Saturday 31 March 2018

सेवानिवृत्ति : बेरोजगारों को भाजपा से ज्यादा अपनी चिंता

सेवानिवृत्ति की आयु सीमा अचानक 60 से बढाकर 62 वर्ष करने का ऐलान कर मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उन हजारों सरकारी कर्मचारियों को खुशियों का खजाना सौंप दिया जो 60 वर्ष की आयु तक पहुंचकर रिटायर होने के कगार पर आ गए हैं। ये घोषणा आज से निर्णय का रूप ले लेगी अथवा इस पर अमल होने में कुछ समय लगेगा वह स्पष्ट होना शेष है किंतु ये तो तय है कि बड़ी संख्या में राज्य सरकार के वे कर्मचारी इससे फायदे में रहेंगे जिनकी सेवानिवृत्ति का समय नज़दीक है। मोटे अनुमान के अनुसार तकरीबन 33 हज़ार लोगों को इसका लाभ मिल जाएगा। लेकिन जो विस्तृत जानकारी आई उसके अनुसार तो इस दरियादिली के पीछे अनेक कारण हैं। पदोन्नति में आरक्षण को लेकर मप्र उच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध राज्य सरकार की अपील सर्वोच्च न्यायालय में लम्बित है। मुख्यमंत्री की घोषणा के पीछे ये भी बड़ी वजह है वरना सैकड़ों कर्मचारी पदोन्नति के बिना सेवानिवृत्त हो जाते। कहा जा रहा है इससे 33 हजार कर्मचारी लाभान्वित होंगे वहीं उनके परिवारों को भी इसका अप्रत्यक्ष लाभ मिलेगा। इसके अतिरिक्त राज्य सरकार को सेवानिवृत्ति पर देने वाले 6600 करोड़ की राशि का भुगतान करने हेतु मोहलत मिल गई जिससे वह अन्य आर्थिक बोझ वहन कर सकेगी। इस फैसले से प्रदेश के पूरे सरकारी अमले में खुशी की लहर फैल गई होगी किन्तु दूसरा पहलू ये है कि उन बेरोजगारों की उम्मीदों पर पानी भी पड़ गया होगा जो सरकारी नौकरी के सपने देखते आ रहे हैं। यद्यपि जिस संख्या में कर्मचारी सेवानिवृत्त होते रहे हैं उतनी भर्तियां नहीं की गईं। कंप्यूटरीकरण, आउटसोर्सिंग और संविदा पर नियुक्तियों के चलते कर्मचारियों की संख्या निरन्तर कम होती जा रही है। अनेक कामों के लिए निजी क्षेत्र की सेवाएं प्राप्त करने के चलन से भी सरकारी अमला घटा है जिसकी  वजह से नौकरियां पहले जैसी नहीं मिल पातीं लेकिन उसके बाद भी बेरोजगार युवाओं का बड़ा वर्ग ऐसा है जिसकी पहली पसंद सरकारी नौकरी होती है। प्रदेश का लोकसेवा आयोग जो परीक्षाएं लेता है उनके परिणाम सालों बाद आने से भी बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि होती गई। यही वजह है कि शिवराज सिंह की ताजा घोषणा से राज्य सरकार का मौजूदा अमला जहां गद्गद् है वहीं सरकारी नौकरियों की चाहत में प्रौढ़ होते हज़ारों युवाओं की उम्मीदों पर तुषारापात हो गया है। हालांकि शासकीय सेवाओं के विभिन्न वर्गों में सेवानिवृत्ति की आयु सीमा 62 से 65 वर्ष तक है किंतु अधिकतर कर्मचारी-अधिकारी 60 पर ही निवृत्त होते रहे हैं। मुख्यमंत्री की इस घोषणा का विधानसभा चुनाव के मद्देनजर राजनीतिक विश्लेषण भी किया जा रहा है। ये कहना गलत नहीं होगा कि आर्थिक एवं वैधानिक कारणों के अलावा इस घोषणा के पीछे मुख्यमंत्री का उद्देश्य सरकारी अमले का तुष्टीकरण है जिससे वह