Wednesday 14 March 2018

विपक्षी एकता : अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी


चुनाव करीब आते ही आपदा प्रबंधन के तौर पर विपक्षी एकता के प्रयासों की नई कोशिश शुरू हो गई। हाल ही में तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव ने तीसरे मोर्चे के पुनर्जन्म की पहल की जिसे बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने भी समर्थन दिया। लेकिन वह ज्यादा आगे नहीं बढ़ सकी क्योंकि बीच में ही कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने विपक्षी एकता का दांव चल दिया। इसके तहत उन्होंने एक भोज भी रखा जिसमें 20 दलों के प्रतिनिधि मौजूद रहे और आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर नरेंद्र मोदी के विरुद्ध एकजुट होकर लडऩे की रणनीति बनाने पर चर्चा हुई। राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बन जाने पर एक तरह से राजनीति से सन्यास लेने के  बवजूद सोनिया जी ने विपक्षी एकता का राग क्यों छेड़ा इस पर सवाल भी उठे जिनका सीधा -सीधा जवाब ये है कि अभी भी विपक्ष के तमाम नेता राहुल को अपरिपक्व मानकर उनके नेतृत्व में काम करना अपनी तौहीन मानते हैं। कुछ लोग इसे कांग्रेस की रणनीति का हिस्सा भी बता रहे हैं जिसके अंतर्गत राहुल पार्टी संगठन पर ध्यान देंगे और सोनिया जी विपक्षी मोर्चा खड़ा करने पर । 2014 की जबरदस्त पराजय के बाद यूपीए एक तरह से अस्तित्वहीन होकर रह गया था। कांग्रेस जिस तरह से लगातार पराजित होते-होते हांशिये पर सिमटती जा रही थी उसके कारण अन्य विपक्षी दल भी उससे कटने लगे थे। विशेष रूप से राहुल के काम करने का तरीका उन्हें रास नहीं आता था। उप्र विधानसभा चुनाव के बाद तो राहल एक तरह से असफ़लता का दूसरा नाम ही बन गए। यद्यपि गुजरात चुनाव के बाद उनकी क्षमताओं के प्रति भरोसा थोड़ा बढ़ा लेकिन अभी भी वरिष्ठ विपक्षी नेता उन्हें उतना भाव नहीं देते। यही वजह रही कि श्रीमती गांधी ने कमान संभाली और 20 दलों के प्रतिनिधि उनके बुलावे पर भोज के बहाने एकत्र हो गए। उन सभी का मकसद भाजपा के प्रवाह को रोकना है जो श्री मोदी के नेतृत्व में लगातार विजय की ओर बढ़ती जा रही है। गुजरात के झटके के बाद त्रिपुरा की अविश्वसनीय विजय और नागालैंड के साथ मेघालय में भी सरकार बनाकर भाजपा ने एक बार फिर अपना सिक्का जमा लिया। जाहिर है कांग्रेस के लिए अकेले भाजपा का सामना करने की हिम्मत और ताकत दोनों नहीं बचे। उप्र और बिहार जैसे बड़े राज्यों में तो वह घुटनों के बल चलने मज़बूर है। जिस वजह से 2019 में अपने बूते सरकार बनाने की बात सोचना भी उसके ये सम्भव नहीं रहा। ऐसे में विपक्षी एकता की सबसे ज्यादा जरूरत किसी को है तो वह कांग्रेस को ही है क्योंकि 2019 में भी यदि 2014 जैसा नतीजा आया तब उसकी राष्ट्रीय पार्टी की हैसियत भी खतरे में पड़े बिना नहीं रहेगी लेकिन सोनिया जी के भोज में 20 दलों की मौजूदगी के बाद भी अभी 2004 जैसे चमत्कार की उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि तब भाजपा का नेतृत्व कर रही पीढ़ी वृद्धावस्था में पहुंच चुकी थी। लेकिन आज पार्टी और सरकार दोनों की कमान जिन हाथों में है वे शारीरिक और मानसिक रूप से बेहद सशक्त और सक्रिय हैं। उससे भी बड़ी बात है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी में विजय का जो उन्माद है वह कम नहीं हो रहा। जिस पूर्वोत्तर में भाजपा का नामलेवा नहीं हुआ करता था वहां भी यदि भगवा विचारधारा का प्रादुर्भाव हो सका तो इसकी वजह उक्त जोड़ी का हौसला ही है। कांग्रेस के बुलावे पर 20 दलों का एकजुट होना भी भाजपा के भय का ही परिणाम है लेकिन ये जमावड़ा कितना स्थायी हो सकेगा ये विश्लेषण का विषय है क्योंकि बंगाल में ममता बैनर्जी और वामपंथी कभी साथ नहीं आ सकेंगे। सोनिया जी के भोज में इसीलिए तृणमूल कांग्रेस के प्रतिनिधि तो आए लेकिन ममता बैनर्जी कन्नी काट गईं। इसी तरह वहां कई ऐसे दल भी थे जिनकी रणनीति उनके प्रभाव वाले राज्यों में राष्ट्रीय राजनीति से अलग चलती है। कुल मिलाकर श्रीमती गांधी की ये पहल कितना रंग लाएगी कहना कठिन है क्योंकि विपक्षी एकता के कई स्तम्भ कमजोर हो चले हैं। लालू के जेल जाने से बिहार में विपक्ष बिना माई बाप जैसा है तो उप्र में मुलायम सिंह के हांशिये पर चले जाने से भी काफी फर्क पड़ रहा है। महाराष्ट्र में शरद पवार भी उम्र के चर्मोत्कर्ष पर हैं और स्वास्थ्य भी उनका साथ नहीं दे रहा। उनकी भतीजे अजीत पवार और बेटी सुप्रिया सुले उन जैसा असर नहीं दिखा पा रहे हैं। उप्र में सपा-बसपा ने उपचुनावों को लेकर साथ आने की जो पहल की वह भी राज्यसभा की सीट के समीकरणों से जुड़ी हुई है। कुल मिलाकर अभी ये कहना जल्दबाजी होगी कि विपक्षी एकता का ये प्रयास आकार ले भी पाएगा या नहीं क्योंकि 2019 के पहले भी कई राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। जिनमें कर्नाटक छोड़कर अधिकतर में भाजपा और कांग्रेस का सीधा मुकाबला है। उससे भी बड़ी बात ये है कि नरेंद्र मोदी के मुकाबले उतारने वाला कोई सक्षम चेहरा विपक्ष के पास नहीं है। राहुल गांधी की वजनदारी अब तक नहीं बन पाने से कांग्रेस चिंतित है और इसीलिए सोनिया जी को मैदान में उतरना पड़ा लेकिन बिना मोदी का विकल्प दिए मतदाताओं के सामने  जाने का नुकसान अवश्यंभावी है। वैसे कांग्रेस की इस मुहिम को पूरी तरह से नकारना भी गलत होगा किन्तु पिछले अनुभव बहुत आश्वस्त नहीं करते क्योंकि क्षेत्रीय छत्रप कांग्रेस को कितना महत्व देंगे ये अभी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। रही बात भाजपा की तो वह विजयोन्माद में भले रहे किन्तु उसे ये नहीं भूलना चाहिए कि 2004 में भी वह इसी मुगालते में रहकर गड्ढे में गिर गई थी। आज उप्र और बिहार के उपचुनावों के नतीजे आ रहे हैं। उनसे भी विपक्षी एकता और भाजपा की पकड़ का पक्का न सही सतही आकलन हो ही सकेगा लेकिन विपक्ष को इतना ज़रूर याद रखना होगा कि 2004 की तुलना में भाजपा का नेतृत्व अधिक ऊर्जावान और जुझारू लोगों के हाथ में है तथा कांग्रेस अब तक राष्ट्रीय स्तर पर असर छोडऩेे वाला कोई नेतृत्व नहीं दे सकी है। प्रादेशिक नेताओं में भी पहले जैसा दम-खम नहीं दिख रहा। शायद यही वजह है कि भाजपा शिवसेना और तेलुगु देशम की नाराजगी का खतरा उठाने तैयार है और ताजा संकेतों के अनुसार जल्द ही वह अकाली दल से भी पिंड छुड़ाने की सोचने लगी है। विपक्षी एकता की इस मुहिम को अभी एक खतरा तीसरे मोर्चे के संभावित उदय से भी है जिसमें वे नेता और पार्टियां शरीक होंगी जो भाजपा और कांग्रेस दोनों से परहेज करती हैं। उप्र के उपचुनावों के जो रुझान आ रहे हैं उनमें कांग्रेस का कहीं न होना भी इस गठबंधन पर प्रश्नचिन्ह लगा रहा है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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