Friday 30 March 2018

अन्ना : आकर्षण और असर दोनों में कमी

नरेंद्र मोदी को सत्ता से हटाने का संकल्प पूरा करने के लिए जान की बाजी लगाने के हौसले के साथ दिल्ली के रामलीला मैदान में आमरण अनशन पर बैठे अन्ना हज़ारे महज सात दिन में ही उठ गए। न उनकी कोई मांग तत्काल पूरी हुई और न ही मोदी मुक्त भारत का संकल्प। छह माह के भीतर सभी मांगों को पूरा करने का आश्वासन मिलने के बाद ये चेतावनी देकर उन्होंने अनशन समाप्त कर दिया  कि सरकार ने वायदा खिलाफी की तो वे सितम्बर में फिर अनशन पर बैठेंगे। इस बुजुर्ग आंदोलनकारी का अनशन समाप्त होने से सभी ने राहत की सांस ली क्योंकि तेज गर्मी की वजह से उनका स्वास्थ्य खराब होने लगा था। अन्ना एक सम्मानित शख्सियत रहे हैं। भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनकी लड़ाई में हर ईमानदार व्यक्ति मानसिक रूप से उनके साथ है किंतु लगता है उम्र उनकी निर्णय क्षमता पर हावी होती जा रही है जिसके चलते दृढ़ निश्चयी अन्ना ऐसे व्यक्ति बन गए जो पूरी तरह भ्रमित है। राजनीति से उनकी दूरी स्वागतयोग्य है लेकिन कटु सत्य ये है कि सभी मांगें राजसत्ता से जुड़ी होने से उनका हर आंदोलन चाहे-अनचाहे राजनीति से जुड़ ही जाता है। दूसरी बात उनके बयानों और आंदोलनों के समय को लेकर उठती है। अक्सर उन पर आरोप लगता है कि वे किसी न किसी राजनीतिक दल के एजेंट के तौर पर काम करते हैं। 2011 के अनशन के समय उन पर भाजपा  समर्थक होने और बाद में कांग्रेस के हाथ में खेलने के आरोप लगने लगे। शुरू-शुरू में अरविंद केजरीवाल एंड कम्पनी को उनका आशीर्वाद था लेकिन बाद में वह अन्ना से दूर चली गई। दिल्ली विधानसभा चुनाव में अन्ना ने ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस पर हाथ रखा किन्तु फिर उससे भी किनारा कर लिया। इन्हीं सब का नतीजा रहा कि गत सप्ताह जब अन्ना ने अपना मंच सजाया तब कोई राजनीतिक दल सीधे तौर पर न सही लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से भी उनके समर्थन में नहीं आया। जो टीवी चैनल अन्ना के पिछले अनशन का सीधा प्रसारण करते थे वे ही इस बार खाली पंडाल के दृश्य दिखा-दिखाकर उन्हें उपहास का पात्र बनाने से नहीं चूके। नौबत ये आ गई कि अन्ना की मांगें तो गौण हो गईं और खाली पड़े पंडाल मुद्दा बन गए। प्रथम पृष्ठ की खबर से खिसक कर वे भीतरी पन्नों के किसी कोने में सिमट गए। ऐसे में उनके लिए यही सही था कि वे बिना जिद किये अनशन खत्म कर दें। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फणनवीस के हाथों नारियल पानी पीकर अन्ना उठ गए। उनकी मानें तो सरकार ने छह महीने के भीतर उनकी सभी बातें मान लेने का वचन दिया है किंतु ये उतना आसान भी नहीं जितना वे समझ रहे हैं। ऐसा लगता है केन्द्र सरकार ने भी उनकी आयु के मद्देनजर अनशन खत्म करवाने की रणनीति चली। उधर अन्ना भी सोशल मीडिया सहित अन्य माध्यमों में आ रही विपरीत प्रतिक्रियाओं से हतोत्साहित होने लगे थे। यही वजह रही कि जरा से आग्रह और आश्वासन के बाद वे बिना नाज़-नखरे के उठने राजी हो गए। उनकी मांगें आगामी छह माह में कितनी पूरी होती हैं ये पक्का नहीं है क्योंकि सर्वदलीय सहमति के बाद भी उनमें से कुछ को लागू कर पाना व्यवहारिक दृष्टि से असम्भव न सही किन्तु आसान भी नहीं है। बेहतर हो अन्ना अब अपना तरीका बदलें। उनके अनशन और धरने अब पहले जैसा असर नहीं डालते। लोकपाल का गठन भी मज़ाक बनता जा रहा है। रही बात किसानों की तो उसके लिए सभी राज्य सरकारें अपने-अपने ढंग से निर्णय किया करती हैं। ये देखते हुए उनको अब शरशैया पर पड़े भीष्म पितामह की तरह उपदेश देने की मुद्रा में आ जाना चाहिए। इस उम्र में उनकी शारीरिक स्थिति भी पहले सरीखी नहीं है। कोई भी राजनीतिक पार्टी उनके पीछे नहीं आना चाहती क्योंकि अस्थिर दिमाग के चलते अन्ना कब कौन सा रास्ता पकड़ लें कहना कठिन है। कुल मिलाकर भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनकी लड़ाई में अब पहले जैसी धार नहीं रही, जिसके लिये वे स्वयं जिम्मेदार हैं। इस बार उनके अनशन स्थल पर लगे पंडाल वगैरह के खर्च को लेकर भी जो टीका-टिप्पणी हुईं वे इस बात का प्रमाण हैं कि उनके प्रति न कोई आकर्षण बचा न ही पहले जैसा असर। इस सच्चाई को अन्ना जितनी जल्दी समझ लें तो ये उनके लिए बेहतर रहेगा वरना वे पूरी तरह अप्रासंगिक होकर रह जाएंगे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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