सत्तारूढ़ दल की छवि खराब न करे। चुनाव प्रक्रिया में शासकीय मशीनरी की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। लेकिन शिवराज सिंह की सन्दर्भित घोषणा से भले ही सेवानिवृत्त होने जा रहे कर्मचारियों और उनके परिजनों में हर्ष की लहर हो किन्तु लाखों बेरोजगारों के मन में व्याप्त निराशा यदि गुस्से में बदली तब भाजपा को उसका खामियाजा भी भुगतना पड़ सकता है। एक समय था जब सरकारी नौकरी बेरोजगारों का सबसे बड़ा सहारा हुआ करती थी किन्तु उदारीकरण के बाद से सरकार की सोच पर भी निजी क्षेत्र की तरह मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति हावी होने लगी। दरअसल स्थापना व्यय के बेतहाशा बोझ ने सरकारी खजाने को खाली करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। हाल ही में मप्र के वित्तमंत्री जयंत मलैया ने कहा भी था कि सरकारी राजस्व का 80 प्रतिशत से भी ज्यादा हिस्सा वेतन, भत्ते और पेंशन पर खर्च हो जाता है। औसत आयु बढ़ जाने से सेवानिवृत्त कर्मचारियों और अधिकारियों को मिलने वाली पेंशन एवं अन्य आर्थिक सुविधाएं असहनीय होती जा रही हैं। इसीलिए अब नई सेवा शर्तों में पेंशन का स्वरूप बदल दिया गया है। बावजूद इसके स्थापना व्यय ने सरकारों को को सिर से पांव तक कजऱ् में डुबो दिया। मप्र सरकार पर भी बेतहाशा ऋण चढ़ा हुआ है। कटु सत्य ये है कि विकास के तमाम कामों के लिए सरकारें अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से ऋण लेती जा रहीं हैं जिसकी अदायगी कालांतर में जनता के सिर पर बड़े बोझ का रूप लिए बिना नहीं रहेगी। शिवराज सिंह ने हालांकि बड़ी ही सोची-समझी चाल चली है जिसका चुनावी फायदा उन्हें मिल सकता है किंतु लगे हाथ उन्हें बेरोजगार युवाओं के भविष्य को सुरक्षित करने के प्रति भी कोई कदम उठाना चाहिए था। वैसे अब देश भर में आवाज उठने लगी है कि सरकारी सेवानिवृत्ति की आयु सीमा फिर से 58 वर्ष कर दी जाए जिससे नई पीढ़ी को समय रहते रोजगार मिल सके। विकास के तमाम दावे और उपलब्धियों को बयां करने वाले सरकारी आंकड़े  उस समय अर्थहीन लगने लगते हैं जब पढ़े-लिखे लाखों नौजवान हर साल सरकारी नौकरी के इंतज़ार में आयु सीमा पार कर जाते हैं। किसी भी देश की युवा पीढी यदि बिना काम के घूमने मजबूर हो तब उसकी प्रगति को खोखला ही कहा जाएगा। दुर्भाग्य से हमारे देश में भी यही हो रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुनिया भर में घूम-घूमकर भारत को युवाओं का देश बताते फिरते हैं किंतु इनमें से अधिकतर के पास काम नहीं होने से देश उस रफ्तार से आगे नहीं बढ़ पा रहा जिसकी उम्मीद भी है और ज़रूरत भी। उस लिहाज से श्री चौहान की ताजा घोषणा कहीं खुशी, कहीं गम का माहौल पैदा करने वाली है। अच्छा होता वे बेरोजगार नई पीढ़ी को भी कुछ सौगात दे देते। मुख्यमंत्री को ये नहीं भूलना चाहिए कि 2018 और 2019 में पहली मर्तबा वे युवा भी मतदान करेंगे जिनका जन्म क्रमश: 20 वीं सदी के अंतिम एवं 21 वीं सदी के पहले साल में हुआ था और ये भी कि इस उम्र के मतदाता को भाजपा से ज्यादा अपने भविष्य की चिंता रहेगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 30 March 2018

