Thursday 27 August 2020

कांग्रेस मुक्त भारत की बजाय गांधी परिवार मुक्त कांग्रेस की मुहिम



2014 के लोकसभा चुनाव के पहले जब नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा उछाला तब तरह-तरह की बातें हुईं। मोदी विरोधियों ने उसे अतिरेक भी बताया। चुनाव परिणामों के बाद कांग्रेस जब पचास से नीचे उतर आई तब ऐसा लगा कि वह बात सही होने को आई। लेकिन अगले पांच सालों में उसने पंजाब, मप्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अपने दम पर सत्ता हासिल की वहीं अनेक राज्यों में दूसरी पार्टियों के साथ मिलकर भाजपा का विजय रथ रोका। ऐसा लगने लगा था कि 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस वापिसी करेगी। 2018 के अंत में तीन प्रमुख राज्य जिस तरह से भाजपा के हाथ से खिसके और उसके पहले गुजरात में वह घुटनों के बल चलकर जीत पाई उससे कांग्रेस का आत्मविश्वास काफी बढ़ा और उसी कारण राहुल गांधी ने जबर्रदस्त आक्रामक रुख अख्त्तियार किया। हिन्दू विरोधी छवि को बदलने के लिए मंदिरों और मठों में भी मत्था टेका। उनके जनेऊ धारण करने जैसे शिगूफे भी छोड़े गए किन्तु 2019 के लोकसभा चुनाव ने कांग्रेस की तमाम उम्मीदों को धूल - धूसरित कर दिया। पराजय की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल ने अध्यक्ष पद त्याग दिया। लेकिन उनका स्तीफा मंजूर करने में ही पार्टी ने कई महीने लगा दिए और फिर सोनिया गांधी को कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर पार्टी की बागडोर परिवार के ही पास रखी। एक वर्ष गुजर जाने के बाद भी पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं चुने जाने से पार्टी की दिशा तय नहीं हो पा रही थी। श्रीमती गांधी का स्वास्थ्य इस भार को सहन करने लायक नहीं होने से संगठन संबंधी जरूरी फैसले अटके पड़े रहने का ही दुष्परिणाम मप्र में ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत के तौर पर देखने मिला। उसकी पुनरावृत्ति राजस्थान में भी होने जा रही थी लेकिन सचिन पायलट संख्या नहीं बटोर सके। हालाँकि खतरे के बादल कब बरस जाएं कहा नहीं जा सकता। इस सबके पीछे का कारण पार्टी के शीर्ष नेतृत्त्व में व्याप्त शून्यता ही है। जिन 23 वरिष्ठ नेताओं ने सोनिया जी को पत्र लिखकर पार्टी संगठन को तदर्थवाद से निकालकर सक्रिय बनाने का अनुरोध किया वे गांधी परिवार के विरोधी हैं या नहीं ये तो स्पष्ट नहीं हुआ किन्तु उनकी मुहिम थी तो पार्टी के हित में ही। यदि कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में उस पत्र की मंशानुसार श्रीमती गांधी अपनी जगह किसी और को अध्यक्ष बना देतीं तो मामला आसानी से निपट जाता लेकिन पत्र लिखने वालों की वफादारी पर ही सवाल उठाकर आग में घी डाल दिया गया। सोनिया जी तो शांत रहीं लेकिन राहुल और प्रियंका ने चिट्ठी लिखने वालों पर जिस तरह की टिप्पणियाँ कीं और उनके समर्थकों ने भी उनकी हाँ में हाँ मिलाई वह चिट्ठी भेजने वालों को अपना अपमान लगा और उनकी तरफ  से भी तीखी जवाबी प्रतिक्रिया आने लगी। हालाँकि बाद में भूल जाओ और माफ़ करो की औपचारिकता का निर्वहन करते