Thursday 31 December 2020

अंतत: बात ले - देकर ही बनेगी



किसान संगठनों के साथ केंद्र सरकार की बातचीत में गत दिवस जिन दो बिन्दुओं पर सहमति बनी वे आन्दोलन की मुख्य मांगें भले न हों लेकिन इसका सुखद पहलू ये है कि संवादहीनता खत्म हुई। सरकार की ओर से आये  दोनों मंत्रियों ने किसानों के साथ उनके लंगर में भोजन कर कूटनीतिक चतुराई दिखाई जो ऐसे मामलों में खाई पाटने में सहायक बनती है। बहरहाल पराली जलाने पर लगने वाला जुर्माना और बिजली को लेकर आने वाले नए प्रावधान के बारे में सरकार के आश्वासन के बाद भले ही किसानों ने आज की ट्रैक्टर रैली रद्द कर दी लेकिन तीनों कानून वापिस लेने के साथ ही एमएसपी को कानूनी शक्ल दिए बिना समझौता न करने की जिद अभी भी बनी हुई है। यद्यपि कल की बातचीत काफी सौहार्द्रपूर्ण माहौल में हुई बताई जा रही है किन्तु सरकार की तरफ से उक्त दोनों मुद्दों पर समिति बनाये जाने के प्रस्ताव को किसान संगठनों ने एक बार फिर खारिज कर दिया। लेकिन जैसी खबरें आ रही हैं उनसे लगता है कि किसान संगठनों में आन्दोलन को लम्बा खींचने के सवाल पर एक राय नहीं बन पा रही। सरकार को उम्मीद है 4 जनवरी की बैठक तक किसान नेताओं के रुख में और लचीलापन आयेगा जिससे गतिरोध दूर करना आसान हो जाएगा। हालाँकि क्या होगा ये आज कह पाना कठिन है क्योंकि किसानों के संगठनों में अलग-अलग मानसिकता के लोग हैं और सभी की ताकत एक जैसी नहीं हैं। ये भी सही है कि किसी आन्दोलन को अनिश्चितकाल तक खींचने से उसका असर घटने लगता है। पंजाब और हरियाणा में कुछ समय बाद  ही रबी फसल पकने की स्थिति बनने लगेगी और तब किसान भी खेतों में लौटने को बेताब होने लगेंगे। एमएसपी को लेकर भले ही किसान संगठनों और सरकार के बीच बात न बन पाई हो लेकिन सच्चाई ये है कि खरीफ फसल की सरकारी खरीद जमकर हुई जिसका लाभ पंजाब और हरियाणा के किसानों को भी मिला। इसी तरह रबी फसल को खरीदने के लिए भी सरकारी तैयारियां शुरू हो गईं हैं। ऐसे में किसानों को दिल्ली में रोके रखना आसान नहीं होगा। यही वजह है कि अपनी मुख्य मांगों पर अड़े रहने के बावजूद किसानों ने न सिर्फ सरकार का न्यौता स्वीकार कर बातचीत में हिस्सा लिया बल्कि पिछली बैठकों की  अपेक्षा शांत भी रहे। दूसरी तरफ वार्ताकार बनकर आये दोनों मंत्रियों ने भी लंगर में ही आहार ग्रहण किया और उस दौरान भी वातावरण खुशनुमा रहा। आगे की बैठकों में दोनों पक्ष और आगे बढ़ेंगे ये उम्मीद कल की बातचीत के बाद बढ़ गयी  है। जहां तक सरकार का पक्ष है तो एक बात साफ़ है कि वह तीनों कानून वापिस लेने की शर्त पर बात आगे बढ़ाने को राजी शायद ही हो। ऐसे में संभावना यही है कि एक समिति बनाकर समझौते के बिंदु तय किये जायेंगे। आगामी सप्ताह तक सर्वोच्च न्यायालय का अवकाश भी खत्म हो जायेगा और हो सकता है वह उसके समक्ष विचाराधीन याचिका पर ये निर्देश सरकार और किसान संगठनों को दे कि फि़लहाल कानूनों पर अमल स्थगित किया जाये और समिति बनाकर किसी निष्कर्ष तक पहुँचने तक आन्दोलन भी ठंडा  रखा जाये। ऐसे मामलों में परदे के पीछे भी बहुत कुछ चलता है। पंजाब सरकार को भी  लगने लगा है कि आन्दोलन के बेनतीजा जारी रहने का असर राज्य की  अर्थव्यवस्था के साथ ही कानून-व्यवस्था पर भी पड़े बिना नहीं रहेगा। ऐसे में यदि 4 जनवरी की बातचीत में युद्धविराम की स्थिति बन जाये तो आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि दोनों पक्ष जाहिर तौर पर भले अपनी बात पर अड़े रहने का एहसास करवा रहे हैं किन्तु भीतर से उन्हें भी ये महसूस हो रहा है कि ले-देकर ही बात बनेगी। दिल्ली वासियों के साथ ही पूरा देश इस गतिरोध के शांतिपूर्ण हल की प्रतीक्षा कर रहा है। बीत रहे साल से जुड़ी कड़वी यादें नए साल में साथ न रहें ये चाहत हर किसी की है। ऐसे में बेहतर तो यही  होगा कि हठधर्मिता त्यागकर व्यापक संदर्भ में चीजों को देखते हुए ऐसा निर्णय हो जो तात्कालिक लाभ की बजाय  दूरगामी फायदों का आधार बने ।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 30 December 2020

तो पंजाब को भी बंगाल जैसा नुकसान उठाना पड़ेगा



कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे किसान आन्दोलन के अंतर्गत पंजाब   में निजी कम्पनी के मोबाईल टावरों को क्षतिग्रस्त किया जाना मूर्खतापूर्ण कदम है | आन्दोलनकारी मानते हैं कि नये कानून इस कंपनी को लाभ पहुँचाने के  लिए ही  बनाये गये हैं | यद्यपि राज्य के मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह ने  आंदोलन का समर्थन करने के बावजूद  मोबाइल टावरों में तोड़फोड़ करने वालों के विरुद्ध अपराधिक मामले दर्ज करने के आदेश दिए लेकिन उसका खास असर नहीं  होता दिख रहा |  अब तक 1600  से ज्यादा टावरों के क्षतिग्रस्त होने से संचार सेवाओं पर बुरा असर पड़ रहा है | न सिर्फ मोबाइल फोन अपितु इंटरनेट  सुविधा बधित होने से विद्यार्थियों , व्यावसायिक और औद्योगिक प्रतिष्ठानों तथा बैंकिंग सेवा के साथ ही शासकीय कामकाज पर भी बुरा असर पड़ने की खबर है | कोरोना काल में लाखों लोग इन्टरनेट के जरिये घर बैठे काम कर  रहे हैं | वहीं विद्यालय , महाविद्यालय से लेकर तो विश्वविद्यालय भी  ऑन लाइन पढ़ाई करवा रहे हैं | आर्थिक लेनदेन  नगदी के साथ ही डिजिटल होने से इन्टरनेट की  अनिवार्यता बढ़ गई है | यही वजह है कि अमरिंदर सिंह ने  फ़ौरन मोबाइल टावरों को नुकसान पहुँचाने  वालों के विरुद्ध कानून कार्रवाई के आदेश दिए  | हालाँकि ये  स्पष्ट नहीं है कि इस बारे में उनकी सरकार कितनी ईमानदार है क्योंकि वे आन्दोलनकारी किसानों से  सीधे पंगा लेने से भी बच रहे हैं | आन्दोलनकारियों  की मांगें और तौर - तरीके किस हद तक उचित हैं ये अलग विषय है लेकिन मोबाइल टावरों को क्षति पहुँचाने जैसी हरकत का दूरगामी नुकसान समूचे पंजाब को उठाना पड़ सकता है | इस बारे में बंगाल का उदाहरण सबसे सटीक है | ब्रिटिश काल से ही कोलकाता औद्योगिक दृष्टि से काफी विकसित रहा | आजादी के बाद भी उसकी वह स्थिति जारी रही किन्तु ज्योंही वहां वामपंथी शासन आया उसके बाद से औद्योगिक इकाइयों को परेशान किया जाने लगा | नक्सली आन्दोलन ने ने बची - खुची कसर पूरी कर दी | नतीजा ये निकला कि नए उद्योग तो  आना बंद हुए ही पहले से कार्यरत इकाइयों ने भी अपना कारोबार समेटना शुरू कर दिया | वामपंथियों की विध्वंसकारी नीतियों के कारण कोलकाता सहित पूरे राज्य में औद्योगिक विकास का पहिया थम गया | यहाँ तक कि छोटे - छोटे व्यापारी तक लाल झंडे की आड़ में होने वाले उत्पात से त्रस्त हो गए | दूसरी तरफ आजादी के बाद से पंजाब में न सिर्फ कृषि बल्कि औद्योगिक विकास भी जमकर हुआ | इस राज्य के लोगों ने परिश्रम की पराकाष्ठा करते हुए खेत और कारखाने दोनों में अपनी उद्यमशीलता का परिचय दिया जिससे वह  देश के  अग्रणी  राज्यों में शुमार हो सका | हालाँकि तकनीक के विकास की वजह से  परम्परागत उद्योगों के सामने भी अस्तित्व का संकट है लेकिन नए उद्योगों के विकास की सम्भावनाएं भी तभी बन सकेंगी जब राज्य में राजनीतिक स्थिरता के साथ ही कानून - व्यवस्था की  स्थिति अच्छी रहे | वैसे भी नब्बे के दशक में खलिस्तानी आतंक के कारण पंजाब का औद्योगिक विकास बुरी तरह से प्रभावित हुआ जिसका हरियाणा ने जमकर उठाया | किसान आन्दोलन का अंजाम क्या होगा ये आज कह पाना कठिन है क्योंकि तीनों कृषि कानूनों को वापिस लेने की मांग मंजूर करना केंद्र सरकार के लिए नई मुसीबतों को न्यौता देने जैसा होगा | दूसरी तरफ किसान संगठन इससे कम पर मानने राजी नहीं हैं | हो सकता है आज की बातचीत से कुछ रास्ता निकल आये लेकिन मोबाइल टावरों के अलावा निजी कम्पनियों के शो रूम , मॉल और पेट्रोल पम्पों को बंद करवाने या उनमें तोड़फोड़ करने जैसी  वारदातों से पंजाब में निवेश करने के इच्छुक लोग छिटक सकते हैं | किसान आन्दोलन में अनेक ऐसे लोग भी  हैं जो कृषि के साथ ही  उद्योगों से भी जुड़े हुए हैं | इस वर्ग को चाहिए  आन्दोलन को गलत  दिशा में जाने से रोके  | उल्लेखनीय है पंजाब उन राज्यों में से है जहां के लाखों लोग अप्रवासी के रूप में विदेशों में बसे हैं | पंजाब की  आर्थिक समृद्धि में उनकी  जबरदस्त भूमिका रही है | मौजूदा आन्दोलन को  कैनेडा और ब्रिटेन जैसे देशों से जिस तरह का आर्थिक सहयोग मिल रहा है वह इसका प्रमाण है | इन अप्रवासियों में अनेक ऐसे भी होंगे जो निकट भविष्य में पंजाब में निवेश करने वाले हों | ऐसे लोगों की भले ही किसान आन्दोलन के साथ सहानुभूति  हो किन्तु  औद्योगिक इकाइयों के साथ तोड़फोड़ जैसी घटनाएँ जारी रहीं तब वे भी यहाँ पैसा फंसाने से पहले सौ बार सोचेंगे | इसीलिये ये जरूरी है कि किसान आन्दोलन अपनी सीमाओं में ही रहे | किसी कम्पनी विशेष से  खुन्नस निकालने के फेर में पूरे उद्योग जगत को नाराज करना पंजाब के लिए नुकसानदेह होगा | मोबाइल सेवा को बाधित करना तो बहुत ही नासमझी भरा कदम है | विरोधस्वरूप किसी कम्पनी की सेवाएँ छोड़ देना तो ठीक है लेकिन उसको बाधित करने से और लोग भी परेशान होते हैं और पूरी संचार तथा संवाद की प्रक्रिया रुकती है | दिल्ली के दरवाजे पर जमे  हजारों किसानों ने अब तक शान्ति बनाये रखी | अनेक बार घोषणा करने के बावजूद वे दिल्ली को पूरी तरह नहीं घेर सके तो उसके पीछे जनता की नारजगी से बचना ही कारण था किन्तु पंजाब से आ रही खबरें आन्दोलन के हिंसक होने के संकेत दे रही हैं | किसान नेताओं को ये बात ध्यान रखनी होगी कि खलिस्तान के आन्दोलन को भी पंजाब के अधिकांश  सिखों  का समर्थन इसलिए नहीं मिल सका क्योंकि उसकी वजह से आम जनता  की परेशानियां बढ़ चली थीं | पंजाब सरकार समय रहते  किसान आन्दोलन के नेताओं को इस बारे में आगाह करे वरना पंजाब का औद्योगिक ढांचा चरमराने की नौबत आये बिना नहीं रहेगी |

- रवीन्द्र वाजपेयी

राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर कांग्रेस जरूरी है लेकिन .....



कांग्रेस ने विगत दिवस अपना  136 वां स्थापना  दिवस मनाया। इस मौके पर देश भर में पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने पार्टी के प्रति अपनी निष्ठा  प्रदर्शित करते हुए उसे दोबारा मजबूत करने का संकल्प लिया। वैसे तो ये महज एक रस्म थी लेकिन इस साल पार्टी के पूर्व और भावी अध्यक्ष  माने जा रहे  राहुल गांधी स्थापना दिवस के पहले ही विदेश चले गये। उनका गंतव्य हमेशा की तरह गोपनीय रखे  जाने पर सफाई दी गई कि वे इटली में अपनी नानी से मिलने गए हैं । पार्टी की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी भी राष्ट्रीय मुख्यालय में आयोजित समारोह में नहीं पहुँची जबकि वे दिल्ली  में ही थीं। इसका कारण उनकी  अस्वस्थता बताया गया जो काफ़ी हद तक सही है। लेकिन कांग्रेस के प्रथम परिवार के दोनों सदस्यों की गैर मौजूदगी पर न सिर्फ भाजपा अपितु राजनीति में रूचि रखने वाले अनेक लोगों ने व्यंग्य बाण छोड़े। जहाँ तक बात श्रीमती गांधी की है तो उनके स्वास्थ्य संबंधी जानकारी सर्वविदित है। वे अक्सर अस्पताल में भी भर्ती होती रहती हैं। जाँच हेतु विदेश भी उन्हें जाना पड़ता है किन्तु ऐसे समय जब पार्टी के सामने   भाजपा से लड़ने के साथ ही  अपने घर में चल रही कलह से भी जूझने जैसी समस्या खड़ी हो तब राहुल के   गैर हाजिर रहने से देश भर के  कार्यकर्ताओं में निराशा का  भाव  आना स्वाभाविक है। चूंकि उनकी अधिकतर विदेश  यात्राओं को पूरी तरह गोपनीय रखा जाता है इसलिए उन पर सदैव सवाल खड़े होते रहे हैं। मौजूदा प्रवास  यदि केवल नानी से मिलने के लिए है तब भी ये पूछा जाना गैर वाजिब नहीं होगा कि क्या वे दो दिन बाद नहीं जा सकते थे ? पहले भी  संसद में अनेक महत्वपूर्ण मुद्दों पर  पार्टी का पक्ष रखने की बजाय श्री गांधी विदेश यात्रा पर जाते रहे। एक साल तो  बजट सत्र जैसे महत्वपूर्ण अवसर पर वे पूरे समय देश के बाहर कहाँ  रहे ये आज भी रहस्य है। सुरक्षा के मद्देनजर ये गोपनीयता भले ही आवश्यक हो लेकिन देश की सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी के वास्तविक सर्वोच्च नेता के साथ जुड़ी इस तरह की बातें भारतीय संदर्भ में अटपटी लगती हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में राहुल ही कांग्रेस  के  चेहरे थे। पूरे चुनाव अभियान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर उन्होंने जिस तरह हमले किये उससे ऐसा लगा कि वे खुद को अगला प्रधानमंत्री मान बैठे थे किन्तु नतीजों ने ये साबित कर दिया कि जनता ने उन्हें उस  लायक नहीं समझा। अगर कांग्रेस की संख्या लोकसभा में 100 तक भी पहुँच जाती  तब शायद श्री गांधी अपनी पीठ थपथपा  सकते थे लेकिन वह  एक बार फिर आधे शतक के करीब आकर ठहर गई जिसके बाद उन्होंने अध्यक्ष पद तो छोड़ दिया परन्तु उत्तराधिकारी चुनने में पार्टी ने महीनों गँवा दिए और फिर सोनिया जी को ही  कामचलाऊ अध्यक्ष बना दिया जो  स्वास्थ्य अच्छा नहीं होने से वे पार्टी को पर्याप्त समय नहीं दे पाईं। वहीं राहुल भी बयानों के तीर छोडऩे से ज्यादा कुछ न कर सके। इससे दुखी होकर अंतत: पार्टी के ही दो दर्जन नेताओं ने सोनिया जी को  चिट्ठी  लिखकर अपनी  चिंता और नाराजगी जाहिर कर डाली जिसके बाद का वृतान्त  जगजाहिर है। कुछ दिनों पहले  सुलह की कोशिश भी हुई जिसके बाद दोबारा श्री गांधी की ही ताजपोशी पर सहमति बनने का संकेत दिया गया। संगठन चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने के बारे में भी  कुछ निर्णय हुए। ये सब देखते हुए स्थापना  दिवस पर यदि राहुल पूरे देश में फैले कांग्रेस कार्यकर्ताओं में उत्साह भरने का काम  करते तो वह बेहद रचनात्मक कदम होता। लेकिन एक बार फिर वे मौके पर चौका लगाने से चूक गए। प्रश्न उठ सकता है कि कांग्रेस के भीतर  जो चल रहा है उससे किसी और को क्या लेना देना ? लेकिन इसका जवाब ये है कि कांग्रेस महज एक राजनीतिक दल नहीं  अपितु  संसदीय लोकतंत्र की जरूरत भी है। देश एक ही राष्ट्रीय पार्टी के एकाधिकार का दुष्परिणाम आपातकाल के रूप में देख चुका है। इंदिरा इज इण्डिया और इण्डिया इज इंदिरा जैसा दरबारी संस्कृति वाला नारा राष्ट्रीय विकल्प के अभाव के कारण ही सुनाई दिया था।   बीते छ: साल में जिस तरह की राजनीतिक परिस्थितियां बनती आ  रही हैं उनसे कांग्रेस के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडराते दिखने लगे हैं। न सिर्फ जनता अपितु कांग्रेसजन भी काफी  निराश हो चले हैं। चूंकि  दूसरी पंक्ति के नेतृत्व को समय रहते विकसित होने का अवसर नहीं दिया गया इसलिए बतौर उत्तराधिकारी कोई चेहरा भी  नजर नहीं आ रहा। किसी  राजनीतिक पार्टी के जीवन में जय-पराजय आती-जाती रहती हैं किन्तु  राष्ट्रीय पार्टी के रूप में संसदीय संतुलन बनाये रखने के लिए कांग्रेस का सशक्त रहना  जरूरी है। क्षेत्रीय दल संसद में कितनी भी बड़ी संख्या में जीतकर आ जाएँ लेकिन उनका दृष्टिकोण संकुचित होने से वे राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावशाली नहीं हो पाते। कांग्रेस बेशक अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है लेकिन न केवल  उसका बना  रहना बल्कि सशक्त विपक्ष के तौर पर संसद और सड़कों पर मौजूदगी प्रजातंत्र की अच्छी सेहत के लिए जरूरी है। आज की स्थिति में देश सक्षम विपक्ष की कमी को महसूस करने लगा है फिर भी  कांग्रेस यदि जनता का विश्वास नहीं जीत पा रही तो  उसके लिए वह स्वयं जिम्मेदार है। लोकतंत्र में चुनावी जीत का बहुत महत्व है किन्तु विपक्षी दल संसद या विधानसभा के बाहर भी जनहित के लिए संघर्ष कर सकते हैं। कांग्रेस के लिए आज ऐसा ही मौका है।  लेकिन इसके लिए उसे एक गतिशील पार्टी के तौर पर सामने आना होगा। कांग्रेस एक ऐतिहसिक पार्टी है लेकिन यदि वह इसी तरह चलती रही तब वह इतिहास बन जाए तो आश्चर्य नहीं होगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी


भारत तो नहीं टूटेगा शिवसेना जरूर छिन्न-भिन्न हो सकती है



शिवसेना के प्रवक्ता संजय राउत राज्यसभा के सदस्य होने के साथ-साथ ही पार्टी द्वारा संचालित सामना नामक अख़बार के सम्पादन का दायित्व भी सँभालते हैं। आये दिन उनके तीखे बयान और लेख चर्चा में रहने के साथ ही विवाद खड़े करते हैं। गत दिवस उन्होंने सामना में प्रकाशित अपने विशेष कालम में लिखा कि यदि केंद्र सरकार को ये एहसास नहीं हुआ कि हम अपने राजनीतिक लाभ के लिये लोगों को नुकसान पहुंचा रहे हैं तो जैसे सोवियत संघ से टूटकर विभिन्न हिस्से अलग हो गए वैसा ही हमारे देश में होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। शिवसेना और भाजपा के बीच चूंकि राजनीतिक दूरियां काफी बढ़ चुकी  हैं इसलिए श्री राउत समय-समय पर जहर बुझे तीर छोड़ते रहते हैं। उनके अधिकांश बयानों में भाषायी  मर्यादा की धज्जियां उडाई जाती रही हैं। चूंकि शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे उनको रोकते-टोकते नहीं हैं इसलिए ये माना जा सकता है कि श्री राउत जो भी बोलते हैं वह पार्टी का अधिकृत विचार है। राजनीतिक पार्टियों की ओर से उनके प्रवक्ता अथवा अन्य नेतागण जो भी टिप्पणी या प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं उसे नीतिगत माना जाता है। यदि वे ऐसी कोई बात बोल  जाते हैं जो पार्टी की नीतियों से मेल न खाती हो तब ये सफाई दी जाती कि वे उनके निजी विचार थे। उस दृष्टि से देखें तो अब तक श्री राउत के संदर्भित लेख पर शिवसेना की तरफ से कोई टीका-टिप्पणी नहीं किये जाने से  स्पष्ट है कि पार्टी उनके विचारों से सहमत है। लेकिन भारत के सोवियत संघ की तरह विघटित होने संबंधी बात ऐसी नहीं है जिसे किसी नेता की नासमझी अथवा मूर्खता मानकर उपेक्षित किया सके। वरना भारत तेरे टुकड़े होंगे जैसे नारे लगाने वाले भी बेकसूर ठहराए जाने लगेंगे । अपनी उग्र  छवि के बावजूद शिवसेना राष्ट्रीय एकता और अखंडता की रक्षा को  लेकर सदैव बेहद संवेदनशील रही है । राजनीतिक मतभेदों के बावजूद भी उसकी तरफ से इस तरह की  बात कभी सुनने  नहीं मिली  जबकि मराठी अस्मिता उसकी राजनीति का आधार रहा है । आजादी के बाद 500 से अधिक रियासतों का भारत संघ में विलय कुछ अपवादों को छोड़कर जिस सरलता और सहजता से संभव हुआ उसका कारण  प्राचीनकाल से भारत का एक राष्ट्र के तौर कायम रहना ही था । आजादी के उपरान्त  तेलंगाना में साम्यवादियों  का सशस्त्र विद्रोह भी असफल हो गया । उसके बाद से पूर्वोत्तर के बड़े  इलाके में विदेशी ताकतों के संरक्षण में अलगाववादी संगठनों द्वारा हिंसा का सहारा लेकर भारत से अलग होने के लिए लम्बा संघर्ष किया गया  किन्तु अंतत: उन्हें भी संघीय ढांचे के अंतर्गत आकर प्रजातान्त्रिक प्रक्रिया को स्वीकार करना पड़ा । बीते अनेक दशकों से  चीन के  टुकड़ों पर पलने वाले नक्सली भारत को तोड़ने के सपने देख रहे हैं लेकिन उन्हें इसलिए सफलता नहीं मिल रही क्योंकि आतंक  के बावजूद जनमानस न तो उनसे डरा और न ही प्रभावित हुआ। पंजाब में खालिस्तान के नाम पर देश के को खंडित करने का जोरदार प्रयास भी अंतत: अपनी मौत मर गया क्योंकि  अलग पहिचान बनाये रखने के बाद भी सिख समुदाय ने  भारत से अलग होने वाली सोच को ठुकरा दिया।  कश्मीर घाटी ने भी अलगाववाद और  आतंक का लम्बा  दौर देखा लेकिन कश्मीरी पंडितों को आतंकित कर घाटी छोड़ने के लिए मजबूर भले कर  दिया गया हो लेकिन कश्मीर को भारत से अलग करने का षडयंत्र कामयाब न हो सका  तो उसकी वजह इस देश की प्राकृतिक संरचना और प्राचीनता ही है । तमिलनाडु में भी भारत से अलग होकर पृथक तमिल राष्ट्र बनाने की मुहिम शुरू हुई  जिसका फैलाव श्रीलंका तक हुआ जहां लिट्टे नामक आतंकवादी संगठन ने गृहयुद्ध की परिस्थितियां तक उत्पन्न कर दीं किन्तु वह प्रयास भी आखिरकार असफल रहा क्योंकि तमिलनाडु की जनता को   तमिल भाषा और द्रविड़ पहिचान  के प्रति आकर्षण के बावजूद भारत से अलग होना मंजूर नहीं हुआ। ये सब देखते हुए संजय राउत ने जो चेतावनी दी वह गीदड़ भभकी  से ज्यादा कुछ नहीं। आश्चर्य है महाराष्ट्र सरकार में शामिल रांकापा और कांग्रेस दोनों ने इस बारे में कुछ भी  कहना उचित नहीं समझा। भाजपा  ने जरूर श्री राउत के विरुद्ध मामला कायम करने की  मांग  की है । लेकिन ये बात केवल राजनीतिक आरोप - प्रत्यारोप तक सीमित नहीं रहना चाहिए क्योंकि भारतीय संसद के उच्च सदन का एक वरिष्ठ  सदस्य देश के टुकड़े होने की बात करे तो ये एक गम्भीर मुद्दा है । आश्चर्य की बात है कि पत्रकार होने के बावजूद श्री राउत को ये ज्ञान नहीं है कि भारत भले ही राज्यों का संघ है किन्तु ये राज्य सोवियत संघ में शामिल विभिन्न देशों की तरह न होकर इस देश के अभिन्न हिस्से थे । इसलिए राजनीतिक मतभेदों के बावजूद राष्ट्रीय एकता और अखंडता के सवाल पर संसद से ग्राम पंचायत तक पूरा देश एकमत है । आपातकाल के दौरान जब इंदिरा गांधी ने मौलिक अधिकार समाप्त करते हुए पूरे विपक्ष को जेल में ठूंस दिया तब भी देश को तोड़ने जैसी बात कहीं सुनाई नहीं दी । और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के अंतर्गत ही आपातकाल की शक्ल में आई तानाशाही पर जीत हासिल की गई । 1947 से  देश में चले आ रहे एकदलीय प्रभुत्व का दौर भी 1977 में  खत्म हो गया । बहुदलीय गठबंधन सरकारें  भी आती - जाती रहीं । राजनीतिक अस्थिरता का आलम भी देश ने देखा और  स्थायित्व भी देख रहा है । लेकिन किसी भी दौर में देश के टूटकर बिखरने जैसी बात यदि नहीं हुई तो उसका कारण भारत की सांस्कृतिक एकता ही थी जिसका  सोवियत संघ में सर्वथा अभाव था क्योंकि वह एक कृत्रिम रचना थी । संजय राउत ने जो  कुछ भी लिखा वह बेहद  गैर जिम्मेदाराना है । बेहतर तो यही होगा कि उद्धव ठाकरे उनके विरुद्ध ऐसी कार्रवाई करें जिससे उनकी प्रमाणिकता साबित हो । यदि वे ऐसा नहीं करते तब ये माना जाएगा कि शिवसेना अपने संस्थापक बाल ठाकरे की विरासत को समंदर में डुबोने पर आमादा है । शिवसेना को ये याद रखना चाहिए कि उसके नासमझ नेता के कहने मात्र से ये देश तो टूटने वाला नहीं है किन्तु यदि उसने उनकी जुबान पर लगाम नहीं  लगाई तब ये पार्टी जरूर छिन्न - भिन्न हो जायेगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 26 December 2020

फास्ट टैग के साथ ही टोल टैक्स की दरें भी घटाई जाएं




भारत सरकार ने फैसला किया है कि आगामी 1 जनवरी से सभी चार पहिया वाहनों में फ़ास्ट टैग जरूरी होगा | इसका  उद्देश्य टोल नाकों पर समय की बर्बादी रोककर ईंधन का अपव्यय रोकना है जो पर्यावरण संरक्षण के लिए भी  लाभप्रद होगा | फ़ास्ट टैग दरअसल टोल टैक्स की प्रीपेड व्यवस्था है | इसके जरिये वाहन मालिक टोल टैक्स का अग्रिम भुगतान करते हैं जिससे वाहन में लगे  टैग से उसे नाके में बिना रुके निकलने की सुविधा रहेगी और  टैक्स का भुगतान स्वचालित तरीके से होता जायेगा | नाकों के अलावा बैंकों और अन्य संस्थाओं में भी फ़ास्ट टैग खरीदने की सुविधा दी जा रही है | नाकों पर होने वाले विलम्ब और गुंडागर्दी से केवल ट्रक और बस वाले ही नहीं अपितु निजी चार पहिया वाहन वाले भी  हलाकान  थे | ये कहना गलत न होगा कि टोल  ठेके ज्यादतार बाहुबलियों के अलावा  छद्म रूप से  राजनेताओं के पास होने से आम वाहन  चालक उनकी ज्यादती का विरोध करने का साहस नहीं कर पाता | ट्रक चालकों से  मनमाना टैक्स वसूलने के नाम पर घंटों  परेशान करना बहुत ही आम शिकायत है | इसे देखते हुए ट्रांसपोर्ट ऑपरेटर्स के राष्ट्रीय संगठन ने परिवहन मंत्री नितिन गडकरी से मिलकर एकमुश्त टोल टैक्स चुकाने का प्रस्ताव देते हुए  नाके खत्म किये जाने का अनुरोध भी किया था |  स्मरणीय है सत्ता में आने से पहले श्री  गडकरी भी इस टैक्स को  समाप्त किये जाने के पक्षधर थे | हालाँकि राजमार्गों के विकास के लिए सरकार को धन की जो आवश्यकता है उसे देखते हुए टोल टैक्स पूरी तरह खत्म करना तो  सम्भव नहीं लगता | खुद श्री गडकरी भी अब  ये कहने  लगे  हैं कि अच्छे हाईवे पर चलना है तब टोल टैक्स तो देना ही पड़ेगा | पूरी दुनिया में टोल टैक्स का प्रचलन है | इसी  के साथ ये अवधारणा भी वैश्विक स्तर  पर सर्वमान्य होती जा रही है कि किसी भी देश में  विकास का मापदंड वहां की सड़कें विशेष रूप से हाईवे होते हैं | प्रथम  विश्व युद्ध के बाद आई आर्थिक महामंदी से उबरने के लिए अमेरिका में बड़े पैमाने पर राजमार्गों और पुलों आदि का निर्माण किया गया जिसने निश्चित रूप से उस देश की तकदीर और तस्वीर दोनों बदल दीं | भारत में राजमार्गों को विश्वस्तरीय बनाकर सड़क परिवहन को सरल , सुरक्षित और सुविधाजनक बनाने की परिकल्पना को पूर्व प्रधानमन्त्री स्व. अटलबिहारी वाजपेयी ने मूर्तरूप देते हुई स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना का शुभारम्भ किया था  | उसी के साथ उन्होंने गाँवों को पक्की सड़क से जोड़ने का जो बीड़ा उठाया उसने ग्रामीण  विकास की असीम सम्भावनाओं को जन्म दिया | हालांकि 2004 में उनकी  सरकार चली जाने के बाद मनमोहन शासन  में राजमार्गों के निर्माण  की गति धीमी रही वरना अब तक स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना पूरी हो चुकी होती | 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार के आने के बाद संयोगवश श्री  गडकरी को परिवहन मंत्रालय दिया गया और उन्होंने वाजपेयी सरकार के रुके काम को गति देते हुए देश भर में राजमार्गों का निर्माण जोरशोर से प्रारम्भ करवा दिया | इसके सुपरिणाम भी देखने मिल रहे हैं |  विशेष रूप से व्यावसायिक वाहनों मसलन ट्रक और बस चालकों को उच्चस्तरीय हाईवे के साथ ही फ्लायओवर के कारण समय और ईंधन की बचत तो होने लगी किन्तु टोल नाके की अव्यवस्था के चलते वे हलाकान थे और सरकार को भी टैक्स की वसूली के सही आंकड़े न मिलने से  नाका भी  निर्धारित समय सीमा के बाद भी जारी रहता था | निश्चित रूप से इस गोरखधंधे को नेता और नौकरशाहों के  गठजोड़ का संरक्षण रहा  | फास्ट टैग व्यवस्था  लागू होने के बाद से टोल नाकों पर होने वाली गुंडागर्दी और जबरिया वसूली पर काफ़ी रोक लगी है । लेकिन बीते कुछ समय से ये शिकायतें  मिल रही थीं कि निजी टोल नाकों पर फ़ास्ट टैग लगा होने के बाद भी नगद भुगतान लिया जाता है | 1 जनवरी से फ़ास्ट टैग अनिवार्य होने के बाद अब नगद भुगतान की व्यवस्था पूरी तरह रुकना चाहिए | दूसरी बात ये है कि शहरों से सटे कस्बों तक आने - जाने के लिए लगने वाले टोल टैक्स में छूट  जरूरी है | इसका कारण ये है कि ऐसे अनेक कस्बों से कुछ दूर  पहले राजमार्ग निकलने के कारण लोगों को अपने घर से खेत तक आने जाने के लिए भी  टोल नाके से गुजरना होता है | ये समस्या देश भर में सैकड़ों जगह देखने मिल रही है जिससे लोगों में नाराजगी है | बेहतर हो श्री गडकरी व्यक्तिगत रूचि लेकर स्थानीय परिवहन को टोल टैक्स से राहत दिलवाने की व्यवस्था करें और एक न्यूनतम दूरी तक आने - जाने पर गैर व्यवसायिक वाहनों के लिए राहत की  नीति बने | वैसे सड़क मार्ग से लंबी यात्राएँ करने वाले ये सवाल भी उठाने लगे हैं कि जब नये वाहन के पंजीयन के समय ही रोड टैक्स का एकमुश्त भुगतान  ले लिया जाता है तब टोल टैक्स का क्या औचित्य है ? वैसे भी  अब चार पहिया वाहन केवल धन्ना सेठों की सवारी नहीं रही | भारत के विशाल मध्यम वर्ग में भी भले ही छोटी हो किन्तु कार रखने का चलन बढ़ चला है | देश में आई ऑटोमोबाइल क्रांति के पीछे मध्यमवर्ग के जीवन स्तर में हुआ सुधार भी बड़ा कारण है | कोरोना काल में अपने वाहन से लम्बी यात्रा करने का चलन भी तेजी से बढ़ा है  | चूँकि फ़ास्ट टैग प्रणाली  पूरी तरह से लागू हो जाने के बाद टोल टैक्स  से सरकार को होने वाली आय में पर्याप्त वृद्धि होगी और नाके वालों की अवैध वसूली पर भी विराम लगेगा इसलिए जरूरी है कि टैक्स की दरों में कमी की जाये जिससे सड़क परिवहन सुचारू और सस्ता हो | वर्तमान में तो 1 रूपये प्रति किमी से भी  ज्यादा टोल टैक्स लग जाता है | परिवहन मंत्री जमीनी सच्चाई से वाकिफ हैं इसलिये उनसे  अपेक्षा की जा सकती है कि वे राजमार्गों के निर्माण में रूचि लेने के साथ ही  टोल टैक्स व्यवस्था में व्याप्त  विसंगतियों की ओर भी ध्यान देंगे | राजमार्गों को विश्वस्तरीय बनाना समृद्ध और विकसित भारत का प्रतीक तो होगा लेकिन उसके साथ ही ये भी जरूरी  होगा कि  उस पर चलने के सुख से आम आदमी को वंचित न किया जाए | फ़ास्ट टैग प्रणाली से सरकार के साथ ही जनता को भी फायदा मिले तभी उसकी सार्थकता है ।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 25 December 2020