सीबीएसई प्रमुख और जावड़ेकर दोनों हटें


सीबीएसई केंद्र सरकार द्वारा संचालित शिक्षा मंडल है। देश के बड़े हिस्से में इसके पाठ्यक्रम अनुसार शिक्षण और परीक्षाएं होती हैं। जिन राज्यों के अपने शिक्षण मंडल हैं उनमें भी अधिकतर प्रतिष्ठित विद्यालयों ने स्वयं को सीबीएसई से जोड़ रखा है। गुणवत्तायुक्त कार्यशैली और पारदर्शिता की वजह से ये संस्थान काफी सम्मानित रहा है लेकिन बीते दिनों कुछ प्रश्नपत्र लीक हो जाने से न सिर्फ सीबीएसई अपितु केंद्र सरकार की भी जमकर थू-थू हो रही है। राहुल गांधी ने विभिन्न क्षेत्रों में हुई धांधलियों को इससे जोड़कर जो तंज किया वह गलत नहीं है। पर्चा लीक होने की खबर मिलते ही उसकी परीक्षा रद्द कर दी गई। ये आशंका भी व्यक्त की जा रही है कि पहले वाले प्रश्नपत्र भी आउट हो गए थे। इस आधार पर पूरी परीक्षा दोबारा करवाने की मांग भी उछलने लगी। देश भर में लाखों छात्र बुरी तरह परेशान हैं। उनकी मेहनत पर पानी फिर गया। सीबीएसई आश्वासन दे रही है कि जो भी निर्णय होगा उसमें छात्रों का ध्यान रखा जावेगा। पर्चा लीक करने वाले गिरोह के लोगों की धरपकड़ भी जारी है। व्हाट्स एप पर पर्चा लीक कर बेचने वालों के विरुद्ध कड़े कदम उठाने की बात मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने पत्रकारों के समक्ष करते हुए सरकारी औपचारिकता पूरी की किन्तु न तो श्री जावड़ेकर और सीबीएसई प्रमुख ने नैतिक दायित्व लेकर हटने का इरादा जताया और न ही सरकार ने उन्हें हटाने का कोई संकेत ही दिया। इस तरह इतनी बड़ी घटना को भी मामूली मानकर निबटाने की परिपाटी निभाई जा रही है। अच्छा होता प्रधानमंत्री खुद होकर श्री जावड़ेकर को पद त्यागने कहते वहीं दूसरी तरफ  सीबीएसई प्रमुख को जांच होने तक कम से कम छुट्टी पर तो भेजा ही जा सकता था। भले ही पूरे मामले में मंत्री सीधे जिम्मेदार न माने जाएं किंतु इस अभूतपूर्व विभागीय गड़बड़ी के लिए उन्हें कुछ न कुछ दण्ड तो मिलना ही चाहिये। यदि ऐसा नहीं किया जाता तब दायित्वबोध शब्द को ही शब्दकोश से हटा ही दिया जावे क्योंकि वह अपना अर्थ खोता जा रहा है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

अन्ना : आकर्षण और असर दोनों में कमी

नरेंद्र मोदी को सत्ता से हटाने का संकल्प पूरा करने के लिए जान की बाजी लगाने के हौसले के साथ दिल्ली के रामलीला मैदान में आमरण अनशन पर बैठे अन्ना हज़ारे महज सात दिन में ही उठ गए। न उनकी कोई मांग तत्काल पूरी हुई और न ही मोदी मुक्त भारत का संकल्प। छह माह के भीतर सभी मांगों को पूरा करने का आश्वासन मिलने के बाद ये चेतावनी देकर उन्होंने अनशन समाप्त कर दिया  कि सरकार ने वायदा खिलाफी की तो वे सितम्बर में फिर अनशन पर बैठेंगे। इस बुजुर्ग आंदोलनकारी का अनशन समाप्त होने से सभी ने राहत की सांस ली क्योंकि तेज गर्मी की वजह से उनका स्वास्थ्य खराब होने लगा था। अन्ना एक सम्मानित शख्सियत रहे हैं। भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनकी लड़ाई में हर ईमानदार व्यक्ति मानसिक रूप से उनके साथ है किंतु लगता है उम्र उनकी निर्णय क्षमता पर हावी होती जा रही है जिसके चलते दृढ़ निश्चयी अन्ना ऐसे व्यक्ति बन गए जो पूरी तरह भ्रमित है। राजनीति से उनकी दूरी स्वागतयोग्य है लेकिन कटु सत्य ये है कि सभी मांगें राजसत्ता से जुड़ी होने से उनका हर आंदोलन चाहे-अनचाहे राजनीति से जुड़ ही जाता है। दूसरी बात उनके बयानों और आंदोलनों के समय को लेकर उठती है। अक्सर उन पर आरोप लगता है कि वे किसी न किसी राजनीतिक दल के एजेंट के तौर पर काम करते हैं। 2011 के अनशन के समय उन पर भाजपा  समर्थक होने और बाद में कांग्रेस के हाथ में खेलने के आरोप लगने लगे। शुरू-शुरू में अरविंद केजरीवाल एंड कम्पनी को उनका आशीर्वाद था लेकिन बाद में वह अन्ना से दूर चली गई। दिल्ली विधानसभा चुनाव में अन्ना ने ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस पर हाथ रखा किन्तु फिर उससे भी किनारा कर लिया। इन्हीं सब का नतीजा रहा कि गत सप्ताह जब अन्ना ने अपना मंच सजाया तब कोई राजनीतिक दल सीधे तौर पर न सही लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से भी उनके समर्थन में नहीं आया। जो टीवी चैनल अन्ना के पिछले अनशन का सीधा प्रसारण करते थे वे ही इस बार खाली पंडाल के दृश्य दिखा-दिखाकर उन्हें उपहास का पात्र बनाने से नहीं चूके। नौबत ये आ गई कि अन्ना की मांगें तो गौण हो गईं और खाली पड़े पंडाल मुद्दा बन गए। प्रथम पृष्ठ की खबर से खिसक कर वे भीतरी पन्नों के किसी कोने में सिमट गए। ऐसे में उनके लिए यही सही था कि वे बिना जिद किये अनशन खत्म कर दें। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फणनवीस के हाथों नारियल पानी पीकर अन्ना उठ गए। उनकी मानें तो सरकार ने छह महीने के भीतर उनकी सभी बातें मान लेने का वचन दिया है किंतु ये उतना आसान भी नहीं जितना वे समझ रहे हैं। ऐसा लगता है केन्द्र सरकार ने भी उनकी आयु के मद्देनजर अनशन खत्म करवाने की रणनीति चली। उधर अन्ना भी सोशल मीडिया सहित अन्य माध्यमों में आ रही विपरीत प्रतिक्रियाओं से हतोत्साहित होने लगे थे। यही वजह रही कि जरा से आग्रह और आश्वासन के बाद वे बिना नाज़-नखरे के उठने राजी हो गए। उनकी मांगें आगामी छह माह में कितनी पूरी होती हैं ये पक्का नहीं है क्योंकि सर्वदलीय सहमति के बाद भी उनमें से कुछ को लागू कर पाना व्यवहारिक दृष्टि से असम्भव न सही किन्तु आसान भी नहीं है। बेहतर हो अन्ना अब अपना तरीका बदलें। उनके अनशन और धरने अब पहले जैसा असर नहीं डालते। लोकपाल का गठन भी मज़ाक बनता जा रहा है। रही बात किसानों की तो उसके लिए सभी राज्य सरकारें अपने-अपने ढंग से निर्णय किया करती हैं। ये देखते हुए उनको अब शरशैया पर पड़े भीष्म पितामह की तरह उपदेश देने की मुद्रा