Monday 31 August 2020

अर्थव्यवस्था खेल नहीं लेकिन खिलौने अर्थव्यवस्था का हिस्सा जरूर हैं



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत दिवस रेडियो पर मन की बात के दौरान भारतीय खिलौना उद्योग को विकसित करने का जो आह्वान किया वह दिखने में छोटा लेकिन अर्थव्यवस्था के लिए बहुत ही आधारभूत उपाय है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने हालाँकि इसका मजाक उड़ाया है लेकिन आम हिन्दुस्तानी घटिया किस्म के चीनी खिलौने खरीदते समय उस दौर को जरूर याद करता है जब अपने देश में भी खिलौनों का उत्पादन हुआ करता था। यद्यपि भारतीय बाजार में चीनी घुसपैठ के पहले भी जापानी खिलौने आया करते थे किन्तु वे अपेक्षाकृत महंगे होने से साधारण लोगों की पहुँच से बाहर थे। चीन ने जब सस्ते खिलौनों की भरमार भारतीय बाजारों में कर दी तब टिकाऊ न होने के बाद भी भारतीय उपभोक्ताओं ने तात्कालिक लाभ की दृष्टि से उन्हें खरीदना शुरू किया और देखते - देखते भारतीय खिलौना उद्योग भी टूटे हुए खिलौने की तरह होकर रह गया। प्रधानमंत्री ने कोरोना काल के दौरान आपदा को अवसर में बदलने का मंत्र देते हुए आत्मनिर्भर भारत का जो नारा दिया वह भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने का बहुत ही महत्वाकांक्षी कदम है। रक्षा क्षेत्र के 100 से अधिक सामान भारत में बनाने का सरकार का फैसला दिशासूचक है। निजी क्षेत्र में भी आत्मनिर्भरता के लिए नये सिरे से प्रयास प्रारम्भ हो गये हैं। खास तौर पर दवा निर्माताओं ने कच्चे माल के भारत में उत्पादन का अभियान छेड़ दिया है। रही बात खिलौनों की तो इनको बनाने में कोई बहुत बड़ी तकनीक नहीं लगती। लेकिन इनके जरिये बच्चों के मानसिक विकास की नींव जरूर डाली जा सकती है। भारत में स्थानीय स्तर पर बनने वाले खिलौने भले ही आज के दौर में अप्रासंगिक मान लिए जाएँ लेकिन आधुनिक खिलौनों का उत्पादन करने लायक तकनीकी ज्ञान और अनुभव तो भारत के पास है ही। प्रधानमंत्री ने कम्प्यूटर  इंजीनियरों से भारतीय इतिहास और हालात को ध्यान रखते हुए कम्यूटर गेम्स बनाने की जो अपील की, उसका उद्देश्य आत्मनिर्भरता के साथ ही वैश्वीकरण के कारण खतरे में आई भारतीयता को सुरक्षित रखते हुए मजबूती प्रदान करना है। ये बात पूरी तरह सही है कि विदेशों में विकसित हुए कम्प्यूटर गेम्स में उलझकर भारतीय बच्चे और किशोर मशीनी सोच से प्रभावित होते जा रहे हैं। उनमें उद्दंडता और उच्छ्श्रंखलता जिस तरह बढ़ रही है उसका व्यापक प्रभाव समाज में देखा जा सकता है। बाल अपराध बढ़ने के लिए भी मनोवैज्ञानिक विदेशी कम्प्यूटर गेम्स को काफ़ी हद तक जिम्मेदार मानते हैं । वॉल्ट डिज्नी द्वारा सृजित मिकी-माउस पूरी दुनिया के बच्चों के मन पर छाया हुआ है। उसके जवाब में जब भारतीय निर्माताओं द्वारा गणेश जी, हनुमान जी और ऐसे ही अन्य भारतीय पौराणिक चरित्रों पर टीवी एनीमेशन धारावाहिक बनाए गये तो उसका भारत के बच्चों पर बहुत ही सकारात्मक असर हुआ। मोगली नामक एनीमेशन को भी आशातीत सफलता मिली। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि नब्बे के दशक में टीवी पर रामायण और महाभारत के बतौर धारावाहिक प्रसारण ने भारतीय समाज के बड़े हिस्से को प्रभावित किया और उसी के बाद पौराणिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित दर्जनों धारावाहिक और फि़ल्में बनीं और सफल भी रहीं। कोरोना के आते ही लॉक डाउन के दौरान दूरदर्शन पर रामायण और महाभारत का प्रसारण दशकों बाद फिर से किया गया। और उन्हें मिली सफलता से ये साफ हो गया कि भारतीय समाज क्या चाहता है ? प्रधानमंत्री ने तो गूगल, फेसबुक और ट्विटर के स्वदेशी संस्करण के विकास की अपील भी युवा कम्प्यूटर इंजीनियरों से की जो भारत को सही मायनों में विश्वशक्ति बनाने के लिए मूलभूत आवश्यकता है। बात खिलौना उद्योग के पुनर्जीवित करने से शुरू हुई थी और श्री मोदी ने भारत में कुत्तों की उन नस्लों का जिक्र भी कर दिया जो किसी भी पैमाने पर महंगे विदेशी नस्ल के कुत्तों से कम नहीं होते। यूँ तो इस बात का भी मजाक उड़ाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री कुत्तों की नस्ल का जिक्र राष्ट्र के नाम संबोधन में करें लेकिन उनकी समूची चर्चा का आधार चूँकि स्वदेशी और आत्मनिर्भर भारत था इसलिए उन्होंने ऐसा कहा। मन की बात के ताजा संस्करण में खिलौनों से बात शुरू करना निश्चित रूप से जनसाधारण के मन को छूने का प्रयास था। अर्थव्यवस्था बेशक खेल नहीं है लेकिन ये बात भी सच है कि 135 करोड़ की आबादी वाले मुल्क में खिलौने भी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ता प्रदान कर सकते हैं। चीन इसका सबसे सटीक उदाहराण है। जिसे खेल - खेल में चुनौती देने का श्री मोदी का ये अंदाज वाकई दूरदृष्टता है। लेकिन इसके साथ ही सरकार को खिलौना और कम्प्यूटर गेम्स बनाने वालों को विशेष छूट और प्रोत्साहन देना पड़ेगा जिससे वे अतिरिक्त उत्साह और सक्रियता दिखा सकें।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 29 August 2020

हमारे देश के बीमार नेता शिंजो आबे जैसा उदाहरण कब पेश करेंगे




जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। वे जापान के सबसे ज्यादा समय तक प्रधानमन्त्री रहे। त्यागपत्र का कारण राजनीतिक न होकर खऱाब स्वास्थ्य है। उन्होंने स्पष्ट किया कि वे अपना कार्यकाल पूरा होने के एक वर्ष पहले ही पद छोड़ रहे हैं क्योंकि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है और ऐसे में जब देश कोरोना से जूझ रहा है तब वे नेतृत्व के स्तर पर शून्यता की स्थिति बनाए रखने के पक्ष में नहीं हैं। जापान एक विकसित देश है। वहां चिकित्सा सुविधाएँ भी विश्वस्तरीय हैं। प्रधानमन्त्री आबे चाहते तो पद पर रहते हुए किसी कार्यकारी के जरिये भी सरकार का संचालन कर सकते थे। जापान की जनता में भी उनका विरोध नहीं था। इस पद पर कार्य करने का उनके पास पर्याप्त अनुभव भी था। श्री आबे ने देश को राजनीतिक स्थायित्व देने के साथ ही आर्थिक मजबूती भी दी। पिछली आर्थिक मंदी के दौरान जापान की अर्थव्यवस्था को डगमगाने से बचाने में उनकी भूमिका सराहना का पात्र बनी। यहाँ तक कि अनेक अवसरों पर जापान ने अमेरिका के अर्थतंत्र को भी सहारा दिया। विश्व बिरादरी में भी उनकी गिनती अनुभवी और प्रभावशाली नेता के तौर पर होती रही। भारत और जापान के बीच निकट सम्बन्ध स्थापित होने में श्री आबे का योगदान उल्लेखनीय है। खास तौर पर नरेंद्र मोदी के साथ उनका व्यक्तिगत सामंजस्य बहुत ही अच्छा  रहा। लेकिन इस सबसे हटकर उनके त्यागपत्र को भारतीय संदर्भों में देखने पर मन में स्वाभाविक रूप से ये प्रश्न उठता है कि हमारे देश में बीमारी के बावजूद सरकारी पदों पर बैठे महानुभाव इस तरह का उदाहरण पेश क्यों नहीं करते ? मात्र 65 साल के आयु में पद त्याग करने वाले श्री आबे एक वर्ष का शेष कार्यकाल आसानी से पूरा कर सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा करने की जगह गद्दी छोड़ने का फैसला किया। भारत में सत्ता में बैठे अनेक वयोवृद्ध राजनेता असाध्य रोगों से ग्रसित होने के बाद भी पद से हटने की बजाय सरकारी खर्च पर मुफ्त इलाज करवाते हैं। अनेक तो ऐसे हैं जो लम्बे समय तक विदेश में इलाजरत रहे। आज भी कुछ हैं जो दफ्तर में कम और अस्पताल में ज्यादा रहते हैं। लेकिन सत्ता से हटने का ख्याल उन्हें सपने में भी नहीं आता। राज्यपाल पद पर बिठाये जाने वाले अधिकतर नेताओं के काफी बुजुर्ग होने से तरह-तरह की बीमारियाँ उनके साथ जुड़ी होती हैं। महामहिम बनते ही वे प्राचीन समय के राजा-महाराजा की तरह बन जाते हैं। मप्र के अनेक पूर्व राज्यपाल पद पर आने के पहले ही बीमार थे, इस कारण उनका अधिकतर कार्यकाल अस्पतालों में ही बीता। इलाज पर हुआ करोड़ों का खर्च भी सरकारी खजाने से किया गया। सत्ता से अलग होने के बाद भी मुफ्त इलाज की बात अपनी जगह है लेकिन पद पर रहते हुए जब राजनेता बीमार होते हैं तो उसका असर उनके सरकारी काम पर पड़ता है। 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले स्व. अरुण जेटली और स्व. सुषमा स्वराज ने चुनावी राजनीति से खुद को दूर कर लिया। पिछली सरकार में मंत्री रहते हुए ही उनकी तबियत काफी खराब रही। किडनी और हृदय की शल्यक्रिया भी हुई और उस कारण वे लम्बे समय तक मंत्री पद का दायित्व नहीं निभा सके। श्री जेटली पहली मोदी सरकार में वित्त मंत्री रहते हुए खड़े रहकर बजट भाषण तक नहीं पढ़ पाते थे। उस सरकार का आखिरी बजट तो उनकी जगह पियूष गोयल ने पेश किया। दुर्भाग्य से चुनाव के बाद वे दोनों ही दिवंगत हो गये। लेकिन चुनावों से दूर होने जैसा निर्णय लेने में बीमार नेताओं को तकलीफ  होती है। प्रधानमंत्री बनने के बाद श्री मोदी ने भाजपा में 75 वर्ष की जो आयु सीमा निर्धारित की उसकी वजह से बहुत से नेता सक्रिय राजनीति से तो अलग हो गये लेकिन राजभवन में उनका पुनर्वास अभी भी जारी है। केन्द्रीय मंत्री रामविलास पासवान लम्बे समय से अस्वस्थ हैं। लन्दन में भी इलाज करवाकर आ चुके हैं। हाल ही में फिर अस्पताल में भर्ती हो गये। ऐसे मंत्रीगण अपने मंत्रालय को ठीक तरह से नहीं चला पाने के बावजूद खराब स्वास्थ्य के कारण पद छोड़ने की सौजन्यता क्यों नहीं दिखाते, ये बड़ा सवाल है। जापान के प्रधानमन्त्री द्वारा बीमारी के कारण महज 65 साल की उम्र में सत्ता त्याग देने जैसी बात हमारे देश में मूर्खता की श्रेणी में रखी जायेगी। चुनाव आयोग ने नामांकन पत्र में तरह-तरह की जानकारियाँ देने का प्रावधान किया है। इसके कारण प्रत्याशी की आय, चल-अचल सम्पत्ति, अपराधिक प्रकरण, शैक्षणिक योग्यता आदि की जानकारी जनता के संज्ञान में आ जाती है। बेहतर हो आगे से नामांकन पत्र के साथ ही प्रत्याशी के स्वास्थ्य संबंधी विवरण देना भी अनिवार्य किया जाए। हो सकता है कुछ लोग इसे लेकर निजता का सवाल खड़ा करें लेकिन जब स्वस्थ भारत की बात होती है तो फिर नेताओं का स्वस्थ होना भी एक मुद्दा होना चाहिए। सुशांत राजपूत, कोरोना और राजनीतिक रस्साकशी के कारण हमारे देश में जापान के प्रधानमंत्री द्वारा स्वास्थ्य संबंधी कारण से पद त्याग देने जैसी खबर का शायद ही संज्ञान लिया जाए लेकिन यदि लोकतंत्र को जवाबदेह बनाना है तो उसे बीमार नेताओं से बचाना भी समय की मांग है। 1945 में परमाणु हमले के कारण तबाह होने के बाद मात्र 75 बरस में जापान विश्व की आर्थिक महाशक्ति बन बैठा जबकि दूसरे महायुद्ध की विभीषिका से दूर रहकर 1947 में आजाद होने के बाद भारत में आज भी बड़ी आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहने को बाध्य है। कारण श्री आबे के त्यागपत्र से समझा जा सकता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 28 August 2020

असली पिक्चर अभी बाकी है : नशे के खुलासे से मामला उलझा



गत दिवस एक टीवी समाचार चैनल के वरिष्ठ संपादक द्वारा अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत को लेकर संदेह के घेरे में बताई जा रहीं उनकी महिला मित्र और अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती का जो साक्षात्कार लिया गया उसके प्रसारण के बाद सोशल मीडिया पर उक्त संपादक के साथ चैनल की भी जमकर आलोचना हुई। रिया का सुशांत की मौत में हाथ है या नहीं ये तो जाँच के बाद ही स्पष्ट हो सकेगा लेकिन जिन रहस्यमय परिस्थितियों में वह सुशांत को छोडकर गई और उससे जुड़ी बाकी जानकारी सामने आ रही है उससे लगता है कि भले ही वह उसकी मृत्यु के समय उसके घर में नहीं रही लेकिन उसके पहले और बाद के घटनाक्रम से मिल रहे संकेतों के मुताबिक इस कांड के बारे में उससे काफी कुछ पता चल सकता है। सबसे बड़ी बात जो उक्त साक्षात्कार में उसने बताई वह ये कि सुशांत नशीली दवाएं ( ड्रग्स ) लेता था। हालाँकि उसने इस बात से साफ़  इंकार किया कि उसने सुशांत को इसकी लत डाली। बकौल रिया उसे विमान में बैठने से डर लगता था और किसी चिकित्सक के कहने पर उसने उड़ान से पहले नशीली दवाई लेना शुरू किया, जो लत बन गई। रिया ने ये भी कहा कि उसने सुशांत को रोकने की काफी कोशिश की लेकिन वह अपने फैसलों को लेकर बहुत ही दृढ़ था। नशीली दवाओं के नाम भी उसने साक्षात्कार के दौरान खुलकर बताये। लेकिन उसके जो व्हाट्स एप सन्देश जाँच एजेंसियों ने ढूढ़ निकाले उनसे स्पष्ट होता है कि वह नशीली दवाइयां मंगवाने में शामिल थी और उसकी आपूर्ति करने वालों को प्रत्यक्ष न सही लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से जानती थी। हो सकता है वह सुशांत की मांग पूरी करने के लिए ऐसा करती रही लेकिन जब उसने ये माना कि वे दोनों दंपत्ति की तरह रहते थे और सुशांत को नशीली दवाएं देने में उसकी कोई भूमिका नहीं थी तब जिस इन्सान से वह विवाह रचाने जा रही थी क्या उसकी नशे की लत छुड़वाने के लिए उसे ज़रूरी कदम नहीं उठाना चाहिये थे ? जिस आत्मविश्वास के साथ उसने साक्षात्कार दिया उससे एक बात तो साफ़ हो गई कि रिया बहुत ही दबंग महिला है। लेकिन अपने होने वाले पति को नशीली दवाईयों से मुक्त करने के लिए उसका कुछ न किया जाना ये साबित करता है कि सुशांत की जिस मानसिक बीमारी (अवसाद) का ढिंढोरा पीटा जा रहा था वह जैसा रिया ने बताया नशीली दवाइयों की लत थी। उसने ये भी बताया कि सुशांत के साथ उसके जुड़ने के पहले से ही वह नशे की गिरफ्त में आ चुका था। रिया चूंकि उसके साथ लिव इन में रह रही थी और जैसा उसी ने बताया उसके भाई के सुशांत के साथ बहुत ही आत्मीय सम्बन्ध थे। यहाँ तक कि जब वे दोनों  छुट्टियाँ मनाने यूरोप गए तब भी सुशांत , रिया के भाई को साथ ले गया। सवाल ये है कि एक युवती ये जानते हुए भी कि वह जिस शख्स के साथ बिना शादी किये पत्नी की तरह रह रही हो और जल्द उसके साथ विवाह करने वाली हो , वह उसके नशे में डूबे होने की बात को किस कारण छुपाती रही , और उसने इस बारे में नशा मुक्ति केंद्र या प्रशासन को क्यों नहीं बताया ? उसके फोन से मिली जानकारी के अनुसार वह खुद नशीली दावा के आपूर्तिकर्ता से संपर्क किया करती थी। इस बारे में नारकोटिक्स विभाग भी सक्रिय हो गया है जिससे कि सुशांत के नशैलची होने वाली कहानी का सच सामने आने की उम्मीद बढ़ चली है। इस जानकारी के बाद फिल्मी दुनिया में नशे के चलन की तह में जाना जरूरी है। कुछ समय पहले एक युवा फिल्म निर्माता जो इन दिनों भतीजावाद के कारण काफी विवादित हो चले हैं , के घर हुई सितारों की अन्तरंग पार्टी का जो वीडियो प्रसारित हुआ था उसमें अनेक अभिनेता और अभिनेत्रियाँ नशा ( ड्रग्स ) करते दिखाई दिए थे। शराब तो खैर फिल्मी पार्टियों में पानी की तरह बहती है । लेकिन नशीली दवाओं का चलन भी तेजी से फैलने की बात अब खुलकर सामने आने लगी है। काफी पहले संजय दत्त इसके शिकार हुए थे जिनका इलाज उनके पिता स्व. सुनील दत्त ने अमेरिका ले जाकर करवाया। लेकिन सुशांत के मामले में जैसा रिया ने बताया और उसके फोन से पता चला कि नशीली दवाइयां फिल्मी कलाकारों को आसानी से उपलब्ध होती हैं। हालाँकि जाँच शुरू तो इस बात के लिए हुई थी कि सुशांत ने आत्महत्या की या उसकी हत्या हुई लेकिन नशे के कारोबार के सामने आने के बाद अब उसका दायरा काफी विस्तृत हो गया है। जाँच एजेंसियों को चमक-दमक भरी फिल्मी दुनिया की गन्दगी को सबके सामने लाने का इससे बेहतर अवसर नहीं मिलेगा क्योंकि परिवारवाद से पीड़ित अनेक छोटे बड़े कलाकार अपनी बिरादरी की पोल खोलने के लिए तैयार बैठे हैं। कंगना रनौत नामक अभिनेत्री तो नशे के कारोबार का पर्दाफाश करने के लिए सरकार से सुरक्षा मांग रही है। सीबीआई और नारकोटिक्स विभाग मिलकर सुशांत की मौत के साथ ही नशीली दवाइयों की आपूर्ति के स्रोतों का पता लगाकर उसके संचालकों की गर्दन में फंदा डाल सकें तो अनेक ऐसे राज खुल जायेंगे जिन पर अभी तक पर्दा पड़ा हुआ है। ये बात भी जगजाहिर है कि फिल्मी दुनिया में पैसे का जो अनवरत प्रवाह है, उसका एक स्रोत माफिया भी है। और जहां माफिया होता है वहां नशा (ड्रग्स), व्यभिचार और अन्य अपराध स्वाभाविक तौर पर अपनी जगह बना लेते हैं। ये देखते हुए लगता है कि सुशांत की मौत का असली सच जो अब तक बताया जा रहा है, उससे अलग हटकर भी हो सकता है। फिल्मी अंदाज में कहें तो पिक्चर अभी बाकी है ...।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 27 August 2020

