Saturday 29 August 2020

हमारे देश के बीमार नेता शिंजो आबे जैसा उदाहरण कब पेश करेंगे




जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। वे जापान के सबसे ज्यादा समय तक प्रधानमन्त्री रहे। त्यागपत्र का कारण राजनीतिक न होकर खऱाब स्वास्थ्य है। उन्होंने स्पष्ट किया कि वे अपना कार्यकाल पूरा होने के एक वर्ष पहले ही पद छोड़ रहे हैं क्योंकि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है और ऐसे में जब देश कोरोना से जूझ रहा है तब वे नेतृत्व के स्तर पर शून्यता की स्थिति बनाए रखने के पक्ष में नहीं हैं। जापान एक विकसित देश है। वहां चिकित्सा सुविधाएँ भी विश्वस्तरीय हैं। प्रधानमन्त्री आबे चाहते तो पद पर रहते हुए किसी कार्यकारी के जरिये भी सरकार का संचालन कर सकते थे। जापान की जनता में भी उनका विरोध नहीं था। इस पद पर कार्य करने का उनके पास पर्याप्त अनुभव भी था। श्री आबे ने देश को राजनीतिक स्थायित्व देने के साथ ही आर्थिक मजबूती भी दी। पिछली आर्थिक मंदी के दौरान जापान की अर्थव्यवस्था को डगमगाने से बचाने में उनकी भूमिका सराहना का पात्र बनी। यहाँ तक कि अनेक अवसरों पर जापान ने अमेरिका के अर्थतंत्र को भी सहारा दिया। विश्व बिरादरी में भी उनकी गिनती अनुभवी और प्रभावशाली नेता के तौर पर होती रही। भारत और जापान के बीच निकट सम्बन्ध स्थापित होने में श्री आबे का योगदान उल्लेखनीय है। खास तौर पर नरेंद्र मोदी के साथ उनका व्यक्तिगत सामंजस्य बहुत ही अच्छा  रहा। लेकिन इस सबसे हटकर उनके त्यागपत्र को भारतीय संदर्भों में देखने पर मन में स्वाभाविक रूप से ये प्रश्न उठता है कि हमारे देश में बीमारी के बावजूद सरकारी पदों पर बैठे महानुभाव इस तरह का उदाहरण पेश क्यों नहीं करते ? मात्र 65 साल के आयु में पद त्याग करने वाले श्री आबे एक वर्ष का शेष कार्यकाल आसानी से पूरा कर सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा करने की जगह गद्दी छोड़ने का फैसला किया। भारत में सत्ता में बैठे अनेक वयोवृद्ध राजनेता असाध्य रोगों से ग्रसित होने के बाद भी पद से हटने की बजाय सरकारी खर्च पर मुफ्त इलाज करवाते हैं। अनेक तो ऐसे हैं जो लम्बे समय तक विदेश में इलाजरत रहे। आज भी कुछ हैं जो दफ्तर में कम और अस्पताल में ज्यादा रहते हैं। लेकिन सत्ता से हटने का ख्याल उन्हें सपने में भी नहीं आता। राज्यपाल पद पर बिठाये जाने वाले अधिकतर नेताओं के काफी बुजुर्ग होने से तरह-तरह की बीमारियाँ उनके साथ जुड़ी होती हैं। महामहिम बनते ही वे प्राचीन समय के राजा-महाराजा की तरह बन जाते हैं। मप्र के अनेक पूर्व राज्यपाल पद पर आने के पहले ही बीमार थे, इस कारण उनका अधिकतर कार्यकाल अस्पतालों में ही बीता। इलाज पर हुआ करोड़ों का खर्च भी सरकारी खजाने से किया गया। सत्ता से अलग होने के बाद भी मुफ्त इलाज की बात अपनी जगह है लेकिन पद पर रहते हुए जब राजनेता बीमार होते हैं तो उसका असर उनके सरकारी काम पर पड़ता है। 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले स्व. अरुण जेटली और स्व. सुषमा स्वराज ने चुनावी राजनीति से खुद को दूर कर लिया। पिछली सरकार में मंत्री रहते हुए ही उनकी तबियत काफी खराब रही। किडनी और हृदय की शल्यक्रिया भी हुई और उस कारण वे लम्बे समय तक मंत्री पद का दायित्व नहीं निभा सके। श्री जेटली पहली मोदी सरकार में वित्त मंत्री रहते हुए खड़े रहकर बजट भाषण तक नहीं पढ़ पाते थे। उस सरकार का आखिरी बजट तो उनकी जगह पियूष गोयल ने पेश किया। दुर्भाग्य से चुनाव के बाद वे दोनों ही दिवंगत हो गये। लेकिन चुनावों से दूर होने जैसा निर्णय लेने में बीमार नेताओं को तकलीफ  होती है। प्रधानमंत्री बनने के बाद श्री मोदी ने भाजपा में 75 वर्ष की जो आयु सीमा निर्धारित की उसकी वजह से बहुत से नेता सक्रिय राजनीति से तो अलग हो गये लेकिन राजभवन में उनका पुनर्वास अभी भी जारी है। केन्द्रीय मंत्री रामविलास पासवान लम्बे समय से अस्वस्थ हैं। लन्दन में भी इलाज करवाकर आ चुके हैं। हाल ही में फिर अस्पताल में भर्ती हो गये। ऐसे मंत्रीगण अपने मंत्रालय को ठीक तरह से नहीं चला पाने के बावजूद खराब स्वास्थ्य के कारण पद छोड़ने की सौजन्यता क्यों नहीं दिखाते, ये बड़ा सवाल है। जापान के प्रधानमन्त्री द्वारा बीमारी के कारण महज 65 साल की उम्र में सत्ता त्याग देने जैसी बात हमारे देश में मूर्खता की श्रेणी में रखी जायेगी। चुनाव आयोग ने नामांकन पत्र में तरह-तरह की जानकारियाँ देने का प्रावधान किया है। इसके कारण प्रत्याशी की आय, चल-अचल सम्पत्ति, अपराधिक प्रकरण, शैक्षणिक योग्यता आदि की जानकारी जनता के संज्ञान में आ जाती है। बेहतर हो आगे से नामांकन पत्र के साथ ही प्रत्याशी के स्वास्थ्य संबंधी विवरण देना भी अनिवार्य किया जाए। हो सकता है कुछ लोग इसे लेकर निजता का सवाल खड़ा करें लेकिन जब स्वस्थ भारत की बात होती है तो फिर नेताओं का स्वस्थ होना भी एक मुद्दा होना चाहिए। सुशांत राजपूत, कोरोना और राजनीतिक रस्साकशी के कारण हमारे देश में जापान के प्रधानमंत्री द्वारा स्वास्थ्य संबंधी कारण से पद त्याग देने जैसी खबर का शायद ही संज्ञान लिया जाए लेकिन यदि लोकतंत्र को जवाबदेह बनाना है तो उसे बीमार नेताओं से बचाना भी समय की मांग है। 1945 में परमाणु हमले के कारण तबाह होने के बाद मात्र 75 बरस में जापान विश्व की आर्थिक महाशक्ति बन बैठा जबकि दूसरे महायुद्ध की विभीषिका से दूर रहकर 1947 में आजाद होने के बाद भारत में आज भी बड़ी आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहने को बाध्य है। कारण श्री आबे के त्यागपत्र से समझा जा सकता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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