में आ जाना चाहिए। इस उम्र में उनकी शारीरिक स्थिति भी पहले सरीखी नहीं है। कोई भी राजनीतिक पार्टी उनके पीछे नहीं आना चाहती क्योंकि अस्थिर दिमाग के चलते अन्ना कब कौन सा रास्ता पकड़ लें कहना कठिन है। कुल मिलाकर भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनकी लड़ाई में अब पहले जैसी धार नहीं रही, जिसके लिये वे स्वयं जिम्मेदार हैं। इस बार उनके अनशन स्थल पर लगे पंडाल वगैरह के खर्च को लेकर भी जो टीका-टिप्पणी हुईं वे इस बात का प्रमाण हैं कि उनके प्रति न कोई आकर्षण बचा न ही पहले जैसा असर। इस सच्चाई को अन्ना जितनी जल्दी समझ लें तो ये उनके लिए बेहतर रहेगा वरना वे पूरी तरह अप्रासंगिक होकर रह जाएंगे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 29 March 2018

विपक्ष में भी विश्वास का संकट


बंगाल की मुख्यमंत्री इन दिनों भाजपा विरोधी मोर्चा बनाने में व्यस्त हैं। दो-तीन दिन दिल्ली में रुककर उन्होंने सोनिया गाँधी सहित अन्य विपक्षी नेताओं से तो भेंट  की ही भाजपा के असंतुष्ट यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा और अरुण शौरी से भी वे मिलीं। ममता बैनर्जी ने विपक्षी एकता के लिए चल रहे कांग्रेसी प्रयासों के समानांतर अपनी जो कोशिशें शुरू की हैं उनके पीछे उद्देश्य प्रधानमंत्री पद हेतु राहुल गांधी की उम्मीदवारी को पलीता लगाना है। श्रीमती गांधी से मिलकर लौटते समय पत्रकारों द्वारा राहुल सम्बन्धी सवाल को उन्होंने कोई महत्व नहीं दिया। दरअसल सुश्री बैनर्जी समझ गई हैं कि जयललिता के न रहने के बाद कोई और क्षेत्रीय नेता नहीं है जो अपने राज्य से 35 लोकसभा सीटें जीतकर ला सके। 2018 में यदि त्रिशंकु लोकसभा उभरी तब ममता प्रधानमंत्री पद हेतु अपना दावा पेश करने के उद्देश्य से विपक्षी एकता की बीन बजा रही हैं लेकिन भले ही भाजपा विरोध के नाम पर विपक्षी दल एकजुट हो जाएं किंतु ममता की महत्वाकांक्षाएं आसमान छूने वाली होने से इस एकता की सम्भावना न  के बराबर है। और फिर उन सरीखी अस्थिर दिमाग वाली नेत्री कब क्या कर जाए कहना कठिन है। ऐसे मे विपक्षी एकता के लिए हो रही कोशिशों का सफल होना आसान नहीं है क्योंकि उसके पीछे कोई सिद्धांत या आदर्श तो हैं नहीं। विश्वास का संकट विपक्षी दलों के बीच भी कम नहीं है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

सब पर भारी-जाति हमारी

इसे डाटा चोरी कहें या फिर उसका व्यापार लेकिन धीरे-धीरे ही सही ये बात तो स्पष्ट हो ही गई कि भारत में राजनीतिक दल जातिगत आंकड़ों का इस्तेमाल अपनी चुनावी रणनीति बनाने हेतु करते हैं। विदेशी कंपनियों के जरिये देश में विभिन्न क्षेत्रों के सामाजिक समीकरणों का विवरण एकत्र कर उस हिसाब से प्रत्याशी चयन एवं नीतियों का निर्धारण राजनीतिक संस्कृति बन चुकी है। जिसकी वजह से जातिगत भेदभाव मिटाने की बजाय उसे और बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है। उप्र के हालिया उपचुनाव में सपा-बसपा गठबंधन के