Thursday 29 March 2018

सब पर भारी-जाति हमारी

इसे डाटा चोरी कहें या फिर उसका व्यापार लेकिन धीरे-धीरे ही सही ये बात तो स्पष्ट हो ही गई कि भारत में राजनीतिक दल जातिगत आंकड़ों का इस्तेमाल अपनी चुनावी रणनीति बनाने हेतु करते हैं। विदेशी कंपनियों के जरिये देश में विभिन्न क्षेत्रों के सामाजिक समीकरणों का विवरण एकत्र कर उस हिसाब से प्रत्याशी चयन एवं नीतियों का निर्धारण राजनीतिक संस्कृति बन चुकी है। जिसकी वजह से जातिगत भेदभाव मिटाने की बजाय उसे और बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है। उप्र के हालिया उपचुनाव में सपा-बसपा गठबंधन के सामने भाजपा जिस तरह चारों खाने चित्त हुई उसके पीछे यदि कोई नीतिगत मामला होता तब तो बात समझ में आती लेकिन केवल चुनावी लाभ के लिए जातिगत समूहों को गोलबंद करने के इस खेल की वजह से सामाजिक एकता के लिए खतरे बढ़ रहे हैं। कर्नाटक में इसका दूसरा रूप दिखाई देने लगा है। वहाँ हिन्दू समाज की विभिन्न जातियों के सैकड़ों मठ लगभग हर जिले में स्थित हैं। इनमें विराजमान मठाधीशों के अनुयायियों की संख्या हजारों में होती है। वैसे तो इनका काम लोगों को धर्म के मार्ग पर चलते रहने हेतु प्रेरित और निर्देशित करना है किंतु चुनाव आते ही इनमें सियासी नेताओं का आवागमन बढ़ जाता है जिनका उद्देश्य धार्मिक न होकर केवल और केवल अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करना होता है। जितने भी सर्वेक्षण या विश्लेषण आ रहे हैं उन सभी में कर्नाटक के चुनाव में मठों की महत्वपूर्ण भूमिका का खुलकर उल्लेख किया जा रहा है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और भाजपा प्रमुख अमित शाह कर्नाटक के चुनावी दौरों में मंदिरों और मठों में जा-जाकर जिस तरह मत्था टेक रहे हैं वह किसी धार्मिक भावना अथवा श्रद्धा के वशीभूत न होकर विशुद्ध वोट रुपी वरदान प्राप्त करने के लिए किए जा रहे प्रयासों का ही हिस्सा हैं। बीते कुछ दिनों से डाटा चोरी के मामले में विदेशी सर्वेक्षण एजेंसियों की सेवाएं लिए जाने को लेकर भाजपा और कांग्रेस के बीच जुबानी तीर चल रहे हैं। उनके अलावा भी कुछ छोटी-छोटी पार्टियों और संपन्न प्रत्याशियों द्वारा जातिगत आंकड़े और उनके राजनीतिक झुकाव की जानकारी हेतु विदेशी संस्थानों की सेवाएँ लेने की बात सामने आ रही है। यही नहीं तो बड़े-बड़े समाचार पत्र समूह और टीवी चैनल तक चुनाव सर्वेक्षणों के लिए जातिगत आंकड़ों और उनके रुख का अध्ययन करते हैं । इस तरह अब ये मान लेना मजबूरी हो गई है कि 21 वीं सदी के भारत में भले ही आधुनिकता की चकाचौंध बढ़ी हो लेकिन जाति और उस पर आधारित कुनबों का महत्व और प्रभाव मिटना और घटना तो दूर उल्टे  वह बढ़ता ही जा रहा है। ये स्थिति अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि सुशिक्षित वर्ग में भी जाति को लेकर आग्रह कम होने का नाम नहीं ले रहा। देश की राजधानी दिल्ली में भी जातिगत आधार पर सियासी गुणा - भाग लगाया जाता हो तब देश के सुदूर हिस्सों में क्या होता होगा ये अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। ये स्थिति देश के लिए कितनी खतरनाक है इसका अनुमान लगाए बिना राजनीतिक दल जिस तेजी से इस बुराई को बढ़ावा दे रहे हैं वह अच्छा संकेत नहीं है। कर्नाटक के वर्तमान चुनाव में बड़े-बड़े नेता जाति आधारित मठों की परिक्रमा जिस तरह कर रहे हैं उससे राजनीतिक दलों की सैद्धांतिक विपन्नता उजागर हो रही है। विकास के तमाम दावों के बावजूद जाति और मठाधीशों का सहारा लेना जाहिर करता है कि राजनीतिक दलों की समाज सुधार में कोई रुचि नहीं है। उनका एकमात्र मकसद वोटों की फसल काटना रह गया है। फिर चाहे इसके लिए समाज के टुकड़े ही क्यों न करना पड़े। डाटा चोरी को लेकर मचे बवाल से भी यही बात निकलकर आ रही है कि भारतीय समाज को जातियों में बांटकर रखने में राजनीतिक दलों का निहित स्वार्थ है। इसलिए छुआछूत मिटाने के सरकारी कर्मकांड के बावजूद जाति का ढांचा दिन ब दिन मजबूत होता जा रहा है। यही नहीं तो कुकुरमुत्तों की तरह उपजातियों के नए-नए झुंड नजर आने लगे हैं। ये सिलसिला कहां जाकर थमेगा कहना कठिन है लेकिन इस बात का भय बढ़ता ही जा रहा है कि जिस तरह से चुनावी लाभ हेतु  कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने लिंगायत नामक जाति समूह को पृथक धर्म का दर्जा देने की चाल चली यदि अन्य हिस्सों में भी यही बीमारी फैली तब देश की एकता का क्या होगा ये सोचकर भी कंपकंपी होने लगती है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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