भारतीय खाद्यान्न का निर्यात अगली क्रांति कर सकता है



कुछ समय पहले केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी का एक वीडियो बड़ा चर्चित हुआ जिसमें उन्होंने भारतीय कृषि के उत्थान के लिए बड़े ही व्यवहारिक सुझाव दिए थे। उनके अनुसार किसानों को बदलते समय की जरूरतों के मुताबिक अपने उत्पादों का चयन करना चाहिए जिससे वे ज्यादा कमाई करने के साथ ही मांग और पूर्ति के अर्थशास्त्रीय सिद्धांत से बंधने की बजाय अपने उत्पाद को बेचने के लिए स्वतंत्र और स्वायत्त हों। उल्लेखनीय है श्री गडकरी ने महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में नए-नए प्रयोग करते हुए किसानों को मजबूर के बजाय मजबूत बनाने के लिए काफी काम किया जिसके अच्छे परिणाम भी आये। उनका कहना है कि खेती को ढर्रे से निकालकर बहुमुखी बनाए बिना किसान की आय बढ़ाना असंभव है। भारत में साल दर साल अन्न का उत्पादन तो बढ़ रहा है लेकिन वह मुख्यत: गेंहू और धान पर केन्द्रित होने से इनका तो अतिरिक्त उत्पादन होता है जबकि दलहन और तिलहन का उत्पादन हमारी जरूरतों के अनुसार न होने से उनका आयात किया जाता है। खाद्य तेल में मिलावट के पीछे भी यही कारण है। दूसरी बात जो श्री गडकरी ने कही वह ये कि हमारे देश में रिकॉर्ड कृषि उत्पादन का लाभ राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को तभी हो सकता जब उसे गोदामों में सड़ाने की बजाय निर्यात करें। उल्लेखनीय है भारत दुनिया में खाद्यान्न पैदा करने वाला अग्रणी देश बन जाने के बाद भी निर्यात के क्षेत्र में काफी पीछे है। दूसरी तरफ सरकारी गोदामों में जो भण्डार है वह आने वाले दो से तीन साल तक घरेलू जरूरतों को पूरा करने में सक्षम है। एक समय था जब भारत में खाद्यान्न की मारामारी थी और हमें अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और कैनेडा से गेंहू मंगवाकर राशन दुकानों के माध्यम से बंटवाना पड़ता था। लेकिन सत्तर के दशक में हरित क्रांति के माध्यम से आत्मनिर्भरता का लक्ष्य पूरा करने के साथ ही घरेलू जरूरतों को पूरा करने के बाद बचा खाद्यान्न सरकारी खरीद के जरिये सुरक्षित अन्न भंडार के तौर पर गोदामों में रखा जाने लगा। इसका प्रत्यक्ष लाभ इस वर्ष कोरोना के कारण लगाये गये लम्बे लॉक डाउन के समय देखने मिला जब केंन्द्र सरकार ने गरीबों को मुफ्त और सस्ता खाद्यान्न देकर देश को अराजकता से बचा लिया। श्री गडकरी ने अपने संदर्भित वक्तव्य में इस ओर ध्यान दिलाते हुए कहा कि न केवल किसान अपितु सरकार के लिए भी ये जरूरी है कि अनाज के निर्यात के लिए ठोस प्रयास किये जाएं जिससे किसान को उसकी मेहनत और सरकार को उसके निवेश का समुचित लाभ मिलने के साथ ही दलहन और तिलहन के आयात के कारण बनने वाले व्यापार असंतुलन की  स्थिति को सुधारा जा सके। श्री गडकरी ने किसानों को जैव ईंधन के उत्पादन सम्बन्धी जो सुझाव दिए वे खेती के लिए क्रांतिकारी हो सकते हैं। हाल ही में प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने प्रतिवर्ष गोदामों में उचित रखरखाव के अभाव में सड़ने वाले अनाज की जो कीमत बताई वह आँखें खोल देने वाली है। यदि उसे रोका न गया तब किसान की तरह सरकार की लिए भी अनाज की खरीदी बड़े घाटे का कारण बनती जायेगी। लेकिन निर्यात के क्षेत्र में हमारे कदम तभी आगे बढ़ सकते हैं जब उत्पादों की गुणवत्ता और पैकिंग वगैरह अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप हो। भारतीय उद्योग जगत इस कार्य में जिस तरह रूचि लेने लगा है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि आगामी कुछ वर्षों के भीतर भारत अनाज के सबसे बड़े उत्पादक के साथ ही निर्यातक भी बन सकेगा। कोरोना काल में चीन ने हमारे चावल को बड़ी मात्रा में खरीदा और ताजा समाचार के अनुसार बांग्ला देश से भी चावल का बड़ा ऑर्डर मिला है। वैश्विक मांग को देखते हुए भारत ने थाईलैंड और इंडोनेशिया जैसे बड़े चावल निर्यातक देशों की तुलना में प्रतिस्पर्धात्मक कीमतों का प्रस्ताव देकर निर्यात के क्षेत्र में जिस तरह कदम आगे बढ़ाये वह एक शुभ संकेत है। परम्परागत किसानी से अलग उच्च और पेशेवर शिक्षा प्राप्त युवाओं का एक वर्ग उन्नत कृषि के उद्देश्य से मैदान में उतरा है जिसे घरेलू और वैश्विक बाजार के माहौल के साथ मांग सम्बंधी सम-सामयिक जानकारी रहती है। भारतीय कृषि में वैल्यू एडिशन की जो जरूरत है उसे पूरा करने के अपेक्षा इस वर्ग से है। मौजूदा किसान आन्दोलन का क्या अंजाम होगा ये अलग विषय है लेकिन इस बहाने भारतीय कृषि में समयानुकूल सुधारवादी बदलाव की जरूरत को समझकर तद्नुसार फैसले लेने की जरूरत है। ये मानकर चलना भी गलत न होगा कि इस आन्दोलन के माध्यम से जो वैचारिक मंथन हो रहा है उसमें अमृत रूपी जो तत्व निकलेगा वह भारत के किसानों को स्वर्णिम भविष्य की ओर ले जा सकता है। समय आ गया है जब किसानों की आय को केवल दोगुना ही क्यों कई गुना बढ़ाने के प्रकल्प तैयार हों। लेकिन उसके लिए किसानों को भी ढर्रे से निकलकर कुछ खतरे उठाने होंगे। हरित क्रांति ने देश को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाया लेकिन अब अगली क्रान्ति किसान को आत्मनिर्भर बनाने के लिए होनी चाहिए जिसके लिए नितिन गडकरी जैसे व्यवहारिक राजनेता के विचारों पर अमल करना लाभदायक हो सकता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 24 December 2020

बेहतर होगा सरकार और किसान संगठन ही बीच का रास्ता निकाल लें



जैसी आशंका थी वैसा ही हो रहा है। दिल्ली घेरकर बैठे किसानों का आंदोलन ठहराव की स्थिति में आ गया है। केंद्र सरकार  और किसान नेताओं के बीच  आधा दर्जन औपचारिक और उससे भी ज्यादा अनौपचारिक वार्ताओं के बाद भी अभी तक यही तय नहीं हो सका कि बातचीत के मुद्दे क्या हों? सरकार की मानें तो पहले दौर में किसान संगठनों ने नए कृषि कानूनों में संशोधन पर सहमति  दी थी लेकिन बाद में वे उन्हें वापिस लेने की जिद पकड़कर बैठ गये, जबकि सरकार का रुख  शुरू से ही ये था कि जिन बिदुओं पर  ज्यादा  ऐतराज है उनमें संशोधन  किया जा सकता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ ही सरकारी मंडियों को जारी रखे जाने का आश्वासन मंत्री से लेकर प्रधानमन्त्री तक दे चुके हैं लेकिन किसान संगठन उस पर विश्वास करने तैयार नहीं है। सरकार की तरफ से आये दिन नए- नए प्रस्ताव भेजकर वार्ता शुरू करने की पेशकश की जाती है लेकिन किसान नेता  ये कहते हुए इंकार कर देते हैं कि कानूनों को वापिस लिए बिना कोई बातचीत नहीं की जायेगी। इस रुख से तो  बातचीत की सम्भावना ही खत्म हो जाती है क्योंकि सरकार  कानूनों को वापिस लेने के  लिए राजी हुई  तब  वह फैसला उसकी पराजय से ज्यादा नई - नई समस्याओं को जन्म देने वाला बन सकता है और  इसी तरह के दबाव बनाकर सरकारी फैसले बदलवाने का अंतहीन सिलसिला शुरू हो जाएगा। ये बात पूरी तरह साफ़ हो चुकी है कि किसान संगठन चाहे कितने भी दावे करते रहें लेकिन अभी तक वे अपने आन्दोलन को पंजाब और हरियाणा के अलावा दिल्ली से सटे पश्चिमी उप्र और राजस्थान के कुछ हिस्सों से आगे नहीं बढ़ा सके। दिल्ली की आपूर्ति रोककर सरकार को घुटने  टेकने जैसी धमकियां भी कारगर नहीं पा रहीं क्योंकि एक तो उससे जनता का विरोध किसानों को झेलना पड़ेगा वहीं राष्ट्रीय राजधानी को दूध और सब्जी की दैनिक आपूर्ति  करने वाले पशुपालक और किसान नाराज हो जायेंगे जिन्हें इस आन्दोलन के चलते पहले ही काफी नुक्सान हो चुका है। गत दिवस महाराष्ट्र के अमरावती से खबर आई कि किसान आन्दोलन के कारण वहां का संतरा दिल्ली की मंडी तक नहीं  पहुँच पाने से संतरा उत्पादक किसानों को भारी घाटा उठाना पड़ रहा है। चूँकि दोनों ही पक्ष  अपनी-अपनी बात पर अड़े हुए हैं इसलिए अब देखने वाली बात ये होगी कि  कौन भारी पड़ेगा? जहां तक बात किसानों की है तो वे इसी तरह बिना किसी फैसले के बैठे रहे तब आन्दोलन की  आक्रामकता में क्रमश: कमी आती जायेगी और हो सकता है सरकार उसी का  इन्तजार कर रही हो। दूसरी तरफ किसान संगठनों के नेताओं ने सरकार के साथ वार्ता के लिए जो शर्त रख दी है वह पूरी तरह मान लेना सरकार के लिए भी  कठिन तो है ही। चूँकि आन्दोलन की दिशा न कहते हुए भी भाजपा और प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी विरोधी हो चुकी है  इसलिए  केंद्र सरकार  आसानी से मान जायेगी इसकी संभावना भी कम लग रही  है। जैसी कि जानकारी सत्ता पक्ष के सूत्रों से आ रही है उसके अनुसार प्रधानमन्त्री सहित भाजपा के रणनीतिकार इस आन्दोलन के राजनीतिक परिणाम का आकलन करने में जुटे हैं। प्रधानमंत्री को लगता है कि  अंतत: जिस तरह नोटबंदी और जीएसटी जैसे फैसलों का जबरदस्त विरोध होने के बाद भी चुनाव में भाजपा को जबरदस्त सफलता मिली वैसी ही सम्भावना इस मुद्दे पर उन्हें नजर आ रही है। इसकी वजह ये है कि इसके प्रति जन साधारण तो क्या आम किसान तक पूरी तरह से निर्विकार बना हुआ है। बीते 9 दिसम्बर को आयोजित भारत बंद का सीमित असर ही हुआ। इसके बाद ये अवधारणा भी राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित होती गई कि आन्दोलन केवल संपन्न किसानों का है और पंजाब तथा हरियाणा के किसान चूंकि पूरी तरह सरकारी खरीद पर निर्भर हैं इसलिए उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकारी मंडियों के खत्म होने की आशंका सता रही है। देश में सबसे ज्यादा  किसानों वाले राज्य उप्र के पश्चिमी इलाके को छोड़कर बाकी हिस्सों में इस  आन्दोलन की चर्चा तो है लेकिन पक्ष - विपक्ष में किसी तरह का माहौल नजर नहीं आ रहा क्योंकि वहां सरकारी खरीद और समर्थन मूल्य से किसान ज्यादा लाभान्वित नहीं हो पाते। पश्चिमी उप्र भी मुख्यत: गन्ने के लिए जाना जाता है। ऐसे में ये आन्दोलन महज एक धरने की शक्ल में  कब तक जारी रखा जा सकेगा ये बड़ा सवाल है। किसान नेता लगातार कहते आ रहे हैं कि सरकार उन्हें थका देने की रणनीति पर चल रही है किन्तु इसके बाद  भी आन्दोलन में  नित नई ऊर्जा का संचार हो रहा  है और जिस तरह से संसाधन और समर्थन उन्हें मिल रहा है उसके आधार पर वे लड़ाई लंबी खींचने में सक्षम हैं। अब तक जो कुछ भी  हुआ उससे एक बात साफ़ है कि किसान  संगठनों  और सरकार के बीच  संवाद का कोई विश्वसनीय  माध्यम नहीं बन सका। आन्दोलन का नेतृत्व सतह पर भले ही गैर राजनीतिक दिखाई देता हो लेकिन धीरे - धीरे ही सही लेकिन ये बात साबित होती जा रहे है कि उसमें सरकार विरोधी मानसिकता वाले लोगों की भरमार होने से संवाद प्रक्रिया पटरी पर आ ही नहीं पा रही। अकाली दल के भाजपा से अलगाव के बाद तो खाई और चौड़ी हो गई। ऐसे में आंदोलन भले ही जारी हो लेकिन बीते लगभग एक महीने में बात एक इंच भी आगे नहीं बढ़ सकी। सच तो ये है कि बीच का रास्ता  निकाले बिना बात शायद ही बने।  और ये तभी सम्भव होगा जब दोनों पक्ष प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाये बिना समाधान का प्रयास करें। यदि किसान संगठनों और सरकार के बीच सुलह नहीं हो पाती तब सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप अवश्यम्भावी हो जाएगा जो कि अपनी इच्छा संकेतों में बता भी चुका है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 21 December 2020