सामने भाजपा जिस तरह चारों खाने चित्त हुई उसके पीछे यदि कोई नीतिगत मामला होता तब तो बात समझ में आती लेकिन केवल चुनावी लाभ के लिए जातिगत समूहों को गोलबंद करने के इस खेल की वजह से सामाजिक एकता के लिए खतरे बढ़ रहे हैं। कर्नाटक में इसका दूसरा रूप दिखाई देने लगा है। वहाँ हिन्दू समाज की विभिन्न जातियों के सैकड़ों मठ लगभग हर जिले में स्थित हैं। इनमें विराजमान मठाधीशों के अनुयायियों की संख्या हजारों में होती है। वैसे तो इनका काम लोगों को धर्म के मार्ग पर चलते रहने हेतु प्रेरित और निर्देशित करना है किंतु चुनाव आते ही इनमें सियासी नेताओं का आवागमन बढ़ जाता है जिनका उद्देश्य धार्मिक न होकर केवल और केवल अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करना होता है। जितने भी सर्वेक्षण या विश्लेषण आ रहे हैं उन सभी में कर्नाटक के चुनाव में मठों की महत्वपूर्ण भूमिका का खुलकर उल्लेख किया जा रहा है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और भाजपा प्रमुख अमित शाह कर्नाटक के चुनावी दौरों में मंदिरों और मठों में जा-जाकर जिस तरह मत्था टेक रहे हैं वह किसी धार्मिक भावना अथवा श्रद्धा के वशीभूत न होकर विशुद्ध वोट रुपी वरदान प्राप्त करने के लिए किए जा रहे प्रयासों का ही हिस्सा हैं। बीते कुछ दिनों से डाटा चोरी के मामले में विदेशी सर्वेक्षण एजेंसियों की सेवाएं लिए जाने को लेकर भाजपा और कांग्रेस के बीच जुबानी तीर चल रहे हैं। उनके अलावा भी कुछ छोटी-छोटी पार्टियों और संपन्न प्रत्याशियों द्वारा जातिगत आंकड़े और उनके राजनीतिक झुकाव की जानकारी हेतु विदेशी संस्थानों की सेवाएँ लेने की बात सामने आ रही है। यही नहीं तो बड़े-बड़े समाचार पत्र समूह और टीवी चैनल तक चुनाव सर्वेक्षणों के लिए जातिगत आंकड़ों और उनके रुख का अध्ययन करते हैं । इस तरह अब ये मान लेना मजबूरी हो गई है कि 21 वीं सदी के भारत में भले ही आधुनिकता की चकाचौंध बढ़ी हो लेकिन जाति और उस पर आधारित कुनबों का महत्व और प्रभाव मिटना और घटना तो दूर उल्टे  वह बढ़ता ही जा रहा है। ये स्थिति अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि सुशिक्षित वर्ग में भी जाति को लेकर आग्रह कम होने का नाम नहीं ले रहा। देश की राजधानी दिल्ली में भी जातिगत आधार पर सियासी गुणा - भाग लगाया जाता हो तब देश के सुदूर हिस्सों में क्या होता होगा ये अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। ये स्थिति देश के लिए कितनी खतरनाक है इसका अनुमान लगाए बिना राजनीतिक दल जिस तेजी से इस बुराई को बढ़ावा दे रहे हैं वह अच्छा संकेत नहीं है। कर्नाटक के वर्तमान चुनाव में बड़े-बड़े नेता जाति आधारित मठों की परिक्रमा जिस तरह कर रहे हैं उससे राजनीतिक दलों की सैद्धांतिक विपन्नता उजागर हो रही है। विकास के तमाम दावों के बावजूद जाति और मठाधीशों का सहारा लेना जाहिर करता है कि राजनीतिक दलों की समाज सुधार में कोई रुचि नहीं है। उनका एकमात्र मकसद वोटों की फसल