Tuesday 6 March 2018

राजस्थान और मप्र में भाजपा पर संकट के बादल

एक तरफ  तो भाजपा पूरे देश में तीन पूर्वोत्तर राज्यों में कमल खिलने का जश्न मना रही है वहीं दूसरी तरफ उसके कब्जे वाले मप्र और राजस्थान में उसके लिए अच्छी खबरें नहीं आ रहीं। उल्लेखनीय है उक्त दोनों राज्यों में हाल ही में हुए उपचुनावों में भाजपा औंधे मुंह गिर चुकी है। भले ही पार्टी के छत्रप 2018 के अंत में होने वाले चुनाव में सरकार बनाने का आत्मविश्वास व्यक्त करने में पीछे न हों लेकिन सत्य ये है कि उक्त दोनों सूबों में पार्टी और मुख्यमंत्री की लोकप्रियता में 2013 की तुलना में काफी कमी आई है। यही वजह है कि विरोधी दल द्वारा की जा रही आलोचना के अलावा पार्टी के भीतर भी असन्तोष के बादल मंडराने लगे हैं। राजस्थान में तो मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की मुखालफत खुले तौर पर होती रही है। कई पुराने नेताओं को वसुंधरा ने पूरी तरह हांशिये पर धकेल दिया। रास्वसंघ के अनुषांगिक संगठन भी महारानी कहलाने वाली मुख्यमंत्री की अकड़ से नाराज हैं। ये चर्चा पूरे प्रदेश में आम है कि वसुंधरा के नेतृत्व में यदि भाजपा मैदान में उतरी तो उसकी सरकार लौटना असम्भव है। दो  लोकसभा और एक विधानसभा सीट के उपचुनाव में भाजपा की जिस तरह ऐलानिया हार हुई उसने वसुंधरा के प्रति नाराजगी को प्रमाणित भी कर दिया किन्तु उसके बाद भी भाजपा आलाकमान की हिम्मत महारानी को हटाने की नहीं हो रही तो ये मानना पड़ेगा कि उनकी हेकड़ी के सामने पार्टी नेतृत्व भी असहाय है। राजस्थान में हर पांच साल में सरकार बदलने की परंपरा का हवाला देते हुए लोग कहते सुने जा सकते हैं कि वसुंधरा के स्वेच्छाचारी और सामन्ती स्वभाव से पार्टी के नेता और कार्यकर्ता सभी त्रस्त हैं जिसका असर आगामी चुनाव में पडऩा स्वाभाविक है। मप्र पर नजर डालें तो यहां भी राजस्थान की तरह का व्यापक असन्तोष भले न दिखे किन्तु शिवराज सिंह चौहान की निर्विवाद लोकप्रियता वाली बात नहीं रही। पार्टी अध्यक्ष नंदकुमार चौहान की स्थिति तो बेहद दयनीय है। न तो उनका कोई प्रभाव है और न ही दबदबा। संगठन में रास्वसंघ के जो प्रचारक तैनात हैं वे भी पहले जैसे सम्मानित और असरकारक नहीं रहे। गुटबंदी चरम पर है और विधायक-सांसदों ने पार्टी को अपना बंधुआ बना लिया है। इसके कारण निचले स्तर पर कार्यकर्ता नाराज भी हैं और निराश भी। चित्रकूट के बाद मुंगावली और कोलारस की पराजय ने शिवराज की विजेता छवि को जो नुकसान पहुंचाया उसकी बानगी पूर्व मंत्री सरताज सिंह की सार्वजनिक नाराजगी के तौर पर सामने आई ही थी कि रीवा क्षेत्र के एक जिला पँचायत अध्यक्ष ने पार्टी छोड़कर कांग्रेस का दामन थाम लिया। उनकी पत्नी भी भाजपा की विधायक हैं। दो-तीन दिनों में लगे इन दो झटकों को साधारण मानकर यदि भाजपा ने उपेक्षित कर दिया तो मानना होगा कि पार्टी में सामंजस्य और समन्वय बनाने वाले नेताओं का अभाव हो गया है। राजस्थान से गत दिवस एक खबर और आ गई कि अनेक पूर्व आईएएस और आईपीएस अधिकारी कांग्रेस की टिकिट पर विधानसभा चुनाव लडऩे के लिए प्रयासरत हैं। सेवानिवृत्ति की कगार पर खड़े कुछ प्रशासनिक अधिकारी भी त्यागपत्र देकर कांग्रेस के साथ जुडऩे के इच्छुक बताए जाते हैं। ये वर्ग राजनीतिक पूर्वानुमान लगाने में बेहद माहिर माना जाता है। उस दृष्टि से भाजपा के लिए राजस्थान में हार का खतरा बढ़ता ही जा रहा है। ऐसा लगता है दो संसदीय और एक विधानसभा उपचुनाव में मिली शिकस्त को भाजपा नेतृत्व ने गंभीरता से नहीं लिया। ऐसी ही स्थिति कमोबेश मप्र में भी बनती दिखाई दे रही है जहां सत्ता में बैठे लोग जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं से पूरी तरह दूर हो चुके हैं। शिवराज सिंह पूर्व में हुए उपचुनावों में जिस तरह प्रभावी साबित हुए वह एहसास पिछले तीन चुनावों में नजर नहीं आया तो इसकी चिंता भाजपा नेतृत्व को जिस तरह करनी चाहिए वह नजर नहीं आ रही। यद्यपि सरताज सिंह और मुख्यमंत्री के बीच मुलाकात के बाद पूर्व मंत्री ने सत्ता की बजाय संगठन से अपनी नाराजगी व्यक्त की किन्तु उसे दूर करना तो दूर उल्टे प्रदेश अध्यक्ष ने सरताज सिंह पर ही आरोप मढ़ दिए। पार्टी संगठन से करीबी से जुड़े रहे वरिष्ठ नेता रघुनंदन शर्मा और पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर के बयान भी मप्र में भाजपा के लिए शोचनीय स्थितियां उत्पन्न करते रहे हैं। रीवा के जिस नेता ने पार्टी छोड़ी वह काफी समय से नाराज थे और बीच में निलंबित किये जाने के बाद उन्हें वापिस भी ले लिया गया किन्तु अंतत: वे कांग्रेस में चले ही गए तो ये कहना गलत नहीं होगा कि पार्टी का आपदा प्रबन्धन पूरी तरह चरमरा गया है। राजस्थान की तरह मप्र में भी विधानसभा चुनाव वर्तमान मुख्यमंत्री को चेहरा बनाकर ही लड़े जाएँगे। इसलिए पार्टी के लिए ये जरूरी है कि वह असन्तोष को दबाने की जगह उसे समय रहते दूर करने का प्रयास करे तथा सत्ता में बैठे नेताओं की अकड़ और सामन्ती कार्यशैली पर रोक लगाए जिससे पार्टी के कार्यकताओं के मन में घर कर चुकी नाराजगी कम हो सके। यदि भाजपा हायकमान ने इस तरफ जल्दी ध्यान नहीं दिया तो बड़ी बात नहीं ज्यों-ज्यों चुनाव करीब आते जाएंगे त्यों-त्यों डूबते जहाज से चूहों के कूदने जैसी स्थितियां भाजपा की सम्भावनाओं को और धूमिल करती जाएंगीं। अतीत में कांग्रेस से भाजपा में आने का जो सिलसिला चल पड़ा था वह भी थम सा गया है। गुजरात के बाद पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के नतीजों ने भाजपा के डगमगाते आत्मविश्वास को जो मजबूती प्रदान की उस पर राजस्थान और मप्र से आ रही खबरें प्रश्नचिन्ह उपस्थित कर रही हैं। पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व को ये बात गम्भीरता से सोचनी चाहिये कि नए राज्यों में मिल रही सफलता के बावजूद उसके शासन वाले राज्यों में भाजपा के भीतरखानों में बढ़ते असन्तोष के कारण क्या हैं और उन्हें कैसे दूर किया जाए। वरना आगे पाट पीछे सपाट की स्थिति बन जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। भाजपा के कर्णधारों को ये बात भी याद रखनी चाहिये कि बाबरी ढांचा गिरने के बाद 1993 में हुए चुनाव में वह तीन राज्यों की सत्ता से हाथ धो बैठी थी। मतदाता अब किसी का बंधुआ नहीं रहा ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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