Monday 25 December 2017

उपचुनाव : कांग्रेस का खाली हाथ

गत दिवस विभिन्न राज्यों में सम्पन्न हुए विधानसभा उपचुनावों के जो नतीजे आये उनके अनुसार सत्तारूढ़ पार्टियों का दबदबा बना हुआ है। यद्यपि तमिलनाडु की आरके नगर सीट पर अन्ना द्रमुक के बागी और पूर्व मुख्यमंत्री के भतीजे दिनाकरन ने सत्तारूढ़ पार्टी के नए विभाजन के संकेत दे दिए किन्तु विपक्षी द्रमुक का काफी पीछे रह जाना साबित करता है कि अन्नाद्रमुक ही तमिलनाडु की राजनीति में फिलहाल बड़ी ताकत है। दिनाकरन की जीत का सांकेतिक महत्व केवल इतना है कि उन्होंने जयललिता की मौत से खाली हुई सीट को निर्दलीय जीतकर अम्मा की विरासत पर दावा पुख्ता किया लेकिन शशिकला के जेल में  रहने की वजह से दिनाकरन कितना हाथ पांव मारेंगे और अन्ना द्रमुक में आगे बिखराव होगा ये फिलहाल सोचना जल्दबाजी होगी। तमिलनाडु में पांव जमाने के लिए प्रयासरत भाजपा के प्रत्याशी को नोटा से भी कम मत मिलना काफी कुछ कह देता है। द्रमुक अध्यक्ष करुणानिधि की शारीरिक असमर्थता और परिवार में उत्तराधिकारी को लेकर चल रही अन्तर्कलह के कारण ही 2 जी घोटाले में ए राजा और कनिमोझी के बरी होने का कोई लाभ उपचुनाव में पार्टी नहीं उठा सकी। अन्ना द्रमुक भी जयललिता के बाद की  स्थितियों को सम्भालने में जुटी हुई है। कांग्रेस और द्रमुक के गठबंधन में दरार डालने भाजपा भी प्रयत्नशील है लेकिन फिलहाल तमिलनाडु में राष्ट्रीय पार्टियों के उभार की कोई संभावना नजऱ नहीं आ रही। उधर बंगाल में हुए उपचुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने 64 हज़ार से वामपंथी उम्मीदवार को पटककर ममता बनर्जी के अपराजेय बने रहने की अवधारणा प्रमाणित कर दी लेकिन चौकाने वाली बात ये रही कि वामपंथी प्रत्याशी से मात्र 2ज् मत कम प्राप्त कर भाजपा तीसरे स्थान पर आ गई वहीं अपने विधायक के दलबदल से रिक्त हुई सीट पर कांग्रेस की जमानत जप्त हो गई। इससे सिद्ध हो गया कि  भाजपा बंगाल में तेजी से आगे बढ़ती जा रही है। जिस तरह वामपंथी अप्रासंगिक होने लगे हैं उससे लगता है आगामी चुनाव में बड़ी बात नहीं भाजपा प्रमुख विपक्षी दल के तौर पर स्थापित हो जाए। कांग्रेस की अपनी सीट पर जमानत ही डूब जाना उसकी चिंताजनक स्थिति का प्रगटीकरण है। यूँ भी बंगाल में पार्टी का ऐसा कोई चेहरा नहीं है जो जनता के बीच लोकप्रिय हो। तृणमूल ही अब वहां कांग्रेस का पर्याय बन गई है। कांग्रेस को एक और धक्का लगा अरुणाचल में जहां उसकी एक सीट भाजपा ने छीनते हुए उसे और कमजोर कर दिया। दोनों उपचुनाव जीतकर भाजपा ने इस सीमावर्ती संवेदनशील राज्य में जहां अपनी स्थिति और सुदृढ़ कर ली वहीं कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री की हार उसकी चिंताएं बढ़ाने वाली रही। उप्र की सिकंदरा सीट पर भाजपा प्रत्याशी की जीत भी मायने रखती है क्योंकि मतों का बंटवारा रोककर उसे हराने की गरज से मायावती ने अपना उम्मीदवार ही नहीं लड़ाया। बावजूद उसके भाजपा ने सीट जीतकर दिखा दिया कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अभी भी लोकप्रिय हैं और पिछली फरवरी में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद से विपक्ष अब तक सम्भल नहीं सका। पिछले दिनों स्थानीय निकायों के चुनावों में भाजपा  को मिली सफलता का असर भी कायम है। हालांकि इन उपचुनावों के नतीजों को देश का मिजाज मान लेना जल्दबाजी होगी क्योंकि हर राज्य के अपने समीकरण होते हैं लेकिन कांग्रेस का प्रदर्शन जितना दयनीय रहा उससे ये लगने लगा है कि पार्टी के पास दमदार स्थानीय  नेताओं का अभाव हो चला है। निकट भविष्य में विभिन्न राज्यों के लोकसभा उपचुनाव होने वाले हैं। उनमें उप्र और राजस्थान भी हैं। गुजरात में मिली सफलता से भले ही कांग्रेस के प्रति जनरुचि बढ़ी है लेकिन पार्टी का संगठन अभी भी बेहद कमजोर है। गुजरात में यही कमजोरी उसके आड़े आ गई वरना वहां भाजपा उखड़ जाती। त्रिपुरा और मेघालय जैसे पूर्वोत्तर राज्यों में भी विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। भाजपा ने असम और मणिपुर जीतकर और अरुणाचल में जोड़ तोड़ से अपनी सरकार बनाकर इरादे साफ कर दिए थे। ऐसे में धीरे-धीरे कांग्रेस का सिमटते जाना नरेंद्र मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को वास्तविकता में  बदलता जा रहा है। धोखे न धड़ी कांग्रेस कहीं कर्नाटक भी गंवा बैठी तब उसका रसातल तक चला जाना अवश्यम्भावी हो जाएगा। गुजरात के धमाकेदार प्रदर्शन से भले ही राहुल गाँधी की छवि में थोड़ा सुधार हुआ होगा किन्तु हिमाचल की हार ने मजा बिगाड़ दिया। पार्टी को चाहिए कि वह अपनी संगठनात्मक ताकत तो बढ़ाए ही, नीतिगत अस्पष्टता को भी दूर करे। एक राष्ट्रीय पार्टी का नीचे लुढ़कते-लुढ़कते क्षेत्रीय दलों से भी बदतर स्थिति में आ जाना देश के लिए अच्छा नहीं है। गुजरात में कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन का श्रेय तो तीन लड़के लूट ले गए क्योंकि पार्टी के मुख्यमंत्री पद के सभी दावेदार विधायक तक नहीं बन सके। यही हाल रहा तो 2018 के अंत में तीन राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस को सफलता मिलना कठिन हो जायेगा। अनुकूल परिस्थितियों के बाद भी जीत से दूर रहने के कारण कांग्रेस का जनाधार और सिमटने का खतरा बढ़ता जा रहा है। कल जिन उपचुनावों के नतीजे आए उनमें कांग्रेस के हाथ कुछ न लगना उतनी बड़ी बात नहीं जितनी अपनी दो सीटें गंवा देना है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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