Saturday 2 December 2017

उप्र के नतीजे गुजरात को प्रभावित कर सकते हैं

उप्र में स्थानीय निकाय के चुनाव नतीजों में कितने भी किन्तु-परन्तु लगाए जावें लेकिन ये स्वीकार करना ही होगा कि योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में चल रही राज्य सरकार के प्रति जनमानस में भरोसा कायम है। ये स्थिति विकल्पहीनता का भी परिचायक कही जा सकती है क्योंकि शहरी क्षेत्रों में मतदाताओं  ने जहां भाजपा को भरपूर समर्थन दिया वहीं कस्बाई और ग्रामीण क्षेत्रों में वह सबसे बड़ी पार्टी होने के बाद भी अपनी लहर नहीं चला सकी। चूंकि सपा,बसपा और कांग्रेस से जनता का मोह पूरी तरह से भंग हो चुका था इसलिए उसने निर्दलीयों पर जमकर मेहरबानी की। इससे ये भी पता चलता है कि बड़े शहरों को छोड़ दें तो बाकी जगहों पर स्थानीय चुनावों में राजनीतिक प्रतिबद्धता की बजाय लोगों ने निजी अथवा जातिगत सम्बन्धों को महत्व दिया जो छोटे स्तर पर सहज स्वाभाविक भी है। पार्टी टिकिट हासिल न कर पाने वाले उम्मीदवारों द्वारा  निर्दलीय लड़ा जाना नई बात कतई नहीं है और उस दृष्टि से उप्र के कस्बाई और ग्रामीण क्षेत्रों में राजनीतिक दलों की तुलना में निर्दलीयों की जीत ये भी साबित करती है कि भाजपा से नाराज या उसके वैचारिक विरोधी ने भी सपा,बसपा और कांग्रेस को बतौर विकल्प नहीं चुना। उप्र के स्थानीय निकाय चुनाव ऐसे समय हुए जब भाजपा गुजरात चुनाव में बुरी तरह फंसी हुई है। जीएसटी और पाटीदार आंदोलन के मिले जुले प्रभाव ने कांग्रेस में ये आत्मविश्वास भर दिया कि वह नरेंद्र मोदी के गढ़ को ध्वस्त कर 2019 के महासंग्राम में विजेता बनकर उभर सकती है। राहुल गांधी भी अपनी पिछली चुनावी  असफलताओं को गुजरात जीतकर धो देने में जुटे हैं। भले ही भाजपा गुजरात में फिर सरकार बना ले, जैसा तमाम सर्वेक्षण बता रहे हैं, लेकिन ये कहना पूरी तरह सच होगा कि राहुल के आक्रामक तेवरों ने उसे चिंतित तो कर ही दिया है। यदि पाटीदार वोट पूरी तरह हार्दिक के बताए मुताबिक भाजपा के विरोध में चले गए तब हिंदुत्व की प्रयोगशाला भाजपा के हाथ से जा सकती है किन्तु उप्र के ताजा चुनाव परिणामों ने ये बता दिया कि कम से कम जीएसटी को लेकर तो जनमानस में वैसी नाराजगी नहीं है जैसी सतह पर दिखाई देती है। यदि जीएसटी को लेकर मतदाता भाजपा के विरोधी होते तो उप्र के शहरी क्षेत्रों में भाजपा की आंधी नहीं चलती। इन परिणामों को योगी सरकार के पक्ष में विश्वास मत का नाम भले न दें लेकिन इतना तो कह ही सकते हैं कि उप्र की जनता अभी योगी शासन से नाराज नहीं है और भाजपा को पूरा अवसर देना चाहती है। यूँ भी कह सकते हैं कि सपा, बसपा और कांग्रेस चूंकि टक्कर देने की स्थिति में नहीं थीं? इसलिए लोगों ने भाजपा को चुनने में ही समझदारी समझी। इस चुनाव में बसपा पहली मर्तबा चिन्ह पर लड़ी और अलीगढ़-मेरठ दो नगर निगमों में उसका महापौर जीत गया जबकि सपा -कांग्रेस खाली हाथ रह गए। बसपा का ये उभार ही सपा-कांग्रेस को खा गया। मुस्लिम-दलित समीकरण ने अलीगढ़ और मेरठ में जो नतीजे दिए वे सपा के यादव-मुस्लिम गठजोड़ पर भारी पडऩे से अखिलेश यादव की पेशानी पर भविष्य को लेकर चिंता की लकीरें उभरना लाजमी है। दरअसल मायावती ने नगरीय निकाय चुनाव में उतरने का फैसला काफी सोच समझकर किया था। लोकसभा में शून्य और विधानसभा में दो दर्जन से भी कम पर सिमट जाने से बसपा उप्र में अप्रासंगिक होने के कगार पर आ गई थी। यदि मायावती इस चुनाव से दूर रहतीं तब शायद दलित वोट बैंक के इधर-उधर छिटकने का खतरा और बढ़ जाता। चुनाव परिणामों ने बसपा के अस्तित्व को तो बचाया ही उसे बतौर विकल्प भी स्थापित कर दिया। सपा ने ये चुनाव आधे अधूरे मन से लड़ा वरना उसकी स्थिति कुछ सुधर सकती थी। भाजपा को लोकसभा और विधानसभा चुनाव की अभूतपूर्व कामयाबी के बावजूद शहरी पार्टी माना जाता है। 