Monday 11 December 2017

भारत: कृषि प्रधान से चुनाव प्रधान हो गया

इसके लिए दोषी कौन है इस पचड़े में पड़े बिना ये कहना कतई गलत नहीं होगा कि चुनावी राजनीति पूरी तरह सिद्धांत और नैतिकताविहीन हो गई है । गुजरात में आए दिन जो देखने और सुनने मिल रहा है उससे एक बात और समझ में आने लगी है कि चाहे कांग्रेस हो या भाजपा दोनों के पास जनता से संवाद करने के विषयों का टोटा हो चुका है । कांग्रेस गुजरात चुनाव जीतने के लिए हार्दिक सरीखे शॉर्टकट का सहारा लेने मजबूर हो गई जिसका कोई सैद्धांतिक आधार नहीं है । पाटीदार समाज के 15-16 फीसदी मतों की तृष्णा में राहुल सरीखे पढ़े-लिखे नेता ने एक घोर जातिवादी युवा नेता को महिमामण्डित करने में संकोच नहीं किया जिसमें  दूरगामी सोच का नितांत अभाव है । एक बार ये मान लें कि कांग्रेस गुजरात जीत जाएगी तब यही हार्दिक उसके लिए भी सिरदर्द बने बिना नहीं रहेगा । इसी तरह भाजपा भी पाटीदार आंदोलन से जुड़े हार्दिक के करीबियों को आंख मूंदकर अपने खेमे में शामिल करने एक पाँव पर खड़ी है । राहुल गांधी, भाजपा और प्रधानमंत्री से रोज एक सवाल पूछते हैं जिसका जवाब सीधे-सीधे न मिलकर किसी नई सनसनी के रूप में सामने आता है । मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप झेलने से बचने के किये कांग्रेस को साफ्ट हिंदुत्व का चोला ओढऩा पड़ा । राहुल अचानक जनेऊधारी ब्राह्मण बना दिये गए । भाजपा पर मन्दिर मुद्दे का राजनीतिकरण करने का आरोप लगाने वाली पार्टी के सर्वोच्च नेता को मंदिर-मंदिर भटकता देख हंसी आती है। राहुल द्वारा खुद को शिवभक्त बताना  उनके  भक्तिभाव को व्यक्त नहीं करता अपितु उस मज़बूरी का प्रमाण है जिसने लगभग सभी राजनीतिक दलों को प्रभावित कर रखा है । ये बात बिल्कुल सही है कि उप्र में जहां भाजपा पूरी तरह आक्रामक होकर लड़ी थी वहीं गुजरात में वह शुरू से ही बेहद रक्षात्मक और सहमी-सहमी नजऱ आई। मुख्यमंत्री विजय रुपाणी का व्यक्तित्व निर्विवाद और सौम्य-सरल भले हो लेकिन वे भाजपा को जिताना तो दूर अपनी सीट बचाने के लिए ही संघर्ष करते दिखाई दिए । ऐसे में सरकार की उपलब्धियां और भावी योजनाओं पर बात करने को कोई महत्व ही नहीं दिया गया । भाजपा को लगा कि हार्दिक की अश्लील सीडी उसका बेड़ा पार करवा देंगी वहीं कांग्रेस इस मुगालते में बैठी थी कि विकास पागल हो गया जैसा जुमला उछालकर वह सत्ता से 22 साल का अपना विछोह खत्म कर लेगी । पाटीदारों के अलावा कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी को ओबीसी और दलित वर्ग के नए-नए उभरे युवा नेताओं के लिए लाल कालीन बिछाना पड़ गया । जाति के नाम पर उत्पन्न ये दबाव समूह ही उत्तर भारत में  कांग्रेस के सफाये का कारण बन गए । उसके बाद भी राहुल ने बिहार में लालू और उप्र में अखिलेश से गलबहियां डालीं लेकिन वह हाशिये से बाहर नहीं आ सकी । गुजरात में पाटीदार आंदोलन की मांगों को कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में जिस अस्पष्ट रूप से जगह दी वह भी यदि सरकार बन गई तो उसके सिंहासन में तक्षक नाग की