कांग्रेस मुक्त भारत की बजाय गांधी परिवार मुक्त कांग्रेस की मुहिम



2014 के लोकसभा चुनाव के पहले जब नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा उछाला तब तरह-तरह की बातें हुईं। मोदी विरोधियों ने उसे अतिरेक भी बताया। चुनाव परिणामों के बाद कांग्रेस जब पचास से नीचे उतर आई तब ऐसा लगा कि वह बात सही होने को आई। लेकिन अगले पांच सालों में उसने पंजाब, मप्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अपने दम पर सत्ता हासिल की वहीं अनेक राज्यों में दूसरी पार्टियों के साथ मिलकर भाजपा का विजय रथ रोका। ऐसा लगने लगा था कि 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस वापिसी करेगी। 2018 के अंत में तीन प्रमुख राज्य जिस तरह से भाजपा के हाथ से खिसके और उसके पहले गुजरात में वह घुटनों के बल चलकर जीत पाई उससे कांग्रेस का आत्मविश्वास काफी बढ़ा और उसी कारण राहुल गांधी ने जबर्रदस्त आक्रामक रुख अख्त्तियार किया। हिन्दू विरोधी छवि को बदलने के लिए मंदिरों और मठों में भी मत्था टेका। उनके जनेऊ धारण करने जैसे शिगूफे भी छोड़े गए किन्तु 2019 के लोकसभा चुनाव ने कांग्रेस की तमाम उम्मीदों को धूल - धूसरित कर दिया। पराजय की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल ने अध्यक्ष पद त्याग दिया। लेकिन उनका स्तीफा मंजूर करने में ही पार्टी ने कई महीने लगा दिए और फिर सोनिया गांधी को कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर पार्टी की बागडोर परिवार के ही पास रखी। एक वर्ष गुजर जाने के बाद भी पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं चुने जाने से पार्टी की दिशा तय नहीं हो पा रही थी। श्रीमती गांधी का स्वास्थ्य इस भार को सहन करने लायक नहीं होने से संगठन संबंधी जरूरी फैसले अटके पड़े रहने का ही दुष्परिणाम मप्र में ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत के तौर पर देखने मिला। उसकी पुनरावृत्ति राजस्थान में भी होने जा रही थी लेकिन सचिन पायलट संख्या नहीं बटोर सके। हालाँकि खतरे के बादल कब बरस जाएं कहा नहीं जा सकता। इस सबके पीछे का कारण पार्टी के शीर्ष नेतृत्त्व में व्याप्त शून्यता ही है। जिन 23 वरिष्ठ नेताओं ने सोनिया जी को पत्र लिखकर पार्टी संगठन को तदर्थवाद से निकालकर सक्रिय बनाने का अनुरोध किया वे गांधी परिवार के विरोधी हैं या नहीं ये तो स्पष्ट नहीं हुआ किन्तु उनकी मुहिम थी तो पार्टी के हित में ही। यदि कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में उस पत्र की मंशानुसार श्रीमती गांधी अपनी जगह किसी और को अध्यक्ष बना देतीं तो मामला आसानी से निपट जाता लेकिन पत्र लिखने वालों की वफादारी पर ही सवाल उठाकर आग में घी डाल दिया गया। सोनिया जी तो शांत रहीं लेकिन राहुल और प्रियंका ने चिट्ठी लिखने वालों पर जिस तरह की टिप्पणियाँ कीं और उनके समर्थकों ने भी उनकी हाँ में हाँ मिलाई वह चिट्ठी भेजने वालों को अपना अपमान लगा और उनकी तरफ  से भी तीखी जवाबी प्रतिक्रिया आने लगी। हालाँकि बाद में भूल जाओ और माफ़ करो की औपचारिकता का निर्वहन करते हुए सब कुछ शांत होता दिखाने की कोशिश भी की गई और श्रीमती गांधी ने कुछ नाराज नेताओं को फोन करते हुए मनाने का प्रयास भी  किया लेकिन कपिल सिब्बल के अलावा चिट्ठी भेजने वाले और नेता भी लगातार अपने पत्र के औचित्य को साबित कर रहे हैं जिससे लगता है आग अभी तक ठंडी नहीं हुई। जिस तरह सोनिया जी को आगामी छह महीने तक कार्यकारी बने रहने का फैसला करवाते हुए नये अध्यक्ष के चुनाव को टाल दिया गया उससे पत्र भेजने वाले खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं। दिग्विजय सिंह जैसे नेता खुलकर कह रहे हैं कि उसे सार्वजनिक करना पार्टी विरोधी कृत्य था। इससे लगता है कि सोनिया जी द्वारा मामला ठंडा करने की कोशिशों को पलीता लगाने के समानांतर प्रयास भी चल रहे हैं। ये सब देखते हुए कहा जा सकता है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से जुड़े दो दर्जन नेताओं ने कांग्रेस को गांधी परिवार के शिकंजे से आजाद करवाने का दुस्साहसिक कदम उठा लिया है और ऐसा करते समय वे इतना आगे बढ़ गए कि लौटना आत्मघाती होगा। वहीं दूसरी तरफ  गांधी परिवार का भरोसा दोबारा हासिल करने के रास्ते भी बंद हो चुके हैं। ऐसे में इन नेताओं के पास सीमित विकल्प बच रहे हैं। उनकी सबसे बड़ी परेशानी ये है कि वे बड़े नेता कहलाने के बावजूद अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रखते। और यही कमजोरी गांधी परिवार समझता है। लेकिन इस घटनाक्रम से कांग्रेस की द्वितीय पंक्ति में भी पशोपेश की स्थिति है। जिन 23 नेताओं ने चिट्ठी भेजने की हिमाकत की उनमें से अधिकांश ने तो राजनीति में बहुत कुछ हासिल कर लिया लेकिन उनके समर्थक यदि उनके साथ खड़े होने की हिम्मत दिखाते हैं तब उनके हाथ खाली ही रहेंगे। वैसे भी इस तरह का मोर्चा खोल देने के बाद आर-पार की लड़ाई लड़ना जरूरी हो जाता है। इस प्रकार श्री मोदी द्वारा कांग्रेस मुक्त भारत की बजाय बात अब गांधी परिवार मुक्त कांग्रेस की तरफ  घूमने लगी है। विवादित पत्र भेजने वाले नेताओं को यदि कांग्रेस निकाल दे तब उसके पास भी चेहरों का अभाव हो जाएगा। इसलिए फिलहाल शीतयुद्ध के हालात बने रहेंगे किन्तु अगले छह महीने गांधी परिवार के लिए बेहद चुनौती भरे होंगे। हाल ही में हुई कार्यसमिति की  चर्चित बैठक में भले ही विरोध की आवाज को दबा दिया गया परन्तु उसके बाद भी चिट्ठी लिखने वालों की बैठकें और बयान जारी हैं। सोनिया गांधी के साथ सबसे बड़ी परेशानी ये है कि न तो उनमें इंदिरा जी जैसा राजनीतिक कौशल है और न ही राहुल गांधी में संजय गांधी सरीखा साहस। रही प्रियंका वाड्रा तो वे शाही परिवार की राजकुमारी से ज्यादा कुछ नहीं हैं। आजादी से पहले और बाद में कांग्रेस ने अनेक बार बगावत और विभाजन झेले हैं लेकिन मौजूदा स्थिति थोड़ी अलग है क्योंकि इसमें नेतृत्व को अपने लिए उतना खतरा नहीं लग रहा लेकिन उसके साथ अब तक जुड़े रहे कुनबे में अपने भविष्य को लेकर जबरदस्त चिंता है। क्या पता डूबते जहाज से चूहों के कूदने वाली कहावत ऐसे ही हालातों के संदर्भ में बनाई गई हो।

-रवीन्द्र वाजपेयी



Wednesday 26 August 2020

चोटी से उतरते समय असावधानी जानलेवा हो सकती है




कोरोना को लेकर ये धारणा बनने लगी है कि भारत में उसका चरमोत्कर्ष आने वाला है और उसके बाद वह ढलान पर आ जाएगा। कोई 15 सितम्बर की तारीख बता रहा है तो कोई कुछ और। भविष्यवक्ता भी अपनी गणना के मुताबिक़ दावे कर रहे हैं। दूसरी तरफ  चिकित्सा विज्ञान से जुड़े लोगों का पूरा हिसाब-किताब कोरोना की वैक्सीन पर टिका है, जिसे लेकर जितने मुंह उतनी बातें सुनाई दे रही हैं। मोटे अनुमान के अनुसार दुनिया भर में जितनी भी वैक्सीन बन रही हैं उनका अंतिम परीक्षण होते-होते अभी एक-डेढ़ महीना और लग जाएगा और उसके उपरांत ही व्यावसायिक उत्पादन हो सकेगा। भारत में विकसित की जा रही वैक्सीन के भी दिसम्बर तक बाजार में आने की उम्मीद है। इधर कुछ दिनों से भारत में कोरोना के नए मरीजों और अस्पतालों से ठीक होकर निकलने वाले मरीजों की संख्या में अंतर घट रहा है। प्रतिदिन नए संक्रमण भी 70 हजार के आसपास ही ठहरे हुए हैं। हालाँकि इसकी एक वजह जाँच की संख्या में आया ठहराव भी हो सकता है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर जो जानकारी आ रही है उसके अनुसार नए संक्रमण और मृत्यु का प्रतिशत भी पूर्वापेक्षा नीचे आया है, जो अच्छा संकेत है। ये भी तब जबकि देश के बड़े हिस्से में लॉक डाउन हटने के बाद से जनजीवन सामान्य होता दिख रहा है। दिल्ली सहित अनेक राज्यों में कोरोना का प्रकोप नियंत्रण में है। यद्यपि महाराष्ट्र की हालत बेहद खराब है। ये सब देखते हुए कहा जा सकता है कि देर से ही सही लेकिन भारत ने कोरोना नामक इस रहस्यमय महामारी से निपटने का हुनर हासिल कर लिया और उसकी रोकथाम के लिए वैक्सीन विकसित करने में भी सफलता हासिल करने जा रहा है। 135 करोड़ से भी ज्यादा की आबादी और उस पर भी घनी बसाहट के बावजूद कोरोना संक्रमण को रोकने में काफी हद तक कामयाबी वाकई बड़ी उपलब्धि कही जायेगी। अन्यथा ये डर था कि भारत में महामारी शब्द पूरी तरह से सही साबित होकर रहेगा। अब तक की स्थिति को देखते हुए ये माना जा सकता है कोरोना को लेकर एम्स दिल्ली के निदेशक डा. रणदीप गुलेरिया ने जो अनुमान लगाया था वह सच्चाई के काफी करीब प्रतीत हो रहा है। उनके मुताबिक अगस्त के अंत और सितम्बर की शुरुवात से कोरोना उतार पर आना शुरू हो जाएगा। उस लिहाज से बीते कुछ दिनों के आंकड़े उनके अनुमानों को सही ठहराने का संकेत दे रहे हैं। लेकिन इस बारे में ध्यान देने योग्य बात ये है कि चोटी से नीचे उतरते समय जरा सी असावधानी होने पर पैर फिसलने का खतरा रहता है जो जानलेवा भी साबित हो सकता है। कोरोना के चरम बिंदु को छू लेने के बाद उसके ढलान पर आने की खुशी में थोड़ी सी असावधानी घातक हो सकती है। चिकित्सा विशेषज्ञ भी ये खुलकर कह रहे हैं कि भले ही कोरोना पर हाल-फिलहाल नियंत्रण कर लिया जाए लेकिन उसके समूल नष्ट होने में कम से कम दो साल लगेंगे। और इस दौरान जरा सी लापरवाही उसकी वापिसी का कारण बन सकती है। भारत में कुछ राज्य ऐसे हैं जिन्होंने प्रारम्भिक चरण के बाद कोरोना पर पूरी तरह से काबू करते हुए खुद को विजेता मान लिया था लेकिन उनका विजयोल्लास क्षणिक साबित हुआ और कोरोना दोगनी ताकत से लौट आया। दुनिया के अनेक देशों में भी ऐसा देखने मिला है। इसलिए भले ही ताजा आंकड़े आश्वस्त कर रहे हों तथा वैक्सीन आने की खबरें कोरोना के डर को कम कर रही हों लेकिन जैसा पूर्व में कहा गया चोटी पर चढ़ने के बाद जीत की खुशी में लौटने के दौरान जरा सी असावधानी भारी पड़ जाती है। दुनिया के जाने-माने पर्वतारोहियों के अनुभव इस बारे में सचेत करने वाले हैं। भारत के सन्दर्भ में कोरोना के बारे में जरूरी सावधानियां बरतने की सख्त जरूरत है। जिस तरह से लोगों में बेफिक्री दिखाई देने लगी है वह खतरे का संकेत है। सोशल मीडिया पर जैसे चुटकुले देखने मिल रहे हैं वे समाज की मानसिक दृढ़ता का संकेत तो हैं लेकिन उससे कोरोना से बचाव के तौर-तरीकों की अवहेलना का माहौल भी पैदा हो रहा है। सार्वजनिक स्थलों पर बिना मास्क के घूमने वाले बड़ी संख्या में नजर आने से ये लगने लगा है कि कोरोना को खत्म मान लिया गया है जबकि मौजूदा हालात में ही सबसे ज्यादा सावधानी की जरूरत है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

तात्कालिक राहत लेकिन बगावत ने घर तो देख ही लिया



कांग्रेस कार्यसमिति की बहुप्रतीक्षित बैठक गत दिवस हुई तो पार्टी के पूर्णकालिक अध्यक्ष को चुनने के लिए थी लेकिन आपसी विवादों के कारण पहले तो तू-तू, मैं-मैं में बदली और फिर साफ-सफाई के बाद अंतत: जैसे थे की स्थिति पर ही समाप्त हो गई। लोकसभा चुनाव में मिली पराजय के बाद गत वर्ष राहुल गांधी ने पार्टी अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया था। महीनों तक मान-मनौवल चली और जब वे नहीं माने तो उनकी माताजी सोनिया गांधी को कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया गया। गत 11 तारीख को एक वर्ष पूर्ण होने पर पार्टी में पूर्णकालिक अध्यक्ष की मांग उठी। अनेक नेताओं ने बाकायदा पत्र लिखकर नए अध्यक्ष के चुनाव की मांग रखी। जिसके बाद गत दिवस पार्टी कार्यसमिति की आभासी बैठक हुई। गत वर्ष राहुल ने गैर गांधी अध्यक्ष का जो शिगूफा छोड़ा था उसकी चर्चा पूरी पार्टी में थी और अनेक वैकल्पिक नाम भी चर्चा में आने लगे। प्रियंका वाड्रा ने अपने बयान में तो यहाँ तक कह दिया कि वे गैर गांधी अध्यक्ष के मातहत किसी भी पद का दायित्व सँभालने राजी हैं। दूसरी तरफ दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं के अलावा अशोक गहलोत, कैप्टेन अमरिंदर सिंह और भूपेश बघेल ने राहुल गांधी को ही दोबारा कमान सौंपने का राग छेड़ दिया। लगभग दो दर्जन नेताओं के हस्ताक्षरों से जारी पत्र के सार्वजनिक हो जाने को पार्टी के भीतर मतभेदों का प्रगटीकरण माना गया। मोहल्ले स्तर के फैसले दस जनपथ पर छोड़ दिए जाने की आदी कांग्रेस में शीर्ष स्तर के नेताओं द्वारा संगठन में व्याप्त तदर्थवाद को खत्म करते हुए पूर्णकालिक अध्यक्ष के लिए दबाव बनाया जाना ये साबित करने के लिए पर्याप्त था कि गांधी परिवार के एकाधिकार के विरुद्ध अब वे नेता भी मुखर होने लगे हैं जो उसका दिन-रात गुणगान किया करते थे। राहुल गांधी की ट्विटर पर सक्रियता के बावजूद संगठन के मामलों में उदासीनता के कारण पार्टी का प्रभाव क्षेत्र जिस तरह सिकुड़ता जा रहा है उसकी वजह से नीचे से लेकर ऊपर तक पार्टीजन अपने भविष्य को लेकर चिंतित होने लगे हैं। गैर गांधी अध्यक्ष की चर्चा ने आंतरिक लोकतंत्र की जो संभावनाएं पैदा कीं उनके कारण उनमें उत्साह का वातावरण था। कार्यसमिति की बैठक शुरू होते ही श्रीमती गांधी ने अध्यक्ष पद त्यागने की पेशकश की तो डा. मनमोहन सिंह ने उन्हें रोक दिया। बात आगे बढ़ती इसी दौरान राहुल ने कथित तौर पर पत्र भेजे जाने वाले नेताओं पर निशाना साधते हुए ये तंज कस दिया कि वह भाजपा के इशारों पर लिखा गया है। उसके समय पर भी सवाल दागे गए। जवाब में गुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल के गुस्से भरे ट्वीट सामने आने से ऐसा लगने लगा कि पार्टी दोफाड़ होने की राह पर है। प्रियंका ने भी चिट्ठी भेजने वालों को लताड़ा। गांधी परिवार के समर्थक नेतागण भी सामने आये और घर की बातों को सार्वजनिक करने वालों के विरुद्ध आवाजें उठने लगीं। फिर शुरू हुआ घावों पर मरहम लगाने का दौर और थोड़ी देर बाद गलतफहमी दूर होने का दावा करते हुए कही- सुनी माफ वाली स्थिति देखने मिली। वहीं इस दौरान वह दांव फिर खेल दिया गया जिसने गैर गांधी अध्यक्ष की चर्चा को हवा - हवाई बना दिया। डा. मनमोहन सिंह के प्रस्ताव को सबने समर्थन दे दिया। राहुल की दोबारा ताजपोशी किये जाने के लिए अनुकूल माहौल नहीं दिखने पर सोनिया जी को ही अगले छह महीने तक कार्यकारी अध्यक्ष बनाये रखने का फैसला करते हुए बैठक समाप्त कर दी गई। इस तरह ले देकर पार्टी पर गांधी परिवार का कब्जा बरकरार रहा। अतीत में शरद पवार द्वारा श्रीमती गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर की गई बगावत के बाद सम्भवत: ये पहला मौका होगा जब गांधी परिवार के विरुद्ध पार्टी में आवाज सुनाई दे रही हैं। भले ही कल की बैठक में किसी तरह बाजी हाथ से निकलते-निकलते बचा ली गई किन्तु ये कहना गलत न होगा कि राहुल की असफलता को आगे ढोने के विरुद्ध कांग्रेस के बड़े नेताओं का एक गुट खुलकर सामने आने का साहस दिखा रहा है। श्रीमती गांधी का जो लिहाज है उसी का फायदा उठाते हुए गत दिवस बगावत को शांत किया गया लेकिन राख के ढेर में दबी चिंगारी दोबारा कब भड़क उठे ये कहना कठिन है। सोनिया जी की अस्वस्थता के अल्रावा राहुल और प्रियंका की अंशकालिक राजनीतिक शैली ने कांग्रेस को ऐसे चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां उसके सामने मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं, बड़ी मुश्किल में हूँ अब किधर जाऊँ, जैसी दुविधा है। भले ही आगामी छह महीने के लिए अध्यक्ष पद का मसला टाल दिया गया हो लेकिन बगावत ने पार्टी का घर तो देख ही लिया है। इस घटनाक्रम से कांग्रेस का साधारण कार्यकर्ता असमंजस में है क्योंकि उसे समझ नहीं आ रहा कि आखिर ऐसे तमाम नेता जो कल तक गांधी परिवार के अंधभक्त हुआ करते थे, अचानक से खुदमुख्त्यारी का ऐलान करने पर क्यों और कैसे उतारू हो गये?

