Wednesday 13 December 2017

न्यायपालिका के परिवारवाद पर भी बहस हो

राजनीतिक दलों पर परिवारवाद को प्रश्रय और प्रोत्साहन देने का आरोप लगना बेहद सामान्य है। राहुल गांधी का निर्विरोध कांग्रेस अध्यक्ष चुना जाना इसका ताजा प्रमाण है। अधिकतर क्षेत्रीय पार्टियों में पारिवारिक विरासत ही नेतृत्व का आधार बन चुकी है। लेकिन न्याय के क्षेत्र भी परिवारवाद ने अपना आधिपत्य जिस तरह जमा रखा है वह भी विचारणीय मुद्दा है। वकील के बेटे-बेटी वकालत करें तो किसी को आपत्ति नहीं होती क्योंकि इस पेशे में केवल पारिवारिक विरासत काम नहीं आती अपितु कानून का समुचित ज्ञान और अदालत में बहस की क्षमता महत्वपूर्ण होती है। लेकिन न्यायाधीशों की नियुक्ति में चल रहे परिवारवाद को लेकर पहले जो बातें दबी जुबान हुआ करती थीं वे अब खुलकर व्यक्त होने से उम्मीद है निकट भविष्य में न्यायपालिका में चल रहा खानदानवाद भी सार्वजनिक बहस का मुद्दा बने बिना नहीं रहेगा। कॉलेजियम प्रथा को हटाकर न्यायाधीशों का चयन भी प्रशासनिक अधिकारियों की तरह करने संबंधी जो व्यवस्था बनाई जा रही थी उसे न्यायपालिका में हस्तक्षेप का नाम देकर सर्वोच्च न्यायालय ने चटका दिया। तबसे सरकार और न्यायपालिका के बीच वैचारिक शीतयुद्ध की स्थिति बनी रहती है । सार्वजनिक मंचों तक पर न्यायाधीशों और सरकार के प्रतिनिधियों के बीच इस विषय पर कटाक्षों का आदान-प्रदान होते देखा जा सकता है। कभी सरकार तो कभी न्यायाधीशगण न्यायपालिका में नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर एक दूसरे पर गुर्राने में पीछे नहीं हटते। जिसे जहां अवसर मिलता है वह इस विषय को लेकर अपना मत व्यक्त करने में लेशमात्र भी संकोच या लिहाज नहीं करता। विगत दिवस केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री उपेंद्र कुशवाहा ने कॉलेजियम प्रणाली में सुधार की जरूरत बताते हुए कहा कि आज़ादी के बाद से अब तक देश के 250-300 परिवारों से ही सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश बनते आए हैं। श्री कुशवाहा ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद द्वारा हाल ही में दलितों और महिलाओं के नगण्य प्रतिनिधित्व पर ध्यान आकर्षित किये जाने का हवाला देते हुए उच्च न्यायिक पदों पर नियुक्तियों में अन्य वर्गों को समुचित प्रतिनिधित्व दिए जाने की जरूरत को नए सिरे से उछाल दिया। यद्यपि मंत्री जी ने न्यायाधीशों की योग्यता पर संदेह से तो इंकार कर दिया लेकिन उनका ये कथन मायने रखता है कि देश के 250-300 परिवारों में से ही सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का चयन महज इत्तेफाक नहीं  हो सकता। इसके पीछे वह सामंतवादी सोच काफी हद तक जिम्मेदार कही जा सकती है जो किसी महत्वपूर्ण पद को अपना खानदानी अधिकार मानने लगती है। उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति में योग्यता को कितना महत्व दिया जाता है यह गहन विश्लेषण का विषय है। कॉलेजियम प्रणाली पर अंगुली न उठती यदि इंदिरा गांधी के राजनीतिक रूप से ताकतवर होते ही प्रतिबद्ध न्यायपालिका की अवधारणा जोर न पकड़ती। यद्यपि देश ने उसे स्वीकार नहीं किया लेकिन उच्च न्यायिक सेवाओं में नियुक्तियों को लेकर बरती जाने वाली पारदर्शिता पर संदेह अवश्य सार्वजनिक विमर्श का विषय बनने लगा। पटना में की गई श्री कुशवाहा की संदर्भित टिप्पणी भले ही खबरों की भीड़ में कहीं खो गई हो लेकिन इस मामले में न्यायपालिका जिस तरह से गैर समझौतावादी रवैये पर कायम है उस वजह से उसके प्रति सम्मान में कमी आई है, ये कहना कतई गलत नहीं होगा। भले ही श्री कुशवाहा के बयान को आरक्षण समर्थक बताकर उपेक्षित कर दिया जावे लेकिन सर्वोच्च न्यायालय में देश के 250-300 परिवारों के वर्चस्व का मुद्दा छेड़कर उन्होंने इस बारे में चलने वाली बहस को एक अलग ही दिशा दे दी है। स्वतंत्र न्यायपालिका प्रजातन्त्र का बेहद महत्वपूर्ण और आवश्यक अंग है। यदि इस पर भी गिने-चुने परिवारों का ही आधिपत्य चलता रहा तो फिर राजनीति में परिवारवाद पर ऐतराज करने का औचित्य ही खत्म हो जाएगा। उपेंद्र कुशवाहा ने सर्वोच्च न्यायालय में चली आ रही परिवार परम्परा को तो उजागर कर दिया लेकिन लगे हाथ उन्हें उन परिवारों की सूची भी प्रस्तुत कर देना चाहिए जहां पंच परमेश्वर ही पैदा होते आए हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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