नेपाल : पड़ोसी के आँगन में सुलग रही चिंगारी उड़कर हमारे घर भी आ सकती है




पड़ोसी देश नेपाल से हमारे सम्बन्ध राजनयिक औपचारिकताओं से बहुत ऊपर हैं। सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से दोनों एक  है। भगवान राम की पत्नी सीता जी की जन्मस्थली जनकपुर नेपाल में ही है। काठमांडू स्थित पशुपतिनाथ का मंदिर भी भारत के  हिन्दुओं  के लिए उतना ही पूजनीय है जितना नेपाल के। दोनों देशों के नागरिकों को  बिना पासपोर्ट के आवजाही की छूट है। नेपाल में हजारों भारतीय व्यापारी  हैं वहीं भारत में लाखों नेपाली अपना पेट पालते हैं। नेपाली नागरिक भारतीय फौज में भी भर्ती होते हैं। गोरखा रेजीमेंट भारतीय सेना की शान मानी जाती है। बिहार से सटे तराई इलाके में रहने वाले मधेसी मूलत: बिहार और पूर्वी उप्र से जुड़े होने से आज भी अपने बेटे-बेटी का रिश्ता वहीं करना पसंद करते हैं। नेपाल के पूर्व राजवंश के साथ ही संपन्न वर्ग के लोग अपने बच्चों को भारत में शिक्षा हेतु भेजते हैं। भारत ने नेपाल के विकास में भी बढ़-चढ़कर मदद की है। एकमात्र हिन्दू राष्ट्र होने से भारत में इस पहाड़ी देश के प्रति छोटे भाई जैसा भाव सदियों  से  रहा है। नेपाल का विदेशी व्यापार  भारत के बंदरगाहों और सड़क मार्ग से ही होता है। लेकिन आजादी के बाद देश में बनी पंडित नेहरु की सरकार को नेपाल की राजशाही और हिन्दू राष्ट्र होने की बात नागवार गुजरने के कारण राजपरिवार के विरोध में आन्दोलन करने वाले नेताओं को भारत में पनाह मिलती रही। समाजवादी और वामपंथी विचारधारा के लोगों ने भी वहां राजतंत्र को अस्थिर करने वालों को प्रश्रय और प्रोत्साहन दिया। इस कारण नेपाल के राजवंश में भारत के प्रति शंका का बीजारोपण हुआ और वह चीन की तरफ झुकने लगा। यद्यपि इसके पीछे सोच ये थी कि शायद चीन का समर्थन और शह पाकर नेपाल में सक्रिय हो उठे माओवादियों को दबाकर रखा जा सकेगा लेकिन यहीं राजवंश चूक कर गया और चीन के साथ दोस्ती की भारी कीमत उसे चुकानी पड़ी।  देश गृह युद्ध में फंसता चला गया।  रही-सही कसर पूरी  कर दी राजघराने में हुए खूनी संघर्ष ने जिसमें तत्कालीन महाराजा वीरेन्द्र और उनके समूचे परिवार की नृशंस ह्त्या उन्हीं के बेटे दीपेन्द्र द्वारा किया जाना बताया गया। 1 जून 2001 को हुए उस काण्ड की पृष्ठभूमि में यूँ तो राजकुमार की प्रेम कथा प्रचारित हुई  लेकिन अधिकतर लोगों का मानना था कि उस घटना के पीछे कोई षड्यंत्र था जिसके तार स्वर्गीय महाराजा के भाई ज्ञानेंद्र से जुड़े थे। यही वजह रही कि ज्ञानेन्द्र महाराजा तो बन गये  लेकिन जनता का विश्वास और सम्मान दोनों गँवा बैठे जिसका लाभ उठाकर माओवादी अपनी जड़ें मजबूत करते गए और 2006 में हालात बेकाबू होने लगे तब ज्ञानेन्द्र को माओवादियों से समझौता करना पड़ा और नेपाल सीमित राजतंत्र से पूर्ण प्रजातान्त्रिक देश में बदल गया। दुनिया के सबसे गरीब देशों में शुमार नेपाल की जनता को ये लगा था कि राजतंत्र के खात्मे के बाद उनकी दशा सुधर जायेगी लेकिन उनकी उम्मीदें पूरी नहीं हुईं। माओवादी सत्ता में देश  राजनीतिक अस्थिरता के भंवर में फंसता चला गया जिसका लाभ लेकर  चीन ने उसे अपना उपनिवेश बनाने का जाल बिछा दिया। इसी  कारण नेपाल में भारत विरोधी भावनाएं तेजी से फैलाई जाती रहीं जिसका चरमोत्कर्ष बीत रहे साल में मिला जब भारत के साथ नक्शा विवाद शुरू करते हुए वहां की ओली सरकार ने सैन्य टकराव तक की स्थिति पैदा कर दी। सबसे बड़ी बात ये रही कि लद्दाख में  चीन और भारत के बीच उत्पन्न सैन्य तनाव के दौरान ही नेपाल भी भारत से दो-दो हाथ करने की हिमाकत करने लगा। यद्यपि भारत द्वारा बनाये गये दबाव से  प्रारम्भिक अकड़ के बाद वह ठंडा पड़ता गया  लेकिन  उसके बाद वहां के वामपंथी नेता ही आपस में भिड़ गए। पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प दहल कमल ने वर्तमान प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को सत्ता से हटाने के लिये जबरदस्त अभियान छेड़ दिया। दोनों के बीच समझौते की कोशिशें भी हुईं लेकिन प्रचंड नहीं माने और जब ओली को लगा कि बात नहीं बन रही तब उन्होंने गत दिवस संसद भंग करवाकर नए चुनाव का रास्ता साफ़ कर दिया। रोचक बात ये है कि ओली और प्रचंड दोनों चीन द्वारा ही पालित और पोषित हैं। ऐसे में उनमें मतभेदों का इतना गहरा जाना रहस्यमय है। लगता है चीन की इसके पीछे भी कोई दूरगामी रणनीति है। लेकिन इस सबसे अलग एक अप्रत्याशित घटनाक्रम नेपाल में चल पड़ा और वह है राजतंत्र की वापिसी के लिए आंदोलन की शुरुवात। देश के अनेक हिस्सों से ये मांग उठ रही है कि माओवादी शिकंजे से निकलकर राजशाही की ओर लौटा जाए। अनेक राजनीतिक  दलों ने इस आन्दोलन की बागडोर संभाल रखी है। प्रधानमन्त्री ओली द्वारा भारत से शत्रुता लेकर चीन के चरणों में लोटने की नीति को भी  एक वर्ग नापसंद कर रहा है। भले ही एक तबके के मन में भारत विरोधी भावनाएं स्थापित करने में माओवादी सफल हो गये हों लेकिन ज्यादातार नेपाली मानते हैं कि भारत के साथ रिश्ते खराब करने से नेपाल का गुजारा संभव नहीं है। तराई में रहने वाले मधेसी भी वहां जनमत को प्रभावित  करने  की हैसियत रखते हैं जिनके हितों की रक्षा के लिए ही कुछ बरस पहले मोदी सरकार ने नेपाल की नाकेबंदी कर उसे सबक सिखाने की नीति अपनाई थी। उसके बाद से दोनों के बीच तल्खी बढी लेकिन ओली सरकार की हालिया हरकतों के बाद तो हालात युद्ध की कगार तक जा पहुंचे थे। बीते कुछ समय से नेपाल एक बार फिर  अस्थिरता में घिर गया है। माओवादी आपस में लड़ रहे हैं। चीन के विरोध में जनता सड़कों पर उतरने से परहेज नहीं कर रही, राजशाही की वापिसी की आवाजें उठ रही हैं। और इसी बीच प्रधानमंत्री ओली ने संसद भंग कर नया विवाद खड़ा कर दिया। निश्चित रूप से ये नेपाल का अंदरूनी मामला है लेकिन इसकी परिणिति 1970 में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में पैदा हुए हालातों जैसी हो सकती है और तब भारत को नयी शरणार्थी समस्या का सामना करना पड़े तो आश्चर्य नहीं होगा। चीन ने नेपाल को राजनीतिक तौर पर कब्जाने की पूरी तैयारी कर रखी है। ओली और प्रचंड सभी उसके मोहरे हैं। गृहयुद्ध के हालात बनाकर वह ठीक वैसे ही हस्तक्षेप कर सकता है जैसा भारत ने 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में किया था। वैसे भी चीन के लिए नेपाल में घुसना बहुत ही आसान है। भारत के लिए पड़ोस में सुलग रही इस आग से खुद को बचाते हुए अपने हितों को सुरक्षित रखने की चुनौती है। हालाँकि नेपाल  भारत से पूरी तरह नाता तोड़ने की जुर्रत करने जैसा आत्मघाती कदम तो नहीं उठा सकता लेकिन उसकी भीतरी उथल पुथल पर हमें पैनी नजर रखनी होगी क्योंकि इस पहाड़ी देश के भीतर चल रहे सत्ता संघर्ष में केवल ओली और प्रचंड ही नहीं चीन भी अघोषित पक्ष है और यही भारत के लिए चिंता का सबसे बड़ा कारण है।

-रवीन्द्र वाजपेयी


Saturday 19 December 2020

मुसलमानों में व्याप्त नेतृत्व शून्यता का लाभ उठा रहे ओवैसी



बिहार चुनाव के बाद  नीतीश कुमार और भाजपा की सरकार बनने के अलावा  राजद के  सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने से ज्यादा चर्चा एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी की हो रही है | यद्यपि उनकी पार्टी ने  सीटें तो महज 5 हासिल कीं लेकिन मुस्लिम बहुल सीमांचल के इलाके में उनके कारण  राजद और कांग्रेस दोनों को काफी नुकसान हो गया जिसकी वजह से नीतीश सत्ता में लौट आये वरना सत्ता विरोधी लहर जिस तरह महसूस की जा रही थी उससे ज्यादातर  विश्लेषक मान बैठे थे कि लालू पुत्र तेजस्वी का  बिहार की राजनीति में एक नए नक्षत्र के तौर पर उभरना तय है | वैसे भी  दो चार सीटें इधर - उधर हो जातीं तो पांसा पलट सकता था | सही मायने में  ओवैसी ने महागठबंधन के हाथ से जीत छीन ली | और उसी के बाद से उन पर ये आरोप बहुत ही सामान्य  हो चला कि वे भाजपा की बी टीम हैं | लेकिन इससे  विचलित हुए बिना ओवैसी ने  बिना समय गंवाए बंगाल और उप्र विधानसभा के आगामी चुनाव में हाथ आजमाने की घोषणा करते हुए तैयारियां शुरू कर दीं | उल्लेखनीय है उक्त दोनों राज्यों में ही मुस्लिम आबादी औसतन 25 फीसदी बाताई जाती है | लेकिन उसमें भी महत्वपूर्ण ये है कि अनेक विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम एकजुट हो जाएँ तो दूसरा कोई जीत ही नहीं सकता | एक जमाना था जब मुसलमान कांग्रेस के अलावा और किसी को देखते तक न थे परन्तु 1977 के चुनाव में उन्होंने पहली बार कांग्रेस से दूरी बनाई और उसके बाद धीरे - धीरे जो क्षेत्रीय पार्टियाँ उभरीं उन्होंने भी मुस्लिम तुष्टीकरण के फार्मूले को अपनाया जिसके कारण मुसलमानों  पर कांग्रेस का एकाधिकार घटता चला गया | राष्ट्रीय राजनीति को सर्वाधिक  प्रभावित करने वाले  सबसे बड़े  राज्य उप्र में उनको मुलायम सिंह यादव ने आकर्षित कर लिया तो बिहार में लालू यादव ने पकड़ बना ली | बंगाल में वे पहले वामपंथी दबाव में रहे और फिर  ममता बैनर्जी के प्रभाव में चले गये | इसका सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को ही हुआ | आजादी के बाद से लम्बे समय तक दलित और मुस्लिम मतदाता उसके सबसे विश्वसनीय समर्थक थे | लेकिन कालान्तर में दलितों को कांशीराम ने बसपा के साथ जोड़ा वहीं मुसलमान भी भाजपा विरोधी  क्षेत्रीय पार्टियों के साथ जाने लगे | उधर नब्बे के दशक से भाजपा ने खुलकर हिंदुत्व का जो झंडा उठाया  उसकी वजह से वह मुख्यधारा की पार्टी बनते - बनते कांग्रेस को पीछे छोड़ते हुए सबसे बड़ी पार्टी बन बैठी | सबसे प्रमुख बात ये रही कि नरेंद्र मोदी के परिदृश्य में आने के बाद केवल मुस्लिमों और ईसाइयों को छोडकर भाजपा ने सभी जातियों और वर्गों में अपनी पैठ बना ली | उप्र में जिस तरह उसने सपा और बसपा के गठबंधन को धराशायी किया वह छोटी बात नहीं थी | लेकिन बीते कुछ सालों में सबसे ज्यादा नुकसान  मुसलमानों का हुआ जो भाजपा विरोध की राजनीति में फंसकर  पूरी तरह किनारे हो गए | संसद और विधानसभाओं में उनकी संख्या में जिस तेजी से गिरावट आई उसने उनके बीच ये भाव पैदा किया कि वे  अनाथ हो चले हैं  | भाजपा के तेज प्रवाह को रोकने के लिए धर्मनिरपेक्षता का ढोंग रचने वाली तमाम पार्टियाँ भी जब  हिंदुत्व का चोला ओढ़ने का स्वांग रचने लगीं तब मुसलमान ठगे से रह गए | बीते छः साल में मोदी सरकार द्वारा उठाये गये कई कदम मुस्लिम समाज को नागवार गुजरे लेकिन कांग्रेस , सपा , राजद और ऐसी ही अन्य पार्टियाँ जो उनके मतों के सहारे ही फली - फूलीं उनकी सहायता करने में असफल रहीं जिसका लाभ उठाते हुए ओवैसी मुस्लिम समुदाय के प्रवक्ता  बन बैठे और देखते - देखते हैदराबाद की सीमा से निकलकर पहले बिहार और अब बंगाल तथा  उप्र में  फैलाव  की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं | बंगाल में उन्होंने मुस्लिम बाहुल्य वाली सीटों पर ध्यान केन्द्रित करते हुए ममता बैनर्जी की नींद उड़ा दी  जिन्होंने ओवैसी पर  भाजपा से पैसे लेकर उम्मीदवार खड़े करने का आरोप लगा दिया | जवाब में ओवैसी ने डींग हाँकी कि दुनिया का अमीर से अमीर इन्सान भी उन्हें खरीद नहीं सकता | गत दिवस लखनऊ आकर ओवैसी ने उप्र में पिछड़े वर्ग के नेता ओमप्रकाश राजभर और मुलायम सिंह यादव के अनुज शिवपाल यादव से मुलाकात कर गठबन्धन की संभावनाएं टटोलीं | सही बात ये है कि धर्मनिरपेक्षता का दिखावा करने वाली पार्टियों ने मुसलमानों का लम्बे समय तक भयादोहन करते हुए उन्हें मुख्यधारा से अलग रखने का जो दांव चला वह उन्हें अब जाकर समझ आने लगा है | ओवैसी ने इसे लपक लिया और मुसलमानों की आवाज बनकर पहले संसद और अब पूरे देश में उनके एकछत्र नेता बनने की महत्वाकांक्षा के साथ सक्रिय हो उठे | मुल्ला  - मौलवियों से अलग ओवैसी का अंदाज पढ़े - लिखे नेता का है | वे टीवी चैनलों की बहस में बिना चिल्लाये अपनी बात रखते हैं | संविधान की दुहाई भी बात - बात में देना नहीं  भूलते | अभी तक उनकी सियासत हैदराबाद की पुरानी निजामशाही के  साथ ही महाराष्ट्र के मराठवाड़ा अंचल तक सीमित  थी किन्तु बिहार के नतीजों ने उनका हौसला बुलंद कर दिया है | उन्हें ये भी दिख गया है कि धर्मिक नेताओं में मुस्लिम समुदाय का भरोसा पहले जैसा नहीं  रहा जो  मस्जिदों और धार्मिक जलसों में ही सिमटे होने से अपना प्रभाव गंवाते जा रहे हैं | वैसे ओवैसी बिहार रूपी प्रवेश परीक्षा में तो सफल हो गए लेकिन बंगाल में उनका पहला बड़ा इम्तिहान होगा जो मुस्लिम राजनीति के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है | यदि वे वहां मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण करने में कामयाब हो गए तब फिर उप्र में उनकी कोशिशें रंग  ला सकती हैं | हालाँकि सपा मुसलमानों को आसानी से हाथ से जाने देगी ये मान लेना जल्दबाजी होगी लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि वर्तमान में देश का मुस्लिम समुदाय राजनीतिक दृष्टि से नेतृत्वविहीन है जिसका लाभ उठाकर ओवैसी  अपने पैर फैलाने की सोच रहे हैं | इस मुहिम में वे कितने कामयाब हो पाएंगे इसका आकलन फिलहाल तो करना जल्दबाजी होगी लेकिन इतना  तो कहा ही जा सकता है कि उनका उत्थान कांग्रेस के  साथ ही अनेक दूसरी पार्टियों के नुकसान का कारण बने बिना नहीं रहेगा जो मुसलमानों को अपना बंधुआ समझती थीं | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 18 December 2020

