Friday 22 December 2017

अब सीबीआई कठघरे में

देश के सबसे बड़े घोटाले के  सभी आरोपी छूट गए क्योंकि सीबीआई किसी के विरुद्ध आरोप प्रमाणित नहीं कर पाई। 1 लाख 76 हज़ार करोड़ के दूरसंचार घपले के इस अंत से देश का हर जि़म्मेदार नागरिक चिंतित है क्योंकि राजनेताओं और नौकरशाहों के भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की सारी मुहिम आखिर-आखिर  में दम तोड़ देती है। सीबीआई को लाख दु:खों की एक दवा मानकर आजमाया जाता है किन्तु वह वीआईपी मामलों में कितनी सफल हुई ये भी जांच का विषय बनता जा रहा है। दूरसंचार घोटाले की शुरुवात उस सीएजी रिपोर्ट के कुछ अंश लीक होने से हुई जो संसद में पेश होनी थी। उसमें 2 जी स्पेक्ट्रम की नीलामी की बजाय आवंटन करने की प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए माना गया कि उससे सरकार को 1लाख 76 हज़ार करोड़ की चपत पड़ी।  संसद से सड़क तक कोहराम मच गया। संसद का पूरा शीतकालीन सत्र उस वक्त के दूरसंचार मंत्री ए. राजा की बर्खास्तगी की मांग को लेकर  बेकार चला गया। बाद में बजट सत्र को बचाने के लिए राजा हटाए गए और फिर गिरफ्तार भी हुए। द्रमुक सांसद कनिमोझी और तमाम अधिकारी एवं लाभान्वित हुए कारोबारियों पर भी गाज गिरी। मामला सीबीआई को सौंप दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने सभी आवंटन रद्द कर उनकी नीलामी का निर्देश दे दिया। इस घटनाक्रम ने ईमानदारी के पुतले कहे जाने वाले डा. मनमोहन सिंह की छवि भी एक ऐसे लाचार प्रधानमंत्री की बना दी जिस पर दबाव डालकर उल्टे सीधे काम करा लिए जाते थे। भाजपा ने मौके का फायदा उठाते हुए दूरसंचार घोटाले को लोकसभा चुनाव में जमकर भुनाया। लेकिन गत दिवस सीबीआई अदालत ने जिस तरह से पूरे आरोप पत्र को रद्दी की टोकरी में फेंकते हुए घोटाले को कपोल कल्पित बताते हुए सभी कसूरवारों को ससम्मान बरी कर दिया उससे भाजपा सरकार में रहते हुए भी बंगलें झांकने मजबूर हो गई। उसके पास उच्च न्यायालय में अपील करने की बात कहने के सिवाय कोई समुचित जवाब ही नहीं बचा क्योंकि अदालत ने जिस तरह सीबीआई को आरोप प्रमाणित न कर पाने के लिए लताड़ा उसकी वजह से प्रथम दृष्ट्या हर कोई ये सोचने को बाध्य हो गया कि क्या वाकई घोटाले की पूरी कहानी मनगढं़त थी और धजी का सांप बनाया गया। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू ये भी है कि घोटाले की जांच से लेकर आरोपपत्र दाखिल होने तक केंद्र में वही मनमोहन सरकार थी जिसे कठघरे में खड़ा किया गया था। राजा और कनिमोझी सहित अन्य आरोपियों की गिरफ्तारी भी उसी सरकार के दौरान हुई। इस आधार पर ये कहना गलत होगा कि जांच और आरोपपत्र की कार्रवाई उस समय के विपक्ष या समाचार माध्यमों के दबाव में की गई थी। राजा और कनिमोझी के विरुद्ध आयकर चोरी के प्रकरण भी यूपीए सरकार ने ही दायर किये। यदि कुछ हुआ ही नहीं तो सीबीआई को उसी समय जाँच बन्द करते हुए आरोपियों को क्लीन चिट दे देनी थी। लेकिन उसने जांच करने के उपरांत एफआईआर दर्ज की, दोषियों को पकड़ा और फिर मामला दायर किया। 