-रवीन्द्र वाजपेयी


Monday 24 August 2020

होटलों और सभागारों को दी जा रही छूट स्वागतयोग्य बशर्ते .....



कोरोना वैक्सीन को लेकर व्याप्त अनिश्चितता के बीच केंद्र सरकार ने इस दौरान सबसे ज्यादा प्रभावित पर्यटन उद्योग को उबारने के लिए विगत दिवस अनेक रियायतों का ऐलान किया। होटल एवं सभागार आदि में होने वाले आयोजनों में 50 व्यक्तियों की सीमा खत्म कर दी है। गत दिवस केन्द्रीय पर्यटन मंत्री प्रहलाद पटेल ने इस आशय की घोषणा करते हुए बताया कि जितने मेहमान बुलाये जायेंगे उससे दोगुना स्थान आयोजन स्थल पर होना अनिवार्य होगा। सभागारों में भी जितनी सीटें होंगीं उसके आधे व्यक्ति ही प्रवेश पा सकेंगे। इस बारे में विधिवत घोषणा शीघ्र ही की जावेगी। मार्च में लॉक डाउन के बाद शादी-विवाह, संगीत, साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम तथा व्यावसायिक सम्मेलन आदि पर रोक लग गई थी। विवाह में अधिकतम 50 लोगों की अनुमति दिए जाने से होटलों, बैंक्वेट हॉल, तथा मैरिज गार्डन का पूरा व्यवसाय चौपट हो गया। देश के अधिकाँश होटल बीते अनेक महीनों से बंद पड़े हैं। पर्यटन पूरी तरह से बंद है। व्यवसायिक और औद्योगिक गतिविधियां ठप्प होने से होटलों और सभागारों के सामने अस्तित्व का संकट होने लगा था। बिजली के बिल, रखरखाव और वेतन पर होने वाले खर्च के कारण उनकी कमर टूटने लगी थी। उस लिहाज से केंद्र सरकार का उक्त फैसला उम्मीदें जगाने वाला है। भारत में ग्रीष्मकाल शादियों का मौसम होता है। शिक्षण संस्थानों में अवकाश होने से लोग सपरिवार सैर-सपाटे पर निकलते हैं। कोरोना के कारण लगाये गए लॉक डाउन की वजह से उक्त सभी गतिविधियाँ ठप्प होकर रह गईं। प्रतिबंधों के चलते फिल्म उद्योग भी पूरी तरह से ठहराव का शिकार हो गया। उसे दोबारा खड़ा करने के मकसद से प्रतिबंधों का पालन करते हुए शूटिंग की अनुमति भी दे दी गयी। इस सबसे पर्यटन और मनोरंजन उद्योग को एक तरह से प्राणवायु मिल जायेगी। सबसे बड़ी बात ये हैं कि विवाह समारोह में अतिथियों की संख्या पर लगी पाबंदी हटने से उसका सीधा असर बाजार पर पड़ेगा। ये बात सर्वविदित है कि विवाह संबंधी आयोजन भारतीय अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाये रखने में सर्वाधिक योगदान देते हैं। इसी तरह सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं इसी तरह की गतिविधियों से भी बड़ी संख्या में लोगों को काम मिलता है। बीते लगभग पांच महीने इस दृष्टि से बेहद भारी साबित हुए। जून में लॉक डाउन शिथिल किये जाने के बाद भी उक्त सभी क्षेत्रों पर प्रतिबंध जारी थे। शीघ्र ही सिनेमाघरों को भी उनकी क्षमता के आधे दर्शकों के साथ शुरू करने की अनुमति देने पर भी विचार हो रहा है। परिवहन क्षेत्र तो पहले ही खोल दिया गया है। हालाँकि अभी शिक्षण संस्थान खोले जाने को लेकर अनिश्चितता है। लेकिन होटल, सभागार, मैरिज हाल आदि में गातिविधियां शुरू होते ही बाजार में छाई उदासीनता को दूर करने में सहायता मिलेगी। फिलहाल जो भय का माहौल है उसे दूर करना भी बहुत जरूरी है। लेकिन इन छूटों के साथ ही ये भी देखना होगा कि प्रतिबंधों के हटने से कहीं स्वछंदता का बोलबाला न हो जाए। लॉक डाउन हटने के बाद बाजारों में उमड़ी भीड़ ने जिस तरह से कोरोना संबंधी सावधानियों की धज्जियाँ उड़ाईं उसे देखते हुए ये कहना गलत नहीं होगा कि होटलों एवं सभागारों में आयोजनों की अनुमति दिए जाने के बाद जरा सी चूक कोरोना के फैलाव का कारण बन सकती है। जबलपुर में बीते दिनों स्थानीय होटल में एक शासकीय अधिकारी के पारिवारिक विवाह समारोह में अतिथि संख्या का उल्लंघन होने पर सैकड़ों लोग संक्रमित हुए। इस तरह की लापरवाही पर यदि रोक लग सकी तो केंद्र सरकार के उक्त सभी फैसले कारगर साबित होंगे। बरसात के बाद भारत में विवाह के साथ ही त्यौहारी मौसम भी आता है जिसके कारण बाजार में बहार आ जाती है। ऐसे में अभी मिल रही छूट का यदि सही उपयोग हुआ तब होटल और पर्यटन उद्योग के साथ ही अर्थव्यवस्था के बाकी क्षेत्रों को भी जबर्दस्त सहारा मिल जाएगा। जैसी उम्मीद जताई जा रही है उसके अनुसार सितम्बर मध्य से कोरोना ढलान पर आयेगा। लेकिन अतिउत्साह में बेफिक्र हो जाना खतरनाक होगा। दुनिया के अनेक देशों में लापरवाही के चलते कोरोना संक्रमण ने पलटवार किया है। भारत में तो वैसे भी अनुशासन का पालन करने के प्रति अशिक्षित ही नहीं पढ़े-लिखे लोग भी बेहद लापरवाह हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 22 August 2020

सीबीआई के पास सितारों के काले सच उजागर करने का मौका



अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत की गुत्थी सुलझाने की जिम्मेदारी सीबीआई को मिलने के बाद बिहार और महाराष्ट्र सरकार के बीच चल रहा शीतयुद्ध ऊपर से तो समाप्त हो गया किन्तु राजनीतिक दांवपेंच जारी हैं। लेकिन इससे फिल्मी दुनिया की गन्दगी पर पड़ी परतें लगातार खुल रही हैं। सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि फिल्म जगत सुशांत की मौत को लेकर दो धड़ों में विभक्त हो गया है। आरोप-प्रत्यारोप जिस धड़ल्ले से चल रहे हैं उन्हें देखते हुए कहा जा सकता है कि अपनी एकता के लिए प्रसिद्ध फिल्मी बिरादरी मौजूदा हालात में टुकड़े-टुकड़े होने के कगार पर है। हालाँकि फिल्मी कलाकारों के राजनीति में आने का सिलसिला काफी पुराना है। दक्षिण भारत में तो फिल्मी सितारों का राजनीति में धमाकेदार प्रवेश साठ के दशक में ही हो चुका था। इसी तरह कोलकाता में बँगला फिल्म उद्योग में भी वामपंथी प्रभाव वाली अनेक हस्तियाँ राजनीति में उतरीं। तमिलनाडु में एमजी रामचंद्रन और उनके बाद जयललिता जैसे फिल्मी चेहरे लम्बे समय तक सत्ता में रहे। अविभाजित आंध्र में एनटी रामाराव भी धूमकेतु की तरह उभरे थे। मुम्बई फिल्म उद्योग इस मामले में पीछे रहा लेकिन फिर सुनील दत्त, विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा को केंद्र में मंत्री पद मिलने से सत्ता में फिल्मी उद्योग की भागीदारी मजबूत हुई। अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना, गोविन्दा, धर्मेन्द्र, हेमा मालिनी और सनी देओल ने लोकसभा तो पृथ्वीराज कपूर, नर्गिस, शबाना  आजमी, जया बच्चन और रेखा आदि ने राज्य सभा में अपनी मौजूदगी दर्ज की। मुंबई फिल्म जगत से जुड़े अनेक कलाकार चुनावों में राजनीतिक पार्टियों के लिए प्रचार करते रहे हैं। लेकिन राजनीतिक मतभिन्नता के बावजूद भी उनके आपसी रिश्ते बेहद प्रगाढ़ रहे। हालांकि व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा बनी रही लेकिन ये पहला अवसर है जब मुम्बई फिल्म उद्योग में अभूतपूर्व दरारें देखने मिल रही हैं। पहले तो परिवारवाद के नाम पर बाहरी प्रतिभाओं को परेशान करने जैसी बातें सामने आईं। ये आरोप खुलकर लगाये जाने लगे कि चंद परिवारों ने फिल्मी दुनिया पर कब्जा जमा रखा है। स्टार किड्स नामक एक वर्ग ऐसा है जो बाहरी दुनिया से आए अभिनेताओं और अभिनेत्रियों की राह में रोड़ा बन ज़ाता है। सुशांत की मौत को भी इसी से जोड़ा गया। उसने आत्महत्या की या उसकी ह्त्या हुई ये तो सीबीआई की जाँच के उपरान्त ही स्पष्ट हो सकेगा लेकिन उसके समानांतर फिल्म जगत में चारित्रिक पतन की जो कहानियाँ सामने आ रही हैं वे घिन पैदा करने वाली हैं। यद्यपि कास्टिंग काउच के किस्से तो समय-समय पर सामने आते रहे हैं। लेकिन बीते कुछ वर्षों में इनका खुलासा कुछ ज्यादा ही होने लगा है। अनेक अभिनेत्रियों द्वारा आत्महत्या किये जाने के पीछे उनका यौन शोषण ही प्रमुख वजह मानी गई। सुशांत की मौत के बाद जिस तरह की बातें सोशल मीडिया पर हो रही हैं और अनेक अभिनेत्रियाँ अपने शोषण के किस्सों का बखान कर रही हैं उसे देखते हुए इस बारे में भी जाँच होनी चाहिए। हालांकि निजी सम्बन्धों को लेकर फिल्मी दुनिया सदैव वर्जनाहीन रही है। लेकिन कुछ सालों से लिव इन की जो संस्कृति पैर पसार रही है उसके कारण फिल्म जगत में रिश्तों को लेकर स्थापित सामाजिक मर्यादाएं तार-तार होकर रह गई हैं। सुशांत स्वयं भी दो अभिनेत्रियों के साथ लिव इन में रहे और जैसे आरोप लगाये जा रहे हैं उनके अनुसार तो उनको मौत के मुंह में धकेलने के लिए लिव इन पार्टनर ही जिम्मेदार हैं। ग्लैमर की दुनिया का का ये काला सच केवल मुम्बई में ही नहीं है। दक्षिण भारत और बंगाल में भी ये गंदगी बराबरी से है लेकिन मुम्बई चूंकि भारत का हॉलीवुड कहा जाता है इसलिए उसकी चर्चा देशव्यापी होती है। सुशांत जैसे अनेक मामले दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग में भी हुए लेकिन इस जैसी राजनीतिक उठापटक नहीं हुई। कुछ अरसे पहले जिया खान नामक अभिनेत्री की आत्महत्या ने भी काफी सनसनी मचाई थी लेकिन उसमें राजनीति नहीं आने से वह धीरे से ठंडा हो गया। वहीं सुशांत मामले में बिहार विरुद्ध महाराष्ट्र की स्थिति बन जाने से बात सर्वोच्च न्यायालय तक जा पहुंची। महाराष्ट्र सरकार ने सीबीआई जांच में जिस तरह से अड़ंगेबाजी की उससे संदेह और पुख्ता हुए तथा बात मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के पुत्र तक जा पहुंची। लेकिन फिल्मी दुनिया में जिस तरह की खेमेबाजी सामने आई उसे देखते हुए लगता है कि लम्बे समय से दबा हुआ ज्वालामुखी फूटने के कगार पर आ गया है। संजय दत्त के पास अवैध हथियार पकड़े जाने के समय उनके पिता स्व. सुनील दत्त ने शिवसेना प्रमुख स्व. बाल ठाकरे से भी सहयोग माँगा था। जबकि स्व. दत्त कांग्रेस में थे। पूरा मुम्बई फिल्म जगत उस समय संजय के प्रति सहानुभूति व्यक्त करता सामने आया था जबकि उसका अपराध देश विरोधी था। और भी ऐसे कांड हुए जिनमें फिल्मी हस्तियाँ फंसीं परन्तु लगभग सभी ने उनका साथ दिया। लेकिन सुशांत की मौत के बाद परिदृश्य पूरी तरह बदल सा गया। और सीबीआई जाँच की मांग को जिस तरह फिल्मी हस्तियों का समर्थन मिला उसने ये साबित कर दिया कि मुम्बई फिल्म उद्योग में कुछ लोगों का एकाधिकार अब असहनीय हो गया है। सुशांत की मौत के साथ जुड़े लोगों के फिल्मी दुनिया के अनेक स्थापित दिग्गजों से अन्तरंग सम्बन्ध चकाचौंध के पीछे के अँधेरे को उजागार कर रहे हैं। सबसे जयादा चौंकाने वाली बात ये है कि जिस शिवसेना का फिल्मी दुनिया में इकतरफा दबदबा था वही इस बार रक्षात्मक होने मजबूर दिखाई दे रही है। ये सब देखते हुए लगता है सीबीआई को सुशांत की मौत की जाँच करते-करते ऐसे अनेक दबे हुए मामले मिल सकते हैं जिनसे फिल्मी दुनिया के भीतर व्याप्त गंदगी और माफियाकरण का खुलासा हो जाएगा। ये बात तो जगजाहिर है कि पहले फिल्मों में धनकुबेरों का काला धन लगा करता था लेकिन अब माफिया के पैसों से फिल्में बनती हैं। दुबई में दाउद इब्राहीम की मेजबानी का लुत्फ़ उठा चुके फिल्मी कलाकारों के सचित्र प्रमाण होने के बाद भी उनका छुट्टा घूमना रहस्यमय है। बड़े दिनों बाद ये मौका आया है जब सितारों की दुनिया का काला सच सामने आने की उम्मीदें जागी हैं जिसका लाभ लिया जाना चाहिए। लेकिन ये आशंका भी सता रही है कि महाराष्ट्र की सरकार को गिराने या बचाने के नाम पर कहीं लीपापोती न हो जाये। आदित्य ठाकरे पर छोड़े तीर तरकश में लौट न आएं ये डर सबको सता रहा है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 21 August 2020

शौचालय और राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान: बदलते भारत की पहिचान




राष्ट्रीय स्वच्छता सर्वेक्षण 2020 के नतीजे गत दिवस घोषित हो गये जिसमें मप्र का इन्दौर शहर लगातार चौथी बार देश का सबसे स्वच्छ शहर बन गया। विभिन्न मापदंडों के आधार पर हुए इस सर्वेक्षण में छोटे बड़े सभी शहरों को विभिन्न श्रेणियों में बांटकर मूल्यांकन होता है। अनेक शहरों ने बीते वर्षों की अपेक्षा अपनी स्थिति सुधारी वहीं कुछ ऐसे भी हैं जो लुढ़ककर निचली पायदान पर आ गये। इस सर्वेक्षण में नागरिकों की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हुए उसको भी पैमाना बनाया गया। जबलपुर को स्वच्छता में भले 17 वां स्थान हासिल हुआ लेकिन नागरिकों के फीडबैक के मापदंड पर वह पहले स्थान पर रहा। इस सर्वेक्षण की वजह से स्वच्छता को लेकर जो प्रतिस्पर्धा देश भर में प्रारंम्भ की गयी उसका श्रेय पूर्णरूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दिया जाना चाहिए। सत्ता सँभालने के बाद स्वाधीनता दिवस पर लालकिले की प्राचीर से देश को स्वच्छ बनाने के लिए राष्ट्रीय मिशन शुरू करने का उनका आह्वान शुरु - शुरू में लोगों को अटपटा लगा। कहने वालों ने ये तक कहा कि ये प्रधानमन्त्री के स्तर का काम नहीं है और कम से कम लालकिले की प्राचीर से इस तरह के मुद्दे उठाना शोभा नहीं देता। श्री मोदी ने इसी के साथ खुले में शौच की प्रथा खत्म करने के लिए घर - घर शौचालय बनवाने की मुहिम भी शुरू की। उनके आह्वान पर जब पूरे देश में बड़ी - बड़ी हस्तियाँ झाड़ू लेकर सफाई के लिए जुटीं तब उसे फोटो खिंचाऊ कार्यक्रम मानकर उपहास किया गया। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने तो यहाँ तक तंज किया कि प्रधानमन्त्री ने युवाओं के हाथ में काम देने की बजाय झाड़ू पकड़ा दी। उसी समय श्री मोदी ने राष्ट्रीय स्वच्छता सर्वेक्षण प्रारम्भ करवाया। शुरुवाती एक दो साल में तो उसका उतना असर नहीं दिखा लेकिन धीरे - धीरे इस प्रतिस्पर्धा के प्रति स्थानीय निकायों के साथ ही जनता में ही जागरूकता बढी और आजादी के सात दशक बाद स्वच्छता और शौचालय राष्ट्रीय प्राथमिकताओं में शामिल हो सके। हालाँकि हमारे राष्ट्रीय चरित्र के अनुरूप इन कार्यक्रमों में भी जमकर भ्रष्टाचार हुआ। सार्वजनिक शौचालयों के नाम पर खड़े किये डिब्बे कुछ ही दिनों में बेकार हो गए। पानी की समुचित आपूर्ति न होने से उनमें गंदगी भी होने लगी। रही - सही कसर पूरी कर दी चोरों ने। ये कहना गलत न होगा कि इस काम पर खर्च हुई राशि का बड़ा हिस्सा बर्बाद हो गया। बावजूद इसके पिछड़ी बस्तियों और ग्रामीण क्षेत्रों में घरों के भीतर शौचालय बनाने के काम में काफी कामयाबी हासिल हुई। खुले में शौच की स्थिति में भी आशाजनक सुधार हुआ। हालांकि अभी भी इस दिशा में काफी कुछ किया जाना बाकी है लेकिन भारत सरीखे देश में जो शौचालय सुविधा से वंचितों के मामले में दुनिया में अग्रणी हुआ करता था , वहां शौचालय को लेकर एक दायित्वबोध उत्पन्न करना आसान काम नहीं था। खासकर ग्रामीण अंचल में जहाँ सुबह - सुबह शौच के लिये खेत में जाने को प्रात:कालीन सैर का नाम देकर उसके औचित्य को साबित किया जाता था। लेकिन इस बारे में महिलाओं को होने वाली असुविधा के बारे में नहीं सोचा गया। इसी प्रकार शहरों में विकास के लिए करोड़ों खर्च किये जाने के बावजूद सफाई व्यवस्था को लेकर अपेक्षित गम्भीरता नहीं रही। शहरों में आबादी के बढ़ते विस्फोट के कारण कचरा बड़ी समस्या के रूप में सामने आ गया। महानगरों के बाहर खाली स्थान पर बनाये गए संग्रहण स्थल पहाड़ की शक्ल ले बैठे। कचरे से बिजली बनाने के संयंत्र भी सभी जगह नहीं लगाये जा सके। प्रधानमंत्री द्वारा स्वच्छता मिशन के रूप में जो राष्ट्रीय सोच स्थापित की गई उसे पूरी तरह से स्वीकार्यता भले न मिल सकी हो लेकिन आबादी का महत्वपूर्ण हिस्सा स्वच्छता की लेकर जागरूक हुआ है। सार्वजनिक स्थलों पर कचरा फेंकने के बारे में कुछ हिचक तो देखने मिलने लगी है। कचरे के डिब्बे का उपयोग करने के बारे में भी लोग स्वप्रेरित हुए हैं। रेलवे स्टेशन जैसी जगहों पर इसका असर देखा जा सकता है। अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है और ऐसे काम पूरे होने में लम्बा समय लग जाता है। स्वच्छता को स्वभाव और संस्कार बनाने का ये अभियान बहुत बड़ी जरूरत थी क्योंकि ये केवल सुन्दरता ही नहीं अपितु जनस्वास्थ्य के लिए भी प्राथमिक आवश्यकता है। 2020 के स्वच्छता सर्वेक्षण के जो परिणाम आये उनमें विजेता शहरों के नागरिक और प्रशासन बधाई के पात्र हैं। विशेष रूप से इन्दौर की इस बात के लिए प्रशंसा करनी होगी कि उसने स्वच्छता को अपनी पहिचान बनाने के लिए सतर्कता बरती। हालांकि ये आरोप भी लगते हैं कि स्वच्छता सर्वेक्षण के नाम पर अधिकतर स्थानीय निकायों द्वारा प्रचार पर बेरहमी से पैसा खर्च किया जाता है जिसमें भारी भ्रष्टाचार की शिकायतें आम हैं। बेहतर होगा कि सर्वेक्षण में ये जांच भी हो कि इस खर्च की जरूरत थी या नहीं ? इसके अलावा आकस्मिक जांच की भी व्यवस्था की जाए जिससे पता चल सके कि शहरों की सफाई व्यवस्था हमेशा दुरुस्त रहती है या केवल सर्वेक्षण के दौरान उसे चाकचौबंद रखा जाता है। सवाल और भी हैं लेकिन भारत सरीखे विकासशील देश में जहां आबादी का बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा से भी नीचे रहता हो वहां स्वच्छता यदि राष्ट्रीय मुद्दा बन रहा है तो ये कम संतोषजनक नहीं है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 20 August 2020

राष्ट्रीय भर्ती एजेंसी से प्रक्रिया में बड़ा सुधार करना संभव हो सकेगा



राष्ट्रीय शिक्षा नीति के बाद केंद्र सरकार ने बी और सी समूह के गैर तकनीकी पदों हेतु राष्ट्रीय भर्ती एजेंसी के गठन को मंजूरी दे दी। केन्द्रीय मंत्रीमंडल की बैठक में इसके प्रारूप को गत दिवस स्वीकृति मिल गयी। इस एजेंसी के गठन से बैंक और रेलवे सहित केंद्र सरकार एवं बैंक जैसे सार्वजनिक उद्यमों में बी और सी समूह के गैर तकनीकी पदों पर नियुक्ति हेतु एक ही प्रवेश परीक्षा होगी जिसे उत्तीर्ण करने के बाद अपने इच्छुक विभाग की अंतिम परीक्षा में बैठा जा सकेगा। अच्छी बात ये रहेगी कि अंतिम परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने के बाद दोबारा प्रवेश परीक्षा से मुक्ति मिल जायेगी। इस एजेंसी के बनने के बाद नौकरी के इच्छुक युवाओं को हर परीक्षा के लिए अलग - अलग आवेदन और शुल्क नहीं भरना पड़ेगा। अभी किसी अभ्यर्थी को बैंक और रेलवे की नौकरी के लिए अलग आवेदन और शुल्क भरना पड़ता है। इसके साथ ही नई एजेंसी के गठन से देश भर में जिलावार केंद्र खोले जाएंगे। इसके कारण परीक्षार्थियों को अपने घर से दूर किसी शहर या राज्य में जाने के खर्च से मुक्ति मिल जायेगी। परीक्षा हेतु पंजीयन भी ऑन लाइन किया जा सकेगा। इस बारे में उल्लेखनीय है कि अतीत में महाराष्ट्र में दूसरे राज्यों से भर्ती परीक्षा में आये परीक्षार्थियों के साथ मारपीट जैसी घटनाएँ हो चुकी हैं। इस तरह बी और सी समूह के पदों में ही स्नातक , हायर सेकेंडरी और हाई स्कूल योग्यता प्राप्त आवेदकों के लिए एक ही पाठ्यक्रम से अलग-अलग परीक्षाएं होंगी। प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण होना एक तरह से प्राथमिक योग्यता मानी जायेगी। अभी विस्तृत विवरण आना बाकी है। इस एजेंसी को मूर्तरूप लेने में निश्चित रूप से कुछ समय लगेगा। देश भर के जिलों में केंद्र खोलकर परीक्षा का आयोजन भी आसान काम नहीं होगा। लेकिन इस फैसले को एक बड़े सुधार के तौर पर देखा जा सकता है। ये उम्मीद पाल लेना तो जल्दबाजी होगी कि राष्ट्रीय भर्ती एजेंसी के गठन से बेरोजगारी दूर हो जायेगी लेकिन ये सही है कि इसके प्रभावशील होते ही सरकार और उसके नियन्त्रण वाले उद्यमों में नए रोजगार के लिए होने वाली परीक्षाओं की व्यवस्था में अपेक्षित सुधार के साथ ही निर्णय प्रक्रिया तेज हो सकेगी। विभिन्न विभागों द्वारा समान पद हेतु की जाने वाली भर्ती के लिए अलग-अलग परीक्षा लिए जाने से बेरोजगारों पर आर्थिक और मानसिक बोझ बढ़ता है। अपने घरों से दूर परीक्षा हेतु जाने के लिए अनेक के पास पैसे तक नहीं होते। और फिर परीक्षा की समय-सारिणी कब बदल जाए ये कहना कठिन है। कुल मिलाकर अलग-अलग भर्ती परीक्षाएं भारत के संघीय ढांचे के भी अनुरूप नहीं हैं। इससे विभागों द्वारा अलग-अलग परीक्षाओं पर होने वाले खर्च की भी बचत हो सकेगी। परीक्षा के परिणाम भी जल्दी आयेंगे जिससे अभ्यर्थियों को विभिन्न नौकरियों में अपनी पसंद चुनने का बेहतर अवसर मिल सकेगा। केंद्र सरकार का ये कदम प्रशासनिक सुधार के साथ ही पारदार्शिता बढाने वाला भी होगा। देश में बेरोजगारी की भयावह स्थिति के कारण बहुत बड़ी संख्या ऐसे युवाओं की है जो अलग-अलग परीक्षाओं के कारण परेशान हो गये हैं। राष्ट्रीय भर्ती एजेंसी के गठन से भर्ती प्रक्रिया में बड़ा बदलाव आने की उम्मीद करना गलत नहीं होगा। लेकिन केंद्र सरकार को ये देखना चाहिए कि एजेंसी का काम निश्चित समय सीमा में सम्पन्न हो क्योंकि हमारे देश में सुधारवादी फैसले लिए जाने के बावजूद उन्हें अमल में लाने का काम मंथर गति से होने के कारण उनकी उपयोगिता और प्रभाव दोनों नकारात्मक हो जाते हैं। वैसे ये अच्छा संकेत है कि कोरोना संकट के समय भी केंद्र सरकार लंबित फैसले तेजी से ले रही है। इससे उसका आत्मविश्वास भी सामने आता है। लेकिन कोरोना के जाने के बाद ऐसे तमाम फैसलों को लागू करने के बारे में भी ऐसी ही प्रतिबद्धता दिखाई जानी चाहिए जिससे एक कदम आगे दो कदम पीछे की परिपाटी को खत्म किया जा सके। एक देश एक भर्ती परीक्षा का निर्णय राष्ट्रीय एकता को भी मजबूत करेगा। एक राष्ट्र एक राशन कार्ड और सभी का स्वास्थ्य कार्ड बनवाने जैसी योजनाओं के बाद केंद्र सरकार का नया फैसला स्वागतयोग्य है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 19 August 2020

सोशल मीडिया इतना ताकतवर नहीं कि चुनाव नतीजे तय कर सके



कांग्रेस द्वारा सोशल मीडिया पर भाजपा को प्राथमिकता मिलने का मुद्दा जोरशोर से उठाया जा रहा है। अमेरिका के एक अख़बार में प्रकाशित खबर के अनुसार फेसबुक ने भाजपा को समर्थन दिया। कांग्रेस ने इसे मुद्दा बनाते हुए फेसबुक के मालिक को चिट्ठी भेजकर अपना विरोध जताया। पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी इस बारे में खुलकर बयानबाजी करते हुए संयुक्त संसदीय समिति से जांच कराये जाने की मांग कर रहे हैं। उनकी मानें तो भाजपा ने फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर कब्जा जमा रखा है। आरोप है कि उनमें भाजपा द्वारा प्रसारित आपत्तिजनक सामग्री को हटाया नहीं जाता जबकि ऐसे ही मामलों में अन्य दलों को पक्षपात का शिकार होना पड़ता है। अतीत में भी ये आरोप उछले थे कि भाजपा ने चुनाव के दौरान सोशल मीडिया पर प्रचार हेतु बड़ी रकम खर्च की। वैसे ये बात भारत तक सीमित नहीं है। अनेक देशों में फेसबुक और ट्विटर पर ये आरोप लगते रहे हैं कि वे आंतरिक राजनीति में दखल देते हैं। इनको चुनाव के दौरान विज्ञापन तथा अन्य माध्यम से राजनीतिक दलों द्वारा मोटी रकम दी जाती है। आजकल व्हाट्स एप नामक एक और माध्यम है जो विचारों और सूचनाओं के आदान- प्रदान के लिए पूरी दुनिया में लोकप्रिय है। इसके जरिये अफवाहों का फैलाव भी बड़ी जल्दी हो जाता है। आधारहीन और प्रामाणिकता रहित जानकारी के कारण व्हाट्स एप यूनीवर्सिटी नामक व्यंग्यात्मक शब्द भी खूब चर्चित है। अमेरिका में प्रकाशित खबर एवं कांग्रेस द्वारा लगाये आरोप कहाँ तक सही हैं ये कहना फिलहाल संभव नहीं है। लेकिन ये बात जरूर कही जा सकती है कि सोशल मीडिया के उपयोग में कांग्रेस भी पीछे नहीं है। भाजपा की तरह उसका अपना भी आईटी सेल है जिसका काम सोशल मीडिया के अलावा बाकी संचार माध्यमों का उपयोग करते हुए पार्टी की विचारधारा और नीति-रीति का प्रचार-प्रसार करना है। इस मामले में प्रारंभिक तौर पर तो ये लगता है कि कांग्रेस हार की खीज निकाल रही है। जहां तक सोशल मीडिया के उक्त प्लेटफार्मों का प्रश्न है तो ये खुले मंच जैसे हैं जिन पर हर कोई अपनी बात और विचार रख सकता है। कांग्रेस और उसके समर्थक भी इस बारे में अधिकार संपन्न हैं लेकिन उसकी शिकायत ये है कि भाजपा समर्थक सामग्री आपत्तिजनक होने पर भी हटाई नहीं जाती जबकि कांग्रेस के पक्ष वाले विचारों पर सेंसर लगाया जाता है। सामान्य तरीके से देखें तो ये कहना गलत नहीं होगा कि दौड़ सब एक ही दिशा और तरीके से रहे हैं लेकिन जो पीछे रह जाता है वह ये आरोप लगाने से बाज नहीं आता कि आगे निकले व्यक्ति ने उसे टंगड़ी मारी थी। बड़ी बात नहीं यदि कांग्रेस सत्ता में होती तो आज भाजपा उस पर ऐसे ही आरोप थोप देती। यही बात है कि संदर्भित मामले में आम जनता की रूचि नहीं है। वैसे कांग्रेस को ये देखना चाहिए कि वह सोशल मीडिया पर यदि प्रभावशाली नहीं हो पा रही तो इसके लिए क्या इन प्लेटफार्मों की पक्षपातपूर्ण नीति ही अकेली जिम्मेदार है ? उसे ये ध्यान रखना चाहिए कि जनसभा में वाहनों में भरकर श्रोता तो लाये जा सकते हैं लेकिन उन्हें संबोधित करने वाला नेता यदि प्रभावशाली भाषण न दे तो उस सभा का कोई लाभ नहीं होता। इस बारे में एक उदाहरण काफी सामयिक है। 2014 में भाजपा ने प्रशांत किशोर नामक एक पेशेवर की सेवाएँ लेकर लोकसभा चुनाव की पूरी व्यूहरचना की जिसमें उसे ऐतिहासिक सफलता मिली। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनवाने में प्रशांत की रणनीति को काफी हद तक जिम्मेदार माना गया। बाद में उनका भाजपा से मतभेद हो गया और बिहार विधानसभा के चुनाव में वे उसके विरुद्ध नीतीश कुमार और लालू के महागठबंधन के पक्ष में हो गये। संयोगवश उसे भी जोरदार सफलता मिली। और प्रशांत किशोर चुनाव जिताने वाली ताकत माने जाने लगे। लेकिन उसके बाद हुए उप्र विधानसभा चुनाव में वे कांग्रेस के साथ जुड़े किन्तु वह पूरी तरह से डूब गई। इससे स्पष्ट हो गया कि चुनाव जीतने के लिए पेशेवर लोगों की सेवाएं और संचार के आभासी माध्यम ही सफलता की गारंटी नहीं हैं। राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी को इस बात का पता करना चाहिये कि आखिर क्या कारण है कि वे और कांग्रेस दोनों जनता का भरोसा जीतने में नाकामयाब रहे। यदि सोशल मीडिया पर मिले अतिरिक्त समर्थन से चुनाव जीते जा सकते तो भाजपा मप्र, राजस्थान और छतीसगढ़ की सत्ता क्यों गंवाती? गुजरात में भी वह हारते-हारते ही जीत पाई। राहुल गांधी ने 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद अध्ययन अवकाश लिया। हालाँकि उसे लेकर तरह-तरह की चर्चाएँ हुईं लेकिन ऐसा लगता है श्री गांधी वास्तविकता का एहसास अभी तक नहीं कर सके। बतौर विपक्षी नेता वे सत्तारूढ़ पार्टी और उसके नेता पर सियासी हमले करते रहें तो उसमें अस्वाभाविक कुछ भी  नहीं है । लेकिन उनके प्रयासों को अपेक्षित सफलता इसलिये नहीं मिलती क्योंकि वे जनता की नब्ज नहीं जान पा रहे। सोशल मीडिया को लेकर उनके हालिया आरोप लोगों के गले नहीं उतर रहे तो उसकी वजह साफ़ है। आम जनता में ये माध्यम इतना लोकप्रिय है कि उसे इसमें गड़बड़ी की बात पर यकीन नहीं होता। देश में अनेक टीवी चैनल ऐसे हैं जो भाजपा और प्रधानमंत्री की बखिया उधेड़ने का कोई अवसर नहीं गंवाते। इसी तरह टीवी चैनलों से निकलकर अपने खुद के वीडियो पोर्टल चलाने वाले देश के अनेक वरिष्ठ पत्रकार भी नरेंद्र मोदी के विरुद्ध हाथ धोकर पड़े रहते हैं। उनके लाखों दर्शक हैं लेकिन वे भी चुनावों को प्रभावित नहीं कर पा रहे। इससे साबित होता है कि संचार और समाचार माध्यम किसी के अंधभक्त या विरोधी होने पर अपना प्रभाव गँवा बैठते हैं। कांग्रेस के जो प्रादेशिक नेता जनता के मन पर अपना असर छोड़ने में कामयाब रहे  वे बिना सोशल मीडिया या विज्ञापनों के भी सफल हो जाते हैं। राहुल गांधी को बजाय व्यर्थ के विवादों में समय और शक्ति खर्च करने के जनता से सीधे सम्वाद की शैली अपनानी चाहिए। 2014 में हारने के बाद स्मृति ईरानी ने अमेठी से लगातार सम्पर्क बनाए रखा जबकि राहुल जीतकर भी वहां सक्रियता नहीं रख सके। पिछले लोकसभा चुनाव में हारने के बाद बीते सवा साल में वे कितनी बार अमेठी के लोगों से मिलने गए ये उन्हें सोचना चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 18 August 2020

