Saturday 17 March 2018

सरकार को तो कोई खतरा नहीं लेकिन ....

सरकार को तो कोई खतरा नहीं लेकिन ....

चंद्राबाबू नायडू देश के उन मुख्यमंत्रियों में हैं जो भविष्य को ध्यान में रखकर अपने राज्य के विकास की बात सोचते हैं। अविभाजित आंध्र का मुख्यमंन्त्री रहते हुए उन्होंने हैदराबाद को सायबर सिटी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया था। आंध्र का विभाजन होने के बाद हैदराबाद की जगह सिंगापुर की तर्ज पर अमरावती नामक नई राजधानी का जो मॉडल उन्होंने बनवाया वह उनकी दूरदृष्टि का नवीनतम उदाहरण है। बचे हुए आंध्र प्रदेश को उन्नत राज्य बनाना उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता है जिसके औचित्य  को अस्वीकार करना किसी के लिए भी सम्भव नहीं है।  भाजपा के साथ मिलकर उन्होंने पिछले चुनाव लड़ा था। लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होने से देश और राज्य दोनों में एनडीए की सरकार बनी। आंध्र में चंद्रा बाबू और केंद्र में नरेंद्र मोदी गठबंधन के नेता के तौर पर स्वीकार्य हुए। तीन - साढ़े तीन साल तक तो सब ठीक चला किन्तु बीते कुछ महीनों में दोनों दलों के रिश्तों में खटास आ गई। मुद्दा बना आंध्र को विशेष राज्य का दर्जा। चंद्राबाबू का कहना है भाजपा ने उसका वायदा किया था लेकिन अब वह मुकर गई। वहीं भाजपा का कहना है कि इस बारे में नई व्यवस्था के तहत विशेष राज्य का दर्जा  सम्भव नहीं है किन्तु आंध्र के सर्वतोमुखी विकास हेतु केंद्र पूरी मदद देने तत्पर है। जब बात नहीं बनी तब श्री नायडू ने पहले अपने मंत्री मोदी सरकार से हटाए और गत दिवस एनडीए भी छोड़ दिया। इन फैसलों से राष्ट्रीय राजनीति में भी उबाल आ गया और सारे भाजपा विरोधी दल मोदी सरकार के विरुद्ध मोर्चेबन्दी में जुट गए। तेलुगु देशम शायद भाजपा से शिवसेना की ही तरह प्यार और तकरार एक साथ जारी रखे रहती लेकिन भाजपा ने उसकी प्रतिद्वंदी जगनमोहन रेड्डी की पार्टी वाईएसआर कांग्रेस से नजदीकियां बढ़ाने के संकेत देते हुए आंध्र में अपना स्वतन्त्र जनाधार बढ़ाने के प्रयास तेज कर दिए। चंद्राबाबू को ज्योंही इसकी भनक लगी उन्होंने भी आंखें तरेरनी शुरू कर दीं और विशेष राज्य के लिए नए सिरे से दबाव बनाना  प्रारम्भ कर दिया। उधर जगनमोहन ने एक कदम आगे निकलकर इसी मुद्दे पर केंद्र के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव प्रस्तुत करने का पैंतरा चल दिया जिसके बाद चंद्राबाबू  भी दबाव में आ गए और उनके लिए एनडीए में रहना सम्भव नहीं रहा। लोकसभा में अविश्वास का नोटिस दोनों ने दे दिया जिस पर अध्यक्ष सोमवार को निर्णय करेंगी। कांग्रेस , तृणमूल और वामपंथी दलों ने भी बिना देर लगाए  बहती गंगा में हाथ धोने के लिए प्रस्ताव का समर्थन कर दिया। ये सब इतनी जल्दी न हुआ होता यदि उप्र की गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीट के उपचुनाव में भाजपा की पराजय नहीं होती। तेलुगुदेशम को लगा इससे बेहतर अवसर नहीं मिलेगा क्योंकि