Thursday 15 March 2018

भाजपा को चिंतन और कांग्रेस को चिंता की जरूरत


अभी भी 2019 को लेकर पूर्वानुमान लगाना मुश्किल है लेकिन गुरुदासपुर लोकसभा सीट के बाद राजस्थान की अलवर और अजमेर, मप्र की कोलारस और मुंगावली सीटों के उपचुनाव में भाजपा की पराजय का सिलसिला गत दिवस उप्र की गोरखपुर और फूलपुर के साथ ही बिहार की अररिया सीट तक कायम रहा। इसमें सभी सीटें उसकी बेशक नहीं थीं लेकिन देश भर में विजय रथ घुमाने वाली नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी को बीच-बीच में लगने वाले ये झटके 2019 में मोदी लहर की वापसी पर सन्देह तो उत्पन्न कर ही रहे हैं। यद्यपि जीत के बाद हार और फिर जीत का क्रम भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। 2014 में ताजपोशी के बाद दिल्ली और बिहार में भाजपा का सूपड़ा साफ  होने से भी ऐसी ही अवधारणा बन गई थी। फिर असम, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में भाजपा ने सरकार बनाकर उस घाटे की पूर्ति की लेकिन ठीक एक वर्ष पूर्व उप्र में ऐतिहासिक विजय 2014 की तरह से ही धमाकेदार रही जिसने कांग्रेस के साथ ही सपा-बसपा के समक्ष भी अस्तित्व का  संकट उत्पन्न कर दिया। लेकिन भाजपा की किस्मत कहें या कर्मफल कि वह गुजरात में आकर फिर लडख़ड़ाने लगी और किसी तरह इज्जत बचा सकी। प्रधानमंत्री की अपनी कर्मभूमि में कोहनी के बल चलने के लिए मज़बूर कर दी गई पार्टी द्वारा देखे जा रहे कांग्रेस मुक्त भारत के सपने का भी मजाक बनने लगा। लेकिन हाल ही में सम्पन्न पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में पार्टी ने फिर परचम लहरा दिया। त्रिपुरा में तो उसने इतिहास रचा वहीं नागालैंड और मेघालय में भी गैर कांग्रेसी सरकार बनवाकर अपने प्रभुत्व को बनाए रखा। उस जीत के जश्न ने भाजपा के आत्मविश्वास में वृद्धि की तथा वह कांग्रेस से कर्नाटक छीनने के लिए खुद को तैयार करने में जुट गई। लेकिन गत दिवस उप्र और बिहार की तीन लोकसभा सीटों के उपचुनाव परिणामों ने एक बार फिर भाजपा के समक्ष गति अवरोधक खड़े कर दिए। बिहार की अररिया सीट पर तो उसकी हार इसलिए नजरअंदाज की जा सकती है क्योंकि पूर्णिया और किशनगंज की तरह ये सीट भी मुस्लिम बाहुल्य वाली होने  से भाजपा के लिए असम्भव है किंतु यहां भी उसके लिए नुकसानदेह बात ये रही कि जीतनराम मांझी एनडीए छोड़कर लालू खेमे में चले गए जिसका मनोवैज्ञानिक असर तो पड़ा ही। नीतिश और भाजपा मिलकर भी यदि नहीं जीत सके तो ये विश्लेषण का विषय है। लालू के जेल जाने के बाद ये पहला चुनाव था जिसमें भाजपा के अलावा नीतिश की साख भी दांव पर लगी थी लेकिन उप्र की गोरखपुर और फूलपुर सीट पर भाजपा की पराजय चौंकाने वाली है क्योंकि एक तो 2014 में वहां भाजपा लाखों मतों से जीती थी और उससे भी बढ़कर बात ये रही कि गत वर्ष हुए विधानसभा चुनाव में भी इस इलाके में भाजपा का विजय रथ जमकर घूमा। गोरखपुर सीट के सांसद योगी आदित्यनाथ और फूलपुर के केशवदेव मौर्य ने क्रमश: मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री बनने के बाद उक्त सीटें रिक्त कीं जिससे वहां भाजपा को आसानी से जीत की उम्मीद थी जो सामान्य रूप से गलत भी नहीं  थी किन्तु मतदान के चंद रोज पहले बसपा नेत्री मायावती ने बेहद चतुराई भरा दांव चलते हुए अपने समर्थकों से भाजपा को हरवाने में सक्षम प्रत्याशी को मत देने की अपील कर डाली जिसके बदले विधान परिषद और राज्यसभा चुनाव हेतु सपा के अतिरिक्त मतों की अपेक्षा भी जुड़ी थी। ये समझौता अचानक हुआ या इसकी रूपरेखा पहले से बन रही थी ये तो पता नहीं किन्तु इसे हल्के में लेने के कारण भाजपा की स्थिति लाखों के प्यारे हजारों से हारे वाली बन गई। फूलपुर को भाजपा का परंपरागत  प्रभावक्षेत्र नहीं माना जाता था। केशवदेव मौर्य मोदी लहर में जीत तो गए किन्तु उपचुनाव के पहले ही यहां भाजपा की जीत पर आशंका के बादल मंडराने लगे थे लेकिन गोरखपुर तो बीते लगभग तीन दशक से भाजपा और हिंदुत्व का गढ़ बन चुका था। योगी के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद तो वहां पार्टी का दबदबा और बढ़ा हुआ माना जाने लगा। फूलपुर में भी ये लग रहा था कि केशवदेव उप मुख्यमंत्री होने के कारण ले देकर पार्टी को जितवा लेंगे। कांग्रेस के मैदान में होने के अलावा जेल में बंद