Monday 5 March 2018

साम्यवाद: रुमानियत और अहमियत दोनों खो गईं


आज़ादी के उपरांत भारतीय राजनीति में गांधी , लोहिया और दीनदयाल रूपी तीन धाराएं  बहीं  लेकिन साम्यवाद या मार्क्सवाद को मुख्यधारा में जगह नहीं दी गई जबकि पं नेहरू और उनके करीबी अनेक नेता तथा बुद्धिजीवी रूस की बोल्शेविक क्रांति के पक्षधर होने की वजह से साम्यवादी विचारधारा को पसंद करते थे।

दुर्भाग्य से साम्यवादी इस खेल को नहीं समझ सके और उसी की सजा भोग रहे हैं।एक समय था जब सीपीआई को चमचा पार्टी ऑफ इंडिया तक कहा गया था । ज्योति बसु को जब संयुक्त मोर्चा प्रधानमंत्री बनाने राजी हो गया था तब सीपीएम महासचिव स्व.हरिकिशन सुरजीत ने उनकी राह में कांटे बिछा दिए।

कभी कांग्रेस का समर्थन और कभी विरोध करने की वजह से साम्यवादी आंदोलन आपनी पहिचान और प्रासंगिकता दोनों खो बैठा।

त्रिपुरा में मिली ताजा पराजय के बाद इस आयातित विचारधारा के अरब सागर में डूबने की आशंका बढ़ चली है । बंगाल की खाड़ी तो उसे पहले ही उदरस्त कर चुकी है ।असल में साम्यवादी आज तक भारत की तासीर को समझ ही नहीं सके और कभी युवा पीढी को सहज आकर्षित करने वाला साम्यवादी आंदोलन धीरे-धीरे अपनी रूमानियत और अहमियत दोनों गवाँ बैठा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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