Saturday 24 March 2018

लाभ का पद : जनता के पैसे पर सामन्ती ऐश

दिल्ली में आम आदमी पार्टी के 20 विधायकों की सदस्यता समाप्त किए जाने सम्बन्धी चुनाव आयोग के फैसले को रद्द करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने आयोग को दोबारा सुनवाई करने का निर्देश दिया है। न्यायालय ने विधायकों की इस दलील को मान्य किया कि चुनाव आयोग द्वारा उन्हें मौखिक सुनवाई का अवसर दिए बिना उनकी बर्खास्तगी की सिफारिश राष्ट्रपति को भेज दी। इस निर्णय से आम आदमी पार्टी ने राहत की सांस जरूर ली होगी किन्तु आयोग द्वारा दोबारा सुनवाई किये जाने तक सदस्यता समाप्ति की तलवार लटकती रहेगी। इस विवाद की जड़ है लाभ का पद। दरअसल मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपनी विशाल विधायक संख्या को बांधकर रखने के लिए अधिकतर को संसदीय सचिव या अन्य ऐसे ही अनेक पद बांटकर मंत्री जैसी सुविधाएं एवं वेतन-भत्ते देने की व्यवस्था कर दी। यूँ भी दिल्ली में विधायकों के वेतन-भत्ते देश भर में सर्वाधिक हैं। दिल्ली अकेला राज्य नहीं है जहां विधायकों को लाभ के पद दिए गए हों। लेकिन इस व्यवस्था में राज्य दर राज्य अलग-अलग व्यवस्थाएं हैं। कुछ राज्यों ने लाभ के पद को अपनी सुविधानुसार परिभाषित कर दिया है। दिल्ली में ऐसा न हो पाने की वजह से आम आदमी पार्टी पर संकट आया। यद्यपि अयोग्य ठहराए गए विधायकों  का कहना है कि उन्होंने जो पद उन्हें दिया गया उससे जुड़े वेतन, भत्ते, वाहन एवं बंगले जैसी सुविधाएं हासिल नहीं कीं इसलिए वे लाभ के पद के आरोप से मुक्त हैं। लेकिन कानूनी पेंच ये है कि जब तक दिल्ली सरकार संसदीय सचिव या उस जैसे अन्य पदों को लाभ की श्रेणी से बाहर नहीं करती तब तक संबंधित विधायकों की सदस्यता पर खतरा मंडराता रहेगा। दिल्ली उच्च न्यायालय ने अयोग्य ठहराए गए विधायकों की अयोग्यता पर कोई राय नहीं दी। उसने उन्हें मात्र ये कहकर राहत दी कि चुनाव आयोग ने उनका पक्ष नहीं सुना। इसका अर्थ ये हुआ कि न्यायालय ने लाभ के पद सम्बन्धी विवाद में टांग नहीं अड़ाई। फर्ज करें चुनाव आयोग उन विधायकों का पक्ष सुनकर दोबारा अयोग्य घोषित कर देता है तब उच्च न्यायालय  क्या करेगा? दरअसल ये मसला प्रजातंत्र के सामंतीकरण से जुड़ा हुआ है। मंत्रियों की संख्या सीमित कर दिए जाने से निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के असन्तोष को दूर करने के लिए दूसरी तरह से उन्हें सत्ता का लाभ पहुँचाने के तरीके निकाले गए। जब कानूनी अड़चनें आईं तब उन्हें लाभ के पद की फेहरिस्त से बाहर कर दिया गया। इस लिहाज से दिल्ली अकेला राज्य नहीं है जहां विधायकों को रेवडिय़ाँ बांटी गई हों। हो सकता है अब केजरीवाल सरकार भी चतुराई दिखाते हुए सुरक्षा प्रबंध कर ले लेकिन इस प्रश्न का उत्तर कौन देगा कि विधायकों को संतुष्ट करने के लिए जनता से वसूले गए करों की बरबादी का औचित्य क्या है? यदि इसी तरह से पदों की बंदरबांट करनी है तब मंत्रियों की संख्या सीमित करने का क्या लाभ? दिल्ली के 20 विधायकों के बारे में चुनाव आयोग क्या करेगा ये तो वही जाने किन्तु जनता की जेब काटकर पैदा किये जा रहे नव सामंतवाद पर रोक जरूरी है। राजनीतिक दल अपने विधायकों को सत्ता का सुख प्रदान करने के लिए जनता का शोषण करें इसकी छूट नहीं होनी चाहिए वरना लोकतंत्र और सामंतशाही के बीच अंतर ही क्या रह जाएगा?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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