तरह लिपटे बिना नहीं रहेगा । राहुल गांधी के लिए गुजरात जीवन-मरण का सवाल बन चुका है क्योंकि यहां भी वे कांग्रेस को नहीं जिता सके तो फिर बतौर पार्टी अध्यक्ष उनकी ताजपोशी अपशकुनी हो जाएगी । दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी भी अपने गृह राज्य रूपी हिंदुत्व की प्रयोगशाला की रक्षा के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार नजऱ आ रहे हैं । राहुल गांधी के सवालों के जवाब में वे कभी मणिशंकर अय्यर तो कभी निजामी के ट्वीट के बहाने कांग्रेस को घेरने का दांव चलते रहे। गत दिवस उन्होंने श्री अय्यर के घर पर पूर्व उपराष्ट्रपति और पूर्व प्रधानमंत्री के साथ पाकिस्तान के उच्चायुक्त की बैठक का मुद्दा उछालकर कांग्रेस को घेरने की चाल चली लेकिन देर रात कांग्रेस ने इसके सबूत मांगकर प्रधानमंत्री को ही कठघरे में खड़ा कर दिया । अब यदि श्री मोदी और भाजपा इस आरोप को सिद्ध नहीं कर सके तब ये मानना ही पड़ेगा कि चुनाव जीतने के लिए औरों से खुद को अलग बताने वाली भाजपा भी संदर्भहीन और निराधार बातों का सहारा लेने में नहीं हिचकती। इसी तरह अहमद पटेल को कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री पद का चेहरा बताने सम्बन्धी प्रचार भी अनावश्यक प्रतीत होता है । कुल मिलाकर ये अनुभव होने लगा है कि महीनों पहले से प्रचार शुरू कर देने के कारण राजनीतिक दल और उनके नेताओं के पास मुद्दों का टोटा पड़ जाता है जिसकी परिणिति प्रचार के गिरते स्तर के रूप में सामने आती हैं। ऐसे में भारत को कृषि प्रधान की जगह अब चुनाव प्रधान देश कहना ज्यादा सही होगा क्योंकि हर समय देश में चुनाव नामक फसल बोने और काटने का उपक्रम ही चला करता है। इसकी वजह से देश का कितना नुकसान हो रहा है ये बात कोई भी पार्टी अथवा नेता सोचने तैयार नहीं है । गुजरात चुनाव खत्म होते ही कर्नाटक, मप्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और उसके बाद लोकसभा चुनाव की हलचल शुरू हो जाएगी । ऐसे में देश के सामने मौजूद समस्याओं का समाधान कैसे होगा इसकी चिंता न सत्ता पक्ष को है और न ही विपक्ष को । समय आ गया है जब राजनीतिक विमर्श को देश की जरूरतों की दृष्टि से  प्राथमिकताओं के मुताबिक नए सिरे से तय किया जाए। इसके लिए चाहे नरेंद्र मोदी हों, चाहे राहुल गांधी या और नेतागण, सभी को अपनी सोच और शैली में आवश्यक सुधार करने होंगे। गुजरात देश के विकसित राज्यों में शुमार होता है । भाजपा तो इसे मॉडल के तौर पर पेश भी करती है लेकिन यहां हो रहे चुनाव में राजनीति का जो मॉडल उभरकर आ रहा है वह देश की भावी राजनीतिक तस्वीर के और भी विकृत और भयावह होने का संकेत है । चुनावी जीत-हार को खिलाड़ी भावना से लेने की बजाय अब बदले और वैमनस्य का वायरस जोर मारने लगा है । मुनव्वर राणा ने इसे भाँपते हुए पहले ही ये शेर लिख दिया था:-
'सियासत नफरतों के जख्म को भरने नहीं देती,
जो भरने को आते हैं तो मक्खी बैठ जाती है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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