देश को चाहिए मजबूत विपक्ष और कांग्रेस को चाहिए नया ऊर्जावान नेतृत्व



कांग्रेस की कार्यकारी  अध्यक्ष सोनिया गांधी  पार्टी के भीतर उपजे असंतोष को दूर करने का अभियान शुरू करने जा रही हैं। कल से उन नेताओं को छोटे-छोटे समूहों में बुलाकर  बात की जावेगी जिन्होंने कुछ महीने पहले उन्हें पत्र लिखकर पार्टी में शीर्ष पद हेतु चुनाव करवाने के साथ ही उसकी बिगड़ती हालत पर चिंता जताई थी। उन नेताओं में गुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल जैसे नाम भी थे जिन्हें गांधी परिवार के बेहद निकट समझा जाता था। उस पत्र को सार्वजनिक किये जाने को लेकर भी काफी बवाल मचा। राहुल गांधी तथा प्रियंका वाड्रा तक ने हस्ताक्षर करने वाले नेताओं पर तंज कसे। गांधी परिवार के वफादारों ने भी जवाबी मोर्चा संभाला। बिहार चुनाव में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन के बाद एक बार फिर श्री सिब्बल सहित कुछ और पार्टी  नेताओं ने संगठन में छाई मुर्दानगी की तरफ ध्यान आकर्षित किया। मप्र में हुए 28 विधानसभा उपचुनावों में भी कांग्रेस आशानुरूप प्रदर्शन नहीं कर सकी जिससे कमलनाथ सरकार की वापिसी की उम्मीदें धरी रह गईं। उप्र  में तो अधिकतर सीटों पर पार्टी जमानत तक न बचा सकी। वहीं गुजरात में वह शून्य से आगे नहीं बढ़ पाई। हैदराबाद महानगरपलिका के परिणाम भी कांग्रेस के लिए शर्मिंदगी लेकर आये। इन सबसे पूरे देश के कांग्रेसजन चिंतित हैं। उनके मन में ये सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि जब पार्टी का चेहरा राहुल गांधी ही हैं तब उन्हें अध्यक्ष पद पर दोबारा क्यों नहीं लाया जा रहा और यदि वे  अनिच्छुक हैं तब किसी अन्य सक्षम नेता को कमान सौंपी जाए। कांग्रेस  के वे तमाम नेता जो अब तक गांधी परिवार की मेहरबानी के कारण कांग्रेस कार्यसमिति में मनोनीत होते आये हैं वे भी चुनाव द्वारा संगठनात्मक ढांचे के पुनर्गठन की मांग करते हुए जिस तरह से मुखर हुए वह एक नया अनुभव है। दरअसल कांग्रेस में ऊपर बैठे नेताओं को छोड़ दें तो भी लगातार मिल रही पराजयों से निचले स्तर के कार्यकर्ताओं और युवा नेताओं का मनोबल गिरता जा रहा है। 2018 का अंत मप्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में पार्टी के लिए जो खुशी लेकर आया था वह कुछ महीनों बाद हुए लोकसभा चुनाव में काफूर हो गई। महाराष्ट्र में सत्ता की भागीदारी मिली तो कर्नाटक और  मप्र की सत्ता हाथ से चली गई। राजस्थान में  बगावत की चिंगारी को भले ही शांत कर लिया गया जो दोबारा कब भड़क उठे कहना मुश्किल है। इस सबके बीच पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व जिस तदर्थवाद को ओढ़े हुए है वह  पार्टी से जुड़े नेताओं और कार्यकर्ताओं को विचलित कर  रहा है। लोकसभा चुनाव के बाद राहुल ने हार की जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद से स्तीफा दे दिया था। जिसे स्वीकार करने में ही महीनों  लगा दिए गए और बजाय किसी नए उर्जावान चेहरे को कमान सौंपने के श्रीमती गांधी के कन्धों पर ही दोबारा भार रख दिया जबकि उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। इलाज हेतु उन्हें अक्सर अस्पताल में भर्ती होना पड़ जाता है और जाँच हेतु विदेश ले जाने की नौबत भी आ जाती है। इस कारण पार्टी के प्रचार के साथ ही संगठनात्मक गतिविधियों में उनका योगदान निरंतर घटता जा रहा है। हालांकि  राहुल कुछ न होते हुए भी सोशल मीडिया के जरिये अपनी सक्रियता का दिखावा तो  करते रहते  हैं किन्तु संगठन की मजबूती के साथ ही कार्यकर्ताओं और नेताओं से सम्पर्क और संवाद के प्रति वे बेहद उदासीन या यूँ कहें कि लापरवाह हैं। बिहार चुनाव में वे पार्टी के स्टार प्रचारक थे लेकिन बाद में  राजद के एक  वरिष्ठ नेता ने उन पर बीच चुनाव में अपनी बहिन के साथ पिकनिक मनाने चले जाने का आरोप तक लगाया। संसद के सत्रों के दौरान उनकी विदेश यात्राएँ भी अक्सर विवादों का कारण बनती रही हैं। दरअसल  आम कांग्रेसजन के मन में ये बात गहराई तक बिठाई जाती रही है कि गांधी परिवार ही कांग्रेस को एकजुट रखने का माध्यम है वरना वह बिखराव का शिकार हो जायेगी। लेकिन अब ये धारणा भी कांग्रेस के कथित नेताओं के साथ ही जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं के मन में घर करने लगी  है कि गांधी परिवार के वर्चस्व के कारण संगठन में दूसरी और तीसरी पंक्ति के नेतृत्व को उभरने का अवसर नहीं मिलता। इसी का नतीजा  है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया पार्टी से  निकल आये जबकि सचिन पायलट जाते-जाते रह गये किन्तु वे भी मौका पाते ही खिसक  लें तो आश्चर्य  नहीं  होगा। मिलिन्द देवड़ा, दीपेंदर हुड्डा और जितिन प्रसाद जैसे राहुल ब्रिगेड के सदस्य भी यदाकदा अपना असंतोष व्यक्त करने में पीछे नहीं रहते। आज जबकि छोटी बड़ी सभी पार्टियों में युवा नेतृत्व को आगे लाया जा रहा है तब कांग्रेस में शीर्ष और प्रदेश स्तर पर कुंडली मारकर बैठे नेताओं या उनके बेटे-बेटियों को ही आगे बढाने का प्रयास होता रहता है। इसके विपरीत राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर कांग्रेस की प्रमुख प्रतिद्वंदी भाजपा ने पूरे देश में दूसरी और तीसरी पंक्ति का नेतृत्व मैदान में उतार दिया है। बंगाल जैसे राज्य में जहाँ दस साल पहले तक उसका नामलेवा नहीं होता था वहां आज वह ममता बैनर्जी का विकल्प बनने की हैसियत में आ गई। बिहार से निपटते ही पार्टी ने बंगाल चुनाव हेतु पूरी ताकत झोंक दी है। केरल में हुए स्थानीय  निकाय चुनाव में राजधानी तिरुवनंतपुरम में भाजपा का नगर निगम में मुख्य विपक्षी दल बनना साधारण बात नहीं है। कांग्रेस बीते छ: वर्ष से केंद्र और लम्बे  समय  से देश के प्रमुख राज्यों में विपक्ष में है।  लेकिन आज के परिदृश्य में छत्तीसगढ़ और पंजाब को छोड़कर बाकी राज्यों में उसका प्रदर्शन निराशाजनक है। राजस्थान में हाल ही में सम्पन्न ग्रामीण निकायों में भी भाजपा ने उसे पीछे छोड़ दिया जो किसान आन्दोलन के चलते चौंकाने वाला है। सोनिया जी नाराज नेताओं की बातें सुनेंगी या उन्हें राहुल की दोबारा ताजपोशी के लिए भावनात्मक तरीके से राजी कर लेंगी ये तो वही जानें लेकिन कांग्रेस को आज सबसे ज्यादा जरूरत ऐसे नेताओं की है जिनकी निष्ठा  पार्टी के प्रति हो। जब तक वह एक ही परिवार के करिश्मे  पर अवलंबित  रहेगी तब तक उसकी दुरावस्था दूर नहीं होगी। आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद जो युवा पीढ़ी जनमत को प्रभावित करने लगी है उसकी नेहरु-गांधी परिवार के महिमामंडन में कोई रुचि नहीं है। सोनिया गांधी वाकई पार्टी का पुनरुत्थान चाहती हैं तो उन्हें नए ऊर्जावान नेतृत्व को अवसर देना चाहिए। राहुल को पर्याप्त समय मिल चुका है लेकिन वे खुद को साबित नहीं कर सके। उप्र में प्रियंका को पार्टी की कमान सौंपने का नुक्सान  भी देखने मिल ही रहा है। हालत यहाँ तक हो गई है कि क्षेत्रीय पार्टियां तक कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने से बचने लगी हैं। इसीलिए यूपीए के अध्यक्ष के तौर पर सोनिया जी की जगह शरद पवार को बिठाने की चर्चा को हलके में नहीं लिया जा सकता। कांग्रेस की इस स्थिति को लेकर अब तो जनता तक चिन्तित होकर कहने लगी है कि देश को मजबूत विपक्ष की सख्त जरूरत है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 17 December 2020

समझौते से ही समाधान निकल सकता है टकराव से नहीं



 दक्षिण भारत विशेष रूप से  तमिलनाडु में जनांदोलन या किसी नेता के अवसान पर आत्महत्या किये जाने की घटनाएँ बेहद आम मानी जाती हैं किन्तु गत दिवस दिल्ली के मुहाने पर चल रहे किसान आन्दोलन में शामिल एक किसान द्वारा खुद को गोली मारकर जान देने  के बाद इस बात का अंदेशा है कि भावावेश में  कुछ और आन्दोलनकारी भी ऐसा ही कदम न उठा लें।  किसानों की आत्महत्या वैसे हमारे देश में नई बात नहीं है। प्रतिवर्ष सैकड़ों किसान कर्ज के कारण अपनी जान दे देते हैं। लेकिन गत दिवस  जिन बुजुर्ग किसान ने गोली  मारकर आत्महत्या की वे गुरूद्वारे में ग्रंथी भी थे । लगता है आन्दोलन के अब तक निष्फल रहने से हताश होकर 65 वर्षीय उस किसान ने वह कदम उठाया। वैसे कड़ाके की सर्दी की वजह से स्वास्थ्य खराब होने से भी दर्जन भर से ज्यादा किसान जान गँवा बैठे। लेकिन आत्महत्या का ये पहला मामला है जो खतरनाक संकेत है। धरने पर बैठे किसानों में अनेक लोग अशिक्षित या अल्पशिक्षित हैं। इस वर्ग में इस तरह की घटनाओं का मनोवैज्ञानिक असर  ज्यादा होता है। ये देखते हुए आंदोलन के कर्णधारों को  जिम्मेदारी से सोचना चाहिए।  दिल्ली में सर्दी का प्रकोप बढता ही जा रहा है और ऐसे में आंदोलन की निरंतरता के साथ ही ये भी जरूरी है कि खुले आसमान  के नीचे बैठे किसानों की जि़न्दगी को सस्ता  न समझा जाये। आन्दोलन तो कुछ समय बाद खत्म हो ही जायेगा लेकिन जिस किसान की जान चली गई उसकी भरपाई होना असंभव  होगा। अब तक हुई मौतें सर्दी और बीमारी की वजह से थीं  किन्तु गत दिवस  की गई आत्महत्या कहीं अनुकरणीय न बन जाये ये किसान नेताओं  को देखना चाहिए। कल ही सर्वोच्च न्यायालय ने  धरने के कारण राजमार्ग बंद होने के विरुद्ध दायर याचिका की सुनवाई करते हुए सुझाव दिया कि चूँकि सरकार और आन्दोलनकारियों के बीच हुई वार्ताओं से समाधान नहीं निकला लिहाजा अब एक समिति बनाई  जाए जिसमें सरकार के साथ ही किसानों के प्रतिनिधि  और कुछ कृषि विशेषज्ञ रखे जाएँ। न्यायालय  ने ये टिप्पणी भी की कि लम्बा खींचने से इस विवाद के राष्ट्रीय स्तर पर फैलने का खतरा है , इसलिए मिल बैठकर इसका निपटारा हो । उसने किसान संगठनों को नोटिस भेजकर उनका पक्ष जानने की मंशा भी  जताई तथा उनके धरने की तुलना शाहीन बाग़ से किये जाने पर ऐतराज जताया। आज होने वाली सुनवाई के बाद न्यायालय क्या फैसला देता है इस पर सबकी निगाहें लगी हैं। लेकिन विचारणीय मुद्दा ये है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय ने खुद होकर समिति बनाने के निर्देश  दे दिए तब क्या किसान संगठन उसे मानेंगे क्योंकि सरकार ने जब पहले चरण की वार्ता में तत्संबंधी प्रस्ताव दिया तब सभी किसान नेताओं ने उसे सिरे से अस्वीकार कर दिया। उसके बाद कई दौर की बातचीत के बाद अंतत: गतिरोध की स्थिति बन गई। बावजूद इसके रोचक बात ये है कि सरकार और किसान दोनों बातचीत की इच्छा तो व्यक्त करते हैं किन्तु  किसानों की जिद है कि तीनों कानून वापिस लिए जाएँ जबकि सरकार इस बात पार अड़ी हुई है कि वह संशोधन से आगे नहीं बढ़ेगी। 9 दिसम्बर के बाद से दोनों पक्षों के बीच संवादहीनता है। किसान सरकार पर धोखेबाजी का आरोप लगा रहे हैं वहीं सरकार ने अपने मंत्रियों को कानूनों के पक्ष में प्रचार करने के लिए मोर्चे पर लगा दिया है। भाजपा ने बीते दो दिनों में देश भर में। 700 किसान सम्मेलन आयोजित कर ये आभास करवाने की पुरजोर कोशिश की कि दिल्ली में चल रहा धरना पूरे देश के किसानों का प्रतिनिधित्व नहीं  करता। उधर आन्दोलनरत किसान संगठन  8 दिसम्बर के भारत बंद के बाद किसी बड़े कदम को लेकर ठोस  निर्णय पर नहीं पहुँच पा रहे। हालाँकि रोजाना उनकी तरफ से कोई न कोई राजमार्ग अवरुद्ध करने की बात सामने आती है किन्तु उन्हें भी ये  समझ आने लगा है कि उससे  आम जनता की नाराजगी बढ़ेगी। वैसे भी  चार और छ: महीने की तैयारी से आने का दावा करने वाले अनेक किसान अब घर लौटने लगे  हैं जिनकी जगह दूसरे जत्थे बुलवाए जा रहे हैं। किसान  नेता भी ये समझ गए हैं कि छोटे किसान ज्यादा समय तक अपने खेत से दूर नहीं रह सकेंगे। इसी के साथ दिल्ली के बाहर चल रहे धरने के दो अलग - अलग  स्थलों पर व्यवस्थाओं का  स्तर भिन्न होने से भी किसानों के बीच मनभेद पैदा होने का खतरा बढ़ रहा है। एक जगह बादाम की भरमार और दूसरी जगह केवल दाल - रोटी वाला लंगर चलने की खबरें सुर्खियाँ बन रही हैं। इन परिस्थितियों  में आन्दोलन को लम्बा खींचने से उसमें अंतर्विरोध उत्पन्न होने की  आशंका   है। वैसे भी आन्दोलन पर पंजाब  के बढ़ते वर्चस्व से हरियाणा के किसान असहज महसूस करने लगे हैं। इसी तरह राकेश टिकैत की किसान यूनियन में भी रास्ता रोके जाने के मुद्दे पर खींचातानी के बाद स्तीफों का दौर चल पड़ा। ये सब देखते हुए यदि  सर्वोच्च न्यायालय समिति बनाकर गतिरोध सुलझाने का निर्देश या समझाइश देता है तब किसान संगठनों और सरकार दोनों को  प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाये बिना उस पर सहमति देकर आगे बढ़ने की बुद्धिमत्ता दिखानी चाहिए क्योंकि  आन्दोलन किसानों के हाथ से खिसककर उपद्रवी तत्वों के हाथ चले जाने का खतरा दिन ब दिन बढ़ रहा है। गत दिवस एक बार फिर बब्बर खालसा जैसे देश विरोधी संगठन का बैनर धरना स्थल पर दिखाई देना इसकी पुष्टि करता है। और फिर लम्बे समय तक राष्ट्रीय राजधानी को घेरकर रखना न सिर्फ अव्यवहारिक अपितु अनावश्यक और आपत्तिजनक भी है। देर - सवेर सर्वोच्च न्यायालय इसके विरुद्ध आदेश दे सकता है और तब किसान नेताओं  के सामने उगलत निगलत पीर घनेरी वाली स्थिति पैदा हो जायेगी। वैसे भी किसी  प्रजातांत्रिक आन्दोलन का अंत होता तो समझौता ही है जिसमें दोनों पक्षों को कुछ न कुछ तो  झुकना  ही पड़ता है।

- रवीन्द्र  वाजपेयी

Wednesday 16 December 2020

49 साल पहले उन्हें मिला मुल्क हमें मिले शरणार्थी



49 साल पहले आज ही के दिन भारत और पाकिस्तान के बीच हुआ युद्ध समाप्त हुआ था जिसकी परिणिति बांग्ला  देश नामक एक नए देश के रूप में हुई। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वह पहला ऐसा युद्ध था जिसने दुनिया के नक्शे में बदलाव कर दिया। 1947 में भारत कहने को तो दो टुकड़ों में विभाजित हुआ था लेकिन वस्तुत: उसके तीन भाग हुए क्योंकि पाकिस्तान भले एक देश के रूप में अस्तित्व में आया लेकिन उसके दो हिस्से पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान के रूप में एक दूसरे से सैकड़ों मील की दूरी पर स्थित थे। पूर्वी पाकिस्तान वैसे तो मुस्लिम बहुल होने के कारण भारत  से अलग हुआ लेकिन बंगला भाषा और संस्कृति के कारण वह पश्चिमी पाकिस्तान के साथ सामंजस्य नहीं  बिठा पा रहा था। 1971 आते-आते तक दोनों के बीच खींचतान चरम पर जा पहुंची। पाकिस्तान की नेशनल असेम्बली में पूर्वी पाकिस्तान की अवामी लीग पार्टी ने बहुमत हासिल कर लिया और शेख मुजीबुर्रहमान प्रधानमंत्री पद के दावेदार बन बैठे जिसे पश्चिमी हिस्से के पंजाबी और पठान नेता बर्दाश्त न कर पाए। मुजीब गिरफ्तार कर लिए गए और पूर्वी पाकिस्तान में गृह युद्ध जैसी स्थिति बन गई। लाखों शरणार्थी सीमा पार करते हुए भारत आने लगे। पहले-पहल तो मानवीय आधार पर उन्हें शरण दी जाने लगी लेकिन जब ये लगा कि सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा तब तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी ने सेनाध्यक्ष जनरल मानेक शॉ से सैन्य कार्वाई करने कहा। दिसम्बर में भारतीय सेना ने अपना अभियान शुरू किया जिसे वहां की जनता से खुलकर समर्थन मिला। पाकिस्तान ने बौखलाहट में पश्चिमी सीमा पर भी युद्ध शुरू कर दिया लेकिन भारतीय सेनाओं ने दोनों मोर्चों पर उसे पराजय झेलने मजबूर कर दिया। पूर्वी पाकिस्तान में तो भारतीय सेना ने पराक्रम  की पराकाष्ठा करते हुए 90 हजार पाकिस्तानी सैनिकों से आत्मसमर्पण करवाया और बांग्ला देश नामक  एक नये राष्ट्र का उदय हो गया। मुजीब रिहा होकर सत्ता में आ गये। आज के ही दिन ढाका में भारतीय सेनाओं ने इतिहास का वह स्वर्णिम अध्याय पूरा किया था। 90 हजार पाकिस्तानी युद्धबंदी भारत के पास थे। पाकिस्तान दो टुकड़ों में बंट चुका था। अमेरिका और ब्रिटेन जैसी ताकतें भी उसे जीत न दिला सकीं। इंदिरा जी  अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर एक सर्वशक्तिमान साहसी नेता के तौर पर स्थापित हो गईं। लेकिन इसके बाद फिर वही गलतियाँ दोहराई जाती रहीं जिनकी वजह से हमें आजादी के नाम पर देश का विभाजन झेलना पड़ा। बांग्ला देश से आये लाखों शरणार्थियों को वापिस भेजने का समुचित प्रयास करने की बजाय हमारे नेता विजयोल्लास में डूबे रहे। उधर पाकिस्तान के साथ शिमला में बातचीत हुई तब ये उम्मीद थी कि 90 हजार युद्धबंदियों की रिहाई के बदले इंदिरा जी पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को वापिस लेने की शर्त रखेंगी जिसे मान लेने के सिवाय पाकिस्तान के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था। लेकिन न जाने क्या हुआ और लौह व्यक्तित्व के तौर पर स्वीकार कर ली गईं श्रीमती गांधी ने महज एक औपचारिक समझौता करते हुए युद्धबंदी तो रिहा कर दिए लेकिन पाक अधिकृत कश्मीर की एक इंच जमीन भी वापिस लेने की कोशिश नहीं की। युद्ध के मैदान में जीतने के बाद वार्ता की टेबिल पर हारने का ये दूसरा मौका था। 1965 की जंग में भी भारत ने पाकिस्तान को जमकर धूल चटाई थी। यदि युद्ध दो-चार दिन और खिंचता तब हमारी सेना लाहौर पर कब्जा कर लेती किन्तु वैश्विक दबाव में पहले तो युद्धविराम करते हुए सेना के कदम रोक दिए गये और बाद में ताशकंद  वार्ता के दौरान जीते हुए इलाके खाली करने का समझौता कर  लिया गया। जिसके बाद वहीं तत्कालीन प्रधानमन्त्री लालबहादुर शास्त्री की रहस्यमय मौत हो गई। 1971 की जीत तो उससे भी बहुत बड़ी थी। 90 हजार सैनिकों के भारत में बंदी होने के कारण पाकिस्तान  की सरकार पर जबरदस्त घरेलू दबाव था। लेकिन इंदिरा जी ने न जाने किस दबाव में उस सुनहरे अवसर को गंवा दिया। पाकिस्तान ने तो बिना कुछ दिए अपने सैनिक वापिस ले लिए और हमें मिला लाखों शरणार्थियों का स्थायी बोझ जो अब बढ़कर करोड़ों में जा पहुंचा है। युद्ध के फौरन बाद यदि इंदिरा जी बांग्ला देश के प्रधानमन्त्री  शेख मुजीब पर दबाव बनातीं तो शरणार्थी वापिस हो सकते थे। लेकिन वह नहीं किया गया। महज चार साल के बाद ही मुजीब की हत्या के बाद  बांग्लादेश में भारत विरोधी फौजी हुकूमत सत्तासीन हो गई। धर्मनिरपेक्षता का लबादा उतार फेंका गया और हिन्दू मंदिरों के विध्वंस का वैसा ही अभियान शुरू हो गया जैसा पश्चिमी पाकिस्तान में 1947 से आज तक चला आ रहा है। सीमा विवाद के अलावा और भी अनेक ऐसे मामले हैं जिनमें बांग्ला देश का रवैया पाकिस्तान से कम शत्रुतापूर्ण नहीं रहा। 49 साल पहले आये शरणार्थियों का लौटना तो दूर अब तो उनकी तीसरी पीढ़ी तक भारत की नागरिक बनकर देश के पूर्वी हिस्सों की राजनीति को प्रभावित करने लगी है। आज 49 साल बाद उस ऐतिहासिक विजय की याद करने के साथ ही हमें उन भूलों के बारे में भी सोचना चाहिए जिनके चलते उसका लाभ हमें जितना मिलना चाहिए था उससे ज्यादा समस्याएं हमारी झोली में आईं। इतिहास बेशक अतीत के गर्त में समा जाता है लेकिन वह भविष्य के लिए मार्गदर्शक के तौर पर भी उपयोगी होता है, बशर्ते हम उसकी गलतियों को दोहराने से बचें। दुर्भाग्य से शरणार्थियों की जो समस्या बांग्ला देश के निर्माण के प्रतिफल के तौर पर भारत के हिस्से में आई उसके हल की किसी भी कोशिश को षड्यंत्रपूर्वक विफल करने का कुचक्र रच दिया जाता है। उस दृष्टि से आज जैसे दिवस पर हमारी सेनाओं के गौरवगान के साथ ही उन गलतियों पर विचार करते हुए उन्हें दुरुस्त करने की कार्ययोजना भी बनना चाहिए। शरणार्थियों के प्रति अति उदारता का दुष्परिणाम फ्रांस, ब्रिटेन, स्वीडन, जर्मनी में हालिया घटनाओं से देखने मिला। हमारे देश में आतंकवाद की शुरुवात भी बांग्ला देश के निर्माण के बाद ही हुई। ऐसे में ये जरूरी हो जाता है कि इस गम्भीर समस्या के स्थायी  हल के लिए राजनीति से ऊपर उठकर नीति और निर्णय की प्रक्रिया शुरू की जाए। बांग्ला देश युद्ध के समय के विपक्ष ने जिस जिम्मेदारी से अपनी भूमिका का  निर्वहन किया उसकी पुनरावृत्ति की आज बेहद जरूरत है। भले ही कोरोना के कारण नागरिकता संबंधी कानूनों को लेकर विमर्श बाधित हो गया किन्तु देश की अखंडता और आंतरिक सुरक्षा के मद्देनजर इस विषय पर ठोस निर्णय लेकर उसका क्रियान्वयन समय की मांग है ।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 15 December 2020