राहत भरी खबरों के बावजूद कोरोना संबंधी सावधानी बेहद जरूरी



भारत में कोरोना  को लेकर यूँ तो अनगिनत भविष्यवाणी की गईं किन्तु दिल्ली स्थित एम्स के निदेशक डा. रणदीप गुलेरिया का आकलन अभी तक सबसे सटीक निकलता दिख रहा है | मई में जब लॉक डाउन समाप्त करते हुए सामान्य स्थिति बनाने की कोशिश शुरू हुई तभी उन्होंने कह दिया था कि जून से कोरोना के मामले बढ़ेंगे और जुलाई तथा अगस्त में चरमोत्कर्ष पर पहुँचने  के बाद सितम्बर माह से उसमें गिरावट आना शुरू होगी , लेकिन उसका प्रकोप दिसम्बर तक जारी रहेगा और तब तक स्वदेश में बनी वैक्सीन भी उपलब्ध होने  लगेगी | बीते  लगभग दो महीनों में कोरोना का फैलाव जिस तेजी से हुआ उसने कन्टेनमेंट ज़ोन की सीमा को खत्म कर दिया | शुरुवात में ये देखा गया था कि शहरों के कुछ विशेष इलाकों में ही कोरोना के अधिकतर मरीज मिल रहे थे किन्तु मौजूदा स्थिति में कोरोना का विस्तार शहर या कस्बों के तकरीबन हर क्षेत्र में हो चुका है | ये बात भी सही है कि जाँच की संख्या बढ़ने से भी नये  संक्रमित सामने आने लगे | लेकिन बीते दो महीने में कोरोना  संक्रमण के शिकार मरीजों की संख्या में हुई असाधारण वृद्धि ने पूरे देश को भयभीत कर दिया | भले ही वैश्विक पैमाने पर हमारे देश में मृत्युदर काफी नियन्त्रण में  रही तथा ठीक होने वालों  का प्रतिशत भी लगातार बढ़ता जा रहा है लेकिन नए संक्रमण जिस तेज गति से सामने आये उसके कारण अस्पतालों की क्षमता जवाब देने लगी थी | इसी वजह से सरकार द्वारा नये मरीजों को घर में रहकर खुद को अलग - थलग रखते हुए इलाज करवाने का विकल्प दिया जाने लगा | हालांकि उनके स्वास्थ्य पर लगातार नजर रखी जाती रही और तकलीफ बढ़ने पर अस्पताल ले जाया गया लेकिन ये देखने में आया कि बड़ी संख्या में मरीज घरों  में रहते हुए भी कोरोना संक्रमण से मुक्त होने लगे |  इससे चिकित्सकों और उनके सहयोगियों का मनोबल निश्चित रूप से बढ़ा | इसके साथ ही आम जनता में भी ये विश्वास जागा कि कोरोना होने के बाद हताश होने की जरूरत नहीं है । चूंकि देश में  कुछ हिस्सों के अलावा लॉक डाउन हटा लिया गया है तथा  लोगों का आवागमन भी शुरू हो चुका है इसलिए संक्रमण की दैनिक संख्या तकरीबन 70 हजार तक जा पहुँची किन्तु ठीक होने वालों का नियमित आंकड़ा भी तेजी से बढ़ते जाने से कुछ राहत महसूस की जाने लगी | कल सोमवार के जो आंकड़े आज सुबह प्रसारित हुए उनके मुताबिक नये मामलों से ठीक होने वालों की संख्या 4753  ज्यादा रही | हालाँकि ये राष्ट्रीय आंकड़ा है और इसमें दिल्ली जैसे  राज्य हो  सकते हैं जहां  कोरोना ढलान पर है लेकिन ये भी सही है कि ये गिरावट तब देखने आई जब कोरोना जांच की दैनिक संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है | हालांकि इस बारे में एक सवाल  गौरतलब है कि नये सैम्पलों की जांच रिपोर्ट आने में कितना समय लग रहा है ? बावजूद इसके ये संतोष का विषय है कि एम्स के निदेशक डा. गुलेरिया के अनुमान सही दिशा में जा रहे हैं | और यही स्थिति जारी रही तो उम्मीद की जा सकती है कि सितम्बर शुरू होते तक कोरोना सबसे ऊँचे शिखर पर पहुंचने के बाद उतार की तरफ रुख करेगा | प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा गरीबों को 30 नवम्बर तक मुफ्त राशन देने की जो घोषणा जून के अंतिम सप्ताह में की गई थी वह इस बात का संकेत थी कि सरकार भी मानकर चल रही थी कि तब तक कोरोना  जमीन पर आ जायेगा और बची - खुची समस्या वैक्सीन की मदद से हल कर  ली जावेगी | उस दृष्टि से अगस्त माह के शेष दिन बेहद महत्वपूर्ण हैं | यदि नये मामलों में गिरावट न सही लेकिन ठहराव भी आ गया और ठीक होने वालों की संख्या उससे  ज्यादा होती गयी तब  कोरोना पर जीत हासिल करने का आत्मविश्वास और मजबूत होगा | दिल्ली जिसे कुछ समय पहले  तक मुम्बई के बाद सबसे ज्यादा समस्याग्रस्त माना जाता था , वहां अस्पतालों में बिस्तर खाली पड़े हैं | मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल बाहर  के मरीजों का इलाज करने का प्रस्ताव भी दे रहे हैं | कुछ और शहरों से भी ठीक होने वालों की संख्या में तेजी से वृदधि की खबरें आश्वस्त कर रही हैं । लेकिन यही वह समय है जब जनता को अतिरिक्त  सावधानी बरतने की जरूरत है क्योंकि अनेक देशों में कोरोना  लगभग समाप्त होने के बाद दोबारा वापिस लौटा है | इसी तरह से अनेक देश जो लम्बे समय तक इससे बचे रहे वे भी  अब उसकी चपेट में आ गये हैं | उसका बड़ा कारण वहां की जनता द्वारा पूरी तरह से  असावधान होकर कोरोना पूर्व की जीवन शैली में लौट जाना ही है | भारत में विशाल आबादी और घनी बसाहट के कारण किसी भी संक्रामक बीमारी का तेजी से फैलना  बहुत ही आसान है और फिर कोरोना तो बेहद खतरनाक वायरस है | ये  देखते हुए अपेक्षा है कि उसके बारे में आ रही आशाजनक खबरों के  बावजूद उससे बचाव के मान्य तौर - तरीकों का ईमानदारी से पालन किया जाए | सरकार और चिकित्सा कर्मी अपने स्तर पर जो कर रहे हैं उसमें पूर्ण सफलता तभी  मिलेगी जब जनता भी पूरी तरह अनुशासन में रहते हुए सहयोग करे | बीते कुछ महीनों में अनेक बार ये देखने में आया कि कोरोना पर नियन्त्रण पाने में कामयाबी  मिल रही है लेकिन जनता के स्तर पर लापरवाही के कारण वह खुशी क्षणिक होकर रह गई | बीते एक दो दिनों में आये सुखद समाचारों के बावजूद एहतियात रखने की जरूरत है | कोरोना चूंकि पूरी तरह से अदृश्य है इसलिए वह कब और कहाँ से आ धमके ये पता नहीं चलता ।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 17 August 2020

सब कुछ आसान हो जाये तो नेताओं और अफसरों को पूछेगा कौन ? भ्रष्टाचार की जड़ों में मठा डाले बिना बात नहीं बनने वाली


स्वाधीनता दिवस की शाम एक टीवी चैनल पर बिना चीख पुकार वाली बहस को सुनने लगा | मुद्दा था प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सुबह  लाल किले की प्राचीर से दिया गया भाषण | भाजपा के प्रतिनिधि जहां प्रधानमन्त्री के एक  - एक शब्द का गुणगान करने में लगे थे वहीं  विपक्षी दलों के नुमाइंदे  अपना धर्म निभाने में | बात नए उद्योगों के शुरू होने , आत्मनिर्भरता , रोजगार की स्थिति , सीधा विदेशी निवेश , मेक इन इण्डिया और ऐसे ही तमाम विषयों  के इर्द गिर्द सिमटी थी | इसी बीच एंकर ने एक वित्तीय सलाहकार  को बोलने का अवसर दिया | उनके बातों में राजनीति  कदापि नहीं थी और उन्होंने  प्रधानमंत्री के  इरादों को भी नेक बताया | कोरोना के बावजूद भी विदेशी मुद्रा के भंडार के साथ रिकार्ड तोड़ विदेशी निवेश पर भी संतोष व्यक्त किया लेकिन आत्मनिर्भर भारत और नए उद्योगों को प्रोत्साहन के बारे में उनका कहना था कि प्रधानमंत्री जो कहते हैं वह जमीन पर कितना उतरता है इसे परखने के लिए उन्हें केन्द्रीय सचिवालय के समस्त सचिवों को बुलाकर ये जानकारी लेनी चाहिए कि उनके पास  छह महीने से  ज्यादा समय से लंबित फाइलें कितनी हैं ?

उनके कहने का आशय ये था  कि किसी नये   उद्यमी को सरकारी  दफ्तर वाले इतना हलाकान कर डालते हैं कि नया काम शुरू  करने से पूर्व ही उसका उत्साह ठंडा हो जाता है | उन्होंने  ये कहकर सभी को चौंका दिया कि उनके एक मित्र ने तेल  मिल लगाने के लिए आवेदन किया जिसके लिए उसे दर्जनों विभागों से लायसेन्स अथवा अनापत्ति प्रमाणपत्र लेना था | कुछ दिनों तक चक्कर लगाने  के बाद उसके अरमानों का ही तेल निकल गया | बातचीत के दौरान ढेर सारे कानूनों  का जिक्र आने पर कहा  गया कि केंद्र सरकार ने तमाम अनुपयोगी और कारोबार में बाधक कानूनों को खत्म कर दिया लेकिन ये बात भी स्वीकार की गई कारोबार को सरल और सहज बनाने के लिए किये जाने वाले सुधारों की प्रक्रिया बहुत ही सुस्त है | यहाँ तक कि प्रधानमंत्री द्वारा की गई घोषणाओं पर अमल होने में भी नौकरशाही अड़ंगे लगाती है | इसकी वजह ये है कि यदि सब कुछ आसान हो गया तो फिर अफसरों और नेताओं की पूछ - परख ही समाप्त हो जायेगी |

मैंने जब इसकी चर्चा वीडियो कान्फ्रेंसिंग पर अपने मित्रों से की तो तीन दशक से हांगकांग निवासी Sanjay Nagarkar ने बड़ी ही मार्के की बात कही | उन्होंने विभिन्न देशों के अपने अनुभव बताते हुए कहा कि उच्च स्तर पर तो भ्रष्टाचार विकसित देशों में भी होता है  लेकिन निचले स्तर का भ्रष्टाचार नहीं होने से जनता का  उससे वास्ता नहीं  पड़ता | जबकि हमारे देश में सरकारी दफ्तर का भृत्य भी भ्रष्टाचार में लिप्त देखा जा सकता है | अदालतों में न्यायाधीश की आसंदी के नीचे बैठा बाबू वकीलों से जिस दबंगी के साथ सौजन्य भेंट लेता है वह जगजाहिर है | इसी तरह सड़क  पर खोमचा लगाने वाला गरीब व्यक्ति कब पुलिस वाले की अवैध वसूली का शिकार हो जाये ये कहना कठिन है |

उनका कहना था कि निचले स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार चूंकि आम जनता को परेशान करते हुए उसका शोषण करता है इसलिए हमारे देश की तरक्की अपेक्षित गति से नहीं हो पा रही | हमारे देश की  वर्तमान केंद्र सरकार ये दावा करते नहीं  थकती कि वह घोटाला मुक्त है | प्रधानमंत्री के बारे में भी आम भावना यही है कि वे ईमानदारी से सेवा कर रहे हैं | देश को प्रगति पथ पर ले जाने की उनकी प्रतिबद्धता पर भी ज्यादातर लोगों को भरोसा है किन्तु निचले स्तर के भ्रष्टाचार को रोक पाने में कोई सफलता  नहीं मिली | और यदि मिली भी तो ऊँट के मुंह में जीरे के बराबर |

यही वजह है कि प्रधानमंत्री के न खाउंगा के   दावे की सच्चाई को तो  लोग स्वीकार कर भी लेते हैं लेकिन  न खाने दूंगा वाली बात हवा हवाई होकर रह गई | कहते हैं केद्रीय सचिवालय का काफी शुद्धिकरण किया गया है लेकिन सरकार केवल दिल्ली से नहीं चलती | ग्राम पंचायत के स्तर तक आते - आते भ्रष्टाचार भी भिन्न - भिन्न रूप धारण करता जाता है |

ये बात सही है कि गरीबों के बैंक खाते में सीधे पैसा जमा करने की व्यवस्था ने भ्रष्टाचार को एक हद तक तो रोका है लेकिन प्रधानमन्त्री आवास योजना का पैसा प्राप्त करने के  लिए ग्रामीण क्षेत्रों में सरपंच खुले आम कमीशन लेते हैं | शहरों में राशन कार्ड और गरीबी रेखा वाले कार्ड बनवाने के लिए जिला मुख्यालय में किस तरह  दलाली होती  है ये किसी से छिपा नहीं है |

निचले स्तर का भ्रष्टाचार रोकने में यदि कामयाबी मिल जाती तो प्रधानमंत्री के तमाम चुनावी वायदे और सरकार में आने के बाद की गयी  घोषणाओं के फलस्वरूप अच्छे दिन आ गये होते | आम जनता को जिस तरह के भ्रष्टाचार से रूबरू होना पड़ता है वही देश की छवि को खराब  करता है | राजनीतिक दल जिन धनकुबेरों , भ्रष्ट नौकरशाहों या अन्य स्रोतों से चंदा वसूलते हैं उससे आम जनता को किसी भी तरह का लेना   - देना नहीं है , लेकिन जब उससे छोटी - छोटी घूस माँगी जाती  तभी उसके मुंह से निकलता है कि सब चोर हैं |

स्वाधीनता दिवस पर प्रधानमंत्री के लगभग डेढ़ घंटे के ओजस्वी उद्बोधन के संदर्भ में शुरू ये चर्चा निश्चित रूप से समस्या  की जड़ को समझने जैसा है | सही बात है कि  निचले स्तर का  भ्रष्टाचार तब तक नहीं रुक सकता जब तक उसे रोकने वालों का दामन बेदाग न हो | खाकी वर्दी पहिनकर  डंडे के जोर पर अवैध कमाई  करने वाला पुलिस वाला जब लोकायुक्त में जा बैठता है तब उसको ईमानदारी का पुतला मान लेना अपने आप को धोखा देना नहीं तो और क्या है ? अदालतों  में छोटे - छोटे कामों के लिए बाबुओं के हाथों की खुजली मिटाने वाले वकील साहब जब मी लॉर्ड बन जाते है तब क्या न्याय के मंदिर में खुलेआम होने वाले पाप उन्हें नजर नहीं आते ? इसीलिए जब बात भ्रष्टाचार रोकने की  हो तब ये ध्यान रखना भी जरूरी है कि केवल गंगोत्री में जल की शुद्धता सुरक्षित रखने मात्र से गंगा को प्रदूषित होने से तब तक नहीं  बचाया जा सकता जब तक मैदानी इलाकों में उसमें समा जाने वाले नालों को नहीं रोका जाए  |

चाणक्य के जीवन का एक अति महत्वपूर्ण प्रसंग है  , जब वे किसी पौधे की जड़ों में मठा डालते देखे गए और उनसे उसका कारण पूछा गया तो उन्होंने कहा कि किसी बुराई को नष्ट करना है तो उसकी जड़ों को दोबारा पनपने से रोकना जरूरी है | हमारे देश में भ्रष्टाचार रूपी वृक्ष की पत्तियां   और टहनियां तोड़ने का काम तो खूब होता है लेकिन जड़ों में मठा डालने की जुर्रत कोई नहीं करता |

विस्तारवाद और आतंकवाद के विरुद्ध भारत का कड़ा रुख असरकारक



प्रधानमंत्री द्वारा स्वाधीनता दिवस को सुबह दिल्ली स्थित लालकिले की प्राचीर से जो भाषण दिया जाता है वह केवल रस्मअदायगी न होकर देश और दुनिया के लिए सरकार का एक नीति वक्तव्य होता है। इस वर्ष भी नरेंद्र मोदी ने लगभग डेढ़ घंटे का लंबा भाषण दिया। यद्यपि उसमें मुख्य रूप से आत्मनिर्भर भारत पर ज्यादा जोर दिया गया लेकिन बिना नाम लिये ही पाकिस्तान और चीन को भी ये बता दिया कि नियंत्रण रेखा (एलओसी) से लेकर वास्तविक नियन्त्रण रेखा (एलएसी) पर होने वाली किसी भी गड़बड़ी का हमारी सेना करारा जवाब देगी। प्रधानमंत्री ने साफ-साफ कहा कि आतंकवाद और विस्तारवाद के विरुद्ध भारत कमर कसकर लड़ने तैयार है। हालाँकि उनके इस भाषण पर विपक्ष ने फिर सवाल पूछा कि श्री मोदी ने चीन का नाम क्यों नहीं लिया? लेकिन सैन्य और कूटनीतिक मामलों के जानकारों के अनुसार प्रधानमंत्री ने बहुत ही समझदारी का पारिचय दिया और बिना कोई विवादास्पद बात कहे पाकिस्तान और चीन दोनों को माकूल सन्देश प्रेषित कर दिया। हालाँकि लद्दाख के सीमावर्ती इलाकों में अभी भी तनाव की स्थिति बनी हुई है लेकिन भारत ने भी अपना सैन्य जमावड़ा करते हुए ये संकेत दे दिया है कि चीन जैसा करेगा वैसा ही  जवाब उसे दिया जाएगा। स्वाधीनता दिवस के पहले चीनी विदेश मंत्री ने भारत के साथ सभी विवाद वार्ता द्वारा सुलझाये जाने की बात कहकर सीमा पर तनाव घटाने की इच्छा व्यक्त की। हालाँकि चीन के ऐसे किसी भी बयान पर भरोसा करना खतरे से खाली नहीं होता। लद्दाख में अपनी सेनाएं पीछे हटाने का वायदा करने के बाद पलट जाने का उदहारण ताजा-ताजा है। ऐसे में ये माना जा सकता है कि भारत द्वारा सीमा पर जवाबी मोर्चेबंदी के बाद आर्थिक क्षेत्र में चीन पर जो शिकंजा कसा गया उससे वह दबाव महसूस कर रहा है। इसका अप्रत्यक्ष संकेत नेपाल के रुख में अचानक आये परिवर्तन से भी मिल रहा है। नेपाली प्रधानमंत्री केपी ओली द्वारा लम्बे अंतराल के बाद श्री मोदी से फोन पर बात करना और आज काठमांडू में दोनों देशों के बीच कूटनीतिक बातचीत की शुरुवात इस बात का प्रमाण है कि चीन को ये एहसास हो चला है कि भारत से टकराना उसके लिए नुकसानदेह हो रहा है। ये बात भी किसी से छिपी नहीं है कि नेपाल द्वारा हाल के महीनों में जो भारत विरोधी रुख दिखाया गया उसके पीछे चीन की ही शह थी। भारतीय भूभाग को अपने नक़्शे में शामिल करने के अलावा सीमवर्ती क्षेत्रों में सैन्य तैनाती जैसे कदम उठाने का दुस्साहस नेपाल कभी नहीं कर पाता यदि उसकी पीठ पर चीन का हाथ न रहा होता। प्रधानमंत्री ओली के भारत विरोधी रवैये की उनके देश में ही भारी आलोचना हुई। यहाँ तक कि उनकी पार्टी के वरिष्ठ नेता पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड तक उन्हें हटाने पर आमादा हैं। लेकिन चीन उनके साथ खड़ा हुआ है। इसलिए ऐसा मान लेना गलत न होगा कि नेपाल के रुख में आई नरमी की वजह चीन से मिले निर्देश ही हैं। गलवान घाटी की घटना के बाद भारत द्वारा उस क्षेत्र में जबरदस्त सैन्य तैयारियां किये जाने पर चीन ने काफी ऐतराज जताया लेकिन जब उसे लगा कि भारत युद्ध की धमकी से डरने की बजाय दो-दो हाथ करने के लिए तैयार है तब वह बातचीत के जरिये रिश्ते सुधारने जैसी बातें करने लगा और नेपाल को भी वैसा ही करने की सलाह दे डाली। दरअसल इस सबके पीछे भारत द्वारा आर्थिक मोर्चे पर चीन की घेराबंदी किया जाना बड़ा कारण बन गया। श्री मोदी ने आत्मनिर्भर भारत का जो नारा दिया उसका सबसे ज्यादा असर चीन पर ही पड़ा। भारत को किया जाने वाला उसका निर्यात लगातार कम होता जा रहा है। इसके अलावा सरकारी क्षेत्र में काम करने से चीनी कम्पनियों को रोक दिया गया है। भारत के व्यापारी भी चीनी माल के आर्डर रद्द कर रहे हैं। राखी पर इसका पहला प्रमाण मिला। आगामी गणेश पूजा में भी चीन से आयातित होने वाली मूर्तियों के आयात और व्यापार के प्रति कोई उत्साह नहीं है। यही हाल रहा तो दीपावली के अवसर पर चीनी सामान के उपयोग में भारी कमी आने की पूरी-पूरी संभावना है जो चीन के लिये बड़ा धक्का होगा। इस तरह प्रधानमंत्री द्वारा लालकिले से भले ही चीन और पाकिस्तान का नाम न लिया गया हो लेकिन विस्तारवाद की खुलकर आलोचना और आतंकवाद के विरूद्ध निर्णायक लड़ाई का संकल्प व्यक्त किये जाने का असर होना अवश्यंभावी है। संरासंघ में पाकिस्तान की तरफदारी किये जाने के मामले में चीन जिस तरह अकेला पड़ा वह भी शुभ संकेत है। भारत के आत्मनिर्भरता रूपी दांव ने चीन के लिए जबरदस्त परेशानी पैदा कर दी है क्योंकि देखा सीखी दुनिया के अनेक देशों ने चीन की आर्थिक मोर्चेबंदी कर दी। स्वाधीनता दिवस के भाषण में श्री मोदी द्वारा जिस तरह का कूटनीतिक संदेश दिया गया उसका असर आने वाले दिनों में जरूर दिखाई देगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

नेता तो बहुत हैं किंतु उन जैसा निर्विवाद और निष्कलंक कोई नहीं आज की राजनीति में अटल जी का अभाव बहुत खलता है



आज पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की दूसरी पुण्य तिथि है | आजादी के बाद  भारत में यूँ तो एक से एक बढ़कर राजनेता हुए लेकिन पं. जवाहरलाल नेहरू और  इंदिरा गांधी के अलावा अटल जी ही एक मात्र नेता थे जिन्हें राष्ट्रीय स्तर पर उन जैसी लोकप्रियता हासिल हुई | लेकिन जहाँ नेहरू जी और इंदिरा जी सत्ता की राजनीति से ही जुड़े रहे वहीं अटल जी ने विपक्ष में ही अपनी अधिकतर राजनीतिक यात्रा पूरी की | भले ही वे 71 वर्ष की आयु में पहली बार प्रधानमंत्री बने किन्तु उसके पहले  भी जनता के बीच उनकी  लोकप्रियता और सम्मान प्रधानमन्त्री से कमतर नहीं था | इसकी वजह उनकी सैद्धांतिक दृढ़ता और साफ़ सुथरी राजनीतिक शैली थी | 1996 में जब वे प्रधानमंत्री बनने जा रहे थे तब दूरदर्शन ने उनका साक्षात्कार लिया | उसमें उनसे पूछा गया कि आपकी विशेषता क्या है ? और अटल जी ने बड़ी ही साफगोई से जवाब दिया -  मैं कमर से नीचे वार नहीं करता | उनके उस उत्तर की सच्चाई पर उनके विरोधी तक संदेह नहीं  करते थे | राजनीति के आलावा सार्वजनिक जीवन में जिन उच्च मानदंडों को उन्होंने स्थापित किया वे आदर्श कहे जा सकते हैं |

विपक्ष में रहते हुए राष्ट्रीय महत्व के किसी भी विषय पर उन्होंने दलगत सीमाओं से ऊपर उठकर अपने विचार  व्यक्त करने में संकोच नहीं किया | इसकी वजह से उनको राजनीतिक नुकसान भी हुई लेकिन अटल जी ने उसकी परवाह नहीं की | पं. नेहरू के निधन पर संसद में उन्होंने जो श्रद्धांजलि भाषण दिया वह आज भी उद्धृत किया जाता है | नेहरू जी ने संसद में उनकी तेजस्विता को भांपते हुए भविष्यवाणी कर दी थी कि आने वाले समय में ये नौजवान देश  का प्रधानमंत्री बनेगा | यही नहीं तो उन्होंने अपने विश्वस्त नेता स्व.उमाशंकर दीक्षित को उन्हें कांग्रेस में लाने का जिम्मा भी सौंपा परन्तु वे विफल रहे | 

हिन्दी के ओजस्वी वक्ता के तौर पर वे लोकप्रियता के चरमोत्कर्ष तक जा पहुंचे | उनकी जनसभाओं में उनके राजनीतिक विरोधी भी बतौर श्रोता देखे जाते थे | लाखों की भीड़ को लम्बे समय तक अपनी प्रभावशाली वक्तृत्व कला से मंत्रमुग्ध करने की उनकी क्षमता भूतो न भविष्यति का पर्याय बन गई |

राजनीति के क्षेत्र में बिना सत्ता हासिल किये भी लोकप्रियता और सम्मान कैसे अर्जित किया जा सकता है इसका उनसे बेहतर उदाहरण नहीं  हो सकता | 1977 में जनता सरकार में वे विदेश मंत्री बने और मात्र 27 माह के कार्यकाल में ही उन्होंने वैश्विक पटल पर भारत की छवि में जबरदस्त सुधार करते हुए अपनी क्षमता और कूटनीतिक कौशल का परिचय दिया | संरासंघ की  महासभा में हिन्दी में भाषण देने की परम्परा की शुरुवात उन्होंने ही की थी | उसकी वजह से ही हिन्दी को अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकी |

मूलतः वे एक कवि थे | अपने जीवन का प्रारंभ उन्होंने बतौर पत्रकार किया था | यद्यपि राजनीतिक व्यस्तताओं की वजह से वे उस विधा को पूर्णकालिक नहीं बना सके और अनेक अवसरों पर उन्होंने ये स्वीकार भी  किया कि राजनीति के मरुस्थल  में काव्यधारा सूख गयी किन्तु समय मिलते ही वे काव्य सृजन करते रहे | देश के अनेक मूर्धन्य कवि और साहित्यकार उन्हें अपना प्रेरणास्रोत मानते रहे | आज के दौर के सबसे लोकप्रिय कवि डॉ.  कुमार विश्वास तो खुलकर कहते हैं कि अटल जी उनके काव्यगुरू हैं | सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनका संपर्क और सम्मान उनकी  विराटता का प्रमाण था | संसद में उनकी  सरकार गिराने वाली पार्टियां और नेता भी बाद में निजी तौर पर अफ़सोस व्यक्त किया करते थे | अटल जी के व्यक्तित्व की ऊंचाई का ही परिणाम था कि पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और पीवी नरसिम्हा राव सार्वजनिक रूप से उन्हें अपना गुरु कहकर आदर देते थे | दो विपरीत ध्रुवों पर रहने के बाद भी इंदिरा जी अक्सर अटल जी से गम्भीर मसलों पर सलाह किया करती थीं  |

आपातकाल के दौरान लोकसभा चुनाव की घोषणा के बाद जब विपक्षी नेताओं को रिहा कर  दिया गया और दिल्ली के रामलीला मैदान में उनकी बड़ी सभा हुई तो लाखों जनता उमड़ पड़ी | लोकनायक जयप्रकाश नारायण और मोरारजी के अलावा अनेक दिग्गज नेता  मंच पर थे लेकिन अटल जी का भाषण सबसे अंत में रखा गया क्योंकि आयोजक जानते थे कि उन्हें सुनने के लिए श्रोता रुके रहेंगे | इंदिरा सरकार ने दूरदर्शन पर बॉबी फिल्म का प्रसारण करवा दिया लेकिन जनता अटल जी को सुनने के लिए रुकी रही | वे खड़े हुए और भाषण की शुरुवात करते हुए ज्योंही कहा - बाद मुद्दत  के मिले हैं दीवाने तो पूरा मैदान करतल ध्वनि से गूँज उठा | अगली पंक्तियों में वे बोले - कहने सुनने को हैं बहुत अफ़साने |  खुली हवा में चलो कुछ देर सांस ले लें , कब तक रहेगी आजादी कौन जानें | और उसके बाद पूरे  रामलीला मैदान में विजयोल्लास छा गया |  आपातकाल का भय काफूर हो चूका था | अटल जी के  उस भाषण ने देश में लोकतंत्र को पुनर्जीवन दे दिया |

भारतीय संस्कृति और जीवनमूल्यों में उनकी गहरी आस्था थी | हिन्दू तन मन , हिन्दू जीवन नामक उनकी कविता उनके व्यक्तित्व का  बेजोड़ चित्रण प्रतीत होती है | बतौर प्रधानमंत्री गठबंधन सरकार चलाकर उन्होंने जिस राजनीतिक कुशलता का परिचय दिया वह भारतीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण अध्याय है | भारतीय विदेश नीति को उन्होंने नए आयाम दिए | परमाणु परीक्षण के साहसिक फैसले के बाद लगे वैश्विक आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करने की उनकी दृढ इच्छाशक्ति के कारण देश का आत्मविश्वास बढ़ा और अंततः दुनिया को भारत के प्रति नरम होना पड़ा |

विदेशों में बसे अप्रवासी भारतीय मूल के लोगों को अपनी मातृभूमि से भावनात्मक लगाव रखने के लिए उन्होंने जिस तरह प्रेरित किया वह भारत की प्रगति में बहुत सहायक हुआ | स्वर्णिम चतुर्भुज रूपी  राजमार्गों के विकास , विशेष  रूप से ग्रामीण सड़कों के निर्माण की  उनकी योजना देश की प्रगति  में क्रांतिकारी साबित हुई |

जीवन के अंतिम दशक में वे बीमारी के  कारण राजनीति और सार्वजनिक जीवन से दूर चले गए लेकिन उनके प्रति सम्मान में लेशमात्र कमी नहीं आई | मोदी सरकार ने उन्हें भारत रत्न से भी  विभूषित किया लेकिन देश की जनता ने तो उन्हें बहुत पहले से ही सिर आँखों पर बिठा रखा था | अटल जी  भारतीय राजनीति में  एक युग के प्रवर्तक कहे जा सकते हैं | एक दलीय सत्ता के मिथक को तोड़कर उन्होंने लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत किया | यही वजह है कि उनके घोर विरोधी तक उनका जिक्र आते ही आदर  व्यक्त करना नहीं भूलते |

उन्हें गये दो वर्ष बीत गये | भारतीय राजनीति आज जिस मोड़ पर आ पहुंची है उसमें उनका अभाव खलता है | संसदीय राजनीति में उनका योगदान इतिहास में अमर रहेगा | देश में नेताओं की भरमार है  लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उन जैसा निर्विवाद और निष्कलंक व्यक्तित्व  दूरदराज तक नजर नहीं आता | सत्ता से दूर रहकर भी जनता का विश्वास जीतने की उन जैसी क्षमता भी किसी में नहीं दिख रही |

पावन स्मृति में सादर नमन |

Friday 14 August 2020

आपदा को अवसर में बदलकर विश्व शक्ति बनने का सुअवसर



इस साल आजादी का पर्व ऐसी परिस्थितियों में आया है जब पूरी दुनिया के साथ हमारा देश भी कोरोना नामक महामारी से जूझ रहा है। इसके कारण समूचा देश हलाकान है। प्रारंभ में इसे शहरी, ख़ास तौर पर बड़े लोगों तक सीमित माना गया था परन्तु अब इसका संक्रमण शहरी बस्तियों से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक फैल गया है। आर्थिक हैसियत की सीमा रेखा भी नहीं रही। हजारों लोग मारे जा चुके हैं। दो महीने से ज्यादा की देशबंदी ने राष्ट्रीय जीवन की समूची संरचना को ही उलट पुलट दिया। जिस तरह से कोरोना संक्रमण का आंकड़ा रोजाना बढ़ता जा रहा है उससे लगता है अभी उससे मुक्ति दूर है। चिकित्सा विज्ञान इसका टीका बनाने में जुट गया है। उम्मीद की जा रही है कि दिसम्बर तक भारत में बना टीका बाजार में आ जाएगा। हालाँकि अनेक देशों के टीके का उत्पादन भारतीय कपनियां करने वाली हैं लेकिन हमारे द्वारा तैयार किया टीका आने में कुछ महीनों की देर है। और तब तक सिवाय कोरोना का सामना करने और उससे बचकर रहने के दूसरा विकल्प नहीं है। देशबंदी में कारोबार चौपट होने से रोजगार की समस्या उत्पन्न हो गई थी और इसीलिये अंतत: उसे हटाना पड़ा। भले ही  सीमित प्रतिबंध अभी भी हैं लेकिन धीरे-धीरे देश गतिशील हो उठा है। सभी मोर्चों पर सक्रियता बढ़ी है। अर्थव्यवस्था भी लड़खड़ाते क़दमों से ही सही लेकिन रफ्तार पकड़ने लगी है किन्तु ये स्वीकार करने में कुछ भी बुराई नहीं है कि कोरोना ने हमारी प्रगति को काफी पीछे कर दिया है और इससे उबरने में लम्बा समय लगेगा। लेकिन आपदा अपने साथ अनेक अवसर भी लेकर आई है। आत्मनिर्भर भारत की प्रतिबद्धता जिस तरह से राष्ट्रीय विमर्श का विषय बन गयी वह अच्छा संकेत है। बीते दिनों रक्षा मंत्री द्वारा 100 से भी अधिक रक्षा उपकरणों का निर्माण भारत में ही  किये जाने की नीतिगत घोषणा  से रक्षा सामग्री  के क्षेत्र में विदेशों  पर निर्भरता घटने का रास्ता साफ़ हुआ। यही नहीं तो ऐसा होने पर देश की रक्षा उत्पादन इकाइयों के अस्तित्व पर मंडरा रहा खतरा भी कम होगा। चीन से आयात होने वाली राखी का आयात दो हजार करोड़ रु. से भी ज्यादा घटने से ये विश्वास प्रबल हुआ है कि स्वदेशी को मजबूत बनाकर समृद्ध भारत की नींव रखी जा सकती है। चीनी एप पर रोक लगाने के भारत सरकार के फैसले का अनुसरण अनेक देशों द्वारा किया गया। देखते ही देखते भारत में  बने एप की मांग बढ़ गई। कोरोना आने पर  उससे निपटने  का तंत्र हमारे देश में नहीं था परन्तु  बीते चार-पांच महीनों में भारत  में चिकित्सा सुविधाओं में उल्लेखनीय सुधार हुआ। हालाँकि वे अभी भी अपर्याप्त हैं किन्तु देश में एक आत्मविश्वास जाग्रत हुआ है। कोरोना  से हुई मौतों के आंकड़े जिस तरह नियन्त्रण में हैं वह निश्चित रूप से हमारे चिकित्सा तंत्र की बड़ी सफलता है। सबसे बड़ी बात ये हुई कि शासन और जनता दोनों को समझ आ गया कि स्वास्थ्य सेवाएँ भी उतनी ही जरूरी हैं जितनी कि देश  की सुरक्षा। केंद्र सरकार द्वारा दवा निर्माताओं को एक निश्चित समय सीमा के भीतर दवाइयों में लगने वाले कच्चे माल के मामले में आत्मनिर्भर होने के लिए जो सुविधाएँ दी गईं वह निश्चित रूप से एक क्रांतिकारी कदम है। इससे आने वाले समय में देश दवा निर्यात में बहुत आगे बढ़ सकेगा। कोरोना संकट के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को जो धक्का पहुंचा वह अकल्पनीय था। उसकी वजह से शुरूआत में आम देशवासी का मनोबल कमजोर हुआ लेकिन इतिहास गवाह है कि मुसीबत के क्षणों में भारत ने सदैव आगे बढऩे का हौसला दिखाया है। और वैसा ही वर्तमान दौर में नजर आ रहा है। यद्यपि मुसीबत बड़ी है और उसका अंत कब होगा ये कह पाना भी आज तो संभव नहीं है लेकिन संतोष का विषय है कि देश ने आपदा में अवसर तलाशने की बुद्धिमत्ता दिखाई है और कोरोना काल के बाद का  भारत एक सशक्त और समृद्ध भारत बनकर विश्व पटल  पर उभरेगा , ये तय है। सीमा पर शत्रुओं द्वारा उत्पन्न हालातों का जिस आत्मविश्वास और दृढ़ता से  सामना किया जा रहा है उसकी वजह से विश्व जनमत भी हमारी  ताकत को पहिचान रहा है। संरासंघ में भारत के समर्थन में विश्व की बड़ी ताकतों का खुलकर खड़ा होना इस बात का संकेत है कि भारत को विश्वशक्ति माना  जाने लगा है। लेकिन देश के भीतर आज भी अनेक समस्याएँ हैं जिनका समाधान किया जाना जरूरी है। ऐसी अनेक जानी-अनजानी ताकतें भी हैं जो विदेशी इशारों पर भारत को भीतर से कमजोर करने का कोई अवसर नहीं छोड़तीं। इनसे सख्ती के साथ निपटने का तंत्र विकसित करना होगा। वैसे एक बात अच्छी है कि केन्द्रीय सत्ता की दृढ़ता के कारण अनेक ऐसे  विवादों का निराकरण हो गया जिनकी वजह से जटिल  समस्याएँ बनी हुई थीं। ये भी अच्छा संकेत है कि कोरोना के कारण आये ठहराव के बावजूद निर्णय प्रक्रिया में व्यवधान नहीं आया और देश अपनी भावी दिशा को तय करने के प्रति गम्भीर है। आजादी के  इस पर्व पर देशभक्ति का भाव हर देशवासी के मन में जाग्रत होता है। लेकिन इस वर्ष आजादी की ये वर्षगांठ दायित्वबोध जाग्रत करने का भी अवसर है। किसी देश की ताकत का सही मूल्यांकन संकट के समय उसके नागरिकों के व्यवहार से होता है। भारत के सामने आज जो चुनौतियां हैं वे दरअसल नियति द्वारा ली जा रही परीक्षा के समान हैं। इन पर विजय प्राप्त करना हमारे भविष्य को तय करेगा। कोरोना नामक इस मुसीबत ने हमें बहुत कुछ सिखाया भी है। बेहतर होगा इस अग्निपरीक्षा में से सुरक्षित निकलकर हम ये साबित करें कि भारत 21 वीं सदी में दुनिया का नेतृत्व करने में सक्षम है। लेकिन इसके लिए हर देशवासी को अपनी भूमिका का ईमानदारी से निर्वहन करना होगा। विश्वास है आपदा को अवसर में बदलने के इस अभियान में हम सबकी भगीदारी रहेगी। आखिर ये देश भी तो हम सबका ही है।
कृपया कोरोना को लेकर समस्त सावधानियां बरतें क्योंकि उससे बचाव ही उसका बेहतर इलाज है।
स्वाधीनता दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 13 August 2020