वह और देर करती तब जगनमोहन विशेष राज्य के मुद्दे को भुनाकर तेलुगु देशम पर राज्य की उपेक्षा का आरोप मढ़ देते। दूसरी तरफ  लगातार उपचुनाव हारने से भाजपा और श्री मोदी का नूर एकदम से ढलान पर आ गया। वहीं पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की मारक क्षमता पर भी सन्देह के बादल मंडराने लगे। संयोगवश गुरुदासपुर , अलवर, अजमेर,  गोरखपुर और फूलपुर सभी सीटें भाजपा की रहीं। 2014 के बाद लोकसभा के उपचुनाव में गुजरात की बड़ौदा, महाराष्ट्र की बीड और मप्र की शहडोल छोड़कर भाजपा अपनी बाकी सीटें हारती चली गई किन्तु गोरखपुर की हार ने उसके माथे पर पसीना छलका दिया। मुख्यमन्त्री की अपनी सीट पर मिली हार ने भाजपा को भीतर तक हिला दिया। इसे 2019 में मोदी सरकार की विदाई की रिहर्सल तक कह दिया गया। अखिलेश और मायावती के बीच हुए अस्थायी तालमेल को विपक्षी एकता की नींव माना जाने लगा। उधर बिहार में लालू की पार्टी ने भी उपचुनावों में सफलता हासिल कर ली। जीतनराम मांझी भी साथ छोड़ गए। कुल मिलाकर अचानक भाजपा का दबदबा घटने से एनडीए के बाकी सहयोगी दल भी मुंह खोलने लगे। रामविलास पासवान के बेटे सांसद चिराग पासवान भाजपा को नसीहत देने आगे आए तो अकाली दल की तरफ से नरेश गुजराल ने सबको साथ लेकर चलने की सलाह बिना मांगे भाजपा को दे डाली। अन्य छोटी पार्टियां भी दबाव बनाने के संकेत दे रही हैं। चंद्राबाबू और जगनमोहन के अविश्वास प्रस्ताव से तो भाजपा को उतनी चिंता नहीं है क्योंकि अभी भी उसकी सदस्य संख्या स्पष्ट बहुमत को छू रही है लेकिन अब वह निश्चिंत होकर नहीं बैठ सकती। चंद्राबाबू शायद एनडीए में बने रहते किन्तु उन्हें भाजपा द्वारा आंध्र में स्वयं को मजबूत बनाने के प्रयास रास नहीं आए। शिवसेना की नाराजगी भी इसी को लेकर है। महाराष्ट्र में जब तक भाजपा जूनियर भागीदार रही तब तक सब ठीक चला किन्तु ज्योंही भाजपा ने बराबरी पर बैठना चाहा त्योंही उद्धव ठाकरे उखड़ पड़े। चंद्राबाबू उद्धव की अपेक्षा ज्यादा शातिर हैं किंतु उनमें थोड़ी गंभीरता भी है। उनके एनडीए छोडऩे की असली वजह 2019 का विधानसभा चुनाव है जिसके लिए उनके पास अपना कोई मुद्दा नहीं था। यदि वे केंद्र की उपलब्धियों के सहारे मैदान में उतरेंगे तब उन्हें नरेंद्र मोदी और भाजपा का गुणगान करना पड़ेगा और जाहिर है उस सूरत में भाजपा भी उनसे आंध्र में लोकसभा और विधानसभा की ज्यादा सीटें मांगेगी। श्री नायडू इस बात को भी नहीं पचा पा रहे हैं कि 2014 में वे और श्री मोदी एक सी हैसियत वाले थे। राष्ट्रीय राजनीति में भी जब चंद्राबाबू, वाजपेयी सरकार के दौर में बतौर एनडीए संयोजक कार्यरत रहे तब श्री मोदी की हैसियत महज गुजरात तक सीमित थी। यद्यपि प्रधानमंत्री बनने के बाद भी दोनों के रिश्ते मधुर रहे लेकिन अब कहा जा रहा है श्री नायडू एनडीए के संचालन में उन्हें अपेक्षित महत्व न मिलने से नाराज हैं। भाजपा द्वारा जगनमोहन पर डोरे डालने से भी वे चौकन्ने हो गये। अब जबकि वे एनडीए से बाहर आकर मोदी सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लेकर आ ही गये तब उनका पीछे लौटना सम्भव नहीं रहा। विशेष राज्य के मुद्दे पर केंद्र सरकार ने किसी भी तरह से न झुकने की जो नीति अपनाई उससे लगता है भाजपा ने भी अपनी कोई रणनीति बना ली है। भले ही जगनमोहन ने अविश्वास के मामले में बढ़त ले ली हो लेकिन आंध्र की राजनीति में वे तेलुगुदेशम के साथ नहीं जा सकते और इसी को देखकर भाजपा ने भी कड़ा रुख अपना लिया। आंकड़ों के मुताबिक केंद्र सरकार को अविश्वास प्रस्ताव से तो खतरा नहीं है और ये भी तय है कि प्रधानमंत्री उसके जवाब में अपने लंबे भाषण से देश के सामने प्रभावशाली तऱीके से अपना पक्ष रख देंगे किन्तु भाजपा के सामने असली चुनौती सहयोगी दलों को ये विश्वास दिलाने की है कि एनडीए में रहकर उनका भविष्य सुरक्षित है। जो भी छोटे - छोटे दल 2014 में भाजपा से जुड़े उनका उसके सिद्धांतों से कोई प्रेम नहीं है। शिवसेना जरूर हिंदुत्व के सवाल पर साथ थी लेकिन बाकी सब सुविधा के समझौते के कारण एनडीए में आए। अगर भाजपा के पास अपनी दम पर बहुमत न होता तो अब तक केंद्र सरकार कब की लडख़ड़ा जाती। ज्योंही सहयोगी दलों को लगा कि मोदी लहर कमजोर हो रही है त्योंही उन्होंने आंखें दिखानी शुरू कर दीं। अविश्वास प्रस्ताव तो खैर गिर ही जायेगा लेकिन भाजपा को न सिर्फ सहयोगी दलों वरन देश की जनता में भी ये विश्वास पुन: उत्पन्न करना होगा कि उपचुनावों की असफलताएं 2019 के महा मुकाबले को प्रभावित नहीं करेंगी और प्रधानमंत्री की लोकप्रियता तथा चुनाव जिताने की क्षमता अक्षुण्ण है। इसी के साथ भाजपा को मई में होने जा रहे कर्नाटक विधानसभा चुनाव को जीतना जरूरी है क्योंकि वहां कांग्रेस की सरकार के विरुद्ध नाराजगी का लाभ बांटने के लिए एचडी देवगौड़ा की जद (एस) भी मौजूद है। दूसरी सबसे बड़ी जरूरत केंद्र सरकार के अच्छे कार्यों से जनसाधारण को आश्वस्त एवं सन्तुष्ट करने की है जिसमें भाजपा और सरकार दोनों विफल प्रतीत हो रहे हैं। रही बात भाजपा विरोधी गठबंधन या तीसरे मोर्चे के पुनर्जन्म की तो उसके बारे में कोई पूर्वनुमान फिलहाल नहीं लगाया जा सकता क्योंकि छोटे-छोटे दलों की राजनीति तात्कालिक लाभ पर निर्भर होती है। भाजपा और कांग्रेस में प्रधानमंत्री पद हेतु सर्वसम्मति है लेकिन बाकी दलों में न जाने कितने उसका ख्वाब देख रहे हैं। अविश्वास प्रस्ताव का हश्र तो सब जानते हैं किंतु 2019 की मोर्चेबन्दी का काफी कुछ संकेत कर्नाटक के चुनाव परिणाम दे देंगे। यदि कांग्रेस अपनी सरकार बचा ले गई तब तो उसके नेतृत्व को विपक्ष स्वीकार करेगा लेकिन कहीं भाजपा ने सत्ता छीन ली तब एनडीए का बाजार भाव फिर ऊंचा होना तय है। इससे अलग अगर श्री देवगौड़ा की पार्टी का दबदबा बढ़ा तब तीसरे मोर्चे की संभावना बढ़ जाएगी क्योंकि चंद्राबाबू जैसे नेता कांग्रेस के झंडे तले नहीं आ सकेंगे ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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