Wednesday 21 March 2018

कब खत्म होगी परदेस में मजदूरी की मजबूरी

इराक में 4 वर्ष पूर्व लापता 39 भारतीयों की मृत्यु की पुष्टि आखिरकार हो ही गई। गर दिवस राज्यसभा में विदेशमंत्री सुषमा स्वराज ने उनके शव मिलने और डीएनए परीक्षण से उनकी पहचान होने के बाद इस बात की पुष्टि की कि आईएसआईएस द्वारा उनकी हत्या कर दी गई। इस जानकारी के बाद मृतकों के परिवारों पर तो दुख का पहाड़ ही टूट पड़ा जो बीते कई वर्षों से किसी अप्रत्याशित अच्छी खबर की प्रतीक्षा कर रहे थे। यद्यपि लम्बे समय तक कोई खोज-खबर न मिलने की वजह से ये माना जा रहा था कि उनमें से शायद ही कोई जीवित बचा होगा परंतु सरकार के पास अधिकृत जानकारी नहीं होने से वह संसद और उसके बाहर भी उनकी मृत्यु से इंकार करती रही। उन 39 अभागों के साथ पकड़े गए जिस एक युवक को बचने में सफलता मिल गई थी उसने लौटकर उसी समय बताया था कि उसके सामने सभी को आईएसआईएस ने मार डाला किन्तु सरकार के अनुसार उसके द्वारा दी खबर की पुष्टि नहीं हो पाई इसलिए उनके जीवित होने की उम्मीद रखते हुए खोज जारी रखी गई। विदेश राज्य मंत्री वी. के. सिंह ने अपनी जान खतरे में डालते हुए इराक़ के मोसुल शहर जाकर जिन खतरनाक परिस्थितियों में लापता भारतीयों का पता करने की कोशिश की वह एक फौजी के लिए ही मुमकिन था। जिस तरह से 39 लाशों को ढूंढा गया वह भी मामूली काम नहीं था। अंतत: जब हर तरह से ये पक्का हो गया कि 39 शव उन्हीं भारतीयों के हैं तब विदेशमंत्री ने संसद के जरिये मौत की अधिकृत जानकारी दी। इस संबंध में श्रीमती स्वराज के पिछले बयानों को लेकर लगाए जा रहे आरोप महज राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित हैं। विपक्ष का अधिकार ही नहीं दायित्व भी है कि वह किसी भी गलती पर सरकार को कठघरे में खड़ा करे किन्तु कुछ मसले ऐसे होते हैं जिनमें ऐसा नहीं होना चाहिए। विदेशमंत्री श्रीमती स्वराज और विदेश राज्यमंत्री श्री सिंह ने अरब देशों से संकट में घिरे दर्जनों भारतीयों को सुरक्षित निकाल लाने में सराहनीय भूमिका का निर्वहन किया है। इसे लेकर उनकी प्रशंसा भी हुई। इराक में लापता 39 भारतीयों की खोज में भी कोई कसर नहीं छोड़ी गई। मोसुल में जिस तरह के हालात थे उनमें साधारण कूटनीतिक प्रयासों के लिए भी गुंजाइश नहीं थी। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि पूर्व सेनाध्यक्ष होने के कारण वी.के.सिंह ही वहां के हालात में तलाशी अभियान चला सके वरना पूरे मामले पर लीपापोती कर दी गई होती। शोक में डूबे परिवारों की नाराजगी तो स्वाभाविक है क्योंकि जिस आशा पर उन्होंने आसमान टांग रखा था वह एक झटके में खत्म हो गई। जो जानकारी मिली उसके अनुसार आईएसआईएस ने भारतीयों के साथ ही बांग्लादेश के कुछ नागरिकों को भी पकड़ा था लेकिन उन्हें मुस्लिम होने की वजह से रिहा कर दिया जबकि भारतीय बंधकों को मुसलमान न होने से जान गंवाना पड़ी। जो युवक बचकर आ गया उसे भी बांग्ला देशी समझकर छोड़ा गया वरना उसकी मौत भी तय थी। कुल मिलाकर इस पूरे मामले पर देश भर का गुस्सा इस्लामी आतंकवाद के विरुद्ध होना चाहिए। बेहतर हो संसद में आईएसआईएस के विरुद्ध आवाज उठती जो भारत में भी जड़ें जमाने के लिए प्रयासरत है। खाड़ी देशों में रोजगार के लिए जाने वाले भारतीयों को ले जाने वाले दलालों पर भी सख्ती जरूरी है। जो 39 भारतीय इराक में मारे गए वे सभी श्रमिक थे। सीरिया संकट के चलते पूरे अरब जगत में असामान्य हालात हैं जिस वजह से वहां कार्यरत भारतीयों के लिए खतरा बना हुआ है। कुछ बरस पहले यमन के साथ ही अन्य अरब देशों में फंसी केरल की नर्सों को भारत सरकार द्वारा सुरक्षित निकाल लिया गया था लेकिन बाद में उनमें से कुछ ने फिर वहां जाने की इच्छा दिखाई। अरब देशों में ज्यादा पैसा कमाने के फेर में जाने वाले भारतीयों की सुरक्षा वहां की सरकार का दायित्व होता है। भारत सरकार किसी असामान्य परिस्थिति में ही कूटनीतिक चैनल के जरिये उनकी मदद कर सकती है। सीरिया संकट से उत्पन्न हालात के बाद भी 39 भारतीय श्रमिकों को वहां कौन ले गया ये भी उजागर होना चाहिये। इस बारे में समय-समय पर सरकारी प्रचार तंत्र आगाह भी करता रहता है लेकिन पेट का सवाल और कुछ-कुछ लालच के चलते अनेक लोग दलालों के चक्कर में फंसकर वतन से दूर चले जाते हैं। जो जानकारियां मिलती हैं उनके मुताबिक तो वहां उनका जबर्दस्त शोषण होता है। एक तरह से वे बंधुआ जैसे हो जाते हैं किन्तु घर-परिवार की खातिर वे सब कुछ सहते हुए भी काम करते हैं। मोसुल में मारे गए 39 भारतीयों के साथ भी ऐसा ही घटा होगा। बीते 4 साल से उनके परिजन जिन हालातों में दिन काट रहे थे, वे अकल्पनीय हैं। अचानक दुख का जो पहाड़ उन पर टूट पड़ा उससे पूरे देश को सदमा पहुंचा। बेहतर हो इस मुद्दे पर सियासत की जगह सम्वेदनशीलता का परिचय दिया जावे। उससे भी बड़ा  विचारणीय सवाल ये है कि अपने देश से हजारों मील दूर मजदूरी करने जाने की मजबूरी आखिर कब खत्म होगी?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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