बेंगलुरु दंगा षडयंत्र का हिस्सा : टीवी चैनलों का रवैया खतरनाक





कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में गत दिवस हुआ दंगा पूरी तरह किसी षडयंत्र का हिस्सा लगता है। फेसबुक पर एक कांग्रेस विधायक के करीबी रिश्तेदार की इस्लाम विरोधी टिप्पणी से भड़के मुस्लिम धर्मावलम्बियों की भीड़ ने पुलिस थाने में आग लगाने के बाद विधायक निवास को फूंकने की भी कोशिश की। यद्यपि निकटवर्ती एक हिन्दू मंदिर को बचाने के लिए मुसलमानों द्वारा मानव श्रृंखला बनाये जाने के चित्र भी प्रसारित हुए लेकिन दूसरी जगहों पर बड़ी संख्या में आगजनी और तोडफ़ोड़ की गयी। दर्जनों वाहन आग के हवाले कर दिए गये। पुलिस द्वारा विधायक के संबंधी को गिरफ्तार कर लिया गया है। वहीं दंगे भड़काने के आरोप में एक मुस्लिम संगठन के नेता को भी हिरासत में ले लिया गया। राज्य सरकार ने तोडफ़ोड़ करने वालों की पहिचान करते हुए उनसे नुकसान की वसूली करने का ऐलान कर दिया। सीएए के विरोध में हुए उपद्रव के दौरान की गयी तोड़फोड़ के आरोपियों से क्षतिपूर्ति का निर्णय उप्र की योगी सरकार द्वारा भी लिया गया था। वैसे तो ये एक अच्छा तरीका है लेकिन इससे दंगे नहीं रुकते क्योंकि दंगाई विध्वंसक मानसिकता से प्रेरित होते हैं। कतिपय देशविरोधी ताकतें ऐसे हादसों के पीछे काम करती हैं। बेंगलुरु की ताजी घटना के बारे में जो जानकारी मिली हैं उसके बाद ये कहना गलत नहीं होगा कि दंगा जान-बूझकर भड़काया गया। सोशल मीडिया पर इस्लाम विरोधी किसी टिप्पणी के विरोध में पुलिस थाने में रिपोर्ट किया जाना तो मान्य तरीका है लेकिन थाने को आग के हवाले कर देने के अलावा सैकड़ों वाहनों में आगजनी और सार्वजानिक संपत्ति में तोडफ़ोड़ का कोई औचित्य नहीं था। उस पर भी एक मुस्लिम प्रवक्ता टीवी पर ये धमकाते हुए सुने गए कि आग में हाथ डालोगे तो जलोगे ही। किसी भी धर्म के विरुद्ध आपत्तिजनक अभिव्यक्ति किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं है। लेकिन उसके विरोध में जिस बर्बर तरीके का सहारा बेंगलुरु में लिया गया वह भी किसी भी कीमत पर मान्य नहीं किया जा सकता। सीएए के विरोध में दिल्ली के शाहीन बाग़ में सड़क घेरकर दिये गए धरने और उप्र के अनेक शहरों में हुए प्रायोजित दंगों से ये साबित हो गया कि मुस्लिमों के बीच अशिक्षा का सहारा लेकर धर्मान्धता फैलाने वाले तत्व पूरी तरह साक्रिय हैं। सोशल मीडिया पर जिस तरह की स्तरहीन और गैर जिम्मेदाराना सामग्री प्रसारित होती रहती है वह निश्चित तौर पर चिंता और निंदा का विषय है लेकिन उसकी प्रतिक्रियास्वरूप दंगा-फसाद कर देना और भी ज्यादा गैर जिम्मेदाराना तरीका है। बेंगलुरु की ताजा घटनाएँ इस बात का प्रमाण हैं कि मुस्लिम समाज के बीच कुछ ऐसे संगठन पनप रहे हैं जिनका नाम भले ही धार्मिक एहसास न करवाता हो लेकिन वे बड़ी ही कुटिलता से लोगों को भड़काकर शांति-व्यवस्था भंग करने का मौका तलाशते रहते हैं। बेंगलुरु में कांग्रेस विधायक के करीबी रिश्तेदार की करतूत के लिए उसका घर जलाने का कोई वाजिब कारण नहीं था। सबंधित पुलिस थाने द्वारा दोषी के विरुद्ध कार्रवाई में हुए विलम्ब की शिकायत उच्च अधिकारियों से की जानी चाहिए थी। जिन मुसलमानों ने हिन्दू मंदिर को बचाने की पहल की उनकी समझदारी प्रशंसनीय और अनुकरणीय है। वह सामाजिक सद्भाव का एक अच्छा उदाहरण बन सकता था लेकिन उसी समुदाय के बाकी लोगों ने उस कोशिश पर पानी फेर दिया और कुछ विघटनकारी सोच वाले नेताओं के बहकावे में पूरी कौम को कटघरे में खड़ा कर दिया। बीते 5 अगस्त को अयोध्या में राम मन्दिर के भूमि पूजन का आयोजन संपन्न होने के बाद भी देश में सांप्रदायिक सद्भाव बने रहने से हर शांतिप्रिय व्यक्ति ने राहत की सांस ली। लेकिन लगता है कुछ लोगों को ये हजम नहीं हुआ और उन्होंने धजी का सांप बनाने का खेल बड़े ही शातिराना अंदाज में रच डाला। इस बारे में विचारणीय बात ये भी है कि ऐसी घटनाओं के बाद एक तरफ  तो समाचार पत्रों से शासन-प्रशासन अपेक्षा करता है कि वे घटना के पीछे की सच्चाई को छिपायें। हिन्दू-मुस्लिम की बजाय दो गुटों में तनाव लिखें। लेकिन टीवी चैनलों को ये छूट दी जाती है कि वे हिन्दू और मुसलमानों के तथाकथित प्रवक्ताओं को बिठाकर तीतर लड़वाने जैसा तमाशा करवाएं। इस दौरान एक दूसरे पर हावी होने के फेर में बेहद संगीन आरोप लगते हैं। बहस को संचालित करने वाले एंकर इनमें से कुछ पर ये कटाक्ष भी करते हैं कि वे अपनी कौम के अधिकृत प्रवक्ता नहीं हैं लेकिन उसके बाद भी उन्हें लगातार आमंत्रित क्यों किया जाता है इस प्रश्न का उत्तर न मिलने से ये कहना गलत नहीं होगा कि उपद्रव भड़काने वालों को ये चैनल मंच प्रदान करते हुए महिमामंडित करते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़े दायित्वबोध का निर्वहन करने की अपेक्षा केवल समाचार पत्रों से किया जाना और टीवी चैनलों को छुट्टा छोड़ देना सरकार की पक्षपातपूर्ण नीति का परिचायक है। बेहतर हो केंद्र सरकार टीवी चैनलों की स्वछंदता पर भी ध्यान दे। बेंगलुरु में हुए दंगे देश के बाकी हिस्सों में न फैलें इसकी चिंता केंद्र और राज्य सरकारों को करना ही चाहिए। आगामी दिनों में हिन्दू और मुस्लिम दोनों के अनेक त्यौहार आने वाले हैं। स्वाधीनता दिवस को तो मात्र दो दिन शेष हैं। ऐसे में जऱा सी असावधानी घातक हो सकती है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 11 August 2020

हिन्दी का विरोध चुनावी राजनीति : चिदम्बरम का कूदना आश्चर्यजनक





तमिलनाडु में हिन्दी विरोध का नया दौर सामने आने से भावी राजनीति का अंदाज लगाया जा सकता है। दो दिन पहले चेन्नई हवाई अड्डे पर द्रमुक सांसद कनिमोझी से एक सुरक्षा कर्मी द्वारा हिन्दी में कुछ पूछे जाने पर उन्होंने उससे तमिल या अंग्रेजी में बात करने कहा। इस पर सुरक्षा कर्मी ने तंज कस दिया कि क्या वे भारतीय नहीं हैं ? इस कटाक्ष से कनिमोझी भन्ना गईं। सांसद होने के कारण उनका तुर्रा दिखाना स्वाभाविक था। लिहाजा बात आगे बढ़ी और जाँच करवाने का आश्वासन भी मिल गया। हवाई अड्डे पर यात्रियों से सुरक्षा कर्मी पूछताछ करते हैं। लेकिन भाषायी समस्या आने पर भारतीयता का सवाल उठाना आपत्तिजनक है। कनिमोझी तो सांसद हैं लेकिन साधारण यात्री के बारे में भी इस तरह की टिप्पणी को सही नहीं माना जा सकता। एक साधारण सुरक्षा कर्मी द्वारा की गई गलती पर जाँच का आश्वासन मिल जाने के बाद मामला शांत हो जाना चाहिए था। लेकिन पूर्व केन्द्रीय मंत्री पी. चिदम्बरम भी इस विवाद में बेगानी शादी में अब्दुल्ला बनकर कूद गए और अपने साथ भी इसी तरह के व्यवहार की बात उजागर कर दी। बात और बढ़ी तो कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री कुमारस्वामी भी हिन्दी न जानने के कारण दक्षिण भारत के नेताओं को प्रधानमन्त्री नहीं बनाने का रोना लेकर बैठ गए। हालाँकि उनके पिताश्री एचडी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बन चुके हैं किन्तु कुमारस्वामी को ये शिकायत है कि उनके पिताश्री को स्वाधीनता दिवस पर लालकिले की प्राचीर से हिन्दी में भाषण देने मजबूर किया गया। कनिमोझी और कुमारस्वामी की राष्ट्रीय स्तर पर कोई पकड़ या पहिचान नहीं है। यहाँ तक कि वे अपने पड़ोसी राज्य तक में असर नहीं रखते लेकिन श्री चिदम्बरम तो कई दशकों से राष्ट्रीय राजनीति से जुड़े हैं। कांग्रेस जैसी पार्टी में वे अग्रिम पंक्ति के नेता माने जाते हैं। देश के वित्त और गृह मंत्री भी रह चुके हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि वे दिल्ली के ही स्थायी निवासी हैं और सर्वोच्च न्यायालय के बड़े वकीलों में उनकी गिनती होती है। यदि उन जैसा व्यक्ति भी इतनी संकुचित सोच रखे तो दु:ख होता है। खबर ये भी है कि तमिलनाडु में नई शिक्षा नीति को लेकर भी विरोध के स्वर उठ रहे हैं। त्रिभाषा फार्मूले पर भी वहां ऐतराज जताया जा रहा है। लोग सोच रहे होंगे कि अचानक हिन्दी को मुद्दा बनाने के पीछे कारण क्या है ? और इसका जवाब है आगामी वर्ष होने वाले तमिलनाडु विधानसभा के चुनाव। तमिलनाडु में हिन्दी का विरोध वहां के दोनों क्षेत्रीय दलों की प्राणवायु है। जिस तरह मायावती दलितों की और लालू-मुलायम पिछड़ों की राजनीति पर जिंदा हैं ठीक उसी तरह तमिलनाडु में द्रमुक और अन्ना द्रमुक के अलावा बाकी जितने भी क्षेत्रीय दल हैं, वे सभी हिन्दी विरोध पर एकमत हैं। हालाँकि दक्षिण के चारों राज्यों में उनकी अपनी भाषा ही हावी है लेकिन हिन्दी का जैसा विरोध तमिलनाडु में होता रहा वैसा केरल , कर्नाटक और अविभाजित आंध्र में नहीं दिखाई दिया। इस बारे में उल्लेखनीय है कि देवनागरी लिपि के प्रचार हेतु जो नागरी प्रचारिणी सभा ब्रिटिश राज के दौरान बनी उसका काम तमिलनाडु (तत्कालीन मद्रास प्रेसिडेंसी) में राजाजी नाम से लोकप्रिय चक्रवर्ती राजगोपालाचारी भी देखा करते थे। राजाजी को ये दायित्व महात्मा गांधी द्वारा सौंपा गया जो उनके समधी बन गये थे। लेकिन आजादी के बाद देश के पहले भारतीय गवर्नर जनरल रहे राजाजी को जब राष्ट्रपति नहीं बनाया गया तब उनने कांग्रेस छोड़ स्वतंत्र पार्टी बनाई और हिन्दी के घोर विरोधी बन बैठे। रामास्वामी पेरियार द्वारा प्रारंभ द्रविड़ आन्दोलन से उत्तर भारत और हिंदुत्व के विरोध की जो मुहिम प्रारम्भ हुई वह अंतत: हिन्दी विरोध पर आकर केन्द्रित हो गई। द्रमुक और अन्ना द्रमुक दोनों ही केंद्र सरकार में हिस्सेदार तो बनते रहे लेकिन मेरी मुर्गे की डेढ़ टांग वाली सियासत के चलते वहां के नेता राजनीतिक ब्लैकमेल से नहीं चूके। राजीव गांधी की हत्या भी उत्तर भारत के विरोध की भावना का ही परिणाम थी। तमिल भाषा की आड़ में श्रीलंका के तमिलों को मिलाकर तमिल राष्ट्र बनाने जैसी साजिशें भी रची गईं। रामसेतु और भगवान राम को कालपनिक बताने जैसी सोच तमिलनाडु में फैलाये गए उत्तर भारत और हिन्दी के विरोध का ही नतीजा था। यद्यपि द्रविड़ राजनीति के दो मजबूत स्तम्भ क्रमश: करूणानिधि और जयललिता दिवंगत हो चुके हैं और दोनों प्रमुख क्षेत्रीय पार्टियों के पास उन जैसे नेताओं का नितान्त अभाव है लेकिन तमिलनाडु में हिन्दी विरोध रेडीमेड मुद्दे जैसा है। फिर भी कनिमोझी के समर्थन में पी. चिदम्बरम का कूदना चौंकाता है क्योंकि वे क्षेत्रीय पार्टी की बजाय कांग्रेस के नेता हैं। बेहतर होगा कि कांग्रेस इस मुद्दे पर व्यापक राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर अपनी नीति तय करे। क्षेत्रीय भाषाओं का सम्मान और संरक्षण बहुत जरुरी है लेकिन उनकी आड़ में देश के संघीय ढाँचे और अखंडता को नुकसान पहुँचाने वाली किसी भी मानसिकता और कोशिश को सख्ती से दबाना जरूरी है। भाषावार प्रान्तों की रचना का कितना नुकसान देश को हुआ वह किसी से छिपा नहीं है।


- रवीन्द्र वाजपेयी


Monday 10 August 2020

वैचारिक शून्यता और असमंजस से बाहर आये कांग्रेस



कांग्रेस में पूर्णकालिक अध्यक्ष की मांग उठने लगी है। सोनिया गांधी को कार्यकारी बने एक साल हो गया। 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी के खराब प्रदर्शन की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया था जिसे स्वीकार करने में ही महीनों लगा दिए गए। पद छोड़ते समय उनने एक टिप्पणी कर दी कि अगला अध्यक्ष गैर गांधी होगा। उससे ये कयास लागाये जाने लगे कि श्री गांधी पार्टी को एक परिवार में सीमित रहने के आरोप से बचाना चाहते हैं। लेकिन लम्बी उहापोह के बाद अंतत: उनकी माताजी को ही कमान देनी पड़ी । इस तरह राहुल ने भले ही पार्टी का नेतृत्व छोड़ दिया लेकिन घुमा फिराकर नियन्त्रण उनके परिवार का ही रहा। बीते एक साल में वे ही पार्टी का चेहरा बने रहे। इस दौरान ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट जैसे युवा नेताओं के बागी तेवर भी देखने मिले , वहीं राहुल ब्रिगेड के अन्य युवा सदस्य भी पार्टी लाइन से बाहर जाते हुए बयान देकर चर्चा में आये। श्रीमती गांधी लम्बे समय तक पार्टी की अध्यक्ष रहीं और इस दौरान केंद्र में कांग्रेस सत्ता में भी थी। लेकिन राहुल द्वारा बागडोर सँभालने के बाद कांग्रेस ने कुछ राज्यों में भले सफलता प्राप्त कर ली हो लेकिन राष्ट्रीय सत्तर पर वह प्रभाव छोड़ने में विफल रही और इसका कारण उसका शीर्ष नेतृत्व ही है। सोनिया जी और राहुल दोनों का जनता से तो क्या कांग्रेस के आम कार्यकर्ता तक से सीधा संवाद नहीं है। संगठन की हालत भी खस्ता है। राहुल के आने के बाद आंतरिक लोकतंत्र की बड़ी दुहाई दी गयी तथा नए चेहरों को आगे बढ़ाने की कोशिशें भी दिखाई दीं लेकिन अंतत: पुराने अखाड़ची ही हावी रहे। कांग्रेस में एक वर्ग ऐसे नेताओं का भी है जो न युवा है और न बूढ़े। ये सुशिक्षित, अनुभवी और मुखर हैं। इनके मन में ये पीड़ा भी है कि उनकी क्षमता का सही उपयोग नहीं हो पा रहा। लेकिन वे गांधी परिवार के विरुद्ध मुंह खोलने से भी बचते हैं। शशि थरूर, जयराम रमेश, अभिषेक मनु सिंघवी जैसे अनेक चेहरे हैं जो पार्टी का पक्ष बेहतर तरीके से रख सकते हैं। लेकिन उन्हें सीमित महत्व ही मिलता है। कांग्रेस के भीतरी मामलों पर नजर रखने वाले प्रेक्षकों का कहना है कि मप्र और राजस्थान में जो संकट पैदा हुआ वह शीर्ष नेतृत्व और प्रादेशिक नेताओं के बीच संवादहीनता का परिणाम है। राहुल की बहिन प्रियंका यूँ तो उप्र की प्रभारी हैं लेकिन वे लगभग हर मसले में हस्तक्षेप करती हैं। राजस्थान में सचिन पायलट की बगावत से निपटने में राहुल उतने सक्रिय नहीं दिखे जितना प्रियंका। बावजूद इसके पार्टी के बड़े नेता राहुल को ही दोबारा अध्यक्षता सौंपे जाने के पक्षधर हैं। इससे लगता है कि जिस युवा नेतृत्व और गैर गांधी अध्यक्ष की बात राहुल द्वारा की जाती रही वह महज दिखावा थी। बीते एक वर्ष में कांग्रेस और कमजोर हुई ये कहना गलत न होगा। इसका लाभ लेते हुए मोदी सरकार ने संसद में अनेक ऐसे निर्णय करवा लिए जो कांग्रेस यदि सतर्क होती तब शायद सम्भव न था। कश्मीर से अनुच्छेद 370 जितनी आसानी से हट गया वह कांग्रेस की रणनीतिक विफलता थी। इसी तरह राम मन्दिर मुद्दे पर उसका वैचारिक असमंजस और विरोधाभास खुलकर सामने आया। भले ही प्रियंका और राहुल ने ट्वीट के जरिये भूमि पूजन पर हर्ष जताया लेकिन दिग्विजय सिंह अंत तक विरोध करते रहे और किसी की भी हिम्मत उन्हें रोकने की नहीं पड़ी। अचानक उपजा राम प्रेम ये दर्शाता है कि इतनी पुरानी पार्टी इतने गम्भीर मसले पर किस तरह गलत निर्णय लेती रही। ऐसे में श्री गांधी को दोबारा अध्यक्षता सौंपना दूरदर्शिता नहीं होगी। बेटे के बाद माँ और माँ के बाद फिर बेटे की ताजपोशी से परिवारवाद का आरोप और भी पक्का हो जाएगा। बेहतर होता श्री गांधी बीते एक साल में किसी ऐसे व्यक्ति को अध्यक्ष बनाए जाने की कोशिश करते जो संगठन के स्तर पर काम करते हुए बिखराव को रोक सके। सोनिया जी की अस्वस्थता के कारण राहुल और प्रियंका का सामने आना तो स्वाभाविक था लेकिन  कांग्रेस को अब ऐसा समानांतर नेतृत्व भी चाहिए जो उसकी सेहत को सुधार सके। आज के हालात में भले ही श्री गांधी प्रधानमंत्री पर कितना भी तीखा हमला करें लेकिन पार्टी के भीतर भी ये भावना तेजी से बढ़ रही है कि गम्भीर राष्ट्रीय मुद्दों पर वे सही निशाना नहीं लगा पाते जिसका फायदा नरेंद्र मोदी को मिल जाता है। वर्तमान स्थिति में कांग्रेस को अपना ढांचा मजबूत करने की जरूरत है जिसके लिए मुरझाये चेहरों की जगह नए ऊर्जावान नेताओं को महत्व दिया जाना चाहिए। इसके अलावा अधिकारों का विकेंद्रीकरण करना भी बहुत जरूरी है। प्रधानमन्त्री भले ही आज भाजपा के सबसे ताकतवर नेता हों लेकिन पार्टी संगठन उनके भरोसे नहीं रहता। उसका अपना ढांचा है। राम मन्दिर के भूमि पूजन पर समारोह में श्री मोदी के साथ मंच पर रास्वसंघ प्रमुख डा. मोहन भागवत का होना काफी कुछ कह गया। दूसरी तरफ  देश की सबसे पुरानी पार्टी में इतना बड़ा शून्य कभी नहीं रहा। इंदिरा जी ने भी सत्ता और संगठन दोनों पर पूरी तरह कब्जा कर लिया था लेकिन वह अलग दौर था। बेहतर हो गांधी परिवार बदलते समय को समझते हुए अध्यक्ष संबंधी फैसला ले वरना मप्र और राजस्थान का घटनाक्रम और राज्यों में भी दोहराया जा सकता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 8 August 2020