2012 में अखिलेश की जबरदस्त कामयाबी के बाद हुए निकाय चुनाव में भी 12 से 10 महापौर भाजपा के जीते थे लेकिन इस बार भगवा पार्टी ने नगर पालिकाओं और नगर पंचायतों में भी सपा,बसपा और कांग्रेस से अधिक सीटें जीतकर अपने जनाधार के विस्तार का प्रमाण दे दिया। बड़ी संख्या में विजयी अधिकतर निर्दलीय भी देर-सवेर भाजपा से जुड़ जाएंगे क्योंकि अपना वजूद बनाए रखने उन्हें सत्ता की ज़रुरत पड़ेगी। कल के परिणामों ने कांग्रेस की दयनीय स्थिति को फिर उजागर कर दिया। यहां तक कि सोनिया गांधी और राहुल के  निर्वाचन क्षेत्र क्रमश: रायबरेली और अमेठी तक में उसकी लुटिया डूब गई। कुल मिलाकर  उप्र के मतदाताओं का भाजपा पर भरोसा कायम है। कम से कम ये तो मानना ही पड़ेगा कि सपा,बसपा और कांग्रेस को उपकृत करने की उसकी इच्छा तो कतई नहीं है। लेकिन भाजपा के लिए भी नई चुनौती खड़ी कर दी इन नतीजों ने। नीचे से लेकर ऊपर तक उसकी सत्ता होने से उप्र के विकास में किसी भी तरह की बहानेबाजी जनता नहीं सुनेगी। योगी शासन अभी तक अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर सका है। कानून व्यवस्था की स्थिति खराब होने के साथ ही विकास कार्य भी ठप्प हैं। संकल्प पत्र में किये गए वायदे भुला से दिए गए हैं। हो सकता है मुख्यमंत्री सहित अन्य नेता निकाय चुनाव में उलझे रहने से प्रशासन पर अपेक्षित ध्यान न दे सके हों लेकिन अब उन्हें तेजी से काम करना होगा क्योंकि 2019 में उप्र से अधिकतम सीटें जीतने का पिछला कारनामा दोहराए बिना भाजपा की केंद्र में वापिसी झमेले में पड़ सकती है। रही बात इन नतीजों का गुजरात पर असर पडऩे की तो इससे कांग्रेस का हौसला तो ठंडा पड़ेगा ही, वहीं भाजपा में मतदान के पहले चरण के पूर्व जबर्दस्त आत्मविश्वास का संचार हो गया। उप्र के शहरी इलाकों में मिली जबरदस्त सफलता ने जीएसटी के विरोध का डर भाजपा के मन में कम कर दिया होगा क्योंकि उससे प्रभावित होने वाले व्यापारी और उद्योगपति शहरों में ही बसे होते हैं। राहुल गांधी गुजरात में धूमकेतु की तरह उभरने की कोशिश भले करते रहे किन्तु अमेठी में कांग्रेस का सूपड़ा साफ  होने से अंतिम दौर के प्रचार में भाजपा को उनके पर कतरने का भरपूर अवसर मिल गया। हार्दिक,अल्पेश और जिग्नेश की तिकड़ी का मनोबल भी कल के बाद कुछ कमजोर तो पड़ेगा ही क्योंकि उप्र के मतदाताओं ने जाति की दीवारों को एक बार फिर धक्का देने की चतुराई दिखाई है। अयोध्या, काशी और मथुरा नगरनिगम पर भाजपा के कब्जे ने राममंदिर की चर्चा को फिर बल प्रदान कर दिया। डॉ सुब्रमण्यम स्वामी का बयान इसीलिए काफी प्रसांगिक है। विधानसभा चुनाव का श्रेय तो मोदी-शाह के नाम रहा लेकिन स्थानीय निकायों  में उल्लेखनीय सफलता के बाद योगी आदित्यनाथ हिंदुत्व के नए प्रतीक चिन्ह बनकर उभरे हैं। अंत में एक बात और जो महज संयोग हो सकती है कि उप्र विधानसभा चुनाव के कुछ दिन पूर्व महाराष्ट्र के स्थानीय निकाय चुनावों में भाजपा ने शानदार जीत हासिल की थी जिसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव उप्र पर पड़ा माना गया। अब गुजरात में मतदान के हफ्ते भर पहले उप्र के निकाय चुनाव में भाजपा की जोरदार सफलता भी वही काम कर गई तो भाजपा के लिए ये संयोग एक बार फिर सुखद साबित होगा।  वहीं दूसरी ओर राहुल गांधी की बतौर पार्टी अध्यक्ष ताजपोशी के चंद रोज पहले अमेठी में कांग्रेस की फजीहत उनके लिए अपशकुन कहा जा सकता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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