Saturday 16 December 2017

समय की मांग:गरीबी को बनाएं आरक्षण का आधार

तमिलनाडु उच्च न्यायालय ने गरीब सवर्णों को भी आरक्षण देने सम्बन्धी जो सुझाव दिया वह भले ही जातिवादी राजनीति के दुकानदारों को नागवार गुजरे लेकिन मौजूदा संदर्भ में आरक्षण का स्वरूप यदि न बदला गया तो हार्दिक, जिग्नेश और अल्पेश सरीखे संकीर्ण सोच वाले फसली नेता मुख्यधारा की सियासत को अपने इशारे पर नचाने में कामयाब हो जाएंगे। गुजरात में पाटीदार और हरियाणा में जाट आरक्षण के लिए हुए हिंसक आंदोलनों के आगे प्रदेश की सत्ता जिस तरह असहाय नजर आई उसने राजनीति में अराजकता के दम पर उभरने का नया रास्ता खोल दिया। राजनीतिक दलों का मकसद चूँकि येन केन प्रकारेण चुनाव जीतकर सत्ता में बने रहना हो चुका है इसलिए देश के भले-बुरे की चिंता किसी को नहीं रही। तमिलनाडु उच्च न्यायालय में मेडीकल कालेज की एक सीट की श्रेणी बदलने सम्बन्धी याचिका एक सवर्ण छात्र ने लगाई थी। उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को निर्देश दिया है कि वह गरीब को गरीब मानने वाली व्यवस्था लागू करने पर विचार करे जिससे आर्थिक दृष्टि से कमजोर सवर्णों को भी आर्थिक , शैक्षणिक तथा रोजगार के क्षेत्र में आरक्षण का लाभ मिल सके। इस हेतु सम्भावनाएं तलाशने का निर्देश देते हुए न्यायाधीश ने स्पष्ट किया कि उन्हें आरक्षित वर्ग का विरोधी न समझा जावे। उल्लेखनीय है तमिलनाडु देश का वह राज्य है जहाँ सर्वाधिक आरक्षण दिया जा रहा है। इसे लेकर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित आरक्षण की अधिकतम सीमा का उल्लंघन करने का दुस्साहस भी वहां की सरकारें करती आई हैं। यूँ भी द्रमुक और अद्रमुक की वैचारिक पृष्ठभूमि सवर्ण विरोध पर ही आधारित है। रामास्वामी पेरियार ने जिस घृणा को समाज में फैलाया भले ही वह पहले जैसी नहीं रही लेकिन तमिलनाडु से सीख लेकर ही जातिवादी आरक्षण की राजनीति ने पूरे देश में पैर फैला लिए और बजाय जातिगत भेदभाव मिटाने के उसकी खाई को और चौड़ा कर दिया। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि सवर्ण जातियों ने कई शताब्दियों तक पिछड़ी और दलित जातियों का शोषण करते हुए उन्हें अपमानित और तिरस्कृत रखा। अत्याचार भी कम नहीं हुए लेकिन 21 वीं सदी के भारत में भी यदि जातिगत आधार पर समाज को टुकड़ों में देखा जाए तो फिर मानना पड़ेगा कि हमारी मानसिकता अभी भी सदियों पुरानी ही है। आजादी के उपरांत की गई आरक्षण की व्यवस्था पूरी तरह सही थी जिसकी वजह से वंचित वर्ग के सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक उन्नयन का काम काफी हद तक आगे बढ़ सका। यद्यपि अभी भी पिछड़े और दलितों का अपेक्षित विकास नहीं हो सका किन्तु अब 1947 से पहले वाली स्थिति भी नहीं रही। आरक्षण का जो सबसे बड़ा लाभ है वह शिक्षण संस्थानों में कोटा के अंतर्गत प्रवेश, सरकारी नौकरी और फिर पदोन्नति। यदि ये न हों तो बाकी जो भी लाभ आरक्षित जातियों को मिल रहे हैं वे अर्थहीन हो जायेंगे। कहने में कुछ भी अनुचित नहीं है कि आरक्षण का उद्देश्य समाज के सभी वर्गों के विकास की बजाय वोट बैंक की राजनीति हो गया है। पाटीदार आरक्षण आंदोलन इसका नवीनतम उदाहरण है जो अपने असली मकसद से भटककर चुनावी सौदेबाजी में उलझ गया। हरियाणा में जाटों के आंदोलन ने दो- तीन दिन में ही सैकड़ों करोड़ का नुकसान राज्य को पहुंचा दिया। जिस सरकारी नौकरी की मृगतृष्णा में आरक्षण की मांग होती है वे तो दिन ब दिन घटती जा रही हैं। अब तो रक्षा उत्पादन क्षेत्र में भी निजी कम्पनियां कूद गई हैं। शायद यही वजह है कि आरक्षण के पैरोकार निजी क्षेत्र की कम्पनियों की नौकरियों में भी आरक्षण हेतु दबाव बनाने लगे हैं। लेकिन मौजूदा व्यवस्था से जातिगत भेदभाव  तो मिटा नहीं उल्टे समरसता और सद्भाव घटता जा रहा है। ऊँच नीच और छुआछूत भले ही पहले जैसे न रहे हों किन्तु जातिगत विद्वेष भीतर भीतर बढ़ रहा है। तमिलनाडु उच्च न्यायालय का निर्देश बर्र के छत्ते में पत्थर मारने जैसा ही है। हो सकता है सम्बंधित न्यायाधीश को सवर्ण समर्थक मानकर उनकी आलोचना होने लगे। शायद इसी वजह से उन्होंने अपने आदेश के साथ खुद को आरक्षित वर्ग का विरोधी न समझे जाने जैसी सफाई भी दे डाली। लेकिन न्यायाधीश महोदय ने जो सुझाव दिया उसी से समाज में जातिगत सद्भाव और समानता लाई जा सकती है। सरकार के बड़े लक्ष्यों में एक गरीबी मिटाना भी रहा है। इंदिरा गांधी ने तो 1971 में गरीबी हटाओ का नारा उछालकर लोकसभा चुनाव में जबरदस्त बहुमत हासिल कर किया किन्तु गरीब और गरीबी दोनों बढ़ते गए और धीरे-धीरे नौबत ये आ गई कि करोड़ों लोग गरीबी रेखा से भी नीचे रहने मज़बूर  हैं। ये देखते हुए समय आ गया है जब नरेंद्र मोदी के चुनावी नारे 'सबका साथ-सबका विकासÓ को अमली जामा पहिनाया जावे। सर्वोच्च न्यायालय भी समय समय पर गरीबी को आरक्षण का आधार बनाने की बात घुमा फिराकर कहता आया है। हालांकि राजनेताओं के सिर पर सदैव पिछड़े और दलित वर्ग के नाराज होने का डर बना रहता है लेकिन उप्र के विधानसभा चुनाव ने दिखा दिया कि अब जातिगत गोलबंदी पहले जैसी फायदेमंद नहीं रही। मुसलमानों को खुश करते हए चुनाव जीतने की रणनीति भी अब बेअसर होने लगी है। राहुल गांधी ने गुजरात चुनाव के दौरान हिन्दू मंदिरों में तो खूब मत्था टेका किन्तु मस्जि़द नहीं गए। उप्र में अज़ा हेतु आरक्षित अनेक सीटों पर बसपा की हार एक साथ कई संकेत दे रही है। जैसे कि एग्जिट पोल के अनुमान हैं यदि गुजरात में भाजपा सरकार की वापसी हो गई तब पाटीदार,ओबीसी और दलितों के नाम पर हुई नेतागिरी की हवा निकलते देर नहीं लगेगी। समय आ गया है जब आरक्षण को सामाजिक संरक्षण का रूप देते हए हर जाति,वर्ग और धर्म के गरीब तबके के उत्थान हेतु सरकार नीतियों में तदनुसार बदलाव करे। तमिलनाडु उच्च न्यायालय से उठी आवाज पूरे देश में जोर पकड़ सकती है। इसके पहले कि ये चिंगारी आग में तब्दील हो जाए, राजनीतिक बिरादरी को सतर्क और गम्भीर होकर आरक्षण को संकीर्ण दायरे से निकालने की व्यवस्था बनाने पर विचार और निर्णय करना चाहिए। वरना वह दिन दूर नहीं जब भारत के हर हिस्से में जातिगत वैमनस्य और इष्र्या हिंसक संघर्ष का रूप ले लेगी। सवर्ण समाज के भीतर धधक रहे असन्तोष का ज्वालामुखी फटने की कगार पर आता जा रहा है। नौकरियों के बाद पदोन्नति में भी आरक्षण की वजह से युवा वर्ग बेहद उत्तेजित है। तमिलनाडु उच्च न्यायालय की सलाह को विकृत मानसिकता की जगह रचनात्मक दृष्टिकोण से देखें तो निश्चित रूप से आरक्षण का आधार जाति की बजाय गरीबी को बनाने की दिशा में कदम बढ़ाए जा सकते हैं वरना वोट बैंक की सियासत समाज को टुकड़ों में बांटने के षडयंत्र में कामयाब होती रहेगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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