Monday 12 March 2018

चीन के अंतिम साम्यवादी शासक हो सकते हैं जिनपिंग


एक भारतीय दार्शनिक ने कहा था कि साम्यवादियों ने भगवान को तो नकार दिया किन्तु उन्होंने लेनिन और माओ को भगवान बना दिया। वक्त बदला तो साम्यवाद  में भी बड़ा बदलाव हुआ। 20 वीं सदी की शुरुवात में हुई बोल्शेविक क्रांति के जरिये रूस में आई साम्यवादी व्यवस्था सोवियत संघ के रूप में एक बड़ी  विश्व शक्ति के तौर पर स्थापित हो गई। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद शीत युद्ध रुपी जो दौर चला उसमें साम्यवादी विचारधारा की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण थी। 1949 में चीन में हुई साम्यवादी क्रांति के बाद तो इसका प्रभाव और बढ़ गया। अमेरिका के नेतृत्व में पूंजीवादी व्यवस्था और सोवियत संघ के संरक्षण में साम्यवादी लॉबी ने दुनिया को दो खेमों में विभक्त कर दिया। यद्यपि गुट निरपेक्ष देशों का एक समूह पं नेहरू, कर्नल नासिर और मार्शल टीटो ने बनाया किन्तु विश्व राजनीति मुख्य रुप से अमेरिका और सोवियत संघ नामक धड़ों में बंटकर रह गई किन्तु बहुत जल्द चीन ने माओ त्से तुंग के नेतृत्व में अलग राह पकड़ी और सोवियत संघ का वैचारिक उपनिवेश बनने की बजाय स्वतन्त्र अस्तित्व बना लिया। यद्यपि इस वजह से चीन लम्बे समय तक विश्व बिरादरी से अलग रहा और कुछ देशों को छोड़कर उससे रिश्ते रखने में लोगों को भय और परहेज दोनों बने रहे। 1972 में अमेरिकी विदेश सचिव हेनरी किसिंजर ने  पिंगपाँग (टेबिल टेनिस) कूटनीति शुरू करते हुए चीन की यात्रा की और बाद में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन भी बीजिंग पहुंचे। इसके बाद चीन ने भी अपने दरवाजे खोले। संरासंघ  के साथ ही उसे सुरक्षा परिषद की भी  स्थायी सदस्यता मिली। इसका असर वहां की सामाजिक और  राजनीतिक सोच पर भी पड़ा। चीन ने दुनिया के हमकदम बनते हुए विगत तीन दशक में न सिर्फ सैन्य अपितु आर्थिक महाशक्ति के रूप में भी खुद को स्थापित किया। इसी दौरान सोवियत संघ विघटित होने से साम्यवादी विचाराधारा का मुख्यालय एक तरह से ढह गया। क्यूबा भी यद्यपि साम्यवादी खेमे का एक मज़बूत स्तम्भ रहा जिसने लेटिन अमेरिकी क्षेत्र में वाशिंगटन की प्रभुसत्ता को सदैव चुनौती दी किन्तु क्यूबा के साम्यवादी तानाशाह फिदेल कास्त्रो लेनिन और माओ वाला असर नहीं छोड़ सके। बहरहाल चीन ने मास्को का पिछलग्गू बने रहने की जगह अपनी स्वतंन्त्र पहिचान बनाई और बहुत हद तक तो वह साम्यवादी कठोरता का सोवियत संघ से बड़ा प्रतीक बन गया। माओ ने चीन में जो चाहा, किया और जीवनपर्यन्त कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वेसर्वा बने रहे। हालांकि उनके जीवन के अंतिम वर्षों में चीन की दशा और दिशा दोनों बदलने लगी थीं लेकिन अमेरिकी प्रभाव के बढऩे और सामाजिक जीवन में पाश्चात्य संस्कृति के प्रवेश के बाद भी चीन ने राजनीतिक स्तर