जन्मभूमि प्रकरण पर श्री सिब्बल द्वारा दी जा रही दलीलों पर प्रधान न्यायाधीश तक को कहना पड़ा कि अदालत राजनीतिक भाषणबाजी की जगह नहीं है। जहां तक बार काउंसिल द्वारा आचार संहिता बनाए जाने की बात है तो साधारण और मध्यम श्रेणी के अधिवक्ता में तो इतना साहस ही नहीं होता कि वह जज साहब के सामने ऊंची आवाज में बात कर सके। रही बात सितारा हैसियत प्राप्त कर चुके अधिवक्ताओं की तो वे किसी आचार संहिता का पालन करना अपनी शान में गुस्ताखी समझते हैं। बेहतर हो सर्वोच्च न्यायालय ऐसे वकीलों की ऊंची फीस पर लगाम लगाने के बारे में समुचित कदम उठाए। न्याय शीघ्र और सुलभ होने के साथ-साथ सस्ता भी हो ये देखना समय की मांग है। सर्वोच्च न्यायालय में मुकदमा लडऩा साधारण व्यक्ति के बस के बाहर हो चुका है। जिन दिग्गज वकीलों के चिल्लाने पर सर्वोच्च न्यायालय ने नाराजगी व्यक्त की उनकी फीस सुनकर ही अच्छे-अच्छों के पसीने छूट जाते हैं। मुकदमे के लिए दिल्ली से बाहर जाने हेतु इन वकीलों के लिए चार्टर्ड विमान एक अनिवार्यता बन गई है। हाल ही में इस बारे में भी सुगबुगाहट हुई  तो लेकिन फीस चूंकि वकील और पक्षकार के बीच का मामला होता है इस कारण उसमें हस्तक्षेप की बात सोची नहीं जाती। अधिवक्ता की योग्यता और अनुभव को भी फीस का आधार माना जाता है, बावजूद इसके न्याय को आम आदमी की पहुंच के भीतर लाने के लिए उपाय किये जाने चाहिए। ये काम है तो बेहद कठिन किन्तु जिस तरह से चुनाव महंगे होते जाने से अच्छे लोगों के लिए उनमें भाग लेना आसमान के तारे छूने जैसा होता जा रहा है वही स्थिति कमोबेश सर्वोच्च न्यायालय के वकीलों की जबरदस्त फीस को लेकर है। न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा ने न्यायपालिका में कतिपय सुधारों  के जरिये शीघ्र न्याय की जो व्यवस्थाएं कीं ठीक वैसी ही व्यवस्था अधिवक्ताओं की असहनीय होती जा रही फीस पर नियंत्रण के लिए वे करें ऐसी अपेक्षा है। अदालत में वकीलों के जोर से चिल्लाने से निश्चित तौर पर न्यायाधीशों के सम्मान को ठेस पहुँचती होगी किन्तु तथाकथित पांच सितारा हैसियत वाले वकीलों की फीस सुनकर ही न जाने कितने लोगों के दिल को ठेस पहुंचती है। जनअपेक्षा है कि आम आदमी को सस्ता न्याय दिलवाने की दिशा में भी हरसम्भव प्रयास किये जावें, वरना सर्वोच्च न्यायालय के स्तर पर न्यायपलिका से न्याय प्राप्त करने का मौलिक अधिकार मोटी फीस के बोझ तले दम तोड़ता नजऱ आएगा। न्याय की प्रतीक जिस देवी को आंखों में पट्टी बांधे हाथ में तराजू लिए देखा और दिखाया जाता है उसके दोनों पलड़े बराबर होते हैं लेकिन पैसे के जोर पर उन्हें एक तरफ  झुकाने का जो खेल चल रहा है उससे न्यायपालिका के प्रति लोगों का विश्वास खंडित होने लगा है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

ऊंची आवाज से ज्यादा जरूरी है मोटी फीस पर लगाम
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सर्वोच्च न्यायालय सभी को फटकार लगाया करता है लेकिन हाल ही में न्यायाधीशों द्वारा कतिपय वरिष्ठ वकीलों को तेज आवाज में बहस करने के लिए जमकर डांट पिलाई गई। इससे नाराज होकर सर्वोच्च न्यायालय के प्रख्यात अधिवक्ता राजीव धवन ने तो वकालत से ही सन्यास लेने की घोषणा कर डाली। दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच अधिकारों की जंग को लेकर चल रहे प्रकरण में श्री धवन दिल्ली सरकार की तरफ  से पैरवी कर रहे थे। उस दौरान उन्होंने ऊंची आवाज में अपनी दलीलें रखीं तो अदालत ने इस पर ऐतराज जताते हुए जिस तरह की टिप्पणियां कीं वे श्री धवन को बेहद अपमानजनक लगीं।  