काटना रह गया है। फिर चाहे इसके लिए समाज के टुकड़े ही क्यों न करना पड़े। डाटा चोरी को लेकर मचे बवाल से भी यही बात निकलकर आ रही है कि भारतीय समाज को जातियों में बांटकर रखने में राजनीतिक दलों का निहित स्वार्थ है। इसलिए छुआछूत मिटाने के सरकारी कर्मकांड के बावजूद जाति का ढांचा दिन ब दिन मजबूत होता जा रहा है। यही नहीं तो कुकुरमुत्तों की तरह उपजातियों के नए-नए झुंड नजर आने लगे हैं। ये सिलसिला कहां जाकर थमेगा कहना कठिन है लेकिन इस बात का भय बढ़ता ही जा रहा है कि जिस तरह से चुनावी लाभ हेतु  कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने लिंगायत नामक जाति समूह को पृथक धर्म का दर्जा देने की चाल चली यदि अन्य हिस्सों में भी यही बीमारी फैली तब देश की एकता का क्या होगा ये सोचकर भी कंपकंपी होने लगती है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 28 March 2018

कर्नाटक के सियासी नाटक पर देश की निगाहें


चुनाव की तारीख की घोषणा होते ही पूरे देश का ध्यान कर्नाटक चुनाव पर केन्द्रित हो गया है। गुजरात में फीकी जीत के बाद राजस्थान, म.प्र. और उ.प्र. के उपचुनावों में मिली पराजय के कारण जहां भाजपा के माथे पर चिंता की लकीरें हैं वहीं कांग्रेस के लिये भी अपना ये किला बचाना जरूरी हो गया है क्योंकि 2014 के बाद से वह लगातार अपने कब्जे वाले राज्य एक के बाद एक हारती चली गई। इस तरह दोनों प्रमुख दलों के लिये 12 मई को होने वाला मतदान भविष्य का निर्धारण करने वाला साबित होगा। वैसे भाजपा को कांग्रेस से ज्यादा चिंता है क्योंकि कर्नाटक के विपरीत परिणाम 2018 के अंत में म.प्र., राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ विधानसभा के चुनावों पर असर जरूर डालेंगे, जहां भाजपा का कब्जा है। उसके छह महीने बाद 2019 का लोकसभा चुनाव होना है। यदि नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने कर्नाटक का किला फतह कर लिया तब निश्चित रूप से उनके अपराजेय होने की बात को बल मिल जाएगा। वहीं कांग्रेस यदि अपने आखिरी दुर्ग को नहीं बचा सकी तब उसके लिये आने वाली चुनौतियों का सामना करना तो मुश्किल होगा ही लेकिन उससे भी बड़ी कठिनाई है विपक्षी एकता के उन प्रयासों को पलीता लगना जिसकी पहल खुद सोनिया गांधी ने हाल ही में नये सिरे से की है। वैसे शुरू-शुरू में ये कयास राजनीतिक पंडितों द्वारा लगाए जा रहे थे कि भाजपा के आक्रामक अभियान का मुकाबला करने हेतु कांग्रेस कर्नाटक में एचडी देवगौड़ा की जद (एस) से गठबंधन करेगी। ऐसा होने पर वह भाजपा की पराजय को सुनिश्चित कर सकती थी किन्तु गत सप्ताह संपन्न राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस ने पहले तो जद (एस) के 7 विधायकों से अपने प्रत्याशी के पक्ष में क्रास वोटिंग करवाई और फिर उन्हें अपनी पार्टी में ही शामिल कर लिया। इससे जद (एस) का पारा गरम हो गया। बची-खुची कसर मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने ये कहकर पूरी