हुए सब कुछ शांत होता दिखाने की कोशिश भी की गई और श्रीमती गांधी ने कुछ नाराज नेताओं को फोन करते हुए मनाने का प्रयास भी  किया लेकिन कपिल सिब्बल के अलावा चिट्ठी भेजने वाले और नेता भी लगातार अपने पत्र के औचित्य को साबित कर रहे हैं जिससे लगता है आग अभी तक ठंडी नहीं हुई। जिस तरह सोनिया जी को आगामी छह महीने तक कार्यकारी बने रहने का फैसला करवाते हुए नये अध्यक्ष के चुनाव को टाल दिया गया उससे पत्र भेजने वाले खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं। दिग्विजय सिंह जैसे नेता खुलकर कह रहे हैं कि उसे सार्वजनिक करना पार्टी विरोधी कृत्य था। इससे लगता है कि सोनिया जी द्वारा मामला ठंडा करने की कोशिशों को पलीता लगाने के समानांतर प्रयास भी चल रहे हैं। ये सब देखते हुए कहा जा सकता है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से जुड़े दो दर्जन नेताओं ने कांग्रेस को गांधी परिवार के शिकंजे से आजाद करवाने का दुस्साहसिक कदम उठा लिया है और ऐसा करते समय वे इतना आगे बढ़ गए कि लौटना आत्मघाती होगा। वहीं दूसरी तरफ  गांधी परिवार का भरोसा दोबारा हासिल करने के रास्ते भी बंद हो चुके हैं। ऐसे में इन नेताओं के पास सीमित विकल्प बच रहे हैं। उनकी सबसे बड़ी परेशानी ये है कि वे बड़े नेता कहलाने के बावजूद अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रखते। और यही कमजोरी गांधी परिवार समझता है। लेकिन इस घटनाक्रम से कांग्रेस की द्वितीय पंक्ति में भी पशोपेश की स्थिति है। जिन 23 नेताओं ने चिट्ठी भेजने की हिमाकत की उनमें से अधिकांश ने तो राजनीति में बहुत कुछ हासिल कर लिया लेकिन उनके समर्थक यदि उनके साथ खड़े होने की हिम्मत दिखाते हैं तब उनके हाथ खाली ही रहेंगे। वैसे भी इस तरह का मोर्चा खोल देने के बाद आर-पार की लड़ाई लड़ना जरूरी हो जाता है। इस प्रकार श्री मोदी द्वारा कांग्रेस मुक्त भारत की बजाय बात अब गांधी परिवार मुक्त कांग्रेस की तरफ  घूमने लगी है। विवादित पत्र भेजने वाले नेताओं को यदि कांग्रेस निकाल दे तब उसके पास भी चेहरों का अभाव हो जाएगा। इसलिए फिलहाल शीतयुद्ध के हालात बने रहेंगे किन्तु अगले छह महीने गांधी परिवार के लिए बेहद चुनौती भरे होंगे। हाल ही में हुई कार्यसमिति की  चर्चित बैठक में भले ही विरोध की आवाज को दबा दिया गया परन्तु उसके बाद भी चिट्ठी लिखने वालों की बैठकें और बयान जारी हैं। सोनिया गांधी के साथ सबसे बड़ी परेशानी ये है कि न तो उनमें इंदिरा जी जैसा राजनीतिक कौशल है और न ही राहुल गांधी में संजय गांधी सरीखा साहस। रही प्रियंका वाड्रा तो वे शाही परिवार की राजकुमारी से ज्यादा कुछ नहीं हैं। आजादी से पहले और बाद में कांग्रेस ने अनेक बार बगावत और विभाजन झेले हैं लेकिन मौजूदा स्थिति थोड़ी अलग है क्योंकि इसमें नेतृत्व को अपने लिए उतना खतरा नहीं लग रहा लेकिन उसके साथ अब तक जुड़े रहे कुनबे में अपने भविष्य को लेकर जबरदस्त चिंता है। क्या पता डूबते जहाज से चूहों के कूदने वाली कहावत ऐसे ही हालातों के संदर्भ में बनाई गई हो।

-रवीन्द्र वाजपेयी



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