किसानों की आड़ में अपनी फसल काट रहे कैप्टेन और केजरीवाल




किसान आन्दोलन को राजनीति से दूर रखने की किसान संगठनों की कोशिश कितनी वास्तविक है ये तो वे ही जानें किन्तु सियासत के दूकानदार आन्दोलन को भुनाने का  हरसंभव जतन कर रहे हैं। विगत दिवस किसान आन्दोलन के अंतर्गत एक दिन के उपवास का आयोजन किया गया। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने भी अपने मंत्रीमंडल के साथियों सहित किसानों के समर्थन में एकदिवसीय उपवास रखा। इसके पहले भी वे दलबल सहित धरना स्थल पर सेवादार के रूप में हो आये थे। आम आदमी पार्टी ने वहाँ चाय - नाश्ते के लिए स्टाल भी लगाया किन्तु वह खाली पड़ा रहा। किसानों की हमदर्दी हासिल करने के लिए मुख्यमंत्री जी किसानों को बता आये कि केंद्र सरकार ने उनसे दिल्ली के कुछ स्टेडियमों को खुली जेल के रूप में तब्दील करने कहा था लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया। ये सब करने के पीछे उनका मकसद हरियाणा और पंजाब में अपनी पार्टी की जड़ें जमाना है जिसमें वे पूरी कोशिशों के बावजूद अब तक सफल नहीं हो सके। उल्लेखनीय है केजरीवाल जी हरियाणा के ही रहने वाले हैं। बतौर राजनेता उनकी उक्त गतिविधियाँ बेहद सामान्य और अपेक्षित कही जायेंगी किन्तु उनके किसान प्रेम पर पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह ने जो टीका - टिप्पणी की उसके बाद दोनों के बीच आरोप - प्रत्यारोप का आदान - प्रदान होने लगा। दरअसल अमरिंदर सिंह की परेशानी का कारण ये है कि जिस किसान आन्दोलन को उन्होंने खड़ा करने के बाद दिल्ली निर्यात कर दिया उस पर पहले तो अकाली दल ने अतिक्रमण कर लिया और बाद में योगेन्द्र यादव सोशल एक्टिविस्ट के तौर पर आन्दोलन के अघोषित सलाहकार बन बैठे जिसके चलते जेएनयू और जामिया मिलिया से जुड़े तत्वों ने भी उसमें घुसपैठ कर ली। अरविन्द केजरीवाल को भी ये इसलिए नहीं पच रहा क्योंकि उनकी सत्ता के दरवाजे पर हो रहे आन्दोलन में उनकी कोई हिस्सेदारी नहीं है और आम आदमी पार्टी से धक्के मारकर निकाले गए योगेन्द्र यादव किसानों के रणनीतिकार बनकर प्रतिष्ठित हो गये। सो उन्होंने उपवास के जरिये किसानों के मन में जगह कब्जाने की कोशिश की लेकिन उनका ये दांव चंडीगढ़ में बैठे कैप्टेन को नागवार गुजरा और उन्होंने बिना देर लगाये केजरीवाल को कायर बताकर उनके उपवास को ढोंग निरुपित करते हुए आरोप लगाया कि जिन कृषि कानूनों के विरोध में श्री केजरीवाल ने उपवास रखा उनमें से ही एक को  आम आदमी पार्टी की सरकार अधिसूचित कर चुकी है। कैप्टेन यहीं नहीं रुके और श्री केजरीवाल पर तंज कसते हुए कहा कि उन्हें अपने उद्देश्य पूरे करने हों तो वे अपनी आत्मा तक बेच देते हैं। दरअसल अमरिंदर सिंह को इस बात का एहसास है कि आम आदमी पार्टी पंजाब में अपने पांव ज़माने की पुरजोर कोशिश कर रही है। कैप्टेन के इस तीखे हमले से तिलमिलाये अरविन्द भी कहाँ पीछे रहते। इसलिए वे भी उन पर दाना - पानी लेकर चढ़ बैठे और आरोप लगाया कि कैप्टेन ने अपने बेटे के विरुद्ध प्रवर्तन निदेशालय की जांच को ठंडा करने के लिए किसान आन्दोलन को बेच दिया। यहीं नहीं तो श्री केजरीवाल ने पंजाब के मुख्यमंत्री को कृषि कानूनों के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि ये उनका राष्ट्र को उपहार है क्योंकि जिस समिति ने इन कानूनों का मसौदा तैयार किया था उसमें वे भी सदस्य थे। उधर अमरिंदर सिंह का आरोप है कि दिल्ली में कोरोना के कहर से निपटने के लिए केजरीवाल सरकार को केंद्र की बैसाखी चाहिए और इसीलिये कृषि कानून को वहां अधिसूचित किया गया। इस प्रकार किसान आन्दोलन के दो पक्षधर मुख्यमंत्रियों के बीच चल पड़ी तू - तू , मैं - मैं से बहुत सी अनकही बातें सामने आ गयी हैं। केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मिलने के बाद अमरिंदर सिंह का आन्दोलन से पंजाब की अर्थव्यवस्था पर दुष्प्रभाव के साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा उत्पन्न होने जैसा बयान चौंकाने वाला था। इसी तरह केजरीवाल सरकार द्वारा कृषि कानून को अधिसूचित करने के बाद उसका विरोध भी दोहरे मापदंड का प्रमाण है। कृषि कानूनों के प्रारूप को तैयार करने वाली समिति में अमरिंदर की मौजूदगी का खुलासा करते हुए अरविन्द ने उन पर अपने बेटे को जाँच से बचाने के लिए आन्दोलन को बेचने जैसा आरोप- लगाकर ये साबित कर दिया कि किसानों के हमदर्द बनने का दावा कर रहे नेतागण मगरमच्छों के आंसू वाली कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं। किसानों को ये बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि कृषि कानून बनाने वाली समिति में कैप्टेन के साथ ही हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा भी थे जो इन दिनों किसानों के समर्थन में खड़े दिखाई देते हैं। किसान संगठनों ने केंद्र सरकार के विरोध में तो झंडा उठा लिया लेकिन उन्हें अब कैप्टेन अमरिंदर सिंह और अरविन्द केजरीवाल द्वारा लगाये गए आरोप - प्रत्यरोप का भी संज्ञान लेना चाहिए क्योंकि दोनों तो गलत नहीं हो सकते। किसान संगठनों के सामने भी ये दुविधा है कि बिना राजनीतिक पार्टियों का समर्थन लिए वे आन्दोलन को व्यापक रूप नहीं दे सकेंगे वहीं दूसरी ओर ये खतरा भी है कि राजनेताओं के उनके मंच पर आने के बाद वही सब होगा जो कैप्टेन और केजरीवाल के बीच हो रहा है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 14 December 2020

चंद नेताओं के अड़ियलपन से आन्दोलन में बिखराव की आशंका



किसान संगठनों के बीच अब मतैक्य का अभाव दिखने लगा है। दिल्ली जाने के सभी रास्ते अवरुद्ध किये जाने से असहमत  एक गुट ये कहने लगा है कि कम से कम एक रास्ता तो  खुला रहना चाहिए जिससे आम जनता को तकलीफ न हो।आन्दोलनकारियों को भी ये लगने लगा है कि लम्बे समय तक दिल्ली की आपूर्ति ठप्प करने से जनमानस की सहानुभूति वे खो बैठेंगे। हालाँकि इसे लेकर भी मतभेद हैं। भारतीय किसान यूनियन के कुछ नेताओं द्वारा दिल्ली  जाने का रास्ता खोले जाने के विरोध में इस्तीफा दे दिया गया। इसी के साथ एक खबर ये भी किसान नेताओं को परेशान कर रही है कि पंजाब और हरियाणा से दिल्ली को दूध और हरी सब्जी की आपूर्ति करने वाले किसान जबर्दस्त घाटे में आ गये हैं। गोभी पैदा करने वाले अनेक किसानों ने अपने खेतों में ट्रैक्टर चलाकर पूरी फसल को रौंद दिया क्योंकि स्थानीय बाजार में उन्हें मिट्टी के मोल भाव मिल रहा है। यही स्थिति दूध की भी है। हालाँकि ऊपरी तौर पर तो किसान नेता सभी कानून वापिस लिए बिना समझौते का विरोध कर रहे हैं लेकिन कुछ इस बात पर जोर देने लगे हैं कि जब सरकार मुख्य मांगों को लेकर लचीलापन दिखाते हुए समाधान के लिए राजी है तब अड़ियल रुख दिखाने से खाली हाथ  लौटने का खतरा है। दूसरी बात जो किसान नेताओं में मतभिन्न्त्ता का कारण बन रही है वह है छद्म रूप में वामपंथियों की आन्दोलन में घुसपैठ। खलिस्तान समर्थक नारे बाजी के अलावा कैनेडा आदि से मिल रहे समर्थन और सहायता को लेकर जो बदनामी आन्दोलन के माथे पर चिपक रही थे उससे बचने की कोशिशें सफल हो पातीं उसके पहले ही सीएए के विरोध में हुए दिल्ली दंगों के आरोपियों के साथ ही कुछ और शहरी नक्सली नेताओं की रिहाई की मांगों से युक्त बैनर पोस्टरों के प्रदर्शन की वजह से आन्दोलन के अपहरण की आशंका प्रबल होने लगी। ताजा खबर ये है कि जामिया मिलिया के छात्र भी ढोल-ढपली लेकर धरना स्थल पर पहुंचे जिन्हें वापिस लौटा दिया गया। पंजाब के अलावा हरियाणा, उप्र, उत्तराखंड के साथ ही राजस्थान के कुछ किसान संगठनों को केंद्र सरकार के मंत्री ये समझाने में सफल होते बताये जा रहे हैं कि आन्दोलन जारी रहने से देश को अस्थिर करने वाली ताकतों का मंसूबा सफल हो जाएगा। आन्दोलन से जुड़े अनेक लोगों का कहना है कि योगेन्द्र यादव जैसे लोगों की वजह से किसान संगठनों और सरकार के बीच समझौते में अड़ंगे लग रहे हैं। स्मरणीय है श्री यादव किसान नेता के रूप में सरकार के साथ वार्ता में बैठना चाहते थे लेकिन उन्हें घास नहीं डाली गयी जिससे वे भन्नाए हुए हैं और ये साबित करने पर तुले हैं कि उनके बिना विवाद शांत नहीं होगा। लेकिन अब  लगता है सरकार ने भी दो मोर्चे एक साथ खोल दिए हैं। एक तरफ तो वह लगातार किसान नेताओं से निजी तौर पर बात करते हुए बीच का रास्ता निकालने की कोशिश में जुटी है वहीं दूसरी तरफ उसने उन्हें एहसास करवाना भी शुरू कर दिया है कि एक सीमा के बाद वह नहीं झुकेगी। शुरुवाती चुप्पी के बाद जिस तरह से कुछ केंद्रीय मंत्री कृषि कानूनों के पक्ष में माहौल बनाते हुए आन्दोलन में शरारती तत्वों के घुस आने के प्रति किसानों को सावधान कर रहे हैं उससे लगता है कि सरकार प्रारम्भिक दबाव से मुक्त होने लगी है। भाजपा ने भी किसानों को नए कानूनों के पक्ष में खड़ा किये जाने का अभियान छेड़ दिया है जिसके परिणामस्वरूप गत दिवस उत्तराखंड और हरियाणा के कुछ किसान संगठनों ने सरकार के साथ खड़े होने का फैसला कर लिया। सरकार इस बात के लिए भी किसान संगठनों को राजी करने में सफल होती लग रही है कि बातचीत के लिए उनकी तरफ से बैठने वाले प्रतिनिधिमंडल के जम्बो आकार को छोटा किया जाए और सुना है किसान नेता इसके लिए तैयार भी हो गये हैं । लेकिन जिन नेताओं को वार्ता से बाहर रखा जायेगा वे नाराज हो सकते हैं। सरकार द्वारा आन्दोलनकारियों के बीच ये बात प्रचारित करने का सुनियोजित अभियान छेड़ दिया गया है कि नये कानूनों से देश भर के किसानों का लाभ है लेकिन पंजाब की  सरकारी मंडियों के आढ़तिया उसमें अपना नुकसान देख रहे हैं इसलिए उन्होंने किसानों को  बहला फुसलाकर आन्दोलन के  रास्ते पर धकेल तो दिया किन्तु अब उसको समेटना मुश्किल हो रहा है। और इसी वजह से अन्य राज्यों में आन्दोलन की हवा नहीं  बन पाई। अम्बानी और अडानी समूह के प्रतिष्ठानों का विरोध और उनके  बहिष्कार तक तो बात ठीक थी लेकिन भाजपा नेताओं का घेराव जैसी घोषणा के बाद आन्दोलन से जुड़ा एक तबका नाराज हो गया। यहाँ तक कि भारतीय  किसान यूनियन के राकेश टिकैत भी आन्दोलन के भाजपा विरोधी होने से खुश नहीं हैं। इसका कारण पश्चिमी उप्र के जाट बाहुल्य वाले  इलाके में भाजपा का जबरदस्त प्रभाव है। ऐसे में अब आन्दोलन के समक्ष दुविधा की स्थिति  दिखाई देने लगी है। सरकार जिस शांति के साथ समझौते के प्रयास जारी रखे हुए है उससे किसान संगठनों में अंतर्विरोध पैदा होने लगे हैं। सिवाय पंजाब और थोड़ा बहुत हरियाणा को छोड़कर बाकी राज्यों के किसानों की तरफ से  आन्दोलन के साथ जुड़ने का अब तक कोई पुख्ता संकेत नहीं मिलना ही काफी कुछ कह जाता है। ये देखने के बाद ही अनेक किसान नेता ये कहने लगे हैं कि अंतहीन टकराव के बजाय सहमति के बिन्दुओं पर पहुंचकर आन्दोलन को सम्मानजनक तरीके से समाप्त करने की दिशा में आगे बढ़ा जाए जिससे उपद्रवी तत्व आन्दोलन को पटरी से न उतार सकें। आने वाले एक-दो दिन इस बारे में काफ़ी महत्वपूर्ण होंगे क्योंकि सरकार भी पूरी तरह से सक्रिय है। उसे ये समझ में आ चुका है कि किसानों की सभी मांगें मान लेने के बाद देश भर में नये दबाव समूह पैदा हो जायेंगे और तब उसके लिए सभी को संतुष्ट करना बड़ी समस्या बन जाएगा। यद्यपि यही बात किसान नेताओं के लिए भी मुश्किल पैदा  कर रही है क्योंकि सरकार ने उनकी मांगों को न मानते हुए भी हर समय सुलह-समझौते की पेशकश की जबकि किसान नेताओं ने कानून वापिसी के बिना आन्दोलन खत्म न करने की जो जिद पकड़ ली वह उनके गले में हड्डी की तरह अटक गई है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 12 December 2020

