Tuesday 6 March 2018

-:जनमत:- लेनिन की मूर्ति लगाई ही क्यों?

साम्यवाद चूंकि विदेशों से आयातित विचाधारा रही इसलिये भारत में उसे बौद्धिक स्तर पर तो स्वीकार्यता मिली किन्तु ज़मीनी स्तर पर उसका व्यापक असर नहीं रहा। मैनें अनेक साम्यवादी नेताओं को कर्मकांडी होते देखा। यही नहीं उनकी जीवनशैली में भी मज़दूर-किसान के हमदर्द जैसी कोई बात नहीं दिखी।
कर्मचारी यूनियन के जुलूसों में भारी भीड़ के बाद भी श्रमिक बहुल क्षेत्रों में कम्युनिस्ट पार्टी का उम्मीदवार न सिर्फ हारता रहा अपितु जमानतें भी जप्त हुईं। जबलपुर का कैंट विधानसभा क्षेत्र सुरक्षा संस्थानों के कर्मचारियों से भरा होने के बाद भी वहां से साम्यवादी प्रत्याशी जीतना तो क्या दूसरे स्थान तक पर नहीं आ सका । दरअसल भारतीय सोच हिंसा के जरिये क्रांति की हामी नहीं रही। वर्ग संघर्ष की जगह वर्ग समन्वय ही उसका उद्देश्य रहा।
त्रिपुरा में लेनिन के मूर्ति को गिरा देने के पक्ष -विपक्ष में कुछ बोलने की बजाय मैं तो ये पूछना चाहूंगा कि लेनिन की मूर्ति लगाने की जरूरत ही क्या थी? यदि माणिक सरकार बीटी रणदिवे, श्रीपाद अमृत डांगे, ईएमएस नमूदरीपाद या उन जैसे किसी भारतीय साम्यवादी नेता की मूर्ति लगाते तब उसका औचित्य भी था। गनीमत है उन्होंने माओ त्से तुंग का पुतला नहीं खड़ा किया। वामपंथी सोच के लिहाज से माओ भी तो साम्यवादी रक्त क्रांति के दूसरे सबसे बड़े प्रणेता थे। माणिक सरकार जिस सीपीएम से जुड़े हैं वह भी मूलत: सोवियत संघ मार्का साम्यवाद से अलग हटकर चीन समर्थक हो गई थी। उल्लेखनीय है 1962 के हमले के उपरांत भारत की कम्युनिस्ट पार्टी दो फाड़ हुई। सीपीएम नामक धड़ा चीन और सीपीआई नामक सोवियत संघ के मुखिया रूस का दुमछल्ला बन गया। 1975 में लगे आपातकाल में सीपीआई इंदिरा गांधी का समर्थक बनकर चमचा पार्टी ऑफ इंडिया कहलाई  वहीं सीपीएम ने आपातकाल का विरोध किया। यद्यपि बाद में दोनों ने मिलकर वामपंथी मोर्चा बनाया और बंगाल तथा त्रिपुरा में खम्बा गाड़कर बैठ गए। लेकिन अब न सोवियत संघ रहा न माओ वाला चीन। लेकिन भारत के कम्युनिस्ट अब भी लाल सपने देखने के अभ्यस्त हैं।
त्रिपुरा में वामपंथी सत्ता के पतन के बाद ही देश को पता चला कि वहां लेनिन की मूर्ति भी लगी थी। उसे गिराये जाने को असहिष्णुता का प्रतीक कहकर आलोचना करने वाले भी दबी जुबान ही सही सामने आ रहे हैं लेकिन वे भूल रहे हैं कि सोवियत संघ के विघटन के साथ ही जब पूर्वी यूरोप के अनेक साम्यवादी देशों ने साम्यवाद की अंत्येष्टि करने का दु:साहस किया तब भी लेनिन की मूर्तियों के अलावा वहां के साम्यवादी तानाशाहों के पुतले इसी तरह गिराए गए थे। खुद रूस में साम्यवादी दौर के प्रतीक चिन्हों को नष्ट या महत्वहीन करने का काम हुआ। लेनिन द्वारा की गई बोल्शेविक क्रांति के मुरीदों में एक पं नेहरु भी थे लेकिन उन्हीं ने देश में बहुदलीय संसदीय प्रजातन्त्र की आधारशिला रखी थी। भारत के साम्यवादी आंदोलन की विडंबना ये रही कि वह सदैव विदेशी आदर्शों को ढोता रहा। जिन लेनिन को माणिक सरकार ने त्रिपुरा में साम्यवाद का महानायक बनाकर बीच चौराहे पर खड़ा किया उसे तो उस चीन ने ही उपेक्षित कर दिया जिसे श्री सरकार की पार्टी सीपीएम अपना आका मानती रही।

-रवींन्द्र वाजपेयी

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