Wednesday 28 March 2018

कर्नाटक के सियासी नाटक पर देश की निगाहें


चुनाव की तारीख की घोषणा होते ही पूरे देश का ध्यान कर्नाटक चुनाव पर केन्द्रित हो गया है। गुजरात में फीकी जीत के बाद राजस्थान, म.प्र. और उ.प्र. के उपचुनावों में मिली पराजय के कारण जहां भाजपा के माथे पर चिंता की लकीरें हैं वहीं कांग्रेस के लिये भी अपना ये किला बचाना जरूरी हो गया है क्योंकि 2014 के बाद से वह लगातार अपने कब्जे वाले राज्य एक के बाद एक हारती चली गई। इस तरह दोनों प्रमुख दलों के लिये 12 मई को होने वाला मतदान भविष्य का निर्धारण करने वाला साबित होगा। वैसे भाजपा को कांग्रेस से ज्यादा चिंता है क्योंकि कर्नाटक के विपरीत परिणाम 2018 के अंत में म.प्र., राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ विधानसभा के चुनावों पर असर जरूर डालेंगे, जहां भाजपा का कब्जा है। उसके छह महीने बाद 2019 का लोकसभा चुनाव होना है। यदि नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने कर्नाटक का किला फतह कर लिया तब निश्चित रूप से उनके अपराजेय होने की बात को बल मिल जाएगा। वहीं कांग्रेस यदि अपने आखिरी दुर्ग को नहीं बचा सकी तब उसके लिये आने वाली चुनौतियों का सामना करना तो मुश्किल होगा ही लेकिन उससे भी बड़ी कठिनाई है विपक्षी एकता के उन प्रयासों को पलीता लगना जिसकी पहल खुद सोनिया गांधी ने हाल ही में नये सिरे से की है। वैसे शुरू-शुरू में ये कयास राजनीतिक पंडितों द्वारा लगाए जा रहे थे कि भाजपा के आक्रामक अभियान का मुकाबला करने हेतु कांग्रेस कर्नाटक में एचडी देवगौड़ा की जद (एस) से गठबंधन करेगी। ऐसा होने पर वह भाजपा की पराजय को सुनिश्चित कर सकती थी किन्तु गत सप्ताह संपन्न राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस ने पहले तो जद (एस) के 7 विधायकों से अपने प्रत्याशी के पक्ष में क्रास वोटिंग करवाई और फिर उन्हें अपनी पार्टी में ही शामिल कर लिया। इससे जद (एस) का पारा गरम हो गया। बची-खुची कसर मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने ये कहकर पूरी कर दी कि कांग्रेस अपने दम पर चुनाव लड़ेगी। इसे उनके बढ़े हुए आत्मविश्वास का परिचायक भी कह सकते हैं। हाल ही में राज्य के ताकतवर लिंगायत समुदाय को अलग धर्म मानकर अल्पसंख्यक का दर्जा देने की सिफारिश केन्द्र सरकार को भेजने का दांव चलकर सिद्धारमैया ने भाजपा को चौंका दिया जिसे ये उम्मीद रही कि मुख्यमंत्री पद के उसके प्रत्याशी येदियुरप्पा के लिंगायत होने का लाभ उसे मिलेगा। यद्यपि 2013 में तत्कालीन मनमोहन सरकार ऐसी ही सिफारिश को लौटा चुकी थी किन्तु मुख्यमंत्री ने बेहद चालाकी भरा कदम उठाते हुए भाजपा के रणनीतिकारों को सोचने के लिए बाध्य तो कर ही दिया। जहां तक जद (एस) का सवाल है तो वह लिंगायत मसले से परेशान नहीं है क्योंकि उसका जनाधार दूसरे वर्गों में है। हालांकि कर्नाटक की सियासत पर वहां स्थित हिन्दू मठों के मठाधीशों का समर्थन काफी मायने रखता है। यही वजह है कि राहुल गांधी और अमित शाह दोनों मठों के चक्कर लगा रहे हैं परन्तु ये भी सही है कि सिद्धारमैया ने व्यवस्था विरोधी रूझान के दबाव से मुक्त होते हुए भाजपा के विरूद्ध सारे पांसे चतुराई से फेंक दिये हैं। गत वर्ष पूर्व मुख्यमंत्री एसएम कृष्णा को भाजपा ने जब अपनी तरफ खींचा तब लगा था कि वे कुछ और सत्ताधारी नेताओं को भगवा रंग में रंग देंगे किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हो सका। यद्यपि हिन्दू संगठनों ने कर्नाटक की हवा में काफी कुछ अलग असर छोड़ा है परन्तु आज की तारीख में ये खुलकर कहना कठिन है कि उनकी कोशिशें कामयाब हो जायेंगी। कांगे्रस को फिलहाल राष्ट्रीय स्तर पर मोदी सरकार के विरुद्ध उठ रहे मुद्दों का मनोवैज्ञानिक लाभ मिल रहा है। पड़ोसी राज्य आन्ध्र के मुख्यमंत्री चन्द्राबाबू नायडू का भाजपा से अलग हो जाना भी उसके लिए उम्मीदें जगाने वाला है। तेलंगाना में भी मुख्यमंत्री चन्द्रशेखर राव भाजपा विरोधी गठबंधन बनाने में लगे हैं। कुल मिलाकर पांच साल तक सत्ता में रहने के बाद भी कांगे्रस उतनी परेशान नहीं दिख रही। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया पर भ्रष्टाचार के आरोप भले ही भाजपा लगा रही हो किन्तु वे पूरे आत्मविश्वास में दिख रहे हैं। दरअसल ये चुनाव केन्द्र सरकार के कामकाज पर टिक जाने से भाजपा की परेशानी बढ़ गई है। यद्यपि राजनीतिक पंडित ये भी मान रहे हैं कि अमित शाह ने बूथ मैनेजमेंट के स्तर पर कांग्रेस को काफी पीछे छोड़ रखा है किन्तु गुजरात में सारे फार्मूले असफल हो जाने से भाजपा सशंकित है। उसे ये भय भी सता रहा है कि यदि त्रिशंकु विधानसभा बनी तब जद (एस) हर हाल में कांगे्रस के साथ ही जायेगा। कुल मिलाकर कर्नाटक का सियासी नाटक बेहद रोमांचक होगा। भाजपा और कांगे्रस दोनों पूरी ताकत झोंकेंगे वहीं जद (एस) भी पीछे नहीं रहेगा क्योंकि उसके प्रदर्शन पर ही 2019 के चुनाव में उसकी भूमिका तय हो सकेगी। इस प्रकार अगले डेढ़ माह तक राष्ट्रीय राजनीति पर कर्नाटक की छाया बनी रहेगी ये तय है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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