Saturday 8 August 2020

कश्मीर संभल गया तो मनोज सिन्हा का कद बहुत उंचा हो जाएगा



अयोध्या में राम मंदिर का भूमि पूजन होने के कारण बीते 5 अगस्त को पूरा परिवेश राममय हो गया और इसीलिये जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाये जाने की वर्षगांठ की ज्यादा चर्चा नहीं हो सकी। लेकिन उसके बाद वहां के उप राज्यपाल जीसी मुर्मू द्वारा स्तीफा दिए जाने से जरूर लोगों का ध्यान उस तरफ गया। पहले-पहल इस खबर से लोग चौंके। कारण जानने पर पता लगा कि उनकी राज्य की नौकरशाही से पट नहीं रही थी। राज्य में विधानसभा चुनाव करवाने की उनकी घोषणा पर चुनाव आयोग द्वारा आपत्ति किये जाने को भी उनके स्तीफे से जोड़ा गया। इसी बीच ये जानकारी आई कि केंद्र सरकार ने उन्हें नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) बनाने का फैसला किया है। लेकिन उनके स्थान पर पूर्व रेल राज्य मंत्री मनोज सिन्हा को उपराज्यपाल बनाने की घोषणा ज्यादा चौंकाने वाली रही। उप्र की गाजीपुर लोकसभा सीट से तीन चुनाव जीत चुके श्री सिन्हा 2019 में हार गये। तभी से उन्हें कोई बड़ी जिम्मेदारी देने की चर्चा चल रही थी । राज्यसभा में लाकर दोबारा मंत्री बनाये जाने की खबर भी उड़ी किन्तु वैसा नहीं हुआ। हाल ही में उन्हें जगत प्रकाश नड्डा की टीम में शामिल कर भाजपा संगठन के काम में लगाने की बात भी सुनाई दी । लेकिन अंतत: श्री सिन्हा को जम्मू कश्मीर की कमान सौंपकर उनका राजनीतिक पुनर्स्थापन  कर दिया गया। इसके पीछे उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह का नजदीकी होना बताया जा रहा है। लेकिन श्री सिन्हा की योग्यता केवल इतनी नहीं है। विद्यार्थी जीवन में बनारस हिन्दू विवि छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे श्री सिन्हा ने सिविल इन्जीनियरिंग में एम. टेक की उपाधि अर्जित की थी। मैदानी राजनीति के खिलाड़ी रहने के कारण उनकी संपर्क क्षमता बेजोड़ हैं। लेकिन वे बहुत ही धीर-गंभीर किस्म के व्यक्ति हैं और अपने काम को बड़ी ही निष्ठा के साथ करते हैं। पार्टी लाइन से भी भटकते नहीं। बतौर केन्द्रीय मंत्री उनका कार्य बहुत ही संतोषप्रद रहा। 2017 में उप्र के मुख्यमंत्री पद हेतु उनका नाम काफी आगे था लेकिन अंत में योगी आदित्यनाथ को अवसर मिल गया। लेकिन श्री सिन्हा ने कभी उस पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं की। बीते सवा साल से वे राजनीतिक तौर पर खाली थे किन्तु उनको कोई न कोई महती जिम्मेदारी सौंपी जायेगी ये सम्भावना सदैव बनी रही। जम्मू कश्मीर लम्बे समय से राष्ट्रपति शासन के अधीन है। केंद्र शासित राज्य बनाये जाने के बाद वहां विधानसभा चुनाव करवाए जाने हैं। इसके लिए राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करना होगा। संभवत: इसीलिये राजनीतिक क्षेत्र के अनुभवी श्री सिन्हा को इस संवेदनशील और समस्याग्रस्त राज्य का दायित्व सौंपा गया। वैसे घाटी के प्रमुख नेताओं में डा. फारुख अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर को रिहा किया जा चुका है जबकि महबूबा मुफ्ती अभी भी नजरबंद हैं। संयोग से ये तीनों राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री हैं। अलगाववादी नेता भी बंद हैं।  