Friday 16 March 2018

बहुत आसान है कमरे में वंदे मातरम कहना !!

सेना की वर्दी धारण किये हुए जवान या अधिकारी के प्रति आम भारतीय के मन में नेताओं से कई गुना ज्यादा सम्मान के बावजूद भी सेना में भर्ती के प्रति पहले जैसा उत्साह नहीं होने से भारतीय सेना हजारों जवानों और अधिकारियों की कमी से जूझ रही है। बेहतर वेतन-भत्ते सहित अन्य सुविधाएं भी सेना की नौकरी के प्रति आकर्षण नहीं बढ़ा पा रहीं। नौजवान पीढ़ी की देशभक्ति तो असंदिग्ध है लेकिन सेना को अपना कैरियर बनाने की जो इच्छा 60, 70 और 80 के दशक तक दिखाई देती थी वह अब नहीं रही। शालाओं एवं महाविद्यालयों में एनसीसी अब भी है लेकिन उसमें हिस्सा लेने वाले छात्र-छात्राएं घटते जा रहे हैं। युवा पीढ़ी की प्राथमिकताओं में हुए इस व्यापक बदलाव ने भारतीय सेना के पास अस्त्र-शस्र की तरह ही सैनिकों और अधिकारियों की कमी जैसी समस्या पैदा कर दी। शत्रुओं से घिरे देश के लिए ये स्थिति बेहद चिंताजनक है। देश चाहे कितनी भी आर्थिक समृद्धि अर्जित कर ले किन्तु यदि हमारी सीमाएं असुरक्षित हैं तब उसका कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। सेना में जवानों और अधिकारियों की कमी को दूर करने के लिए सेना ने नौकरी से जुड़े आकर्षण काफी बढ़ाए लेकिन उनका अपेक्षित परिणाम नहीं निकला। ताजा आंकड़ों के अनुसार सेना के तीनों अंगों में सात हजार अधिकारी और तकरीबन 35 हजार सैनिक कम हैं। इस स्थिति से निबटने के लिए संसद की स्थायी समिति ने सिफारिश की है कि सरकारी नौकरी में जाने के इच्छुक लोगों के लिए पहले पांच वर्ष सेना में काम करना अनिवार्य किया जावे। अमेरिका सहित अनेक देशों में कुछ बरस सेना में सेवाएं देना कानूनी आवश्यकता है। उल्लेखनीय है प्रसिद्ध मुक्केबाज मो. अली (कैसियस क्ले) को ऐसा न करने के कारण अमेरिका में जेल तक जाना पड़ा था। भारत में चूंकि प्रजातन्त्र कुछ ज्यादा ही उदार है इसलिए ऐसा करने की बात सोचना सम्भव नहीं हो सका लेकिन संसदीय समिति की अनुशंसा को लेकर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए क्योंकि ये कोई राजनीतिक नफे-नुकसान का नहीं अपितु राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा बेहद संवेदनशील विषय है। वैसे नेताओं की बिरादरी से युक्त संसद की जिस स्थायी समिति ने उक्त सिफारिश की उसके सम्मानीय सदस्यों में से कितनों की संतानें सेना में हैं या जाने की इच्छुक हैं, ये भी सार्वजनिक होना चाहिए क्योंकि अपने देश में भगतसिंह की चाहत तो सभी को है किंतु पड़ोसी के यहां। अपनी औलादों को पढ़ा-लिखाकर देश-विदेश में मोटे पैकेज वाली नौकरी दिलवाना औसत भारतीय अभिभावकों का स्वप्न होता है। यद्यपि कुछ वर्षों से सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों को राजनीति में घुसने का शौक चर्राने लगा है लेकिन सियासत में जमे कथित देशसेवकों में से अपवादस्वरूप ही किसी की संतानें सेना की नौकरी में जाती होंगी। बावजूद उसके संसद की उस स्थायी समिति के सदस्यगण अभिनन्दन के पात्र हैं जिन्होंने एक सार्थक पहल करते हुए देश के समक्ष एक विचारणीय मुद्दा रखा। देखने वाली बात ये होगी कि संसद इस बारे में क्या फैसला लेती है क्योंकि हमारे देश में इस तरह की अधिकतर सिफारिशें  फाइलों में दबकर रह जाती हैं। सरकारी नौकरी के लिए पांच वर्ष सेना में सेवा करने की अनिवार्यता सम्बन्धी सिफारिश करने वाली समिति का आकलन है कि सेना का अनुभव प्राप्त व्यक्ति सरकारी नौकरी में कहीं अधिक अनुशासित और समर्पित रहेगा जिससे सरकारी सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार हो सकेगा। इस सिफारिश पर संसद के अलावा पूरे देश में भी चर्चा चलनी चाहिये जिससे पता चल सके कि युवा पीढी की देशभक्ति कितनी वास्तविक है। सीमाओं के अलावा आंतरिक सुरक्षा पर भी ढेरों खतरे मंडरा रहे हैं जिन्हें देखते हुए सेना में जवानों और अधिकारियों की कमी दूर करना सर्वोच्च प्राथमिकता होनी ही चाहिये। संसदीय समिति की सिफारिश कब और कैसे लागू होगी ये कहना कठिन है किंतु इस दिशा में माहौल बनाने के लिए शिक्षण संस्थाओं के भीतर एनसीसी में शामिल होना अनिवार्य किया जाना चाहिए। उक्त सिफारिश के सैद्धांतिक महत्व को देश के प्रति प्रेम रखने वाला व्यक्ति शायद ही अस्वीकार करेगा। इसलिए बेहतर होगा इसे राष्ट्रीय स्तर पर सार्वजनिक विमर्श हेतु प्रस्तुत किया जावे क्योंकि संसद के भीतर ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर अपेक्षित गम्भीरता नहीं दिखाई देती। किसी शायर की ये पंक्तियां इस संदर्भ में बेहद सटीक बैठती हैं:-
'चलो चलते हैं मिल जुलकर वतन पर जान देते हैं,
बहुत आसान है कमरे में वंदे मातरम् कहना।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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