पर साम्यवादी  वयवस्था को सीने से चिपकाए रखा। लोकतंत्र की स्थापना के लिए की गई हर कोशिश को बेरहमी से कुचल दिया गया। अभिव्यक्ति की स्वन्त्रता को लेकर माओवादी सोच में लेशमात्र बदलाव नहीं हुआ। सत्ता से असहमति और उसकी नीतिगत आलोचना देशद्रोह मानकर कठोर दंड का आधार आज भी यथावत है जिसके चलते शासन - प्रशासन के उच्च पदों पर बैठे महत्वपूर्ण लोगों को भी इसी के चलते जेल में ठूंस दिया जाता है। कहने को चीन ने विकास के पश्चिमी या यूँ कहें कि पूंजीवादी मॉडल को पूरी तरह स्वीकार कर लिया है परन्तु भारत जैसी संसदीय या अमेरिका समान अध्यक्षीय शासन प्रणाली के लोकतंत्र के प्रति उसकी बेरहमी यथावत है। ब्रिटेन के कब्जे से हांगकांग वापिस मिलने के बाद हालांकि बतौर समझौता वहां पूंजीवादी व्यवस्था जारी है लेकिन चीन की मुख्य भूमि में साम्यवाद की जड़ें अभी भी बेहद गहरी हैं जिसका ताजातरीन प्रमाण है शी जिनपिंग द्वारा स्वयं को आजीवन राष्ट्रपति बनाए रखने के लिए  संसद से संविधान संशोधन पारित करवा लेना। इस तरह माओ त्से तुंग के बाद जिनपिंग दूसरे ऐसे चीनी नेता हैं जो सर्वशक्तिमान बनकर स्थापित हो गए। चीन में स्वतंत्र समाचार माध्यम और निष्पक्ष न्यायपालिका की कल्पना आज भी स्वप्न बनी हुई है। जिनपिंग जिस तेजी से विश्व परिदृश्य पर उभरे और चीन को प्रगतिपथ पर बढ़ाने में सफल रहे उसे देखते हुए लगने लगा था कि वे चीन को माओवादी कट्टरता से निकालकर एक संवेदनशील समाज बनाएंगे किन्तु अब ये कहा जा सकता है कि माओ भले न रहें हो किन्तु उनके शरीर को सुरक्षित रखने के पीछे जो मकसद था उसे जिनपिंग ने सार्थक सिद्ध कर दिया। सोवियत संघ के विघटन उपरांत साम्यवाद का अन्तिम संस्कार होने की जो उम्मीदें लगाई जा रही थीं वे चीन में आए आर्थिक बदलावों के चलते वास्तविकता में बदलतीं लगीं किन्तु पाश्चात्य शैली को आत्मसात करने के बाद भी यदि चीन ने जिनपिंग को सेना प्रमुख के बाद आजीवन राष्ट्रपति बनाने जैसा निर्णय कर लिया तो ये मानना पड़ेगा कि विश्व राजनीति में स्टालिन और माओ से भी बड़ा तानाशाह पैदा हो चुका है क्योंकि तब की अपेक्षा आज का चीन विश्वस्तर पर पहले की अपेक्षा कहीं बेहतर स्थिति में है। ज्ञान-विज्ञान और तकनीक के मामले में वह विकसित देशों की बराबरी पर है। भले ही अमेरिका आज भी आर्थिक और सैन्य दृष्टि से सबसे ताकतवर बना रहे किन्तु वह भी चीन से सीधे टकराने का दुस्साहस नहीं कर सकता। जिनपिंग ने शुरुवात जिस तरह से की उससे ये अंदाजा नहीं था कि वे दूसरे माओ बनने का प्रयास करेंगे किन्तु उन्होंने वह कर दिखाया तो ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि चीन दोहरे चरित्र को जीने मजबूर है। सच्चाई ये है कि एकदलीय प्रणाली से संचालित होने के कारण चीन में संसद पूरी तरह से बंधक है ओर चुनाव मजाक। सरकारी पक्ष ही समाचार पत्रों और टेलीविजन में उद्धृत होता है। विपक्ष नामक