कश्मीर संभल गया तो मनोज सिन्हा का कद बहुत उंचा हो जाएगा



अयोध्या में राम मंदिर का भूमि पूजन होने के कारण बीते 5 अगस्त को पूरा परिवेश राममय हो गया और इसीलिये जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाये जाने की वर्षगांठ की ज्यादा चर्चा नहीं हो सकी। लेकिन उसके बाद वहां के उप राज्यपाल जीसी मुर्मू द्वारा स्तीफा दिए जाने से जरूर लोगों का ध्यान उस तरफ गया। पहले-पहल इस खबर से लोग चौंके। कारण जानने पर पता लगा कि उनकी राज्य की नौकरशाही से पट नहीं रही थी। राज्य में विधानसभा चुनाव करवाने की उनकी घोषणा पर चुनाव आयोग द्वारा आपत्ति किये जाने को भी उनके स्तीफे से जोड़ा गया। इसी बीच ये जानकारी आई कि केंद्र सरकार ने उन्हें नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) बनाने का फैसला किया है। लेकिन उनके स्थान पर पूर्व रेल राज्य मंत्री मनोज सिन्हा को उपराज्यपाल बनाने की घोषणा ज्यादा चौंकाने वाली रही। उप्र की गाजीपुर लोकसभा सीट से तीन चुनाव जीत चुके श्री सिन्हा 2019 में हार गये। तभी से उन्हें कोई बड़ी जिम्मेदारी देने की चर्चा चल रही थी । राज्यसभा में लाकर दोबारा मंत्री बनाये जाने की खबर भी उड़ी किन्तु वैसा नहीं हुआ। हाल ही में उन्हें जगत प्रकाश नड्डा की टीम में शामिल कर भाजपा संगठन के काम में लगाने की बात भी सुनाई दी । लेकिन अंतत: श्री सिन्हा को जम्मू कश्मीर की कमान सौंपकर उनका राजनीतिक पुनर्स्थापन  कर दिया गया। इसके पीछे उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह का नजदीकी होना बताया जा रहा है। लेकिन श्री सिन्हा की योग्यता केवल इतनी नहीं है। विद्यार्थी जीवन में बनारस हिन्दू विवि छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे श्री सिन्हा ने सिविल इन्जीनियरिंग में एम. टेक की उपाधि अर्जित की थी। मैदानी राजनीति के खिलाड़ी रहने के कारण उनकी संपर्क क्षमता बेजोड़ हैं। लेकिन वे बहुत ही धीर-गंभीर किस्म के व्यक्ति हैं और अपने काम को बड़ी ही निष्ठा के साथ करते हैं। पार्टी लाइन से भी भटकते नहीं। बतौर केन्द्रीय मंत्री उनका कार्य बहुत ही संतोषप्रद रहा। 2017 में उप्र के मुख्यमंत्री पद हेतु उनका नाम काफी आगे था लेकिन अंत में योगी आदित्यनाथ को अवसर मिल गया। लेकिन श्री सिन्हा ने कभी उस पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं की। बीते सवा साल से वे राजनीतिक तौर पर खाली थे किन्तु उनको कोई न कोई महती जिम्मेदारी सौंपी जायेगी ये सम्भावना सदैव बनी रही। जम्मू कश्मीर लम्बे समय से राष्ट्रपति शासन के अधीन है। केंद्र शासित राज्य बनाये जाने के बाद वहां विधानसभा चुनाव करवाए जाने हैं। इसके लिए राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करना होगा। संभवत: इसीलिये राजनीतिक क्षेत्र के अनुभवी श्री सिन्हा को इस संवेदनशील और समस्याग्रस्त राज्य का दायित्व सौंपा गया। वैसे घाटी के प्रमुख नेताओं में डा. फारुख अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर को रिहा किया जा चुका है जबकि महबूबा मुफ्ती अभी भी नजरबंद हैं। संयोग से ये तीनों राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री हैं। अलगाववादी नेता भी बंद हैं।  इस कारण घाटी में विगत एक साल से भारत विरोधी बड़ा आन्दोलन नहीं हो सका। आतंकवादियों का भी बड़े पैमाने पर सफाया किया गया। हालाँकि कोरोना के कारण स्थितियां उस स्तर तक सामान्य नहीं की जा सकीं , जितनी अपेक्षित थीं। लेकिन कुल मिलाकर भारत विरोधी ताकतों की कमर तोड़ने का अभियान काफी हद तक सफल रहा है। ऐसे में ये जरूरी है कि राज्य विधानसभा के चुनाव करवाए जाएं। यद्यपि ये काम है तो बहुत ही कठिन क्योंकि आतंकवादी मौका पाते ही अपनी हरकतें दिखाने से बाज नहीं आते। बीते कुछ दिनों में ही उन्होंने अनेक भाजपा नेताओं की हत्या कर भय पैदा करने की कोशिश की। इसका उद्देश्य लोगों को राष्ट्र की मुख्यधारा से अलग रखना ही है। कांग्रेस का घाटी के अलावा जम्मू क्षेत्र में भी पहले जैसा जनाधार नहीं रहा। हिन्दू बहुल इलाकों में तो भाजपा का प्रभाव कायम है लेकिन घाटी के मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों में उसकी पकड़ अभी मजबूत नहीं हो सकी है। भले ही इक्का-दुक्का लोग पार्टी का झन्डा लगाने का साहस दिखाने लगे हों लेकिन उन सबकी हालत दांतों के बीच जीभ जैसी ही है। हालिया हत्याओं के कारण भाजपा के साथ आने से नए लोग डरेंगे और आतंकवादी भी यही चाहते हैं। कश्मीर घाटी में विधानसभा की अधिकांश सीटें होने से राजनीतिक पलड़ा उसी तरफ  झुकता रहा है। मोदी सरकार चाह रही है कि सीटों का परिसीमन इस तरह से किया जाए जिससे जम्मू अंचल की राजनीतिक वजनदारी भी कश्मीर घाटी के बराबर हो जाये। लद्दाख तो वैसे भी अलग केंद्र शासित क्षेत्र बना चुका है। 2014 में विधानसभा चुनाव के बाद त्रिशंकु सदन बनने पर भाजपा ने पीडीपी से अप्रत्याशित गठबंधन कर सभी को चौंका दिया। उसकी वजह से पार्टी को काफी शर्मिंदगी उठानी पड़ी लेकिन कालान्तर में ये स्पष्ट हो गया कि भाजपा ने वह खतरा काफी सोच - समझकर उठाया था। पीडीपी सरकार से समर्थन वापिस लेने के बाद राष्ट्रपति शासन और फिर एक झटके में अनुच्छेद 370 के खात्मे से ये साबित हो गया कि केंद्र सरकार ने कश्मीर को लेकर काफी तैयारी कर रखी थी। लेकिन गत वर्ष 5 अगस्त को जम्मू कश्मीर को लेकर किया गया ऐतिहासिक फैसला पूरे तौर पर प्रभावशाली हो सका ये कहना जल्दबाजी होगी क्योंकि अव्वल तो लंबे समय तक घाटी में कर्फ्यू जैसे हालात रहे। संचार सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं थी। स्थितियां सामान्य होते तक कोरोना आ धमका जिससे जनजीवन और राजनीतिक गतिविधियाँ फिर ठप्प हो गईं। उस लिहाज से नये उप राज्यपाल मनोज सिन्हा के सामने बड़ी चुनौतियां हैं। भाजपा की मुसीबत ये है कि वह फिलहाल अकेली है। नेशनल कांफ्रेंस , पीडीपी और कांग्रेस तीनों उसके विरुद्ध हैं। हालाँकि जैसे संकेत दिखाई दे रहे हैं उनके अनुसार भाजपा भविष्य में नेशनल कांफ्रेंस को अपने साथ ला सकती है। अब्दुल्ला बाप-बेटे की रिहाई और महबूबा मुफ्ती की नजरबन्दी तीन महीने बढ़ा देने से नये राजनीतिक समीकरणों के हलके संकेत मिल रहे हैं। बहरहाल श्री सिन्हा को कश्मीर के राजभवन में बैठकर कुदरत के नज़ारे देखने का अवसर कम ही मिलेगा। केंद्र सरकार ने बीते साल अनुच्छेद 370 को समाप्त कर घाटी में भारतीयता को मजबूत करने का जो प्रयास किया वह पूरी तरह सफल हुआ या नहीं ये विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद ही पता चलेगा। भारत विरोधी ताकतों का प्रभाव सतह पर तो कम हुआ दिखता है लेकिन अभी भी उनकी जड़ें जमी हैं। घाटी में जब तक उद्योग-व्यापार सामान्य नहीं होते तब तक हालात अनिश्चित रहेंगे। पर्यटन उद्योग कश्मीर की प्राणवायु है। स्थितियां सामान्य होने का भी वह प्रमाण है। जब श्रीनगर की डल झील, गुलमर्ग, पहलगाँव आदि में फिल्मों की शूटिंग फिर बिना डरे शुरू हो जायेगी और सैलानी कश्मीर में सुरक्षित घूम फिर सकेंगे तब ही ये माना जा सकेगा कि घाटी ने बदले हुए हालात को स्वीकार कर लिया है। मनोज सिन्हा पर प्रधानमंत्री ने जो विश्वास किया है उस पर यदि वे खरे साबित हो सके तो उनका कद राष्ट्रीय राजनीति में बहुत उंचा हो जाएगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 7 August 2020

सोना-चांदी की कीमतों का आसमान छूना बड़े वैश्विक संकट का संकेत




सोना और चांदी ऐसी दो धातुएं हैं जिनके बारे में हर वह व्यक्ति भी रूचि रखता है जिसे न उन्हें खरीदना है और न ही बेचना है। वैसे तो पृथ्वी के गर्भ से इनसे भी मूल्यवान धातुएं निकलती हैं लेकिन सोना और चांदी से चूँकि आभूषण बनते हैं और इनका विक्रय दुनिया में कहीं भी हो जाता है इसलिए सदियों से ये मानव जाति को प्रिय रही हैं। इनके आधार पर किसी व्यक्ति की ही नहीं अपितु देश की सम्पन्नता का आकलन भी किया जाता है। और फिर भारत में तो इन धातुओं के प्रति दीवानगी विशेष रूप से रही है। इसीलिये हमारा देश सोने के आयात में अग्रणी है। कहते हैं जनता के अलावा विभिन्न मंदिरों और मठों के भण्डार में इतना स्वर्ण संचित है जिससे देश की आर्थिक स्थिति में अकल्पनीय सुधार हो सकता है। सोना और चांदी दोनों की कीमतों में यद्यपि बहुत अंतर होता है किन्तु चूँकि उनमें गिरावट नहीं आती इसलिए वह सबसे सुरक्षित निवेश माना जाता है। इनकी कीमतें भी वैश्विक आधार पर तय होती हैं और अक्सर दिन में कई बार उनमें बदलाव देखा जाता है। हर देश अपने खजाने में ज्यादा से ज्यादा स्वर्ण रखता है क्योंकि उसी आधार पर उसकी मुद्रा की साख निश्चित होती है। कोरोना महामारी के कारण बीते अनेक महीनों से पूरी दुनिया अस्त व्यस्त हो चली है। व्यापार-उद्योग पर इसका जबरदस्त प्रभाव पड़ने से सम्पन्न देशों तक के सामने बड़ा संकट आ गया है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार भी ठप्प सा है। दूसरी तरफ चीन और अमेरिका के बीच बढ़ते तनाव से युद्ध की आशंका भी प्रबल होती जा रही है। जिस प्रकार की अनिश्चितता है उसके मद्देनजर हर देश अपनी आर्थिक सुरक्षा को लेकर चिंतित हो उठा है। यही कारण है कि सोना और चांदी दोनों की कीमतें लगातार बढ़ती जा रही हैं। गत दिवस सोना 55 हजार रु. प्रति दस ग्राम और चांदी लगभग 75 हजार रु. प्रति किलोग्राम तक जा पहुँची। जानकारों के अनुसार कीमतें और ऊपर जायेंगीं। जैसी कि जानकारी आ रही है उसके अनुसार सोने और चांदी की बढ़ती कीमतों के पीछे आम जनता की मांग न होकर बड़े निवेशकों के साथ विभिन्न देशों की सरकारों द्वारा बड़े पैमाने पर की जा रही खरीदी है। उद्योग-व्यापार में आया ठंडापन निवेशकों को परेशान किये हुए है। दुनिया भर के पूंजी बाजार डगमगा रहे हैं। ऐसे में जिनके पास धन है वे सोने और चांदी में निवेश कर रहे हैं। दूसरी तरफ  सरकारी स्तर पर होने वाली खरीदी भी मूल्यवृद्धि का बड़ा कारण है। वर्तमान हालात में कौन सा देश कब दिवालिया हो जाये ये बता पाना कठिन है। इसी तरह चीन और अमेरिका के बीच शुरू हुए व्यापार युद्ध के बाद स्थिति अब सैन्य युद्ध की तरफ  बढ़ रही है। दक्षिण चीन सागर में चीन द्वारा अपना कब्जा बढ़ाये जाने से अमेरिका सहित एशिया और प्रशांत महासागर क्षेत्र में स्थित देश आक्रामक मुद्रा में हैं। कोरोना संकट के लिए चीन को जिम्मेदार मानने के अलावा अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में अपनी कमजोर स्थिति देखते हुए डोनाल्ड ट्रंप चीन को दबिश देकर अमेरिका की जनता को अपनी तरफ खींचने का दांव चल सकते हैं। पश्चिम एशिया में भी हालात बेहद तनावपूर्ण हैं। ईरान और अमेरिका के बीच की तनातनी कब बारूदी धमाकों में बदल जाए ये कह पाना कठिन है। कच्चे तेल के व्यापार में जैसी अनिश्चितता उत्पन्न हो गई है वह भी वैश्विक अर्थव्यवस्था को हिला रही है। ऐसे में मुद्रा के प्रति विश्वास का संकट मंडराने लगा है। यही वजह है कि आपातकालीन विनिमय के तौर पर दुनिया भर के देश सोना और चांदी की खरीदी में जुट गए। यदि युद्ध हुआ तो उस सूरत में हथियारों सहित जरूरी चीजों की खरीदी में मुद्रा को अस्वीकार किये जाने पर सोना ऐसी धातु है जिसके जरिये भुगतान सुलभ हो सकेगा। हालाँकि उपभोक्ता बाजार में सोने और चांदी की मांग उतनी नजर नहीं आ रही। भारत में तो कोरोना के कारण ग्रीष्मकालीन विवाह सीजन चौपट होने से आभूषण बाजार ठण्डा ही रहा। कीमतें आसमान छू लेने के कारण अब सोना-चांदी खरीदना सटोरियों और काले धन को ठिकाने लगाने वालों के अलावा सरकारों के बस की ही बात रह गई है। लेकिन इस मूल्य वृद्धि को लेकर उठ खड़ी  हुई आशंकाएं पूरी दुनिया को भयभीत भी कर रही हैं। कोरोना से मुक्ति मिलने के पहले ही सीमित विश्व युद्ध के आसार बन जाएँ तो आश्चर्य नहीं होगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 6 August 2020

सबके राम सब में राम : आम सहमति शुभ संकेत



आखिऱकार अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण हेतु भूमि पूजन सम्पन्न हो ही गया। प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी और रास्वसंघ के प्रमुख डा. मोहन भागवत ने इस अवसर पर जो उद्बोधन दिए वे बहुत ही जिम्मेदारी से भरे हुए थे। प्रधानमंत्री ने सबके राम और सब में राम का उल्लेख करते हुए उन सभी की भावनाओं को सम्मान दे दिया जो कुछ दिनों से मंदिर और राम के प्रति बढ़ चढ़कर अपनी श्रद्धा प्रगट करने लगे हैं। मंदिर निर्माण में अड़ंगा लगाने और उसे राजनीति प्रेरित बताने वाले जिस तरह से रामधुन गाते हुए गर्व से खुद को हिन्दू कहने लगे वह राष्ट्रीय राजनीति में आ रहे बड़े बदलाव का संकेत है। कुछ विघ्नसंतोषी अभी भी हैं लेकिन कुल मिलाकर राम मंदिर को लेकर राजनीतिक बिरादरी की राय काफी हद तक वास्तविकता को स्वीकार करने की बन गयी है। हालांकि श्रेय बटोरने की होड़ भी चल पड़ी है। इसका उद्देश्य भाजपा के हाथ से मंदिर निर्माण का राजनीतिक लाभ छीनना है। बसपा नेत्री मायावती ने गत दिवस इसीलिये मंदिर निर्माण का श्रेय सर्वोच्च न्यायालय को दिया। भूमिपूजन समारोह के अवसर पर उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अलावा प्रधानमंत्री ने भी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का उल्लेख करते हुए ये कहने का प्रयास किया कि मंदिर निर्माण पूरी तरह से विधि सम्मत है। निश्चित रूप से ये आदर्श स्थिति है। यदि केंद्र सरकार अपनी तरफ  से कानून बनाकर संसद में बहुमत के बल पर मंदिर निर्माण का रास्ता साफ़  करती तब उस पर राजनीतिक विवादों की छाया बनी रहती। लेकिन अब सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद मंदिर निर्माण पर हाय तौबा मचाने वाले भी खुद को असली राम भक्त साबित करने आगे-आगे हो रहे हैं। प्रधानमंत्री द्वारा सबके राम और सब में राम कहकर मंदिर निर्माण को व्यापक राष्ट्रीय रूप देने का जो प्रयास किया वह निश्चित तौर पर समय की मांग है क्योंकि अब मंदिर मुद्दा किसी दल या नेता विशेष का न होकर पूरे देश का है। गत रात्रि अमेरिका में न्यूयॉर्क शहर के सुप्रसिद्ध टाइम्स स्क्वेयर में जिस तरह से राम मंदिर के मॉडल का प्रदर्शन हुआ उससे इसके वैश्विक महत्व का प्रमाण मिला। राम मंदिर किसके प्रयासों से बन रहा है ये अब उतना महत्वपूर्ण नहीं रहा जितना ये कि अब अधिकतर राजनीतिक दलों ने इसे अपना समर्थन दे दिया है। कुछ साधु-संत और दिग्विजय सिंह जैसे नेता भले ही भूमि पूजन का विरोध करते रहे किन्तु उनका विरोध मुहूर्त को लेकर था न कि मदिर निर्माण से। प्रियंका वाड्रा और राहुल गांधी ने सोशल मीडिया पर राम का गुणगान किया जबकि कमलनाथ ने मंदिर निर्माण को राष्ट्रीय आकाक्षाओं का प्रतीक बताते हुए 11  चांदी की ईंटें मंदिर निर्माण हेतु भेजने की घोषणा की। कुछ समय पहले तक राम मंदिर को लेकर आलोचना करने वाले अनेक नेता गत दिवस खुद को राम का उपासक बताने आगे-आगे दिखाई दिए। कुल मिलाकर देश राममय हो गया जो हर्ष का विषय है। लेकिन इस अवसर पर हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी जहर बुझे तीर छोड़ने से बाज नहीं आये। उन्होंने सोशल मीडिया के अलावा पत्रकारों से चर्चा के दौरान कहा कि बाबरी मस्जिद थी, है और रहेगी। उनसे भी दो कदम आगे बढ़कर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को ही न्याय मानने से इंकार कर दिया। ओवैसी ने कमलनाथ और प्रियंका के राम प्रेम पर भी तीखे कटाक्ष किये। इस बारे में उल्लेखनीय है कि मुस्लिम समाज ने अयोध्या विवाद में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को मानने की रजामंदी पहले से दे रखी थी। यद्यपि फैसले से उनकी निराशा अस्वाभाविक नहीं है लेकिन ओवैसी और मुस्लिम समाज के विभिन्न संगठनों को ये नहीं भूलना चाहिए कि पुरातत्व विभाग द्वारा करवाई गई खुदाई के बाद पेश की गयी जिस रिपोर्ट के आधार पर न्यायालय ने विवादित भूमि राम मंदिर के लिए दिए जाने का निर्णय दिया उस रिपोर्ट को तैयार करने वाले पुरातत्व विभाग के अधिकारी के.के. मोहम्मद भी मुस्लिम हैं। बेहतर होगा यदि कांग्रेस सहित बाकी दलों के नेतागण भी ओवैसी की आलोचना करने के साथ ही मुस्लिम समाज के प्रमुख संगठनों को ये समझाएं कि वे भले ही मंदिर निर्माण में सहायक न बनें किन्तु अपनी खीज निकालने के लिए कितना भी वक्त लग जाए लेकिन बदला जरूर लिया जायेगा जैसी बातों से बचें। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अयोध्या के निकट ही मुस्लिम समाज को भी मस्जिद बनाने हेतु भूमि दी गयी है। बेहतर होगा उस जगह पर भव्य मस्जिद बनाने की तैयारी मुस्लिम समाज करे। लेकिन ऐसा न करते हुए यदि वे बाबरी मस्जिद का रोना ही रोते रहे तो उनके हाथ कुछ नहीं लगेगा। मुस्लिम नेताओं को ये समझ लेना चाहिये कि देश में तुष्टीकरण के दिन जा चुके हैं। कांग्रेस ही नहीं सपा जैसी पार्टियाँ भी समझ चुकी हैं कि मुस्लिम मतों के पीछे भागने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। ऐसे में पूरी तरह किनारे लग जाने के पहले मुस्लिम समुदाय के समझदार लोगों को तो कम से कम मुख्यधारा में आने की कोशिश कर लेनी चाहिए वरना मुसलमान राजनीतिक दृष्टि से और भी कमजोर हो जायेंगे।

- रवीन्द्र वाजपेयी