Sunday 4 March 2018

त्रिपुरा का जनादेश राजनीतिक ही नहीं वैचारिक परिवर्तन का भी संकेत




पूर्वोत्तर भारत राष्ट्रीय राजनीति में इतना चर्चित पहले कभी नहीं रहा । ऐसा नहीं है कि वहां बड़े बदलाव न हुए हों । नब्बे के दशक में असम गण परिषद की सरकार का बनना , सिक्किम में सत्तारूढ़ दल का सभी सीटें जीत जाना , लालडेंगा का मुख्यधारा में लौटना  ,भाजपा के असम , अरुणाचल और मणिपुर की सत्ता पर काबिज होने जैसी घटनाएं पूर्वोत्तर की सियासत में मील के पत्थर के तौर पर देखी जाती हैं लेकिन गत दिवस जो हुआ वह किसी भी दृष्टि से ऐतिहासिक से कम नहीं कहा जा सकता । जिन तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम आए उनमें नागालैंड और मेघालय को छोड़ दें क्योंकि वहां अभी भी क्षेत्रीय पार्टियों की भूमिका ही सरकार के गठन में महत्वपूर्ण होगी किन्तु त्रिपुरा में बीते 25 सालों से चले आ रहे वामपंथी शासन का जिस तरह से पराभव हुआ उसने बड़े - बड़े दिग्गजों को दांतों तले उंगली दबाने के लिए मज़बूर कर दिया । व्यवस्था विरोधी रुझान को झुठलाते हुए एक चौथाई शताब्दी से चले आ रहे वामपंथी शासन की जड़ें उखाडऩे का कारनामा करने की इच्छाशक्ति तो उस कांग्रेस ने भी कभी नहीं दिखाई जो अपने आप को राष्ट्रीय पार्टी मानकर इतराती थी । गत चुनाव में उसे 10 सीटें मिली थीं जबकि 50 सीटें लड़कर 49 में जमानत गंवा देने वाली भाजपा केवल 1.5 प्रतिशत मत प्राप्त कर हंसी का पात्र बनी । महज पांच वर्ष बाद कांग्रेस का शून्य पर लुढ़क जाना और 50 फीसदी मत प्राप्त कर  भाजपा का दो तिहाई बहुमत से सत्ता पर काबिज हो जाना इस लिहाज से महत्वपूर्ण है क्योंकि वामपंथी विचारधारा की सच्चे मायनों में विरोधी यदि कोई है तो भाजपा ही है । कल के नतीजों में काँग्रेस की जो दुर्गति त्रिपुरा की जनता ने की वह उसके गुस्से का ही विस्फोट है क्योंकि वामपंथी अत्याचारों के विरुद्ध संघर्ष का साहस कभी भी कांग्रेस नहीं दिखा सकी । बंगाल के पिछले विधानसभा चुनाव में वामपंथियों के साथ उसके गठबन्धन से त्रिपुरा के मतदाताओं के मन में ये धारणा घर कर गई थी कि कांग्रेस , जैसा ममता बैनर्जी आरोप लगाती रहीं वामपंथियों की बी टीम ही है । त्रिपुरा के मतदाताओं को ज्योंही लगा कि वामपंथियों के अभेद्य मान लिए गढ़ में सेंध लगाने के लिए रास्वसंघ ने कमर कस ली है त्योंही उन्होंने सारा भय छोड़कर 'चोलो पलटाईÓ नारे को जन- जन की आवाज बना दिया । ये पहला अवसर था जब लगभग सभी चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में वामपंथी सत्ता के पतन और भाजपा के उदय की सम्भावनायें व्यक्त की गईं थीं । त्रिपुरा को वामपंथियों के सबसे मजबूत किले के तौर पर मान्यता मिल गई थी क्योंकि बंगाल में वामपंथी वर्चस्व खत्म होने के बाद भी त्रिपुरा में माणिक सरकार दूसरे ज्योति बसु बनते जा रहे थे । उनकी सादगी और गरीबी के किस्से उन्हें भारतीय राजनीति रूपी अंधेरी कोठरी में रोशनदान की तरह प्रचारित करते थे किंतु उससे अलग हटकर देखें तो त्रिपुरा में न विकास हुआ न ही बेरोजगारी दूर हुई । विरोध के स्वर को निर्ममता से खामोश करने की वामपंथी संस्कृति का पालन भी नि:संकोच किया जाता रहा। बतौर राष्ट्रीय पार्टी विपक्षी दल काँग्रेस से अपेक्षा थी कि वह इसके विरुद्ध कमर कसकर मैदान में उतरती किन्तु उसने कभी इसकी कोशिश तक नहीं की । ये कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस में वैचारिक स्तर पर लडऩे की क्षमता तो दूर प्रवृत्ति ही विलुप्त हो चुकी थी । भाजपा ने इसका पूरा लाभ उठाया जिसकी बुनियाद रास्वसंघ द्वारा रख दी गई थी । त्रिपुरा में 25 साल तक वाममपंथी शासन यदि जारी रह सका तो उसकी वजह ये थी कि कभी पूरी ताकत से किसी ने उसका विरोध करने की हिम्मत ही नहीं जुटाई । पिछले चुनाव में शून्य पर अटकी भाजपा ने मात्र पांच साल के बाद त्रिपुरा में साम्यवादी सत्ता को उखाड़ फेंका तो उसका प्रमुख कारण सुनियोजित रणनीति और वैचारिक प्रतिबद्धता ही रही । नागालैंड और मेघालय में भी भाजपा खुलकर सामने आ गई है । नागालैंड में तो वह गठबंधन सरकार बनाने जा रही है वहीं मेघालय में कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखने की उसकी कोशिश सफल हो जाए तो आश्चर्य नहीं होगा । लेकिन त्रिपुरा की जीत ने भाजपा के वैचारिक स्वरूप को जिस तरह से स्पष्ट किया वह राष्ट्रीय राजनीति में एक बहुत बड़े परिवर्तन के तौर पर देखा जाना चाहिए क्योंकि ये पहला अवसर है जब सत्ता संघर्ष में  वामपंथियों से भाजपा का सीधा मुकाबला हुआ । यूं तो केरल में भी भाजपा और साम्यवादी आए दिन टकराते हैं लेकिन त्रिपुरा में भाजपा बिल्कुल चैंपियन स्टाइल में लड़ी । मात्र 60 विधानसभा और 2 लोकसभा सीटों वाले राज्य पर कब्जा करने को राष्ट्रीय स्तर की सफलता भले न माना जावे तथा 2019 के चुनाव पर इसका असर पडऩे की संभावना को भी भाव न दिया जावे किन्तु सौ टके की बात ये है कि हिंदुत्व की प्रयोगशाला गुजरात में फीकी जीत के फौरन बाद राजस्थान और मप्र में हुए उपचुनावों में भाजपा की शर्मनाक पराजय ने नरेंद्र मोदी और अमित शाह की क्षमता पर जो सवालिया निशान लगाए थे वे त्रिपुरा ने मिटाकर रख दिये । अभी  तक भाजपा को जितनी भी चुनावी सफलताएं मिलीं वे राजनीतिक दृष्टि से उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण कही जावेंगीं लेकिन त्रिपुरा में पार्टी की ऐतिहासिक विजय सैद्धांतिक और वैचारिक महत्व रखती है क्योंकि रास्वसंघ और भाजपा का जो विरोध बाकी पार्टियों द्वारा किया जाता है वह केवल सत्ता संघर्ष तक सीमित है जबकि वामपंथी संगठनों की संघ और भाजपा से जो भी खुन्नस है वह वैचारिक तो है ही उसके पीछे विदेशी प्रेरणा भी है । भाजपा विरोध की मानसिकता के चलते अन्य पार्टियाँ भले ही साम्यवादियों के साथ गलबहियां डालने में नहीं सकुचाती हों किन्तु वे भूल जाती हैं कि वामपंथी भारत की अखंडता के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं । जो चीन हमारे देश का सबसे बड़ा शत्रु है उसके हितचिंतक बने साम्यवादी किसी भी राष्ट्रवादी सोच को स्वीकार नहीं कर पाते और इसीलिए अराजकता फैलाकर वे आंतरिक सुरक्षा को छिन्न-भिन्न करने पर आमादा हैं । देश के बड़े भूभाग में रेड कॉरीडोर के नाम पर व्याप्त नक्सली आतंक सही मायनों में भारत को भीतर से कमज़ोर