कोई चीज पैदा ही नहीं होने दे गई। मानवाधिकारों को भी अहमियत नहीं दी जाती। चीन के बारे में शेष दुनिया वही जानती है जो वह चाहता है। सुरक्षा परिषद में उसकी उपस्थिति के बाद भी वह विश्व बिरादरी से अलग हटकर अपनी रोटी पकाता है। दक्षिण एशिया में उसकी विस्तारवादी नीतियां बदस्तूर जारी हैं। जिनपिंग के जीवनपर्यन्त सत्ता में बने रहने सम्बन्धी संविधान संशोधन व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं का परिणाम है जो चीन में प्रजातन्त्र के बीज अंकुरित होने के प्रति साम्यवादियों के भय को भी दर्शाता है। जिनपिंग का माओ का अवतार बन जाना सर्वाधिक प्रभाव भारत पर डालेगा जिसके साथ चीन के रिश्ते कभी नरम तो कभी बेहद गरम बने रहते हैं। जिनपिंग जिस सड़क के जरिये मध्य एशिया से गुजरते हुए यूरोप तक की पहुंच बनाना चाह रहा है उसमें भारत ने जो रोड़ा अटकाया उससे जिनपिंग बहुत नाराज हैं। उसकी बानगी डोकलाम विवाद के रूप में सामने आ चुकी है। दक्षिणी चीन के समुद्र में भारत की आवाजाही भी चीन को नापसन्द है। मालदीव में हाल ही में हुई उठापठक में भारत के हस्तक्षेप को लेकर उसने जिस तरह की चेतावनी भरी बातें कीं वे जिनपिंग के इरादों का प्रगटीकरण थीं। इस आधार पर जिनपिंग का विशुद्ध राजशाही शैली में राजतिलक विश्व राजनीति के साथ ही समूचे एशिया में अपना असर दिखाएगा  किंतु भारत को इस बारे में अतिरिक्त सतर्कता बरतनी होगी क्योंकि उनकी मोहक मुस्कान के पीछे माओवादी कुटिलता छिपी हुई है। लेकिन साम्यवाद को जिस तरह चीन में सहेजकर रखने का दुस्साहस जिनपिंग ने किया वह खतरनाक भी साबित हो सकता है। भले ही जिनपिंग सरकार ने इंटरनेट जैसे माध्यमों पर तरह-तरह की बंदिशें लगाकर सूचनातंत्र को सीमित कर दिया हो लेकिन उन्हें ये नहीं भूलना चाहिए कि रूसी क्रांति के सौ साल पूरे होने के पूर्व ही साम्यवाद का दम फूलने लगा था। उस आधार पर ये कहना गलत नहीं होगा कि जिनपिंग की नई ताजपोशी के पीछे चूँकि कोई सैद्धांतिक आधार या वैचारिक सोच नहीं है इसलिए वे दूसरे माओ नहीं बन सकेंगे और बड़ी बात नहीं आने वाले कुछ वर्षों में ही चीन के भीतर भी कोई गोर्बाचोव पैदा होकर बड़ी उथलपुथल कर डाले। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए जो दरवाजे कुछ दशक पहले चीन ने खोले थे उनसे  विदेशी संस्कृति के बीज भी वहां घुस आए हैं। वे कब अंकुरित होकर बड़े होंगे ये पक्के तौर पर फिलहाल कह पाना मुश्किल है किंतु बड़ी बात नहीं होगी अगर जिनपिंग चीन के अंतिम साम्यवादी शासक बन जाएं। जिस तरह चीन की दीवार अपना महत्व और उपयोगिता खो चुकी है ठीक वैसे ही साम्यवाद भी आज की दुनिया में अप्रासंगिक होकर रह गया है और क्रांति की उसकी सोच पूंजी के सान्निध्य में भ्रान्ति का शिकार बनती जा रही है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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