Monday 10 August 2020

वैचारिक शून्यता और असमंजस से बाहर आये कांग्रेस



कांग्रेस में पूर्णकालिक अध्यक्ष की मांग उठने लगी है। सोनिया गांधी को कार्यकारी बने एक साल हो गया। 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी के खराब प्रदर्शन की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया था जिसे स्वीकार करने में ही महीनों लगा दिए गए। पद छोड़ते समय उनने एक टिप्पणी कर दी कि अगला अध्यक्ष गैर गांधी होगा। उससे ये कयास लागाये जाने लगे कि श्री गांधी पार्टी को एक परिवार में सीमित रहने के आरोप से बचाना चाहते हैं। लेकिन लम्बी उहापोह के बाद अंतत: उनकी माताजी को ही कमान देनी पड़ी । इस तरह राहुल ने भले ही पार्टी का नेतृत्व छोड़ दिया लेकिन घुमा फिराकर नियन्त्रण उनके परिवार का ही रहा। बीते एक साल में वे ही पार्टी का चेहरा बने रहे। इस दौरान ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट जैसे युवा नेताओं के बागी तेवर भी देखने मिले , वहीं राहुल ब्रिगेड के अन्य युवा सदस्य भी पार्टी लाइन से बाहर जाते हुए बयान देकर चर्चा में आये। श्रीमती गांधी लम्बे समय तक पार्टी की अध्यक्ष रहीं और इस दौरान केंद्र में कांग्रेस सत्ता में भी थी। लेकिन राहुल द्वारा बागडोर सँभालने के बाद कांग्रेस ने कुछ राज्यों में भले सफलता प्राप्त कर ली हो लेकिन राष्ट्रीय सत्तर पर वह प्रभाव छोड़ने में विफल रही और इसका कारण उसका शीर्ष नेतृत्व ही है। सोनिया जी और राहुल दोनों का जनता से तो क्या कांग्रेस के आम कार्यकर्ता तक से सीधा संवाद नहीं है। संगठन की हालत भी खस्ता है। राहुल के आने के बाद आंतरिक लोकतंत्र की बड़ी दुहाई दी गयी तथा नए चेहरों को आगे बढ़ाने की कोशिशें भी दिखाई दीं लेकिन अंतत: पुराने अखाड़ची ही हावी रहे। कांग्रेस में एक वर्ग ऐसे नेताओं का भी है जो न युवा है और न बूढ़े। ये सुशिक्षित, अनुभवी और मुखर हैं। इनके मन में ये पीड़ा भी है कि उनकी क्षमता का सही उपयोग नहीं हो पा रहा। लेकिन वे गांधी परिवार के विरुद्ध मुंह खोलने से भी बचते हैं। शशि थरूर, जयराम रमेश, अभिषेक मनु सिंघवी जैसे अनेक चेहरे हैं जो पार्टी का पक्ष बेहतर तरीके से रख सकते हैं। लेकिन उन्हें सीमित महत्व ही मिलता है। कांग्रेस के भीतरी मामलों पर नजर रखने वाले प्रेक्षकों का कहना है कि मप्र और राजस्थान में जो संकट पैदा हुआ वह शीर्ष नेतृत्व और प्रादेशिक नेताओं के बीच संवादहीनता का परिणाम है। राहुल की बहिन प्रियंका यूँ तो उप्र की प्रभारी हैं लेकिन वे लगभग हर मसले में हस्तक्षेप करती हैं। राजस्थान में सचिन पायलट की बगावत से निपटने में राहुल उतने सक्रिय नहीं दिखे जितना प्रियंका। बावजूद इसके पार्टी के बड़े नेता राहुल को ही दोबारा अध्यक्षता सौंपे जाने के पक्षधर हैं। इससे लगता है कि जिस युवा नेतृत्व और गैर गांधी अध्यक्ष की बात राहुल द्वारा की जाती रही वह महज दिखावा थी। बीते एक वर्ष में कांग्रेस और कमजोर हुई ये कहना गलत न होगा। इसका लाभ लेते हुए मोदी सरकार ने संसद में अनेक ऐसे निर्णय करवा लिए जो कांग्रेस यदि सतर्क होती तब शायद सम्भव न था। कश्मीर से अनुच्छेद 370 जितनी आसानी से हट गया वह कांग्रेस की रणनीतिक विफलता थी। इसी तरह राम मन्दिर मुद्दे पर उसका वैचारिक असमंजस और विरोधाभास खुलकर सामने आया। भले ही प्रियंका और राहुल ने ट्वीट के जरिये भूमि पूजन पर हर्ष जताया लेकिन दिग्विजय सिंह अंत तक विरोध करते रहे और किसी की भी हिम्मत उन्हें रोकने की नहीं पड़ी। अचानक उपजा राम प्रेम ये दर्शाता है कि इतनी पुरानी पार्टी इतने गम्भीर मसले पर किस तरह गलत निर्णय लेती रही। ऐसे में श्री गांधी को दोबारा अध्यक्षता सौंपना दूरदर्शिता नहीं होगी। बेटे के बाद माँ और माँ के बाद फिर बेटे की ताजपोशी से परिवारवाद का आरोप और भी पक्का हो जाएगा। बेहतर होता श्री गांधी बीते एक साल में किसी ऐसे व्यक्ति को अध्यक्ष बनाए जाने की कोशिश करते जो संगठन के स्तर पर काम करते हुए बिखराव को रोक सके। सोनिया जी की अस्वस्थता के कारण राहुल और प्रियंका का सामने आना तो स्वाभाविक था लेकिन  कांग्रेस को अब ऐसा समानांतर नेतृत्व भी चाहिए जो उसकी सेहत को सुधार सके। आज के हालात में भले ही श्री गांधी प्रधानमंत्री पर कितना भी तीखा हमला करें लेकिन पार्टी के भीतर भी ये भावना तेजी से बढ़ रही है कि गम्भीर राष्ट्रीय मुद्दों पर वे सही निशाना नहीं लगा पाते जिसका फायदा नरेंद्र मोदी को मिल जाता है। वर्तमान स्थिति में कांग्रेस को अपना ढांचा मजबूत करने की जरूरत है जिसके लिए मुरझाये चेहरों की जगह नए ऊर्जावान नेताओं को महत्व दिया जाना चाहिए। इसके अलावा अधिकारों का विकेंद्रीकरण करना भी बहुत जरूरी है। प्रधानमन्त्री भले ही आज भाजपा के सबसे ताकतवर नेता हों लेकिन पार्टी संगठन उनके भरोसे नहीं रहता। उसका अपना ढांचा है। राम मन्दिर के भूमि पूजन पर समारोह में श्री मोदी के साथ मंच पर रास्वसंघ प्रमुख डा. मोहन भागवत का होना काफी कुछ कह गया। दूसरी तरफ  देश की सबसे पुरानी पार्टी में इतना बड़ा शून्य कभी नहीं रहा। इंदिरा जी ने भी सत्ता और संगठन दोनों पर पूरी तरह कब्जा कर लिया था लेकिन वह अलग दौर था। बेहतर हो गांधी परिवार बदलते समय को समझते हुए अध्यक्ष संबंधी फैसला ले वरना मप्र और राजस्थान का घटनाक्रम और राज्यों में भी दोहराया जा सकता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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