करने के साम्यवादी मास्टरप्लान का हिस्सा ही है जिसे चीन का वैचारिक ही नहीं अपितु आर्थिक और रणनीतिक समर्थन हासिल है । उस दृष्टि से त्रिपुरा में भाजपा के हाथों वामपंथी सत्ता का पराभव हर तरह से एक क्रांतिकारी बदलाव है जिसका दूरगामी परिणाम निकट भविष्य में दिखाई देगा। भाजपा को इस जीत से क्या हासिल होगा ये उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना ये कि भाजपा साम्यवादी गढ़ पर अपना झंडा फहराने में कामयाब रही । कहने को सबसे पहले ये कारनामा ममता बैनर्जी के नाम लिखा जाना चाहिए किन्तु तृणमूल कांग्रेस नामक उनकी क्षेत्रीय पार्टी की सोच और कार्यक्षेत्र भी एक तरफ  जहां सीमित है वहीं  दूसरी तरफ उसके साथ भी निजी महत्वाकांक्षाएं  और सत्ता की चाहत जुड़ गई है जिस वजह से ममता अपने ही बनाए जाल में उलझकर रह गईं । भाजपा ने उनके विपरीत साम्यवादी सत्ता से  विचारधारा के आधार पर टकराने का दुस्साहस किया और वह सफल भी रही । 2014 में राजनीतिक क्षितिज पर धूमकेतु की तरह उभरे नरेंद्र मोदी के विरुद्ध जितनी भी राजनीतिक कोशिशें या  अभियान सामने आए उन सबके पीछे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वामपंथी सक्रियता ही रही । यही वजह है कि मोदी और शाह की जोड़ी ने अपने असली वैचारिक प्रतिद्वंदी से उसी के गढ़ में घुसकर दो-दो हाथ करने की हिम्मत दिखाई और इस अवधारणा को पुष्ट कर दिया कि कोशिश करने वालों की हार नहीं होती । समाचार माध्यमों , विश्वविद्यालयों और बुद्धिजीवियों की जमात में प्रगतिशीलता के नाम पर उछलकूद करने वाले वामपंथी समझ चुके हैं कि पहली बार उनके मर्म पर चोट हो रही है और इसीलिए वे झल्लाहट में आये दिन कोई न कोई बखेड़ा खड़ा कर राजनीतिक अस्थिरता फैलाने का षड्यंत्र रचते हैं। लेकिन उनकी व्यूहरचना को ध्वस्त करने वाली राष्ट्रवादी शक्तियां जिस आत्मविश्वास के साथ मुकाबले में आ गईं हैं उसका जीवंत प्रमाण त्रिपुरा में देखने मिला । इसीलिए एक छोटे से सीमावर्ती राज्य में हुए सत्ता परिवर्तन की आहट देश के बाहर भी महसूस की जा रही है । सोवियत संघ के विघटन और चीन द्वारा पूंजीवादी ढांचे को स्वीकार कर लेने के बाद साम्यवाद अंतिम सांसें गिनने की स्थिति में आ चुका था जिसे भारत में येन-केन-प्रकारेण जीवित रखने के प्रयास के पीछे मूलत: चीन की विस्तारवादी नीति है जो एशिया में भारत के बढ़ते प्रभुत्व से यूँ तो पहले से ही चिंतित था किंतु 2014 में मोदी सरकार के आने के उपरांत उसकी बेचैनी और बढ़ गई । कुछ माह पहले डोकलाम विवाद में भारत के दृढ़ रुख से चीन को समझ आ गया कि उसकी दादागिरी को चुनौती देने की इच्छाशक्ति भारत में आ चुकी है । इसीलिए वह विश्व बिरादरी द्वारा विरोध किये जाने पर भी पाकिस्तान की पीठ पर हाथ रखे हुए है । त्रिपुरा में वामपंथी सरकार के भाजपा के हाथों पतन से न सिर्फ पूर्वोत्तर अपितु पूरे देश को वैचारिक दिशा मिलेगी । इसलिए इसका विश्लेषण केवल राजनीतिक लाभ हानि तक सीमित न रखते हुए राष्ट्रहित के मद्देनजर किया जाना चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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