2014 में सत्ता परिवर्तन के पूर्व प्रकरण अदालत के समक्ष जा चुका था। वर्तमान मोदी सरकार ने पुराने आरोप पत्र में कोई छेड़छाड़ या रद्दोबदल किया हो ये बात भी कभी नहीं उठी। इससे ये तो स्पष्ट हो जाता है कि सीबीआई द्वारा पेश आरोप पत्र पूरी तरह पोचा था तथा जैसा न्यायाधीश ने निर्णय में लिखा कि कतिपय तकनीकी बिंदुओं को सीबीआई ही नहीं दूरसंचार विभाग के अधिकारी तक स्पष्ट नहीं कर सके। घोटाला हुआ ही नहीं क्योंकि सीबीआई उसे साबित नहीं कर सकी जैसी बात सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस सम्बंध में की गई पूर्व कार्रवाई का मजाक उड़ाने जैसा होगा। राजा के बाद दूरसंचार विभाग के मंत्री बनाए गए कपिल सिब्बल ने उस समय शून्य नुकसान की बात कहकर अपनी खूब भद्द पिटवाई थी। कल वे काफी चहक रहे थे क्योंकि अदालती निर्णय उनके दावे की पुष्टि करता है किन्तु मामला था ही नहीं तो यूपीए सरकार के ज़माने में सीबीआई द्वारा जो भी उठापटक की गई उसके पीछे कौन था? गुलाम नबी आजाद की ये पीड़ा समझी जा सकती है कि उक्त घोटाले के कारण कांग्रेस विपक्ष में आ गई लेकिन  सीएजी की रिपोर्ट और सीबीआई द्वारा की गई जांच और अदालत में पेश आरोपपत्र में तो तत्कालीन विपक्ष की कोई भूमिका नहीं थी। वर्तमान सरकार ने सीबीआई की कार्रवाई में कोई दखलन्दाजी नहीं की ये बात भी अदालत के फैसले से साफ हो गई। अब सवाल ये उठता है कि प्रकरण में  कोई दम नहीं था तो सीबीआई ने लंबा चौड़ा आरोपपत्र किसके कहने से बनाया? जिस तरह के हल्के फुल्के दस्तावेजी प्रमाण और गवाह पेश किए गए वे अदालत में टिक नहीं सके तो इसके लिए सीबीआई ही पूरी तरह से कसूरवार है जिसने या तो फर्जी मामला बनाया या फिर वह अपने आरोपपत्र को सही साबित करने में असफल हुई जो कि उसकी पहिचान बनती जा रही है। फैसला आते ही कांग्रेस का सरकार पर चढ़ बैठना स्वाभाविक था क्योंकि दूरसंचार घोटाले की वजह से उसे काफी शर्मिंदगी झेलनी पड़ी थी। अब ये मामला मोदी सरकार के गले में हड्डी की तरह फंस गया है। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने गत दिवस कांग्रेस को नसीहत दी कि वह अदालती फैसले को अपनी ईमानदारी का प्रमाणपत्र न समझे। उनकी बात सही तभी मानी जाएगी जब उनकी सरकार उच्च न्यायालय में उक्त घोटाले को साबित करते हुए दोषियों को दंडित करवाए वरना जिस तरह 2014 में भाजपा ने उसका राजनीतिक लाभ उठाया वैसा ही भविष्य में कांग्रेस को मिल सकता है। यद्यपि अदालत ने जिस तरह से पूरे आरोपपत्र को खारिज किया वह भी चौंकाने वाला है क्योंकि उससे अभियोजन पक्ष की भूमिका पर संदेह होना स्वाभाविक  है। न्याय प्रक्रिया सबूतों और गवाहों पर निर्भर होती है। न्यायाधीश अखबार की खबर या जनमत पर निर्णय नहीं देते। उस दृष्टि से फिलहाल तो सीबीआई ही कठघरे में है जिसने इतने बड़े मामले को बेहद हल्के में लिया। यदि घोटाला हुआ ही नहीं तो जांच, गिरफ्तारियाँ और  आरोपपत्र की क्या जरूरत थी ? और यदि हुआ तो आरोपी छूट कैसे गए, ये दोनों सवाल उत्तर मांगते हैं। फैसले के बाद तत्कालीन सीएजी विनोद रॉय पर भी कांग्रेस ने तीर छोड़े। इसलिए जरूरी है मोदी सरकार बिना समय गंवाए असलियत देश के सामने लाए क्योंकि ऐसा न होने पर विश्वास का संकट और गहरा जाएगा। सीएजी एक संवैधानिक संस्था है जो सार्वजनिक धन की बर्बादी और चोरी रोकने का काम करती है। यदि वह भी संदेह के घेरे में आ गई तब समूची व्यवस्था पर मंडराते संदेह के बादल और गहरे हो जाएंगे। दूरसंचार घोटाले के आरोपियों के बरी होने का राजनीतिक परिणाम चाहे जो निकले किन्तु इससे समाज का ईमानदार वर्ग बेहद चिन्तित है क्योंकि इसके चलते भ्रष्टाचार के विरुद्ध बोलने वाले मज़ाक का पात्र बनकर रह जाएंगे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment