Wednesday 26 August 2020

तात्कालिक राहत लेकिन बगावत ने घर तो देख ही लिया



कांग्रेस कार्यसमिति की बहुप्रतीक्षित बैठक गत दिवस हुई तो पार्टी के पूर्णकालिक अध्यक्ष को चुनने के लिए थी लेकिन आपसी विवादों के कारण पहले तो तू-तू, मैं-मैं में बदली और फिर साफ-सफाई के बाद अंतत: जैसे थे की स्थिति पर ही समाप्त हो गई। लोकसभा चुनाव में मिली पराजय के बाद गत वर्ष राहुल गांधी ने पार्टी अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया था। महीनों तक मान-मनौवल चली और जब वे नहीं माने तो उनकी माताजी सोनिया गांधी को कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया गया। गत 11 तारीख को एक वर्ष पूर्ण होने पर पार्टी में पूर्णकालिक अध्यक्ष की मांग उठी। अनेक नेताओं ने बाकायदा पत्र लिखकर नए अध्यक्ष के चुनाव की मांग रखी। जिसके बाद गत दिवस पार्टी कार्यसमिति की आभासी बैठक हुई। गत वर्ष राहुल ने गैर गांधी अध्यक्ष का जो शिगूफा छोड़ा था उसकी चर्चा पूरी पार्टी में थी और अनेक वैकल्पिक नाम भी चर्चा में आने लगे। प्रियंका वाड्रा ने अपने बयान में तो यहाँ तक कह दिया कि वे गैर गांधी अध्यक्ष के मातहत किसी भी पद का दायित्व सँभालने राजी हैं। दूसरी तरफ दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं के अलावा अशोक गहलोत, कैप्टेन अमरिंदर सिंह और भूपेश बघेल ने राहुल गांधी को ही दोबारा कमान सौंपने का राग छेड़ दिया। लगभग दो दर्जन नेताओं के हस्ताक्षरों से जारी पत्र के सार्वजनिक हो जाने को पार्टी के भीतर मतभेदों का प्रगटीकरण माना गया। मोहल्ले स्तर के फैसले दस जनपथ पर छोड़ दिए जाने की आदी कांग्रेस में शीर्ष स्तर के नेताओं द्वारा संगठन में व्याप्त तदर्थवाद को खत्म करते हुए पूर्णकालिक अध्यक्ष के लिए दबाव बनाया जाना ये साबित करने के लिए पर्याप्त था कि गांधी परिवार के एकाधिकार के विरुद्ध अब वे नेता भी मुखर होने लगे हैं जो उसका दिन-रात गुणगान किया करते थे। राहुल गांधी की ट्विटर पर सक्रियता के बावजूद संगठन के मामलों में उदासीनता के कारण पार्टी का प्रभाव क्षेत्र जिस तरह सिकुड़ता जा रहा है उसकी वजह से नीचे से लेकर ऊपर तक पार्टीजन अपने भविष्य को लेकर चिंतित होने लगे हैं। गैर गांधी अध्यक्ष की चर्चा ने आंतरिक लोकतंत्र की जो संभावनाएं पैदा कीं उनके कारण उनमें उत्साह का वातावरण था। कार्यसमिति की बैठक शुरू होते ही श्रीमती गांधी ने अध्यक्ष पद त्यागने की पेशकश की तो डा. मनमोहन सिंह ने उन्हें रोक दिया। बात आगे बढ़ती इसी दौरान राहुल ने कथित तौर पर पत्र भेजे जाने वाले नेताओं पर निशाना साधते हुए ये तंज कस दिया कि वह भाजपा के इशारों पर लिखा गया है। उसके समय पर भी सवाल दागे गए। जवाब में गुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल के गुस्से भरे ट्वीट सामने आने से ऐसा लगने लगा कि पार्टी दोफाड़ होने की राह पर है। प्रियंका ने भी चिट्ठी भेजने वालों को लताड़ा। गांधी परिवार के समर्थक नेतागण भी सामने आये और घर की बातों को सार्वजनिक करने वालों के विरुद्ध आवाजें उठने लगीं। फिर शुरू हुआ घावों पर मरहम लगाने का दौर और थोड़ी देर बाद गलतफहमी दूर होने का दावा करते हुए कही- सुनी माफ वाली स्थिति देखने मिली। वहीं इस दौरान वह दांव फिर खेल दिया गया जिसने गैर गांधी अध्यक्ष की चर्चा को हवा - हवाई बना दिया। डा. मनमोहन सिंह के प्रस्ताव को सबने समर्थन दे दिया। राहुल की दोबारा ताजपोशी किये जाने के लिए अनुकूल माहौल नहीं दिखने पर सोनिया जी को ही अगले छह महीने तक कार्यकारी अध्यक्ष बनाये रखने का फैसला करते हुए बैठक समाप्त कर दी गई। इस तरह ले देकर पार्टी पर गांधी परिवार का कब्जा बरकरार रहा। अतीत में शरद पवार द्वारा श्रीमती गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर की गई बगावत के बाद सम्भवत: ये पहला मौका होगा जब गांधी परिवार के विरुद्ध पार्टी में आवाज सुनाई दे रही हैं। भले ही कल की बैठक में किसी तरह बाजी हाथ से निकलते-निकलते बचा ली गई किन्तु ये कहना गलत न होगा कि राहुल की असफलता को आगे ढोने के विरुद्ध कांग्रेस के बड़े नेताओं का एक गुट खुलकर सामने आने का साहस दिखा रहा है। श्रीमती गांधी का जो लिहाज है उसी का फायदा उठाते हुए गत दिवस बगावत को शांत किया गया लेकिन राख के ढेर में दबी चिंगारी दोबारा कब भड़क उठे ये कहना कठिन है। सोनिया जी की अस्वस्थता के अल्रावा राहुल और प्रियंका की अंशकालिक राजनीतिक शैली ने कांग्रेस को ऐसे चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां उसके सामने मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं, बड़ी मुश्किल में हूँ अब किधर जाऊँ, जैसी दुविधा है। भले ही आगामी छह महीने के लिए अध्यक्ष पद का मसला टाल दिया गया हो लेकिन बगावत ने पार्टी का घर तो देख ही लिया है। इस घटनाक्रम से कांग्रेस का साधारण कार्यकर्ता असमंजस में है क्योंकि उसे समझ नहीं आ रहा कि आखिर ऐसे तमाम नेता जो कल तक गांधी परिवार के अंधभक्त हुआ करते थे, अचानक से खुदमुख्त्यारी का ऐलान करने पर क्यों और कैसे उतारू हो गये?

-रवीन्द्र वाजपेयी


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