Monday 19 March 2018

कांग्रेस : बिना उप्र., बिहार- नहीं उद्धार


बरसों बाद सम्पन्न हुए कांग्रेस अधिवेशन में राहुल गांधी ने जो जोशीला भाषण दिया वह उनके आत्मविश्वास को तो दर्शाता है लेकिन ज्वलंत मुद्दों पर पार्टी की नीतियों का प्रतिपादन करने में श्री गांधी सफल नहीं हो सके। इसकी वजह ये थी कि उक्त अधिवेशन का असली मकसद राहुल के नेतृत्व पर मुहर लगवाना था। उन्होंने गत दिवस उपस्थित प्रतिनिधियों को बताया कि मंच पर न कोई कुर्सी रखी गई और न ही किसी नेता का चित्र लगाया गया। ऐसा कहकर उन्होंने ये एहसास कराने की कोशिश की कि पार्टी में सबके लिए सम्भावनाएँ हैं। टिकिट वितरण में कार्यकर्ताओं को प्राथमिकता देने का आश्वासन देते हुए कांग्रेस अध्यक्ष ने वायदा किया कि उनके और नेताओं के बीच जो दीवार है वे उसे मिटा देंगे। भाजपा और प्रधानमंत्री पर भी उन्होंने हमेशा की तरह तीखे हमले किये जो बतौर विपक्षी नेता स्वाभाविक और अपेक्षित ही थे। कहने को तो अधिवेशन को सोनिया गांधी और डॉ.मनमोहन सिंह सहित पी. चिदम्बरम आदि ने भी सम्बोधित किया लेकिन ले -देकर पूरा का पूरा जमावड़ा कांग्रेस में राहुल युग की औपचारिक शुरुवात का ऐलान करने पर केंद्रित रहा जिसको नवजोत सिंह सिद्धू ने अगले वर्ष राहुल द्वारा बतौर प्रधानमंत्री लालकिले पर राष्ट्रध्वज फहराने जैसी बात कहकर अभिव्यक्त भी किया। यहां तक तो सब ठीक था। लेकिन मंच पर कुर्सियां न रखकर जो नई परंपरा शुरू की गई उसका उद्देश्य केवल यही दिखाना था कि कांग्रेस अब सामूहिक नेतृत्व का दिखावा भी नहीं करेगी। मंच पर गांधी जी, पं. नेहरू और इंदिरा जी के चित्र न लगाए जाने का भी संकेत यही था कि अब जो कुछ भी हैं, राहुल और केवल राहुल ही हैं। 2019 में विजय का आत्मविश्वास कांग्रेस अध्यक्ष के भाषणों में इस तरह झलक रहा था कि वे नरेंद्र मोदी के चेहरे के भावों में परिवर्तन तक बताने लगे। निश्चित रूप से उनके हमले जोरदार रहे किन्तु वे विपक्षी गठबंधन के विषय में नहीं बोले। उप्र के दो उपचुनावों में भाजपा की हार से तो वे प्रफुल्ल नजर आए परन्तु गोरखपुर और फूलपुर में कांग्रेस की जमानत जप्त होने के बारे में न तो श्री गांधी बोले और न अन्य वक्ता। सबसे प्रमुख बात ये रही कि पार्टी के महामंत्री और उपाध्यक्ष बनते ही राहुल ने जिस आंतरिक लोकतंत्र की बात उठाई और कुछ हद तक उसकी शुरुवात भी की, उसको लेकर आगे बढऩे की बजाय शीर्ष स्तर पर मनोनयन की घिसी पिटी परिपाटी क़ायम रखने पर ही मुहर लगवा ली गई। गुलाम नबी आजाद ने प्रस्ताव रखा कि कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों का चुनाव करवाने की बजाय उनके मनोनयन का अधिकार कांग्रेस अध्यक्ष को दे दिया जाए। तदुपरांत अतीत में जैसा होता आया है वही हुआ और पूरे सदन ने राहुल को अधिकार देकर पार्टी संगठन की सबसे ताकतवर संस्था में ही लोकतंत्र की जड़ों में मठा डाल दिया। खबर है श्री गांधी कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद कार्यसमिति का गठन करेंगे। प्राप्त संकेतों के मुताबिक मौजूदा बुजुर्गों में से कइयों को सेवानिवृत्ति देकर युवाओं को जगह दी जाएगी किन्तु एक बात तो तय हो ही गई कि चाहे सोनिया जी का दौर रहा हो या अब राहुल का, कांग्रेस में होगा वही जो गांधी परिवार चाहेगा। कर्नाटक चुनाव तक प्रतीक्षा करने के पीछे भी रणनीति ये है कि अभी से नाराजगी का सिलसिला शुरू न हो जाए। उल्लेखनीय है राज्यसभा की उम्मीदवारी