Wednesday 6 December 2017

सिब्बल ने भाजपा को बैठे-बिठाए मुद्दा दे दिया


1950 में जमीन के दावे को लेकर प्रस्तुत मुकदमे का फैसला अगर अपेक्षित समय में हो जाता तो वह इतने बड़े विवाद की वजह नहीं बन पाता। राम जन्मभूमि को लेकर शुरू हुआ झगड़ा यदि राजनीति के झमेले में फंसकर रह गया तो उसके लिए न्यायपालिका भी कम कसूरवार नहीं है जो इस संवेदनशील प्रकरण पर फैसला सुनाने में आगे पीछे सोचती रही । कुछ साल पूर्व इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अयोध्या में विवादित भूमि को तीन हिस्सों में बांटने का फैसला सुनाने की हिम्मत दिखाई लेकिन तब तक संबंधित सभी पक्ष अपनी स्थिति  से पीछे न हटने की हद तक आ चुके थे, लिहाजा मामला सर्वोच्च न्यायालय में बतौर अपील जा पहुंचा । उसने भी इतने साल व्यर्थ गंवा दिए । कुछ समय पहले 5 दिसम्बर से नियमित सुनवाई करते हुए इसके निपटारे का निर्णय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लिया गया । उम्मीद बंधी थी कि देर आए दुरुस्त आए की तर्ज पर अब यह प्रकरण अदालत सुलझा देगी । इस बारे में उल्लेखनीय तथ्य ये है कि लगभग सभी पक्ष अब ये कहने लगे हैं कि वे अदालत के निर्णय को मान लेंगे । न्यायालय द्वारा आपसी सुलह का सुझाव भी दिया गया था किंतु बात नहीं बनी। बीच - बीच में कुछ लोग मध्यस्थता करने की नीयत से आगे बढ़े लेकिन कोई भी पक्ष टस से मस नहीं हुआ । ताज़ा कोशिश श्री श्री रविशंकर की रही जिसका कोई फल नहीं निकला । ले देकर सभी की उम्मीदें सर्वोच्च न्यायालय पर टिक गईं किन्तु गत दिवस सुनवाई शुरू होते ही सुन्नी वक्फबोर्ड के वकील कपिल सिब्बल ने सुनवाई  2019 के लोकसभा चुनाव तक टालने का दबाव डालते हुए कहा कि चूंकि भाजपा ने 2014 के चुनावी घोषणा पत्र में राममंदिर बनाने की बात कही थी इसलिए प्रकरण का निपटारा होने से उसे आगामी लोकसभा चुनाव में सियासी लाभ मिल सकता है । जब अदालत ने इसे नहीं माना तब दस्तावेज़ों को पढऩे के लिए समय की मांग की गई जिस पर अदालत ने 8 फरवरी की तारीख तय कर दी, जिसके बाद नियमित सुनवाई की जावेगी। मुस्लिम पक्षकारों की ओर से वकीलों के सभी तर्क प्रकरण को टाले रखने की कोशिश करते लगे जबकि न्यायाधीशों ने उनकी हर कोशिश को विफल करते हुए इस बहुचर्चित प्रकरण को अंतिम रूप से हल करने की प्रतिबद्धता दोहराई। 8 फरवरी तक सभी पक्षों के वकीलों को  दस्तावेजों का आदान-प्रदान और अध्ययन करने की हिदायत भी दे दी गई। प्रधान न्यायाधीश ने व्यक्तिगत रुचि लेकर इस विवाद को निपटाने की जो पहल की बजाय उसका स्वागत करने के बजाय न्यायालय के भीतर राजनीतिक भाषणबाजी करने के श्री सिब्बल के प्रयास का औचित्य किसी भी समझदार इंसान  को रास नहीं आया।  चूंकि वे कांग्रेस के बड़े नेता भी हैं इसलिए उनकी अदालती जिऱह को काँग्रेस के दृष्टिकोण से जोड़ते हुए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कटाक्ष कर दिया कि एक तरफ  तो राहुल गांधी गुजरात के मंदिरों में जा-जाकर मत्था टेक रहे हैं वहीं दूसरी तरफ  उनकी पार्टी के वरिष्ठ नेता सर्वोच्च न्यायालय में मन्दिर मामले की सुनवाई रुकवाने के लिए एढ़ी-चोटी का जोर लगाए पड़े हैं । हालांकि कांग्रेस ने तुरंत श्री सिब्बल के तर्कों को उनके पेशे से जुड़ा बताते हुए उससे पल्ला झाड़ लिया किन्तु दूसरी तरफ  ये भी सच है कि भले ही न माने लेकिन कांग्रेस अयोध्या मसले पर सदैव इस बात को लेकर चिंतित रहती है कि इसका फायदा भाजपा को न मिले । दूसरी तरफ  वह भाजपा को मन्दिर बनाने का वायदा पूरा न कर पाने के लिए कटघरे में भी खड़ा करती है । वाजपेयी सरकार  जाने के उपरांत दस वर्ष