पूर्व सांसद माफिया डॉन अतीक अहमद के मैदान में होने से भी भाजपा आश्वस्त थी लेकिन मायावती ने जो मायावी पांसा फेंका उसने भाजपा की सारी गोटियाँ पीट दीं। बसपा चूंकि उपचुनाव नहीं लड़ती इसलिए उसके मतों को लेकर भाजपा गम्भीर नहीं थी और फिर गत लोकसभा और विधानसभा चुनाव में उसका प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा। दलित मतों के भाजपा की झोली में आने के अंदेशे ने भाजपा के रणनीतिकारों को निश्चिंत कर दिया और वे इस मुगालते में बैठे रहे कि योगी जैसे हिंदुत्व के दमदार चेहरे के होते भाजपा हार ही नहीं सकती किन्तु ज्यों-ज्यों ईवीएम मशीनें खुलती गईं त्यों-त्यों कमल की पंखुरियाँ कुम्हलाने लगीं और सपा-बसपा के तालमेल की जय-जयकार हो उठी। उप्र से लेकर दिल्ली तक इन नतीजों की धमक महसूस की गई। भाजपा के विजयोन्माद पर हाथी का पाँव ऐसा पड़ा कि चेहरे की रंगत ही उड़ गई। न योगी कुछ कह पा रहे थे और न केशवदेव। टीवी चैनलों पर बैठे पार्टी प्रवक्ता भी किसी तरह मुस्कुराने की कोशिश करते हुए 2019 में मोदी मैजिक चलने की उम्मीद जताते देखे गये। लगे हाथ ऊपर से नीचे तक सभी भाजपाइयों ने सपा-बसपा समझौते से हुए नुकसान की बात को तो स्वीकार कर लिया लेकिन कोई ये मानने को राजी नहीं था कि इसकी वजह जनता की नाराजगी भी है। साथ-साथ भाजपा ये कहने में भी लगी रही कि केर - बेर का ये संग अस्थायी था जो आगे शायद ही जारी रहे। मायावती की अस्थिर राजनीति के चलते ये प्रत्याशा गलत नहीं है लेकिन फिलहाल तो सपा-बसपा के हाथ मिलाने मात्र से भाजपा की ठसक उतर गई। ऐसे में यदि अखिलेश और मायावती ने 1993 का इतिहास दोहराते हुए गठबंधन कर लिया तब की संभावना ने भाजपा का रक्तचाप बढ़ा तो दिया ही क्योंकि भारतीय राजनीति का स्थापित सत्य यही है कि बिना उप्र के दिल्ली जाना असम्भव है। लेकिन इन परिणामों ने भाजपा के साथ कांग्रेस के राजनीतिक दिवालियेपन को भी एक बार फिर प्रमाणित कर दिया। विधानसभा चुनाव में अखिलेश के साथ गलबहियां डालने के कटु अनुभव की वजह से गोरखपुर और फूलपुर में कांग्रेस ने अपने प्रत्याशी लड़ाए किन्तु उसकी इतनी दुर्दशा हुई कि पार्टी भाजपा की हार पर  खुशियां मना कर  अपना गम छुपाने की कोशिश करती दिखी। राहुल गांधी के ट्वीट से भी यही आभास निकला। सोनिया गांधी द्वारा विपक्षी एकता के लिए बुलाई बैठक के एक दिन बाद ही उप्र में सपा-बसपा के अस्थायी तालमेल ने जो कमाल दिखाया उसने कांग्रेस के बचे खुचे प्रभाव को भी नष्ट कर दिया। जो राष्ट्रीय पार्टी जमानत तो दूर इज्जत बचाने तक में विफल रही उसे सपा और बसपा  क्यों भाव देंगे ये भी बड़ा सवाल है। इन नतीजों से दोनों बड़ी पार्टियों के समक्ष चिंता का बड़ा कारण उपस्थित हो गया है। भले ही भाजपा कितनी भी शेखी बघारे किन्तु उसे ये मानना पड़ेगा कि वह जनता को अपनी नीतियों और उपलब्धियों से संतुष्ट नहीं करवा पा रही और ये भी कि लोगों को अच्छे दिनों के लिए बहुत देर तक इंतजार नहीं करवाया जा सकता। हिंदुत्व के नए चेहरे के तौर पर आगे बढ़ाए जा रहे योगी को भाजपा कर्नाटक में बतौर स्टार प्रचारक उपयोग कर रही है लेकिन अपने घर में ही वे जिस तरह मात खा गए उसने उनकी चमक खत्म भले न की हो कम तो कर ही दी। उस दृष्टि से तीन संसदीय उपचुनाव क्षेत्रीय दलों के उभार और कांग्रेस के मुकाबले से बाहर होते जाने का इशारा तो कर ही रहे हैं किन्तु इनका सबसे बड़ा संदेश  है कि भाजपा ये मुगालता छोड़ दे कि मोदी या  योगी उसे रेडीमेड जीत लाकर दे देंगे। उसके लिए सबसे बड़ी विचारणीय बात ये भी है कि वह नए राज्य जीतने के बावजूद पहले से शासित राज्यों में कमजोर होती जा रही है। यदि यही हाल रहा तो मप्र , राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी उसे 1993 जैसे नतीजे भुगतने होंगे जब बाबरी ढांचे के ध्वस्त होने के बाद भी वह हार गई थी। नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए भी ये परिणाम बड़ा धक्का हैं क्योंकि पूरी पार्टी उन्हीं के भरोसे होकर बैठ गई है। कांग्रेस जिस स्थिति में है उसमें यदि वह कर्नाटक गंवा बैठी तब 2019 के लिए नए ध्रुवीकरण सामने आएंगे। फिलहाल तो भाजपा को चिंतन और कांग्रेस को चिंता करनी चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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