शेर की सवारी करने की गलती कर बैठे किसान नेता



किसान आन्दोलन को एक पखवाड़े से ज्यादा बीत जाने के बाद भी गतिरोध जस का तस बना हुआ है। सरकार के साथ वार्ताओं का सिलसिला भी टूट चुका है । शुरू में किसान कुछ संशोधनों के साथ समझौते के लिए तैयार दिख रहे थे लेकिन बाद में किसान संगठनों ने कानून वापिसी की जिद पकड़ ली। उसके अलावा एमएसपी को कानूनी रूप देने की मांग भी जोड़ दी। शुरु में लग रहा था कि किसान नेताओं द्वारा अतिरिक्त मांगें सौदेबाजी का जरिया थीं लेकिन ज्यों-ज्यों बातचीत का दौर आगे बढ़ा त्यों-त्यों ये महसूस होने लगा कि किसान संगठन सरकार को मजबूर मानकर चौतरफा दबाव बनाने की रणनीति पर चल रहे थे। सरकार ने शुरू में  झुकने का पूरा-पूरा संकेत दिया लेकिन जब उसे लगा कि किसानों का नेतृत्व  करने वाले हठधर्मी पर उतारू हो रहे हैं तो उसने भी चतुराई के साथ चालाकी से पेश आना शुरू कर दिया। प्रधानमन्त्री ने भले ही किसान नेताओं से रूबरू बात न की हो लेकिन उन्होंने अनेक मंचों से ये ऐलान किया कि न तो एमएसपी खत्म होगी और न ही कृषि उपज मंडी बंद की जावेंगी। विवाद की स्थिति में अदालत जाने की सुविधा, व्यापारियों का पंजीयन जैसे अनेक  मुद्दों पर भी सरकार समुचित संशोधन करने को राजी हो गई थी। जब उसे लगा कि किसान संगठन मंत्री द्वय नरेंद्र सिंह तोमर और पीयूष गोयल के मनाने से नहीं  मान रहे तब गृह मंत्री अमित शाह ने मोर्चा संभालते हुए किसान नेताओं को बुलाकर बातचीत की और आश्वासन दिया कि सरकार जो कह रही हुई उस पर उन्हें विश्वास करना चाहिए। गृह मंत्री का वार्ता करने आना एक तरह से प्रधानमन्त्री की अप्रत्यक्ष मौजूदगी ही मानी जानी चाहिए थी।  लेकिन ऐसा लगता है किसान नेताओं को अपनी शक्ति का कुछ ज्यादा गुमान हो चला और उन्होंने गृह मंत्री के आश्वासनों को भी सिरे से ख़ारिज कर दिया । उसके बाद से ही सरकार ने भी सौजन्यता की बजाय बेरुखी दिखाते हुए  हमलावर रुख अपनाया। कृषि मंत्री द्वारा दिल्ली दंगों  के आरोपियों के पक्ष में पोस्टर दिखाए जाने का मामला उठाते हुए सवाल दाग दिया कि किसान आन्दोलन में इसका क्या काम? धरना स्थल पर खाने-पीने के बढ़िया इंतजाम के बाद सुख सुविधा के जो साधन जुटाए गए उनकी जानकारी जैसे-जैसे बाहर आती जा रही है वैसे-वैसे देश भर में न सिर्फ जनता अपितु किसानों के बीच भी ये चर्चा चल पड़ी है कि उनके नाम पर कुछ अज्ञात लोग अपना स्वार्थ साधने में जुटे हुए हैं। जब किसानों को लगा कि दिल्ली की चौखट पर जमे रहने से वे ख़ास दबाव नहीं  बना पा रहे तो उन्होंने आज से टोल नाके मुफ्त करने और 14 तारीख से रेल रोकने जैसे तरीके आजमाने की धमकी दे डाली। साथ ही कुछ और राजमार्ग अवरुद्ध करने का ऐलान भी कर दिया। पंजाब से  तीस हजार किसानों का  जत्था दिल्ली कूच करने की खबर भी आ रही है। इधर दिल्ली में धरना दे रहे किसानों में 11 की मौत हो चुकी है तथा गिरते तापमान के कारण सैकड़ों के बीमार होने की जानकारी सामने आई है। कृषि मंत्री ने इसके बाद किसान संगठनों से एक बार फिर धरना खत्म करने और बातचीत जारी रखने की अपील की किन्तु वे क़ानून रद्द करने के साथ ही अपनी बाकी मांगें पूरी किये बिना कुछ भी सुनने तैयार नहीं हैं। ऐसे में ये साफ़ है कि आन्दोलनकारियों के पास लड़ने के तौर-तरीके सीमित हो चले हैं। धरनास्थल पर बैठे किसान कहें कुछ भी लेकिन बिना  किसी खास उपलब्धि के उन्हें निठल्ला बिठाये रखना लम्बे समय तक संभव नहीं होगा। पहाड़ी इलाकों में बर्फबारी के बाद से उत्तर भारत का मौसम सर्द होने लगा है। ऐसे में हजारों लोगों का खुले क्षेत्र में रहना खतरे से खाली नहीं है।आन्दोलनकारी किसानों के बीच बुजुर्ग और महिलाएं भी हैं। बेहतर होगा उनको घर वापिस भेजा जावे जिससे उनकी जान सुरक्षित रह सके। लेकिन पहले से बड़ी-बड़ी बातें करने वाले नेता शेर की सवारी करने वाली स्थिति में आ गये हैं जिस पर  न तो ज्यादा देर बैठा रहा जा सकता है वहीं उतरना भी खतरे से खाली नहीं है। टोल नाके को फ्री कर देने से तो वहां से गुजरने वाले खुश हो जायेंगे लेकिन रेल रोकने का जनता पर विपरीत असर होगा। रेलवे ने पंजाब जाने वाली तमाम अनेक गाड़ियां इसी के चलते रद्द कर दीं। यदि आन्दोलन तेज हुआ तब ये संख्या बढ़ाई भी जा सकती हैं। इस सबसे अलग हटकर यक्ष प्रश्न है कि आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले किसान नेता जिन प्रदेशों से आते हैं उनमें पंजाब, हरियाणा और दिल्ली से नजदीकी उप्र के पश्चिमी हिस्से के किसानों को छोड़ दें तो बाकी से आन्दोलन में हिस्सेदारी करने वालों की संख्या नगण्य है और अब तक ऐसा  कोई संकेत नहीं मिला जिससे ये लगता कि दिल्ली से दूरी पर स्थित राज्यों में भी किसान आन्दोलन की हलचल हो। केंद्र सरकार ने आन्दोलन के इस कमजोर पक्ष को ठीक तरह से समझ लिया है और इसीलिये वह भी उपेक्षा भाव दर्शाने लगी है। ये कहने में कुछ भी गलत न होगा कि किसान संगठनों ने केवल पंजाब के किसानों की मांगों को प्रतिष्ठा का विषय बनाते हुए उन्हें पूरे देश की किसानों की आवाज मानने की  जो गलती की उसकी वजह से  आन्दोलन पटरी से उतर जाये तो अचरज नहीं  होगा। बेहतर हो किसान नेता व्यर्थ की अकड़ छोड़कर व्यवहारिक सोच को अपनाएं। कूटनीति में प्रयुक्त होने वाली इस उक्ति पर उन्हें अमल  करना चाहिए कि बहादुरी का एक तरीका होशियारी भी होता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 11 December 2020

सरकार प्रायोजित हिंसा के विरुद्ध लड़कर ही तो ममता सत्ता में आईं थीं




बंगाल  की राजनीति में सत्ताधारी दल की  हिंसा नई बात नहीं है | वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने वाम मोर्चे की सरकार द्वारा प्रायोजित हिंसा के विरुद्ध बरसों तक मोर्चा सम्भाला | वामपंथी गुंडों के हमलों में वे अनेक बार घायल भी हुईं | वामपंथियों के प्रति  शीर्ष नेतृत्व के  नरम रवैये से ममता बेहद नाराज थीं   और अंततः कांग्रेस को साम्यवादियों की बी टीम बताते हुए उन्होंने तृणमूल कांग्रेस नामक अपनी  पार्टी बना ली | ज्योति बसु के सत्ता छोड़ने के बाद हुए पहले विधानसभा चुनाव में जरूर वे  कुछ खास नहीं कर सकीं लेकिन बंगाल के जनमानस पर  ये छाप छोड़ने में पूरी तरह सफल हो गईं कि वामपंथी अराजकता से मुक्ति दिलाने में वही सक्षम हैं और इसी का नतीजा आगामी   चुनाव में देखने मिला जब उन्होंने लगभग अजेय मान लिए गये मार्क्सवादियों के लाल किले को धराशायी करते हुए सत्ता पर कब्जा कर लिया | इसके पहले वे कभी एनडीए तो कभी यूपीए और  तीसरे मोर्चे के साथ गठबंधन में रहीं किन्तु अपने विशिष्ट स्वभाव के कारण ज्यादा दिन उनकी किसी से नहीं बनी | उनकी सादगी और आम जनता जैसी जीवन शैली के कारण बंगाल के मतदाताओं का उनमें विश्वास जागा | बंगाल से वामपंथियों को उखाड़ फेंकने का कारनामा न इंदिरा गांधी कर सकीं और न ही अटल बिहारी वाजपेयी |  ये कहना गलत नहीं कि बंगाल की शेरनी का खिताब ममता को यदि मिला तो ये उनकी  स्वअर्जित उपलब्धि थी | लेकिन ऐसा लगता है सत्ता में आने के बाद वे या तो असावधान हो गईं या फिर उसके मद में डूब गईं | उनकी ईमानदार छवि को भ्रष्टाचार के अनेक मामलों ने धूमिल कर दिया | लेकिन इससे भी बड़ी गलती उनसे हुई वामपंथी सरकार के दौर के गुंडा तत्वों को तृणमूल कांगेस में भर्ती करने की | निश्चित रूप से इसके कारण ममता पूरे बंगाल में जबरदस्त राजनीतिक  ताकत बन गईं |  शहरी मध्यम वर्ग के साथ ही  ग्रामीण क्षेत्रों में भी तृणमूल का जनाधार बढ़ाने के पीछे सुश्री बैनर्जी की जुझारू और साफ़ सुथरी छवि के साथ ही वाममोर्चे के साथ जुड़े रहे वे असामाजिक  तत्व भी रहे जिनके आतंक की वजह से सत्ता का विरोध करने की हिम्मत किसी की नहीं होती | बंगाल में वामपंथी  और कांग्रेस मिलकर भी उनके प्रवाह  को रोकने में नाकामयाब  साबित हो रहे थे | लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी के उदय के बाद से भाजपा ने  उसी तरह से बंगाल में ममता बैनर्जी के आधिपत्य को चुनौती देने का साहस दिखाया जैसा  कभी वे खुद किया करती थीं | 2014 के लोकसभा और उसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ज्यादा कुछ तो नहीं कर सकी किन्तु उसने ये साबित कर दिया कि ममता का विकल्प बनने की क्षमता  उसी में है | बंगाल के स्थानीय निकाय और पंचायत चुनाव  के अलावा हुए उपचुनावों में भी भाजपा  तृणमूल की निकटतम प्रतिद्वंदी बनकर उभरी | हालाँकि जीत का अंतर काफी रहा | लेकिन 2019 का लोकसभा चुनाव आते तक वह ममता को टक्कर देने की स्थिति में आ गयी और 16 सीटें जीतकर अपना दमखम दिखा दिया | उसके बाद से ममता भाजपा के विरुद्ध बेहद आक्रामक हो गईं | मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों का कांग्रेस और वामपंथी तो विरोध नहीं कर सके लेकिन भाजपा चूँकि इस मुद्दे पर खुलकर सामने आई इसलिए बंगाल  की जनता में उसके प्रति रुझान बढ़ता दिखाई देने लगा | अमित शाह भले पार्टी अध्यक्ष न रहे हों लेकिन वे बंगाल की चुनौती के प्रति गम्भीर हैं | यही वजह है कि बीते कुछ महीनों में राज्य में राजनीतिक हिंसा चरम पर पहुंच गई है | हालाँकि उसका शिकार कांग्रेस और वामपंथी भी हुए हैं  लेकिन सबसे ज्यादा हमले भाजपा और रास्वसंघ के कार्यकर्ताओं पर होने से ये साफ़ हो गया है कि सुश्री बैनर्जी भी ये मान बैठी हैं कि पिछले लोकसभा  चुनाव में भाजपा की सफलता तुक्का नहीं थी और पूरे राज्य में उसकी  जड़ें फैल चुकी  हैं | गत दिवस भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगतप्रकाश नड्डा और प्रभारी महामंत्री कैलाश विजयवर्गीय पर हुए पथराव से ये साबित हो गया कि तृणमूल कांग्रेस पूरी तरह अपनी पूर्ववर्ती वामपन्थी सरकार के नक़्शे कदम पर चलते हुए राजनीतिक विरोधियों के दमन पर उतारू है | हालाँकि कांग्रेस और वामपंथियों ने विधानसभा चुनाव के लिए गठबंधन कर रखा है लेकिन ममता को ये एहसास हो चला है कि उनका मुख्य मुकाबला भाजपा से ही है | गत दिवस की हिंसात्मक घटना के बाद सुश्री बैनर्जी ने जिस लहजे में  प्रतिक्रिया देते हुए भाजपा  का मजाक उड़ाया उससे ये पता चल जाता है कि मुख्यमंत्री रहते भी वे कितनी गैरजिम्मेदार हैं | उनकी  खीझ इस बात  पर भी है कि तृणमूल के तमाम बड़े नेता और उनकी सरकार के मंत्री लगातार पार्टी छोडकर  भाजपा में शामिल हो रहे हैं | राजनीति में वैचारिक विरोधी को शत्रु मानकर रास्ते से हटा देने की नीति साम्यवादियों से तो अपेक्षित रहती है | आजकल केरल में इसका प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है किन्तु सत्ता  में आने से पूर्व तक  ममता का समूचा राजनीतिक सफर तो इसी तानशाही के विरुद्ध रहा | ऐसे में वे भी उसी तरह का व्यवहार करने लगें तो ये देखकर हैरानी होती है | बंगाल के अलावा असम , त्रिपुरा , मणिपुर , अरुणाचल आदि में भाजपा की सरकार बनने से पूर्वोत्तर में उसका जो दबदबा कायम हुआ उसके कारण बंगाल में भी उसकी संभावनाएं प्रबल होती लग रही हैं | बिहार विधानसभा चुनाव के हालिया नतीजों के बाद हैदराबाद महानगरपालिका के चुनाव में  मिली सफलता से भाजपा का  उत्साह भी ऊंचाई पर है | गत दिवस हुई घटना के बाद भाजपा और आक्रामक होकर मैदान में उतरेगी ये तय है |  लेकिन राजनीति से अलग हटकर देखें तो चुनाव पूर्व हो रही ये  घटनाएँ  चिंता का विषय है | ममता द्वारा अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को बजाय हिंसा से दूर रहने की समझाइश देने के उलटे भाजपा नेताओं के विरुद्ध आंय - बांय बकने से  एक बात तो तय है  कि ममता का आत्मविश्वास डगमगा रहा है | उनके साथी जिस तेजी  से उनका साथ छोड़ रहे हैं  उससे डूबते जहाज से चूहों के कूदने की कहावत चरितार्थ होती दिख रही है | 