कर दी कि कांग्रेस अपने दम पर चुनाव लड़ेगी। इसे उनके बढ़े हुए आत्मविश्वास का परिचायक भी कह सकते हैं। हाल ही में राज्य के ताकतवर लिंगायत समुदाय को अलग धर्म मानकर अल्पसंख्यक का दर्जा देने की सिफारिश केन्द्र सरकार को भेजने का दांव चलकर सिद्धारमैया ने भाजपा को चौंका दिया जिसे ये उम्मीद रही कि मुख्यमंत्री पद के उसके प्रत्याशी येदियुरप्पा के लिंगायत होने का लाभ उसे मिलेगा। यद्यपि 2013 में तत्कालीन मनमोहन सरकार ऐसी ही सिफारिश को लौटा चुकी थी किन्तु मुख्यमंत्री ने बेहद चालाकी भरा कदम उठाते हुए भाजपा के रणनीतिकारों को सोचने के लिए बाध्य तो कर ही दिया। जहां तक जद (एस) का सवाल है तो वह लिंगायत मसले से परेशान नहीं है क्योंकि उसका जनाधार दूसरे वर्गों में है। हालांकि कर्नाटक की सियासत पर वहां स्थित हिन्दू मठों के मठाधीशों का समर्थन काफी मायने रखता है। यही वजह है कि राहुल गांधी और अमित शाह दोनों मठों के चक्कर लगा रहे हैं परन्तु ये भी सही है कि सिद्धारमैया ने व्यवस्था विरोधी रूझान के दबाव से मुक्त होते हुए भाजपा के विरूद्ध सारे पांसे चतुराई से फेंक दिये हैं। गत वर्ष पूर्व मुख्यमंत्री एसएम कृष्णा को भाजपा ने जब अपनी तरफ खींचा तब लगा था कि वे कुछ और सत्ताधारी नेताओं को भगवा रंग में रंग देंगे किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हो सका। यद्यपि हिन्दू संगठनों ने कर्नाटक की हवा में काफी कुछ अलग असर छोड़ा है परन्तु आज की तारीख में ये खुलकर कहना कठिन है कि उनकी कोशिशें कामयाब हो जायेंगी। कांगे्रस को फिलहाल राष्ट्रीय स्तर पर मोदी सरकार के विरुद्ध उठ रहे मुद्दों का मनोवैज्ञानिक लाभ मिल रहा है। पड़ोसी राज्य आन्ध्र के मुख्यमंत्री चन्द्राबाबू नायडू का भाजपा से अलग हो जाना भी उसके लिए उम्मीदें जगाने वाला है। तेलंगाना में भी मुख्यमंत्री चन्द्रशेखर राव भाजपा विरोधी गठबंधन बनाने में लगे हैं। कुल मिलाकर पांच साल तक सत्ता में रहने के बाद भी कांगे्रस उतनी परेशान नहीं दिख रही। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया पर भ्रष्टाचार के आरोप भले ही भाजपा लगा रही हो किन्तु वे पूरे आत्मविश्वास में दिख रहे हैं। दरअसल ये चुनाव केन्द्र सरकार के कामकाज पर टिक जाने से भाजपा की परेशानी बढ़ गई है। यद्यपि राजनीतिक पंडित ये भी मान रहे हैं कि अमित शाह ने बूथ मैनेजमेंट के स्तर पर कांग्रेस को काफी पीछे छोड़ रखा है किन्तु गुजरात में सारे फार्मूले असफल हो जाने से भाजपा सशंकित है। उसे ये भय भी सता रहा है कि यदि त्रिशंकु विधानसभा बनी तब जद (एस) हर हाल में कांगे्रस के साथ ही जायेगा। कुल मिलाकर कर्नाटक का सियासी नाटक बेहद रोमांचक होगा। भाजपा और कांगे्रस दोनों पूरी ताकत झोंकेंगे वहीं जद (एस) भी पीछे नहीं रहेगा क्योंकि उसके प्रदर्शन पर ही 2019 के चुनाव में उसकी भूमिका तय हो सकेगी। इस प्रकार अगले डेढ़ माह तक राष्ट्रीय राजनीति पर कर्नाटक की छाया बनी रहेगी ये तय है।

-रवीन्द्र वाजपेयी