इस कारण घाटी में विगत एक साल से भारत विरोधी बड़ा आन्दोलन नहीं हो सका। आतंकवादियों का भी बड़े पैमाने पर सफाया किया गया। हालाँकि कोरोना के कारण स्थितियां उस स्तर तक सामान्य नहीं की जा सकीं , जितनी अपेक्षित थीं। लेकिन कुल मिलाकर भारत विरोधी ताकतों की कमर तोड़ने का अभियान काफी हद तक सफल रहा है। ऐसे में ये जरूरी है कि राज्य विधानसभा के चुनाव करवाए जाएं। यद्यपि ये काम है तो बहुत ही कठिन क्योंकि आतंकवादी मौका पाते ही अपनी हरकतें दिखाने से बाज नहीं आते। बीते कुछ दिनों में ही उन्होंने अनेक भाजपा नेताओं की हत्या कर भय पैदा करने की कोशिश की। इसका उद्देश्य लोगों को राष्ट्र की मुख्यधारा से अलग रखना ही है। कांग्रेस का घाटी के अलावा जम्मू क्षेत्र में भी पहले जैसा जनाधार नहीं रहा। हिन्दू बहुल इलाकों में तो भाजपा का प्रभाव कायम है लेकिन घाटी के मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों में उसकी पकड़ अभी मजबूत नहीं हो सकी है। भले ही इक्का-दुक्का लोग पार्टी का झन्डा लगाने का साहस दिखाने लगे हों लेकिन उन सबकी हालत दांतों के बीच जीभ जैसी ही है। हालिया हत्याओं के कारण भाजपा के साथ आने से नए लोग डरेंगे और आतंकवादी भी यही चाहते हैं। कश्मीर घाटी में विधानसभा की अधिकांश सीटें होने से राजनीतिक पलड़ा उसी तरफ  झुकता रहा है। मोदी सरकार चाह रही है कि सीटों का परिसीमन इस तरह से किया जाए जिससे जम्मू अंचल की राजनीतिक वजनदारी भी कश्मीर घाटी के बराबर हो जाये। लद्दाख तो वैसे भी अलग केंद्र शासित क्षेत्र बना चुका है। 2014 में विधानसभा चुनाव के बाद त्रिशंकु सदन बनने पर भाजपा ने पीडीपी से अप्रत्याशित गठबंधन कर सभी को चौंका दिया। उसकी वजह से पार्टी को काफी शर्मिंदगी उठानी पड़ी लेकिन कालान्तर में ये स्पष्ट हो गया कि भाजपा ने वह खतरा काफी सोच - समझकर उठाया था। पीडीपी सरकार से समर्थन वापिस लेने के बाद राष्ट्रपति शासन और फिर एक झटके में अनुच्छेद 370 के खात्मे से ये साबित हो गया कि केंद्र सरकार ने कश्मीर को लेकर काफी तैयारी कर रखी थी। लेकिन गत वर्ष 5 अगस्त को जम्मू कश्मीर को लेकर किया गया ऐतिहासिक फैसला पूरे तौर पर प्रभावशाली हो सका ये कहना जल्दबाजी होगी क्योंकि अव्वल तो लंबे समय तक घाटी में कर्फ्यू जैसे हालात रहे। संचार सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं थी। स्थितियां सामान्य होते तक कोरोना आ धमका जिससे जनजीवन और राजनीतिक गतिविधियाँ फिर ठप्प हो गईं। उस लिहाज से नये उप राज्यपाल मनोज सिन्हा के सामने बड़ी चुनौतियां हैं। भाजपा की मुसीबत ये है कि वह फिलहाल अकेली है। नेशनल कांफ्रेंस , पीडीपी और कांग्रेस तीनों उसके विरुद्ध हैं। हालाँकि जैसे संकेत दिखाई दे रहे हैं उनके अनुसार भाजपा भविष्य में नेशनल कांफ्रेंस को अपने साथ ला सकती है। अब्दुल्ला बाप-बेटे की रिहाई और महबूबा मुफ्ती की नजरबन्दी तीन महीने बढ़ा देने से नये राजनीतिक समीकरणों के हलके संकेत मिल रहे हैं। बहरहाल श्री सिन्हा को कश्मीर के राजभवन में बैठकर कुदरत के नज़ारे देखने का अवसर कम ही मिलेगा। केंद्र सरकार ने बीते साल अनुच्छेद 370 को समाप्त कर घाटी में भारतीयता को मजबूत करने का जो प्रयास किया वह पूरी तरह सफल हुआ या नहीं ये विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद ही पता चलेगा। भारत विरोधी ताकतों का प्रभाव सतह पर तो कम हुआ दिखता है लेकिन अभी भी उनकी जड़ें जमी हैं। घाटी में जब तक उद्योग-व्यापार सामान्य नहीं होते तब तक हालात अनिश्चित रहेंगे। पर्यटन उद्योग कश्मीर की प्राणवायु है। स्थितियां सामान्य होने का भी वह प्रमाण है। जब श्रीनगर की डल झील, गुलमर्ग, पहलगाँव आदि में फिल्मों की शूटिंग फिर बिना डरे शुरू हो जायेगी और सैलानी कश्मीर में सुरक्षित घूम फिर सकेंगे तब ही ये माना जा सकेगा कि घाटी ने बदले हुए हालात को स्वीकार कर लिया है। मनोज सिन्हा पर प्रधानमंत्री ने जो विश्वास किया है उस पर यदि वे खरे साबित हो सके तो उनका कद राष्ट्रीय राजनीति में बहुत उंचा हो जाएगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment