Friday 21 August 2020

शौचालय और राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान: बदलते भारत की पहिचान




राष्ट्रीय स्वच्छता सर्वेक्षण 2020 के नतीजे गत दिवस घोषित हो गये जिसमें मप्र का इन्दौर शहर लगातार चौथी बार देश का सबसे स्वच्छ शहर बन गया। विभिन्न मापदंडों के आधार पर हुए इस सर्वेक्षण में छोटे बड़े सभी शहरों को विभिन्न श्रेणियों में बांटकर मूल्यांकन होता है। अनेक शहरों ने बीते वर्षों की अपेक्षा अपनी स्थिति सुधारी वहीं कुछ ऐसे भी हैं जो लुढ़ककर निचली पायदान पर आ गये। इस सर्वेक्षण में नागरिकों की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हुए उसको भी पैमाना बनाया गया। जबलपुर को स्वच्छता में भले 17 वां स्थान हासिल हुआ लेकिन नागरिकों के फीडबैक के मापदंड पर वह पहले स्थान पर रहा। इस सर्वेक्षण की वजह से स्वच्छता को लेकर जो प्रतिस्पर्धा देश भर में प्रारंम्भ की गयी उसका श्रेय पूर्णरूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दिया जाना चाहिए। सत्ता सँभालने के बाद स्वाधीनता दिवस पर लालकिले की प्राचीर से देश को स्वच्छ बनाने के लिए राष्ट्रीय मिशन शुरू करने का उनका आह्वान शुरु - शुरू में लोगों को अटपटा लगा। कहने वालों ने ये तक कहा कि ये प्रधानमन्त्री के स्तर का काम नहीं है और कम से कम लालकिले की प्राचीर से इस तरह के मुद्दे उठाना शोभा नहीं देता। श्री मोदी ने इसी के साथ खुले में शौच की प्रथा खत्म करने के लिए घर - घर शौचालय बनवाने की मुहिम भी शुरू की। उनके आह्वान पर जब पूरे देश में बड़ी - बड़ी हस्तियाँ झाड़ू लेकर सफाई के लिए जुटीं तब उसे फोटो खिंचाऊ कार्यक्रम मानकर उपहास किया गया। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने तो यहाँ तक तंज किया कि प्रधानमन्त्री ने युवाओं के हाथ में काम देने की बजाय झाड़ू पकड़ा दी। उसी समय श्री मोदी ने राष्ट्रीय स्वच्छता सर्वेक्षण प्रारम्भ करवाया। शुरुवाती एक दो साल में तो उसका उतना असर नहीं दिखा लेकिन धीरे - धीरे इस प्रतिस्पर्धा के प्रति स्थानीय निकायों के साथ ही जनता में ही जागरूकता बढी और आजादी के सात दशक बाद स्वच्छता और शौचालय राष्ट्रीय प्राथमिकताओं में शामिल हो सके। हालाँकि हमारे राष्ट्रीय चरित्र के अनुरूप इन कार्यक्रमों में भी जमकर भ्रष्टाचार हुआ। सार्वजनिक शौचालयों के नाम पर खड़े किये डिब्बे कुछ ही दिनों में बेकार हो गए। पानी की समुचित आपूर्ति न होने से उनमें गंदगी भी होने लगी। रही - सही कसर पूरी कर दी चोरों ने। ये कहना गलत न होगा कि इस काम पर खर्च हुई राशि का बड़ा हिस्सा बर्बाद हो गया। बावजूद इसके पिछड़ी बस्तियों और ग्रामीण क्षेत्रों में घरों के भीतर शौचालय बनाने के काम में काफी कामयाबी हासिल हुई। खुले में शौच की स्थिति में भी आशाजनक सुधार हुआ। हालांकि अभी भी इस दिशा में काफी कुछ किया जाना बाकी है लेकिन भारत सरीखे देश में जो शौचालय सुविधा से वंचितों के मामले में दुनिया में अग्रणी हुआ करता था , वहां शौचालय को लेकर एक दायित्वबोध उत्पन्न करना आसान काम नहीं था। खासकर ग्रामीण अंचल में जहाँ सुबह - सुबह शौच के लिये खेत में जाने को प्रात:कालीन सैर का नाम देकर उसके औचित्य को साबित किया जाता था। लेकिन इस बारे में महिलाओं को होने वाली असुविधा के बारे में नहीं सोचा गया। इसी प्रकार शहरों में विकास के लिए करोड़ों खर्च किये जाने के बावजूद सफाई व्यवस्था को लेकर अपेक्षित गम्भीरता नहीं रही। शहरों में आबादी के बढ़ते विस्फोट के कारण कचरा बड़ी समस्या के रूप में सामने आ गया। महानगरों के बाहर खाली स्थान पर बनाये गए संग्रहण स्थल पहाड़ की शक्ल ले बैठे। कचरे से बिजली बनाने के संयंत्र भी सभी जगह नहीं लगाये जा सके। प्रधानमंत्री द्वारा स्वच्छता मिशन के रूप में जो राष्ट्रीय सोच स्थापित की गई उसे पूरी तरह से स्वीकार्यता भले न मिल सकी हो लेकिन आबादी का महत्वपूर्ण हिस्सा स्वच्छता की लेकर जागरूक हुआ है। सार्वजनिक स्थलों पर कचरा फेंकने के बारे में कुछ हिचक तो देखने मिलने लगी है। कचरे के डिब्बे का उपयोग करने के बारे में भी लोग स्वप्रेरित हुए हैं। रेलवे स्टेशन जैसी जगहों पर इसका असर देखा जा सकता है। अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है और ऐसे काम पूरे होने में लम्बा समय लग जाता है। स्वच्छता को स्वभाव और संस्कार बनाने का ये अभियान बहुत बड़ी जरूरत थी क्योंकि ये केवल सुन्दरता ही नहीं अपितु जनस्वास्थ्य के लिए भी प्राथमिक आवश्यकता है। 2020 के स्वच्छता सर्वेक्षण के जो परिणाम आये उनमें विजेता शहरों के नागरिक और प्रशासन बधाई के पात्र हैं। विशेष रूप से इन्दौर की इस बात के लिए प्रशंसा करनी होगी कि उसने स्वच्छता को अपनी पहिचान बनाने के लिए सतर्कता बरती। हालांकि ये आरोप भी लगते हैं कि स्वच्छता सर्वेक्षण के नाम पर अधिकतर स्थानीय निकायों द्वारा प्रचार पर बेरहमी से पैसा खर्च किया जाता है जिसमें भारी भ्रष्टाचार की शिकायतें आम हैं। बेहतर होगा कि सर्वेक्षण में ये जांच भी हो कि इस खर्च की जरूरत थी या नहीं ? इसके अलावा आकस्मिक जांच की भी व्यवस्था की जाए जिससे पता चल सके कि शहरों की सफाई व्यवस्था हमेशा दुरुस्त रहती है या केवल सर्वेक्षण के दौरान उसे चाकचौबंद रखा जाता है। सवाल और भी हैं लेकिन भारत सरीखे विकासशील देश में जहां आबादी का बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा से भी नीचे रहता हो वहां स्वच्छता यदि राष्ट्रीय मुद्दा बन रहा है तो ये कम संतोषजनक नहीं है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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