Thursday 1 March 2018

जनमत : रवीन्द्र वाजपेयी दार्शनिक नहीं राजनीतिक विश्लेषण करें शिवराज

शिवराज सिंह चौहान दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी रहे हैं इसीलिए मुंगावली और कोलारस की पराजय पर उनकी प्रतिक्रिया में भी दार्शनिकता का भाव छलक उठा। उनका ये कहना तथ्यात्मक द्रष्टि से सही है कि भाजपा दोनों सीटों पर कांग्रेस को पिछले  चुनाव की तरह भारी जीत से रोकने में सफल रही तथा हार-जीत चलती रहती है। मुंगावली में तो वह जीतते-जीतते हार गई वहीं  कोलारस में कांग्रेस की जीत को 10 हजार के नीचे रखकर मनोवैज्ञानिक दबाव से बचने में सफल रही। लेकिन इतनी जी-तोड़ मेहनत के बाद भी ज्योतिरादित्य सिंधिया के गढ़ में सेंध न लगा पाना मुख्यमंत्री और भाजपा संगठन दोनों के लिए चिंता का विषय है। लेकिन श्री चौहान से ज्यादा ये प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नन्दकुमार सिंह चौहान तथा संगठन महामन्त्री सुहास भगत की कमजोरी का प्रमाण बन गया। चित्रकूट में भी मुख्यमंत्री की मेहनत से हार का अंतर कम हो गया था। वही इन उपचुनावों में हुआ लेकिन ये मन को बहलाने के लिहाज से तो बेहतर हो सकता है किन्तु राजनीति जमीनी सच्चाइयों पर आधारित होती है और उस आधार पर तो प्रदेश के वर्तमान माहौल में नंदू भैया और श्री भगत मिलकर शिवराज सिंह को वैसा सहयोग या  सम्बल नहीं दे पा रहे जैसा अरविंद मेनन दिया करते थे। शिवराज सिंह का बस चलता तब वे श्री मेनन को जाने ही न देते किन्तु रास्वसंघ की नाराजगी आड़े आ रही थी। सुहास भगत अपने पूर्ववर्ती संगठन मंत्री के ठीक विपरीत अंतर्मुखी हैं जिससे उनका निचले स्तर पर संवाद ही नहीं बन पाया है। यही शिकायत पार्टी कैडर को उनके सहयोगी अतुल रॉय से है। इन सबके चलते शिवराज सिंह पर दोहरा भार आन पड़ा है।। वे ही रणनीति बनाएं और फिर वे ही मैदान में उतरकर तलवार चलाएं ये स्थिति भाजपा की चौथी पारी  के सपने को मिट्टी में मिला सकती है। यद्यपि नवम्बर 2018 की बड़ी जंग के नतीजे  के बारे में कुछ कहना जल्दबाजी होगी लेकिन चुनावी साल में लगातार तीन पराजय किसी भी सत्तारूढ़ पार्टी की पकड़ कमजोर होने का संकेत है। शिवराज सिंह ही चूंकि भाजपा के चेहरे होंगे इसलिये इन नतीजों पर उन्हें दार्शनिक नहीं राजनीतिक दृष्टि से विचार करना चाहिए। भले ही वे बसपा के न लडऩे पर  भी कांग्रेस को बड़ी  जीत से वंचित करने में कामयाब रहे हों लेकिन ये पराजय उनके लिए शर्मनाक से ज्यादा दर्दनाक हैं। भले ही वे कहें कुछ भी।

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