Tuesday 5 December 2017

राहुल की ताजपोशी : ये तो होना ही था

आखिरकार वह हो गया जो होना ही था । राहुल गांधी कांग्रेस के विधिवत अध्यक्ष बन गए। भले ही औपचारिक घोषणा के लिए कुछ दिन इंतज़ार करना पड़े लेकिन एक ही नामांकन पत्र आने से उनका निर्वाचन संदेह से परे है । उनके अध्यक्ष बनने पर भाजपा नेताओं विशेष रूप से प्रधानमंत्री द्वारा छोड़े जा रहे व्यंग्य बाण पूरी तरह अनावश्यक और औचित्यहीन हैं क्योंकि यह कांग्रेस का आंतरिक मसला है । भाजपा में अमित शाह को जिस तरह पार्टी अध्यक्ष बनाया गया वह तरीका भी कोई लोकतांत्रिक नहीं था । आम तौर पर लगभग प्रत्येक राजनीतिक दल में शीर्ष नेतृत्व का चयन इसी तरह होने लगा है । या तो परिवार का मुखिया सब कुछ तय कर देता है या कुछ लोगों का समूह। कांग्रेस को इस बात के लिए अवश्य कटघरे में खड़ा किया जा सकता है कि उसने स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान पूरे देश को एकजुट करने वाली पार्टी को एक परिवार की मिल्कियत बनाकर रख दिया । इसका दुष्परिणाम विभिन्न दलों में वंशवाद के स्थापित होने के तौर पर सामने आने लगा । तमिलनाडु में द्रमुक, महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी, उप्र में समाजवादी पार्टी  और लोकदल, बिहार में राजद, हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल, जम्मू कश्मीर में पीडीपी एवं नेशनल कांफ्रेंस, पंजाब में अकाली दल के अलावा बसपा में भी आंतरिक लोकतंत्र का पूरी तरह अभाव है । ये सभी पार्टियां या तो एक परिवार या एक व्यक्ति की निजी सम्पत्ति बनकर रह गईं हैं । जिस किसी ने इस एकाधिकार के  विरोध में बोलना तो दूर सोचने तक की हिमाकत की उसे या तो बाहर कर दिया गया या फिर वह हाशिये पर रहने के लिए मजबूर कर दिया गया । देश की राजनीतिक जमात में सबसे नई कही जाने वाली आम आदमी पार्टी तो अपने जन्म के पांच वर्ष पूरे करने के पहले ही टूटन का शिकार हो गई । उसके कई संस्थापक सदस्य धक्के मारकर बाहर कर दिए गए । डॉ. कुमार विश्वास अभी तक तो भीतर ही हैं लेकिन वे भी कब निकल आएं या निकाल दिए जाएं कहना मुश्किल है । इन उदाहरणों को देखते हुए कांग्रेस को परिवार या कुनबेवाद के आरोप से बरी करना पड़ता है  लेकिन ये कहना न गलत है न अनुचित कि अपनी विशिष्ट स्थिति का लाभ उठाकर पहले नेहरू और फिर उनकी पुत्री के गांधी परिवार ने देश में वंशवादी लोकतंत्र की बुनियाद रखते हुए उसे मजबूत इमारत का रूप दे दिया । रोचक बात ये है कि इसकी शुरुवात महात्मा गांधी के सामने हो गई जब कांग्रेस के करांची अधिवेशन में पं मोतीलाल नेहरू के बाद कांग्रेस अध्यक्ष की कमान उनके युवा पुत्र पं जवाहरलाल नेहरू को सौंपी गई । आज़ादी के बाद नेहरू जी ने अपनी बेटी इंदिरा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनवाने के लिए यू एन ढेबर को इस्तीफा देने बाध्य कर दिया था । यद्यपि उसके बाद अनेक नेता कांग्रेस प्रमुख बने लेकिन इंदिरा जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से कांग्रेस धीरे-धीरे उनकी पारिवारिक संपत्ति बनती गई । राजीव गांधी की मृत्यु के बाद के कुछ वर्षों में पीवी नरसिम्हा राव और सीताराम केसरी का कार्यकाल छोड़ दें तो उसके पहले और फिर बाद में कांग्रेस और गांधी परिवार समानार्थी