को लेकर कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने पार्टी हाईकमान की सिफारिशों को रद्दी की टोकरी में फेंकते हुए सैम पित्रोदा और जनार्दन द्विवेदी को टिकिट देने से मना कर दिया। ताजा समाचार के अनुसार राज्य के कुछ क्षेत्रों से चुनाव प्रचार हेतु राहुल गांधी को न भेजे जाने सम्बन्धी अनुरोध भी आए हैं। इसीलिए  कार्यसमिति के चुनाव को टालते हुए पहले तो राहुल को ही मनोनयन के अधिकार दे दिए गए और अब कर्नाटक चुनाव के उपरांत उसके मनोनयन की बात कहकर एक बार फिर संगठन को पूरी तरह से दरबारी संस्कृति में ढालने की व्यवस्था कर ली गई। युवाओं को आगे लाना निश्चित रूप से सही कदम है किंतु पार्टी कार्यकर्ताओं पर पकड़ रखने वाले नेताओं की बजाय जी- हुजूरियों की फौज खड़ी करने का दुष्परिणाम भोगने के बाद भी कांग्रेस को यदि समझ नहीं आ रही तब ये मानना ही पड़ेगा कि गलतियों से सीख लेकर उन्हें न दोहराए जाने की अक्लमंदी से वह अब भी दूर ही है। प्रदेशों में नेतृत्व के अभाव की स्थिति दूर करने के लिये  सक्षम युवाओं को अवसर देने की कोशिश भी सफल होती नहीं दिखती। राजस्थान में सचिन पायलट को आगे किया तो अशोक गहलोत ने फौरन समानान्तर गोटियाँ बिठानी शुरू कर दीं। गुलाम नबी आजाद जैसे जनाधार विहीन नेताओं को किसलिए ढोया जाता रहा है, ये कोई नहीं बता सकता। मप्र में कहने को तो अरुण यादव प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष हैं लेकिन वे भी कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया की मर्जी के बिना स्वतन्त्र निर्णय नहीं ले पाते। यही वजह है कि कांग्रेस अपने युवा नेताओं की योग्यता और क्षमता का समुचित उपयोग नहीं कर पा रही। उस दृष्टि से देखें तो कुछ आक्रामक भाषणों के अलावा पार्टी अधिवेशन से ऐसा कोई भी संकेत निकलकर सामने नहीं आया जिससे लगता कि राहुल युग पहले से बेहतर रहेगा। मंच से थोड़ा दूर रहकर प्रियंका वाड्रा द्वारा कार्यकर्ताओं से अनौपचारिक मुलाकात किये जाने से भी यही ज़ाहिर हुआ कि पार्टी अभी भी परिवार की पकड़ से बाहर नहीं आ पा रही। राहुल गांधी भाषणों में कितने भी जोशीले हो जाएं लेकिन जमीनी स्तर पर वे उतने प्रभावशाली नहीं  हो पाते तो उसकी वजह वही दरबारी संस्कृति है जो उन्हें वास्तविकता से रूबरू नहीं होने देती। पार्टी अधिवेशन में अपनी मां सोनिया जी से राहुल के लिपटकर गले मिलने की जो तस्वीर सार्वजनिक हुई वह बिना कुछ कहे ही बहुत कुछ कह गई। यदि श्री गांधी ऐसा ही चित्र डॉ. मनमोहन सिंह अथवा अन्य किसी वरिष्ठ नेता के साथ खिंचवाते तो उसका सन्देश कहीं अधिक सकारात्मक रहा होता। नरेंद्र मोदी को भ्रष्टाचार का प्रतीक , भाजपा को कौरव और वीर सावरकर को अंग्रेजों से माफी मांगने वाला बताने जैसी बातें कहकर श्री गांधी ने कुछ देर तक सुर्खियां  जरूर बटोरी हों लेकिन पूरे अधिवेशन में वे इस बात का कोई आश्वासन नहीं दे सके कि तकरीबन 120 लोकसभा सीटों वाले उप्र और बिहार जैसे राज्यों में जहां कांग्रेस को 10 सीटों के भी लाले हों वहां उसका पुनरुद्धार कैसे होगा? आज भी स्थिति ये है कि यदि सपा,-बसपा हाथ खींच लें तब सोनिया जी और राहुल क्रमश: रायबरेली और अमेठी से लोकसभा चुनाव तक नहीं जीत सकेंगे। यही वजह है कि भले ही श्री गांधी अपनी पार्टी के सर्वमान्य नेता हों लेकिन विपक्ष में आज भी उनकी क्षमताओं को लेकर एक राय नहीं है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment