Tuesday 11 August 2020

हिन्दी का विरोध चुनावी राजनीति : चिदम्बरम का कूदना आश्चर्यजनक





तमिलनाडु में हिन्दी विरोध का नया दौर सामने आने से भावी राजनीति का अंदाज लगाया जा सकता है। दो दिन पहले चेन्नई हवाई अड्डे पर द्रमुक सांसद कनिमोझी से एक सुरक्षा कर्मी द्वारा हिन्दी में कुछ पूछे जाने पर उन्होंने उससे तमिल या अंग्रेजी में बात करने कहा। इस पर सुरक्षा कर्मी ने तंज कस दिया कि क्या वे भारतीय नहीं हैं ? इस कटाक्ष से कनिमोझी भन्ना गईं। सांसद होने के कारण उनका तुर्रा दिखाना स्वाभाविक था। लिहाजा बात आगे बढ़ी और जाँच करवाने का आश्वासन भी मिल गया। हवाई अड्डे पर यात्रियों से सुरक्षा कर्मी पूछताछ करते हैं। लेकिन भाषायी समस्या आने पर भारतीयता का सवाल उठाना आपत्तिजनक है। कनिमोझी तो सांसद हैं लेकिन साधारण यात्री के बारे में भी इस तरह की टिप्पणी को सही नहीं माना जा सकता। एक साधारण सुरक्षा कर्मी द्वारा की गई गलती पर जाँच का आश्वासन मिल जाने के बाद मामला शांत हो जाना चाहिए था। लेकिन पूर्व केन्द्रीय मंत्री पी. चिदम्बरम भी इस विवाद में बेगानी शादी में अब्दुल्ला बनकर कूद गए और अपने साथ भी इसी तरह के व्यवहार की बात उजागर कर दी। बात और बढ़ी तो कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री कुमारस्वामी भी हिन्दी न जानने के कारण दक्षिण भारत के नेताओं को प्रधानमन्त्री नहीं बनाने का रोना लेकर बैठ गए। हालाँकि उनके पिताश्री एचडी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बन चुके हैं किन्तु कुमारस्वामी को ये शिकायत है कि उनके पिताश्री को स्वाधीनता दिवस पर लालकिले की प्राचीर से हिन्दी में भाषण देने मजबूर किया गया। कनिमोझी और कुमारस्वामी की राष्ट्रीय स्तर पर कोई पकड़ या पहिचान नहीं है। यहाँ तक कि वे अपने पड़ोसी राज्य तक में असर नहीं रखते लेकिन श्री चिदम्बरम तो कई दशकों से राष्ट्रीय राजनीति से जुड़े हैं। कांग्रेस जैसी पार्टी में वे अग्रिम पंक्ति के नेता माने जाते हैं। देश के वित्त और गृह मंत्री भी रह चुके हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि वे दिल्ली के ही स्थायी निवासी हैं और सर्वोच्च न्यायालय के बड़े वकीलों में उनकी गिनती होती है। यदि उन जैसा व्यक्ति भी इतनी संकुचित सोच रखे तो दु:ख होता है। खबर ये भी है कि तमिलनाडु में नई शिक्षा नीति को लेकर भी विरोध के स्वर उठ रहे हैं। त्रिभाषा फार्मूले पर भी वहां ऐतराज जताया जा रहा है। लोग सोच रहे होंगे कि अचानक हिन्दी को मुद्दा बनाने के पीछे कारण क्या है ? और इसका जवाब है आगामी वर्ष होने वाले तमिलनाडु विधानसभा के चुनाव। तमिलनाडु में हिन्दी का विरोध वहां के दोनों क्षेत्रीय दलों की प्राणवायु है। जिस तरह मायावती दलितों की और लालू-मुलायम पिछड़ों की राजनीति पर जिंदा हैं ठीक उसी तरह तमिलनाडु में द्रमुक और अन्ना द्रमुक के अलावा बाकी जितने भी क्षेत्रीय दल हैं, वे सभी हिन्दी विरोध पर एकमत हैं। हालाँकि दक्षिण के चारों राज्यों में उनकी अपनी भाषा ही हावी है लेकिन हिन्दी का जैसा विरोध तमिलनाडु में होता रहा वैसा केरल , कर्नाटक और अविभाजित आंध्र में नहीं दिखाई दिया। इस बारे में उल्लेखनीय है कि देवनागरी लिपि के प्रचार हेतु जो नागरी प्रचारिणी सभा ब्रिटिश राज के दौरान बनी उसका काम तमिलनाडु (तत्कालीन मद्रास प्रेसिडेंसी) में राजाजी नाम से लोकप्रिय चक्रवर्ती राजगोपालाचारी भी देखा करते थे। राजाजी को ये दायित्व महात्मा गांधी द्वारा सौंपा गया जो उनके समधी बन गये थे। लेकिन आजादी के बाद देश के पहले भारतीय गवर्नर जनरल रहे राजाजी को जब राष्ट्रपति नहीं बनाया गया तब उनने कांग्रेस छोड़ स्वतंत्र पार्टी बनाई और हिन्दी के घोर विरोधी बन बैठे। रामास्वामी पेरियार द्वारा प्रारंभ द्रविड़ आन्दोलन से उत्तर भारत और हिंदुत्व के विरोध की जो मुहिम प्रारम्भ हुई वह अंतत: हिन्दी विरोध पर आकर केन्द्रित हो गई। द्रमुक और अन्ना द्रमुक दोनों ही केंद्र सरकार में हिस्सेदार तो बनते रहे लेकिन मेरी मुर्गे की डेढ़ टांग वाली सियासत के चलते वहां के नेता राजनीतिक ब्लैकमेल से नहीं चूके। राजीव गांधी की हत्या भी उत्तर भारत के विरोध की भावना का ही परिणाम थी। तमिल भाषा की आड़ में श्रीलंका के तमिलों को मिलाकर तमिल राष्ट्र बनाने जैसी साजिशें भी रची गईं। रामसेतु और भगवान राम को कालपनिक बताने जैसी सोच तमिलनाडु में फैलाये गए उत्तर भारत और हिन्दी के विरोध का ही नतीजा था। यद्यपि द्रविड़ राजनीति के दो मजबूत स्तम्भ क्रमश: करूणानिधि और जयललिता दिवंगत हो चुके हैं और दोनों प्रमुख क्षेत्रीय पार्टियों के पास उन जैसे नेताओं का नितान्त अभाव है लेकिन तमिलनाडु में हिन्दी विरोध रेडीमेड मुद्दे जैसा है। फिर भी कनिमोझी के समर्थन में पी. चिदम्बरम का कूदना चौंकाता है क्योंकि वे क्षेत्रीय पार्टी की बजाय कांग्रेस के नेता हैं। बेहतर होगा कि कांग्रेस इस मुद्दे पर व्यापक राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर अपनी नीति तय करे। क्षेत्रीय भाषाओं का सम्मान और संरक्षण बहुत जरुरी है लेकिन उनकी आड़ में देश के संघीय ढाँचे और अखंडता को नुकसान पहुँचाने वाली किसी भी मानसिकता और कोशिश को सख्ती से दबाना जरूरी है। भाषावार प्रान्तों की रचना का कितना नुकसान देश को हुआ वह किसी से छिपा नहीं है।


- रवीन्द्र वाजपेयी


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