इसी तरह राम जन्मभूमि मामले में मुस्लिम संगठनों के वकील कपिल सिब्बल ने अदालत को भाजपा के जाल में न फंसने जैसी बात कहकर  पीठासीन न्यायाधीशों को गुस्से में ला दिया। उसी के बाद प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने वकीलों को अदालत के भीतर तेज आवाज में बहस न करने की हिदायत देते हुए कह दिया कि या तो बार काउंसिल इस सम्बंध में कोई आचार संहिता बनाए या फिर वे खुद इस दिशा में कदम उठाएंगे। उनकी वह फटकार काफी चर्चा में आई जिसका तात्कालिक असर राजीव धवन द्वारा वकालत का पेशा छोड़ देने की घोषणा के तौर पर सामने आया। यद्यपि अन्य किसी वकील ने सर्वोच्च न्यायालय की डाँट फटकार पर श्री धवन जैसा कदम नहीं उठाया किन्तु अधिवक्ता समुदाय में इसे लेकर काफी चर्चाएं व्याप्त हैं। कुछ न्यायालय की बात के समर्थन में हैं तो कुछ को लगता है न्यायालय अपनी विशिष्ट स्थिति का बेजा फायदा उठा रहा है। कल फिर सर्वोच्च न्यायालय में किसी प्रकरण पर बहस के दौरान न्यायाधीश की ओर से अधिवक्ताओं को आवाज़ नीची रखने की नसीहत दी गई। इस सम्बंध में सवाल ये है कि क्या इसके पहले इस तरह के अनुशासन की अपेक्षा कभी की गई थी या नहीं? यदि हाँ, तो वकीलों की ओर से उसका पालन क्यों नहीं किया गया और यदि नहीं तो फिर अधिवक्ताओं को अचानक सुधरने के लिए डांटना फटकारना उनके साथ नाइंसाफी है। बार काउंसिल इस सम्बंध में कोई आचार संहिता बना भी ले तो बड़े वकील उसका कितना पालन करेंगें ये कहना मुश्किल है। दरअसल कुछ अधिवक्ताओं की हैसियत इतनी बड़ी हो चुकी है कि वे अदालत को भी कुछ नहीं समझते। ये स्थिति कब से बनना शुरू हुई, कहना कठिन है क्योंकि इसके पहले किसी दिग्गज अधिवक्ता को अदालत के भीतर ऊंची आवाज में बहस करने पर न्यायाधीशों द्वारा टोके जाने जैसे वाकये निचली अदालतों में भले हुए हों किन्तु सर्वोच्च न्यायालय में इस तरह की बात सम्भवत: पहली मर्तबा सुनी जा रही है। राम जन्मभूमि प्रकरण पर श्री सिब्बल द्वारा दी जा रही दलीलों पर प्रधान न्यायाधीश तक को कहना पड़ा कि अदालत राजनीतिक भाषणबाजी की जगह नहीं है। जहां तक बार काउंसिल द्वारा आचार संहिता बनाए जाने की बात है तो साधारण और मध्यम श्रेणी के अधिवक्ता में तो इतना साहस ही नहीं होता कि वह जज साहब के सामने ऊंची आवाज में बात कर सके। रही बात सितारा हैसियत प्राप्त कर चुके अधिवक्ताओं की तो वे किसी आचार संहिता का पालन करना अपनी शान में गुस्ताखी समझते हैं। बेहतर हो सर्वोच्च न्यायालय ऐसे वकीलों की ऊंची फीस पर लगाम लगाने के बारे में समुचित कदम उठाए। न्याय शीघ्र और सुलभ होने के साथ-साथ सस्ता भी हो ये देखना समय की मांग है। सर्वोच्च न्यायालय में मुकदमा लडऩा साधारण व्यक्ति के बस के बाहर हो चुका है। जिन दिग्गज वकीलों के चिल्लाने पर सर्वोच्च न्यायालय ने नाराजगी व्यक्त की उनकी फीस सुनकर ही अच्छे-अच्छों के पसीने छूट जाते हैं। मुकदमे के लिए दिल्ली से बाहर जाने हेतु इन वकीलों के लिए चार्टर्ड विमान एक अनिवार्यता बन गई है। हाल ही में इस बारे में भी सुगबुगाहट हुई  तो लेकिन फीस चूंकि वकील और पक्षकार के बीच का मामला होता है इस कारण उसमें हस्तक्षेप की बात सोची नहीं जाती। अधिवक्ता की योग्यता और अनुभव को भी फीस का आधार माना जाता है, बावजूद इसके न्याय को आम आदमी की पहुंच के भीतर लाने के लिए उपाय किये जाने चाहिए। ये काम है तो बेहद कठिन किन्तु जिस तरह से चुनाव महंगे होते जाने से अच्छे लोगों के लिए उनमें भाग लेना आसमान के तारे छूने जैसा होता जा रहा है वही स्थिति कमोबेश सर्वोच्च न्यायालय के वकीलों की जबरदस्त फीस को लेकर है। न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा ने न्यायपालिका में कतिपय सुधारों  के जरिये शीघ्र न्याय की जो व्यवस्थाएं कीं ठीक वैसी ही व्यवस्था अधिवक्ताओं की असहनीय होती जा रही फीस पर नियंत्रण के लिए वे करें ऐसी अपेक्षा है। अदालत में वकीलों के जोर से चिल्लाने से निश्चित तौर पर न्यायाधीशों के सम्मान को ठेस पहुँचती होगी किन्तु तथाकथित पांच सितारा हैसियत वाले वकीलों की फीस सुनकर ही न जाने कितने लोगों के दिल को ठेस पहुंचती है। जनअपेक्षा है कि आम आदमी को सस्ता न्याय दिलवाने की दिशा में भी हरसम्भव प्रयास किये जावें, वरना सर्वोच्च न्यायालय के स्तर पर न्यायपलिका से न्याय प्राप्त करने का मौलिक अधिकार मोटी फीस के बोझ तले दम तोड़ता नजऱ आएगा। न्याय की प्रतीक जिस देवी को आंखों में पट्टी बांधे हाथ में तराजू लिए देखा और दिखाया जाता है उसके दोनों पलड़े बराबर होते हैं लेकिन पैसे के जोर पर उन्हें एक तरफ  झुकाने का जो खेल चल रहा है उससे न्यायपालिका के प्रति लोगों का विश्वास खंडित होने लगा है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

ऊंची आवाज से ज्यादा जरूरी है मोटी फीस पर लगाम
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सर्वोच्च न्यायालय सभी को फटकार लगाया करता है लेकिन हाल ही में न्यायाधीशों द्वारा कतिपय वरिष्ठ वकीलों को तेज आवाज में बहस करने के लिए जमकर डांट पिलाई गई। इससे नाराज होकर सर्वोच्च न्यायालय के प्रख्यात अधिवक्ता राजीव धवन ने तो वकालत से ही सन्यास लेने की घोषणा कर डाली। दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच अधिकारों की जंग को लेकर चल रहे प्रकरण में श्री धवन दिल्ली सरकार की तरफ  से पैरवी कर रहे थे। उस दौरान उन्होंने ऊंची आवाज में अपनी दलीलें रखीं तो अदालत ने इस पर ऐतराज जताते हुए जिस तरह की टिप्पणियां कीं वे श्री धवन को बेहद अपमानजनक लगीं।  इसी तरह राम जन्मभूमि मामले में मुस्लिम संगठनों के वकील कपिल सिब्बल ने अदालत को भाजपा के जाल में न फंसने जैसी बात कहकर  पीठासीन न्यायाधीशों को गुस्से में ला दिया। उसी के बाद प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने वकीलों को अदालत के भीतर तेज आवाज में बहस न करने की हिदायत देते हुए कह दिया कि या तो बार काउंसिल इस सम्बंध में कोई आचार संहिता बनाए या फिर वे खुद इस दिशा में कदम उठाएंगे। उनकी वह फटकार काफी चर्चा में आई जिसका तात्कालिक असर राजीव धवन द्वारा वकालत का पेशा छोड़ देने की घोषणा के तौर पर सामने आया। यद्यपि अन्य किसी वकील ने सर्वोच्च न्यायालय की डाँट फटकार पर श्री धवन जैसा कदम नहीं उठाया किन्तु अधिवक्ता समुदाय में इसे लेकर काफी चर्चाएं व्याप्त हैं। कुछ न्यायालय की बात के समर्थन में हैं तो कुछ को लगता है न्यायालय अपनी विशिष्ट स्थिति का बेजा फायदा उठा रहा है। कल फिर सर्वोच्च न्यायालय में किसी प्रकरण पर बहस के दौरान न्यायाधीश की ओर से अधिवक्ताओं को आवाज़ नीची रखने की नसीहत दी गई। इस सम्बंध में सवाल ये है कि क्या इसके पहले इस तरह के अनुशासन की अपेक्षा कभी की गई थी या नहीं? यदि हाँ, तो वकीलों की ओर से उसका पालन क्यों नहीं किया गया और यदि नहीं तो फिर अधिवक्ताओं को अचानक सुधरने के लिए डांटना फटकारना उनके साथ नाइंसाफी है। बार काउंसिल इस सम्बंध में कोई आचार संहिता बना भी ले तो बड़े वकील उसका कितना पालन करेंगें ये कहना मुश्किल है। दरअसल कुछ अधिवक्ताओं की हैसियत इतनी बड़ी हो चुकी है कि वे अदालत को भी कुछ नहीं समझते। ये स्थिति कब से बनना शुरू हुई, कहना कठिन है क्योंकि इसके पहले किसी दिग्गज अधिवक्ता को अदालत के भीतर ऊंची आवाज में बहस करने पर न्यायाधीशों द्वारा टोके जाने जैसे वाकये निचली अदालतों में भले हुए हों किन्तु सर्वोच्च न्यायालय में इस तरह की बात सम्भवत: पहली मर्तबा सुनी जा रही है। राम जन्मभूमि प्रकरण पर श्री सिब्बल द्वारा दी जा रही दलीलों पर प्रधान न्यायाधीश तक को कहना पड़ा कि अदालत राजनीतिक भाषणबाजी की जगह नहीं है। जहां तक बार काउंसिल द्वारा आचार संहिता बनाए जाने की बात है तो साधारण और मध्यम श्रेणी के अधिवक्ता में तो इतना साहस ही नहीं होता कि वह जज साहब के सामने ऊंची आवाज में बात कर सके। रही बात सितारा हैसियत प्राप्त कर चुके अधिवक्ताओं की तो वे किसी आचार संहिता का पालन करना अपनी शान में गुस्ताखी समझते हैं। बेहतर हो सर्वोच्च न्यायालय ऐसे वकीलों की ऊंची फीस पर लगाम लगाने के बारे में समुचित कदम उठाए। न्याय शीघ्र और सुलभ होने के साथ-साथ सस्ता भी हो ये देखना समय की मांग है। सर्वोच्च न्यायालय में मुकदमा लडऩा साधारण व्यक्ति के बस के बाहर हो चुका है। जिन दिग्गज वकीलों के चिल्लाने पर सर्वोच्च न्यायालय ने नाराजगी व्यक्त की उनकी फीस सुनकर ही अच्छे-अच्छों के पसीने छूट जाते हैं। मुकदमे के लिए दिल्ली से बाहर जाने हेतु इन वकीलों के लिए चार्टर्ड विमान एक अनिवार्यता बन गई है। हाल ही में इस बारे में भी सुगबुगाहट हुई  तो लेकिन फीस चूंकि वकील और पक्षकार के बीच का मामला होता है इस कारण उसमें हस्तक्षेप की बात सोची नहीं जाती। अधिवक्ता की योग्यता और अनुभव को भी फीस का आधार माना जाता है, बावजूद इसके न्याय को आम आदमी की पहुंच के भीतर लाने के लिए उपाय किये जाने चाहिए। ये काम है तो बेहद कठिन किन्तु जिस तरह से चुनाव महंगे होते जाने से अच्छे लोगों के लिए उनमें भाग लेना आसमान के तारे छूने जैसा होता जा रहा है वही स्थिति कमोबेश सर्वोच्च न्यायालय के वकीलों की जबरदस्त फीस को लेकर है। न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा ने न्यायपालिका में कतिपय सुधारों  के जरिये शीघ्र न्याय की जो व्यवस्थाएं कीं ठीक वैसी ही व्यवस्था अधिवक्ताओं की असहनीय होती जा रही फीस पर नियंत्रण के लिए वे करें ऐसी अपेक्षा है। अदालत में वकीलों के जोर से चिल्लाने से निश्चित तौर पर न्यायाधीशों के सम्मान को ठेस पहुँचती होगी किन्तु तथाकथित पांच सितारा हैसियत वाले वकीलों की फीस सुनकर ही न जाने कितने लोगों के दिल को ठेस पहुंचती है। जनअपेक्षा है कि आम आदमी को सस्ता न्याय दिलवाने की दिशा में भी हरसम्भव प्रयास किये जावें, वरना सर्वोच्च न्यायालय के स्तर पर न्यायपलिका से न्याय प्राप्त करने का मौलिक अधिकार मोटी फीस के बोझ तले दम तोड़ता नजऱ आएगा। न्याय की प्रतीक जिस देवी को आंखों में पट्टी बांधे हाथ में तराजू लिए देखा और दिखाया जाता है उसके दोनों पलड़े बराबर होते हैं लेकिन पैसे के जोर पर उन्हें एक तरफ  झुकाने का जो खेल चल रहा है उससे न्यायपालिका के प्रति लोगों का विश्वास खंडित होने लगा है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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