का समय कांग्रेस को मिला था । वह चाहती तो उस दौरान मन्दिर विवाद को किसी अंजाम तक पहुंचाकर भाजपा से उसका ब्रह्मास्त्र छीन सकती थी लेकिन न तो उसने साहस दिखाया न ही राजनीतिक चातुर्य । अब जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने तत्परता के साथ इस विवाद को निपटाने के लिए कदम आगे बढ़ाए तब उसे महज इस गरज से रोकना कि उससे भाजपा लाभान्वित हो जाएगी , अव्वल दर्जे की गैर जिम्मेदाराना सोच है । सर्वोच्च न्यायालय हिंदुओं के पक्ष में फैसला देगा जिससे भाजपा को आगामी लोकसभा चुनाव में वोटों की भरपूर फसल काटने का अवसर मिल जाएगा, जैसी आशंका मुस्लिम पक्षकारों के मन में बैठ गई या फिर ये सब श्री सिब्बल के अपने दिमाग की उपज है ये तो वे ही बता सकते हैं किंतु इस विवाद को अदालती फैसले से निपटाने का ये सबसे सही समय है क्योंकि सत्ता में होने के कारण भाजपा के लिए भी कतिपय मर्यादाओं का पालन करना बाध्यता है । एक बात और भी इस सम्बंध में विचारणीय है कि जब ज़मीन के तीन बराबर हिस्से करने के अलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय को किसी भी पक्ष ने मंजूर नहीं किया और मन्दिर के बगल में या कुछ दूर हटकर मस्जि़द बनाने के लिए मुस्लिम राजी नहीं हैं तब भविष्य में आने वाले न्यायालयीन निर्णय को सभी पक्ष सिर झुकाकर स्वीकार कर लेंगे इसकी क्या गारंटी है ? कांग्रेस माने या नहीं किन्तु कल सर्वोच्च न्यायालय  में श्री सिब्बल की दलीलों ने गुजरात चुनाव में मन्दिर मुद्दे को भुनाने का अवसर बैठे-बिठाए  भाजपा को दे दिया । एक कहावत है कि सही निर्णय भी यदि उपयुक्त समय पर न लिया जाए तो उसका समुचित लाभ नहीं हो पाता । राम मन्दिर विवाद के बारे में भी यही हो रहा है । भाजपा और उसके विरोधी दोनों एक दूसरे पर राजनीति करने का आरोप लगाते रहते है किन्तु कभी भी ये देखने में नहीं आया कि उन सबने मिल बैठकर सभी पक्षों में सहमति बनाने के कोशिश की हो । भाजपा यदि मंदिर के बहाने हिन्दू ध्रुवीकरण करती है तो अन्य पार्टियों ने बाबरी ढांचे की याद दिला-दिलाकर मुस्लिम मतदाताओं को अपनी तरफ खींचने का कोई अवसर नहीं गंवाया । अच्छा हुआ सर्वोच्च न्यायालय ने श्री सिब्बल की जिऱह को नामंजूर करते हुए 8 फवरी की तारीख मुकर्रर कर दी । आगामी लोकसभा चुनाव के पहले तक ये मसला यदि अदालत निपटा दे तो ये उसका बड़ा एहसान होगा क्योंकि अयोध्या में यथास्थिति बनी रहने तक रामलला के प्रस्तावित मन्दिर तथा मस्जि़द का पुनर्निर्माण वोटों की एटीएम मशीन बने रहेंगे । कांग्रेस को चाहिये वह श्री सिब्बल के अदालती तर्कों से खुद को अलग ही न करे अपितु आगे बढ़कर कहे कि वह नियमित सुनवाई के जरिये प्रकरण के शीघ्रातिशीघ्र निराकरण के पक्ष में है। इस मामले को राजनीतिक और धार्मिक नज़रिए की बजाय भूमि स्वामित्व के दावे-प्रतिदावे के तौर पर देखा जाए तो ये जल्दी निबट जाएगा वरना 67 साल तो मुकदमे को चलते और आज 25 साल बाबरी ढाँचे को गिरे हो गए । यदि श्री सिब्बल की तरह अड़ंगेबाजी लगाई जाती रही तब ये मामला भी कश्मीर विवाद जैसा बन जाएगा । शिया मुस्लिमों ने अपनी तरफ  से जो सदाशयता दिखाई है वह इस प्रकरण में निर्णायक हो सकती है । शायद श्री सिब्बल और उनके पक्षकार इसी से भयभीत होकर मामले को टांगे रखना चाहते होंगे किन्तु वे इस बात से बेखबर हैं कि ऐसा करने से मुसलमानों का कितना नुकसान होता है और भाजपा सहित अन्य हिन्दू संगठनों को अपने वोट बैंक को एकजुट रखने का अवसर भी बिना मांगे मिल जाता है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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