Friday 9 March 2018

सियासी ब्लैकमेलिंग रोकना जरूरी

तेलुगुदेशम ने केंद्र सरकार से अपने मंत्री हटा लिए तो जवाब में भाजपा ने आंध्र सरकार से अपने मंत्रियों के इस्तीफे दिलवा दिए। प्रधानमंत्री और चंद्राबाबू नायडू की फोन वार्ता विफल होने के बाद हुए उक्त घटनाक्रम के बावजूद अभी भी तेलुगुदेशम एनडीए में बनी हुई है। हालांकि ये रिश्ता कब तक चलेगा, कहना कठिन है क्योंकि जिस वजह से चंद्राबाबू ने मोदी सरकार से रिश्ता तोड़ा वह आर्थिक कम राजनीतिक ज्यादा होने से आगामी चुनाव के मद्देनजर तेलुगुदेशम ने क्षेत्रीय भावनाएं भुनाने का दांव चल दिया। भाजपा भी इसको भांप गई थी इसीलिए उसने मनाने की कोशिश तो की लेकिन मनुहार नहीं। कल सुबह तो प्रधानमंत्री ने श्री नायडू से बात भी कर ली लेकिन परसों रात उनका फोन नहीं उठाया जिससे क्षुब्ध होकर चंद्राबाबू ने केंद्र से दोनों मंत्री तत्काल प्रभाव से हटा लिए। विवाद की जड़ विशेष राज्य का दर्जा है। तेलुगु देशम का कहना है भाजपा ने आंध्र को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने का आश्वासन दिया था। हैदराबाद के तेलंगाना के हिस्से में चले जाने से अमरावती नामक नई राजधानी बनाने हेतु भी केंद्र से बड़ी  राशि देने का वायदा भी था। लेकिन अब केंद्र कह रहा है कि 14 वें वित्त आयोग ने  कुछ पहाड़ी राज्यों को छोड़कर विशेष राज्य के दर्जे को समाप्त कर विशेष पैकेज की व्यवस्था बना दी है जिसमें 90 प्रतिशत केंद्र और 10 प्रतिशत राज्य का योगदान रहेगा। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने दो दिन पहले इसे स्पष्ट करते हुए आर्थिक मामलों में सियासत न करने जैसी जो टिप्पणी की उसका चंद्राबाबू ने बहुत बुरा माना और अलगाव का फैसला कर लिया। लेकिन यही एक वजह नहीं है। भाजपा को ये लग गया है कि आंध्र में तेलुगु देशम की छाया में वह कभी नहीं पनप सकेगी। 2014 में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ हुए थे। तब भाजपा अकडऩे की स्थिति में नहीं थी। इसलिए जितनी सीटें उसे दी गईं उतने पर ही वह लड़ी। 2 लोकसभा और आधा दर्जन विधानसभा सीटों के साथ वह तेलुगु देशम पर दबाव बनाने की स्थिति में नहीं आ सकी। चंद्राबाबू वैसे भी राजनीतिक सौदेबाजी में बेहद माहिर हैं। भाजपा इस बात को समझती है इसलिए उसने बीते कुछ समय से वाईएसआर कांग्रेस के नेता जगनमोहन रेड्डी से याराना बढ़ाने की चाल भी चली। यद्यपि जगन भी विशेष राज्य के दर्जे की मांग पर अड़े हैं किंतु भाजपा को लग रहा है कि श्री नायडू की अपेक्षा वह श्री रेड्डी को सहजता से साथ लेकर आंध्र में अपनी उपस्थिति को मजबूत कर सकेगी। इसीलिए उसने 2019 के  एक वर्ष पहले ही चंद्राबाबू के दबाव के सामने झुकने की बजाय उन्हें छोडऩे का साहस किया। आंध्र में भाजपा की पकड़ कर्नाटक जैसी नहीं है। वेंकैया नायडू के उपराष्ट्रपति बन जाने के बाद वहां कोई बड़ा क्षेत्रीय नेता भी नहीं है। लेकिन अपने अखिल भारतीय स्वरूप और नरेंद्र मोदी की छवि के बल पर उसे उम्मीद है कि ग्रामीण न सही लेकिन शहरी क्षेत्रों में वह एक ताकत बनकर स्थापित हो सकेगी। लेकिन तेलुगु देशम के दबाव से मुक्त होकर वह राहत की सांस भी नहीं ले पाई थी कि बिहार से भी विशेष राज्य की मांग उठ गई और नीतीश कुमार ने चंद्राबाबू का समर्थन करते हुए अपनी पार्टी जद (यू) और भाजपा के गठबंधन के भविष्य पर सवालिया निशान लगा दिए। यद्यपि वित्त आयोग ने विशेष राज्य के दर्जे की बजाय आर्थिक पैकेज का जो विकल्प दिया वह भी कमोबेश वही है लेकिन ये सच है कि विशेष राज्य के दर्जे से कई  सुविधाएं और रियायतें मिल जाती हैं। वर्तमान में पूर्वोत्तर सहित कुछ पहाड़ी राज्यों को ही विशेष राज्य की श्रेणी प्राप्त है। ये सच है कि तेलंगाना के पृथक होने के बाद आंध्र के बचे हुए हिस्से को विकसित करने के लिए विशेष राज्य का दर्जा देने की बात भाजपा ने कही थी किन्तु मौजूदा परिस्थितियों में वैसा कर पाना सम्भव नहीं होगा क्योंकि बिहार सहित कुछ अन्य राज्य भी वैसा ही चाह रहे हैं। चंद्राबाबू की नाराजगी के साथ ही नीतीश कुमार ने भी जिस तेजी से आंखें तरेरनी शुरू कीं उससे साफ हो गया कि भाजपा आला कमान ने तेलुगु देशम के दबाव के आगे घुटने क्यों नहीं टेके। इसका एक कारण ये भी रहा कि आंध्र और बिहार को अगर मोदी सरकार विशेष राज्य का दर्जा दे भी दे तो भाजपा शासित राज्यों में इसका उल्टा असर हो सकता है। इसीलिए केंद्र सरकार ने विशेष राज्य के दर्जे को  लेकर जो कड़ा रुख अपनाया वह अपनी जगह सही है क्योंकि क्षणिक राजनीतिक लाभ की खातिर देश के दूरगामी हितों की उपेक्षा के नतीजे सामने हैं। चाहे सीमा विवाद हो या नदी जल बंटवारे का झगड़ा, उन सबके टंगे रहने की एकमात्र वजह तात्कालिक लाभ उठाने की प्रवृत्ति ही रही। क्षेत्रीय दलों के वर्चस्व वाले राज्यों ने तो दबाव की राजनीति को संस्थागत रूप रूप दे दिया। तमिलनाडु के राजनेताओं ने भाषाई कट्टरता के चलते राज्य की बड़ी आबादी को देश की मुख्यधारा से जुडऩे नहीं दिया। चंद्राबाबू की तरह ही तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव भी बात-बात पर केंद्र को दबाने का प्रयास करते हैं। बंगाल को लेकर ममता बैनर्जी भी केंद्र सरकार को घेरने का कोई अवसर नहीं गँवातीं। पहले कांग्रेस और अब भाजपा इन दबावों को झेलने मजबूर होती रही किन्तु मोदी सरकार ने राजनीतिक सौदेबाजी के आगे घुटने टेकने की बजाय ठोस निर्णय लेने की जो हिम्मत दिखाई वह अच्छा संकेत है। संघीय ढांचे को मजबूत करते हुए केंद्र और राज्यों के बीच अच्छा समन्वय और सहयोग बनाने के कारण ही नीति आयोग और जीएसटी काउंसिल के निर्णयों में आम सहमति बन सकी किन्तु क्षेत्रीय दलों की रणनीति सदैव अपना जनाधार मज़बूत रखने की रहती है। इसी वजह से वे मौका पाते ही केंद्र सरकार से पंगा लेते रहते हैं जिससे जनता को लगे कि वे राज्य के हितों के लिए कितने संघर्षरत हैं। चंद्राबाबू की छवि और कार्यशैली सराहनीय रही है। हैदराबाद को बेंगलुरु की टक्कर की सायबर सिटी बनाने में उनका योगदान सर्वविदित है किन्तु महज अपने निहित राजनीतिक स्वार्थवश केंद्र सरकार को घुटनाटेक करवाने की प्रवृत्ति अच्छी नहीं है। चूँकि स्थानीय जनता की नाराजगी से बचने केंद्र की सरकारें क्षेत्रीय दबावों के समक्ष नतमस्तक होती रहीं इसीलिए चंद्राबाबू ने भी कोशिश की और बिना देर लगाए नीतीश कुमार भी उनके साथ हो लिए। लेकिन अभी तक तो केंद्र सरकार ने जो दृढ़ता दिखाई वह अच्छा संकेत है। रोज-रोज के दबाबों के चलते ही अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार अपेक्षित परिणाम नहीं दे सकी। नरेंद्र मोदी इस मामले में सख्त हैं और फिर भाजपा भी 2004 से काफी आगे आ चुकी है। राज्यों के बीच विकास को लेकर बना असंतुलन और भेदभाव दूर होना ही चाहिए लेकिन इसके लिए बनाए जाने वाले अनुचित दबावों को ठुकराने की इच्छाशक्ति भी उतनी ही जरूरी है। वरना केंद्र सरकार के लिए राज्यों के नखरे उठाना सम्भव नहीं रहेगा। सियासी ब्लैकमेलिंग की बुराई को आखिर कभी न कभी तो मिटाना ही होगा। यदि नरेंद्र मोदी ने इसकी हिम्मत दिखाई तो उन्हें समर्थन मिलना चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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