बने हुए हैं । स्व. अर्जुन सिंह ने एक बार कहा था कि गांधी परिवार पार्टी को एकजुट रखने वाली ताकत है । ये बात सच भी ही किन्तु दुखद भी कि देश की सबसे पुरानी पार्टी में नेतृत्व की फसल इतनी कमजोर है कि चाहे . अनचाहे वह एक परिवार के आगे सोचने की क्षमता ही खो चुकी है । राहुल की ताजपोशी से किसी को खुशी हो या एतराज किन्तु आश्चर्य किसी को नहीं हुआ क्योंकि जब भी होता यही होता । बस प्रश्न ये है कि इसके लिए इतना इन्तजार क्यों किया गया घ् कांग्रेस में आखिरी बगावत सोनिया जी के विदेशी मूल को लेकर शरद पवार ने की थी । उसके बाद से आज तक कोई मुंह खोलने की हिम्मत नहीं कर सका । राहुल बीते कई सालों से पार्टी के उपाध्यक्ष बने रहकर शीर्ष पर बैठे हैं । भले ही सोनिया जी अध्यक्ष कहलाती रहीं किन्तु शक्ति का वास्तविक केंद्र तो राहुल ही थे । उस लिहाज से केवल उनका पदनाम बदल गया लेकिन हैसियत वही है । अब उनके प्रदर्शन को लें तो अभी तक वे ऐसा कुछ नहीं कर सके जो उनकी पदोन्नति का कारण माना जाए। उल्टे उनके नेतृत्व में कांग्रेस अपनी सबसे बुरी स्थिति में आ खड़ी हुई। उप्र में तो वह पूरी तरह अप्रासंगिक हो चुकी है वहीं बिहार में लालू  यादव सरीखे नेता के रहमोकरम पर है। राहुल के होते राज्य दर राज्य कांग्रेस खोती चली गई । पंजाब छोड़ अभी तक कोई सफलता उनके कार्यकाल की नहीं रही । मौजूदा संभावना गुजरात में दिख रही है जहाँ राहुल पूरे फार्म में नजर आ रहे हैं लेकिन वहां भी कांग्रेस की उम्मीदें राहुल की बजाय हार्दिक पटैल पर टिकी हैं । यदि पाटीदार मतदाता थोक में नहीं पलटे तो गुजरात फिर भाजपा की झोली में चला जाएगा जो राहुल के लिए सिर मुंड़ाते ओले पडऩे जैसा होगा क्योंकि हिमाचल तो हाथ से निकलना तय लग रहा है । हां गुजरात यदि कब्जे में आ जाए तब तो राहुल मुकाबले में  होंगे वरना उनकी ताजपोशी कांग्रेस के पतन का कारण बने बिना नहीं रहेगी । वे पार्टी के संगठन को क्या रूप देते हैं और प्रादेशिक क्षत्रपों की गुटबाजी को किस तरह खत्म कर पाते हैं उस पर काफी कुछ निर्भर होगा । सबसे बड़ी बात ये है कि क्या वे कांग्रेस में अधिकारों का विकेंद्रीकरण कर सकेंगे जिसकी बात वे कहते तो रहे किन्तु कर नहीं सके । बहरहाल राहुल गांधी के रूप में कांग्रेस में नए युग की शुरूवात की बात कहना गलत है क्योंकि राहुल युग तो कई वर्षों पहले ही शुरू हो चुका था । बदलाव केवल इतना हुआ कि अब सोनिया जी को कांग्रेस अध्यक्ष नहीं कहा जावेगा । राहुल पार्टी को दोबारा केंद्र की सत्ता में ला सकेंगे या नहीं ये सोचना फिलहाल उतना महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि आज की जरूरत एक मजबूत विपक्ष की है । यदि राहुल कांग्रेस को बतौर विपक्ष अपने दायित्व का सही तरीके से निर्वहन करने लायक बना सके तो माना जाएगा उन्होंने अपने चयन को सार्थक कर दिया वरना 2019 के पूर्व पार्टी में या तो विभाजन होगा या बड़े पैमाने पर भगदड़ । गुजरात चुनाव देश की राजनीतिक दिशा  के साथ ही राहुल गांधी का भविष्य भी काफी हद तक तय कर देंगे । उस लिहाज से पार्टी अध्यक्ष पद पर उनके पूर्णकालिक चयन की टाइमिंग बेहद महत्वपूर्ण है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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