-रवीन्द्र वाजपेयी 


Thursday 10 December 2020

खुद को किसान कहने वाले सांसद - विधायक इस्तीफा क्यों नहीं दे रहे



गत दिवस सरकार द्वारा भेजे गये संशोधन प्रस्तावों को सिरे से ख़ारिज करने के बाद  किसान संगठनों ने देश भर में धरना , प्रदर्शन करने के साथ ही अम्बानी और अडानी के उत्पादनों तथा व्यवसायिक प्रतिष्ठानों के बहिष्कार की घोषणा के साथ ही  भाजपा नेताओं के घेराव की चेतावनी भी दे डाली | किसान नेताओं को ये बात नागवार गुजर रही है कि सरकार भले ही  कृषि कानूनों में कतिपय सुधार और संशोधनों के लिए राजी हो गई  हो लेकिन उनको रद्द  करने से  उसने साफ़ इंकार कर दिया है और ऐसे  में आन्दोलन को वापिस लेने अथवा उसकी आक्रामकता  कम कर देने से  किसान समुदाय के बीच उनकी  विश्वसनीयता संकट में पड़ जायेगी  | गत दिवस केन्द्रीय मंत्रीपरिषद की बैठक के बाद प्रकाश जावड़ेकर ने पत्रकार वार्ता में सरकार के रवैये को दोहराते हुए आश्वस्त किया कि नये कानूनों को लेकर किसानों को भ्रमित किया गया है | इस प्रकार  सुलह की सम्भावना धूमिल होती नजर आने लगी है |  राजनीतिक नेताओं और पार्टियों को दूर रखने की नीति पर चल रहे किसान संगठनों द्वारा  भाजपा नेताओं का घेराव करने के निर्णय के बाद अब आन्दोलन को राजनीतिक होने से रोकना उनके लिए भी मुश्किल हो जाएगा क्योंकि पंजाब में भले न हो लेकिन हरियाणा , उत्तराखंड , राजस्थान , मप्र , उप्र , गुजरात , छतीसगढ़ जैसे राज्यों में किसानों के बीच भाजपा की भी अच्छी खासी पकड़ है  | इसका ताजातरीन प्रमाण राजस्थान में हुए पंचायत  समितियों तथा जिला परिषद के चुनाव परिणामों में भाजपा को मिली जबरदस्त सफलता है जिसने  ये संकेत तो दे ही दिया कि  आन्दोलन अलग विषय है और किसानों की राजनीतिक प्रतिबद्धता अलग | ऐसे में  भाजपा नेताओं के घेराव जैसे आयोजन हुए तब किसानों के बीच ही इसे लेकर मतभेद उभर सकते हैं जिससे आन्दोलन कमजोर होने की आशंका  बढ़ेगी | बेहतर हो आंदोलनकारी विभिन्न पार्टियों के उन सांसदों और विधायकों का घेराव करते हुए कृषि कानूनों के विरोध  में उनसे स्तीफा देने को कहें जिन्होंने चुनाव नामांकन पत्र में अपना व्यवसाय कृषि दर्शाया था | उल्लेखनीय है खेती की आड़ में काले धन को सफेद करते हुए आयकर बचाने वालों में निर्वाचित्त  जनप्रतिनिधियों की संख्या सैकड़ों में है  | जिस दिल्ली की देहलीज पर किसान धरना दिए बैठे हैं उसके बाहरी इलाकों में दर्जनों सांसदों , मंत्रियों और भूतपूर्व सत्ताधारियों के अनेक  फॉर्म हॉउस हैं जिनकी तुलना किसी पांच सितारा रिसॉर्ट से की जा सकती  है |  खेती करने  का दिखावा करने वाले ऐसे नेताओं से पूछा  जाना चाहिए  कि उनकी राजशाही खेती में अनाप - शनाप कमाई कैसे होती है ? इसलिए  बेहतर होगा आन्दोलन के अगले चरण में किसानों द्वारा उन सांसदों और विधायकों का पर्दाफाश किया जावे जो कृषक होने के नाम पर असली किसान के अधिकारों पर अतिक्रमण कर लेते हैं | ऐसा करने पर उन्हें सही अर्थों में जनसहानुभूति और समर्थन हासिल हो सकेगा जिससे अब तक उनका आंदोलन काफी हद तक वंचित है | दरअसल किसान  संगठनों की सबसे बड़ी मुसीबत ये है कि वे कहने को तो  राजनीतिक दलों से दूरी बनाकर चलने का दावा आकर रहे हैं किन्तु विपक्ष में बैठे राजनीतिक दल उनके पास आने का अवसर तलाश रहे हैं | गत दिवस राष्ट्रपति से पांच विपक्षी नेताओं की मुलाकात इसका प्रमाण है | वैसे भी योगेन्द्र यादव जैसे लोग जिस तरह से आन्दोलनकारियों के अघोषित सलाहकार बने हुए हैं उसके बाद किसान संगठनों का राजनीतिक दलों से परहेज गले नहीं उतरता क्योंकि श्री यादव का एजेंडा सर्वविदित है | यदि किसान संगठन अपने आन्दोलन को सही मायनों में गैर राजनीतिक साबित करना चाहते हैं तो उन्हें उन सभी सांसदों और विधायकों पर इस्तीफे का दबाव बनाना चाहिए जो खुद को किसान कहकर ग्रामीण जनता के वोट तो बटोरते हैं लेकिन किसानों के घावों पर मरहम लगाने में उनकी कोई रूचि नहीं है | अभी तक जो देखने मिला उसमें अकाली नेता  प्रकाश सिंह बादल द्वारा पद्म पुरस्कार के अलावा कुछ साहित्यकारों , कलाकारों और खिलाड़ियों ने उन्हें मिले सम्मान और पुरस्कार लौटने का ऐलान करते हुए खुद को किसानों का हमदर्द साबित करने का दांव चला है |  लेकिन खुद को किसान कहने वाले एक भी सांसद और विधायक ने इस  आन्दोलन के समर्थन में  अपनी सदस्यता छोड़ना तो दूर रहा उसकी धमकी तक नहीं दी | किसान संगठनों को ऐसे जनप्रतिनिधियों की खबर लेते हुए उन पर इस्तीफे का दबाव बनाना चाहिए | ऐसा करने से पता चल जावेगा कि वे असली किसान हैं या दिखावटी ?  किसान आन्दोलन अब ऐसे मोड़ पर आकर खड़ा हो गया है जहां ज़रा सा दिशाभ्रम उसे भटकाव के ऐसे रास्ते पर लाकर खड़ा कर  देगा जहां से न आगे बढना संभव होगा  और न पीछे लौटना | 

-रवीन्द्र वाजपेयी



Wednesday 9 December 2020

बंद के बाद आन्दोलन को लम्बा खींचना मुश्किल होगा



गत दिवस नए कृषि कानूनों के विरोध में आयोजित भारत बंद सफल रहा या नहीं इस बहस में पड़े बिना अब देखने वाली बात ये होगी कि इसके बाद आन्दोलनकारी किसानों और सरकार के बीच चल रही रस्साकशी कहाँ जाकर रुकती है | सबसे रोचक बात ये रही कि जो किसान नेता हाँ या न के अलावा कुछ और सुनने से इंकार कर रहे थे वे बंद के बाद ही केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह के बुलावे पर उनसे बातचीत करने जा पहुंचे | हालाँकि कोई समाधान नहीं निकला और  आज की वार्ता रद्द होने की बात भी सामने आ गई | लेकिन सरकारी सूत्रों से छन - छनकर आ रही खबरों के अनुसार आज की  कैबिनेट बैठक में  कुछ न कुछ  ऐसा कर दिया जावेगा जिसके बाद आम किसान के साथ ही जनता के बीच ये एहसास जाये कि सरकार ने अपनी तरफ से तो लचीला रुख दिखा दिया लेकिन किसान  नेता हठधर्मी दिखा रहे हैं | हालांकि पिछली सभी बैठकों  में सरकार की ओर से लगातार ये कहा गया कि वह किसानों की मांगों के अनुरूप कानूनों में संशोधन हेतु राजी है और जैसा बताया जाता है किसान नेता भी इससे सहमत हो रहे थे लेकिन बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बनकर घुस आये कुछ तत्वों ने कानून वापिस लेने की जिद पकड़ ली जिससे  समझौते के संभावित रास्ते धीरे - धीरे बंद होते गए | ये बात भी चौंकाने वाली रही कि जब वार्ता पूरी तरह बंद नहीं हुई और 9 तारीख को उसका अगला दौर निश्चित हो चुका था तब उसके एक दिन पहले भारत बंद के आह्वान का क्या औचित्य था ? कल दोपहर तक सरकार ने ये  देख लिया कि बंद  को देश के बाकी हिस्सों में वैसा समर्थन नहीं मिला जैसा आन्दोलनकारियों को उम्मीद थी | शहरी इलाकों में जहां जबर्दस्ती बंद करवाने की कोशिश हुई उनको छोड़कर ग्रामीण क्षेत्र तक उससे अछूते रह गये | यहाँ तक कि  दिल्ली तक में बंद का असर न के बराबर दिखा जबकि आम आदमी पार्टी की सरकार के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने उसको समर्थन दे दिया था | बंगाल में ममता बैनर्जी की पार्टी ने किसानों का पक्ष लेने  के बाद भी बंद का समर्थन नहीं किया | कांग्रेस और विपक्ष शासित दूसरे राज्यों में भी वह  महज औपचारिकता बनकर रह गया | किसान नेता कुछ भी कहते रहें लेकिन कल के बाद ये बात स्पष्ट हो चली है कि वे आंदोलन को पंजाब और हरियाणा के बाहर व्यापक रूप नहीं  दे सके | उन्हें राजस्थान और उप्र से जैसे समर्थन की उम्मीद रही  वह पूरी नहीं  हो सकी जिसके कारण राजनीतिक दबाव बनाने में ये आंदोलन अपेक्षित सफलता हासिल नहीं कर पा रहा | और अब  आन्दोलन की मांगों से ज्यादा धरना स्थल पर किये गए बेहतरीन इंतजामों की चर्चा शुरू हो गई है जिससे  वह इवेंट मैनेजमेंट के विद्यार्थियों  के लिए अध्ययन का विषय बनता जा रहा है  | शानदार प्रबंध और आन्दोलन का शांतिपूर्ण बना रहना निश्चित रूप से काबिले तारीफ़ है  लेकिन काजू - बादाम के साथ ही आन्दोलनकारियों की सुख - सुविधा के लिए किये गये प्रबंधों का जिस तरह से प्रचार हो रहा है उससे देश भर में फैले छोटे किसानों  के साथ ही आम जनता में भी ये धारणा तेजी से घर करती जा रही है कि ये आन्दोलन  पंजाब और सम्पन्न किसानों का है | और देर सवेर  यही बात प. उत्तर प्रदेश के किसान नेता राकेश टिकैत और उन जैसे अन्य किसान संगठनों को हजम नहीं होगी | अमित शाह से मिलने के बाद श्री टिकैत का ये कहना कि बातचीत सकारात्मक रही , बेहद महत्वपूर्ण है | जैसी कि जानकारी मिली है उसके अनुसार सरकार  केन्द्रीय मंत्रीमंडल आज की  बैठक के बाद किसान संगठनों को कृषि कानूनों में कतिपय संशोधनों के साथ सुलह प्रस्ताव भेजेगी   | हालाँकि श्री टिकैत ने कल भी ये दोहराया कि कानून वापिस लिए बिना बात नहीं बनेगी लेकिन सरकार से जुड़े सूत्रों के अनुसार उसे ये एहसास हो गया है कि यदि एमएसपी , मंडी और कान्ट्रेक्ट फार्मिंग जैसे मुद्दों पर  किसानों की आशंकाओं को दूर कर दिया जाये तब आन्दोलन केवल पंजाब और कुछ हद तक हरियाणा में ही सिमटकर रह जाएगा | ऐसे में देखने वाली बात ये होगी कि बंद जैसे ब्रह्मास्त्र का जल्दबाजी में उपयोग करने के बाद भी यदि जीत हासिल न हो सकी तब आखिर कब तक किसान दिल्ली के दरवाजे पर बैठे रहेंगे ?  किसान संगठन भले ही   लंबी तैयारी के दावे करते रहे हों लेकिन ज्यों - ज्यों फसल का समय आने लगेगा त्यों - त्यों किसानों में बेचैनी बढ़ेगी |  सरकार ये समझ गई है कि देश के बहुसंख्यक किसान नये कानूनों को लेकर उदासीन हैं क्योंकि उन्हें इनसे किसी नुकसान की सम्भावना नहीं है | अब जैसा कृषि मंत्री पिछली बैठकों में संकेत देते आये हैं यदि वैसे ही सुधार और संशोधनों के साथ सरकार आगे बढ़ गई तब किसानों के लिए आंदोलन को आगे खींचना कठिन होगा और बड़ी बात नहीं वह  शाहीन बाग़ की तरह से ही विवाद और आलोचना का विषय बनकर रह जाए | आंदोलनकारियों की सभी  मांगें नाजायज कदापि नहीं हैं | पंजाब और हरियाणा के किसानों  ने खाद्यान्न के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने में ऐतिहासिक योगदान दिया है लेकिन प्रतिस्पर्धा के इस युग में वे अपना एकाधिकार बनाकर समूची व्यवस्था पर  नियन्त्रण करने की सोचें तो वह अव्यवहारिक होगा | बेहतर होगा वे सरकार द्वारा दिए गए प्रस्तावों को सिरे से ख़ारिज करने की बजाय उन पर विश्वास करें क्योंकि आन्दोलन का प्रबन्धन कितना भी अच्छा क्यों न हो लेकिन उसकी तीव्रता एक जैसी नहीं रह पायेगी |  किसान संगठनों के सामने ये दुविधा है कि कानून रद्द करवाए बिना आन्दोलन वापिस लेने पर उनकी नाक कट जायेगी लेकिन अगर सरकार ने एकपक्षीय फैसले लेकर बातचीत बंद कर दी तब किसान संगठन अजीबोगरीब स्थिति  में फंस जायेंगे और उनमें बिखराव आने की  संभावना बढ़ जायेगी | कल के बंद के बाद किसान नेताओं को भी ये समझना चाहिए कि राजनीतिक दल केवल अपने फायदे के लिए उनके साथ खड़े होने का दिखावा कर रहे हैं | जिस पल उन्हें महसूस होगा कि ये  आंदोलन उनके लिए बोझ बनने लगा है उसी समय वे पल्ला झाड़कर दूर बैठ जायेंगे | सीएए के आन्दोलन में मुसलमानों को सड़कों पर बिठाकर वे जिस तरह दूर जा बैठे वह ज्यादा  पुरानी बात नहीं है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 8 December 2020

बच्चों की मौत बीमारू राज्य के प्रमाणपत्र का नवीनीकरण



हाल ही में प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना वैक्सीन संबंधी घोषणा करते हुए भारत द्वारा इस महामारी के विरुद्ध लड़ी गई लड़ाई में प्राप्त सफलता का बखान किया था | उनकी बात में सच्चाई भी है  क्योंकि विश्व की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले हमारे देश में सरकारी  चिकित्सा सेवाओं की दयनीय हालत देखते हुए इस बात की प्रबल आशंका थी कि कोरोना महामारी  की स्थिति में पहुंच जायेगा जिसके कारण बड़ी संख्या में  मौतें होंगी | लेकिन  जैसे संकेत मिल रहे  हैं उनके अनुसार भारत इस अनजान और अप्रत्याशित संकट से कम से कम नुक्सान के साथ बाहर आने में सफल दिखाई दे रहा है | यद्यपि अभी संक्रमण पूरी तरह खत्म नहीं हुआ लेकिन उसकी तीव्रता में कमी आने से ये लग रहा है कि दूसरी लहर उतनी प्रभावशाली नहीं हुई जितना उसे लेकर डर था | और अब तो वैक्सीन भी आने को तैयार है | ऐसे में ये कहा जा सकता है कि हम कोरोना पर जीत हासिल करने के काफी  करीब आ चुके हैं | पूरी दुनिया में इस बात को लेकर भारत की प्रशंसा हो रही है | प्रारम्भिक अफरातफरी के बाद आपात्कालीन चिकित्सा प्रबंध जिस तेजी से किये गये वे भारतीय हालातों में किसी चमत्कार से कम न थे | इस क्षेत्र के जानकार ये मान रहे हैं कि कोरोना संकट ने भारत में चिकित्सा सेवाओं के विस्तार और सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया और उस कारण हमारे आत्मविश्वास में भी वृद्धि हुई है लेकिन इसी बीच मप्र के शहडोल जिले के सरकारी जिला अस्पताल में छोटे बच्चों की मौत की घटना होने से हड़कम्प मच गया | बीते कुछ ही दिनों में 14 बच्चे चल बसे | राजधानी भोपाल तक इसे लेकर हलचल है | सरकारी कर्मकांड के अनुसार अनेक लोगों को निलम्बित कर दिया गया | स्वास्थ्य विभाग के आला अफसरों के बाद आज प्रदेश के  स्वास्थ्य मंत्री भी उक्त अस्पताल का दौरा कर रहे हैं | उनके वहां जाने का असर ये होगा कि अस्पताल साफ़ - सुथरा हो जाएगा | मरीजों के बिस्तर पर धुली हुई चादर नजर आयेगी | चिकित्सक और नर्सिंग स्टाफ समय से आकर अपने काम में जुट जाएगा | मरीजों को समय से दवाइयों के साथ ही बाकी सुविधाएं  मिल जायेंगी और उनसे अच्छा व्यवहार भी  किया जावेगा | मंत्री जी भी  सहानुभूति के टोकरे उड़ेल देंगे | जिन परिवारों के नौनिहाल सस्ते में चल बसे उनको कुछ सहायता देकर गुस्सा  ठंडा कर  दिया जाएगा | मुख्यमंत्री जी की चिंता को सार्वजनिक तौर पर व्यक्त करते हुए जिला  अस्पताल के उन्नयन हेतु अतिरिक्त बजट तथा उपकरण भी स्वीकृत कर दिए जाएंगे | स्थानीय  जनप्रतिनिधि मंत्री जी के सान्निध्य में अपनी जागरूकता और सक्रियता का प्रदर्शन करेंगे और फिर दिन भर के तमाशे के बाद सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा | बच्चे किसी बीमारी से मौत के मुंह में गए या अस्पताल की लापरवाही से , ये पता लगाने की जहमत उठाये बिना बीती ताहि बिसार दे , आगे की सुधि लेय वाली उक्ति का पालन करते हुए किसी नए हादसे के होते ही सभी का ध्यान उस ओर चला जाएगा | हमारे देश के लिए ये कोई नई बात  नहीं है | जनता भी चूँकि जबरदस्त सहनशील है इसलिए नेता और नौकरशाह भी चिंता नहीं करते | यही वजह है कि इंसानी ज़िन्दगी हमारे देश में रस्ते का माल सस्ते में होकर रह गई है | शहडोल में तो अब तक गनीमत है 14 बच्चों की ही मौत हुई लेकिन बीते साल पटना और उसके पूर्व उप्र के गोरखपुर में दर्जनों बच्चे किसी अज्ञात बीमारी से चल बसे | दुर्भाग्य की बात ये है कि ऐसे हादसे साल दर  साल दोहराये जाते हैं लेकिन स्थायी निदान के बारे में कोई नहीं सोचता | इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत में चिकित्सा सेवाओं का विकास और विस्तार दोनों हुए हैं | गम्भीर से गम्भीर बीमारियों तक का इलाज होने लगा है | यूरोपीय देशों की तुलना में सस्ता होने से बड़ी संख्या में विदेशी यहाँ इलाज हेतु आने लगे हैं जिसकी वजह से मेडिकल टूरिज्म विदेशी मुद्रा का एक बड़ा स्रोत बनने लगा है । लेकिन बतौर विरोधाभास राजधानी एवं बड़े शहरों को छोड़कर ज्योंहीं बात जिला , तहसील और कस्बों की आती है त्योंही चिकित्सा व्यवस्था की दरिद्रता सामने आने लगती है | शहडोल जैसी अनेक घटनाएँ देश के किसी न किसी भाग में आये दिन होती रहती हैं | सूचना क्रांति की वजह से उनकी जानकारी प्रसारित भी हो जाती है लेकिन उन्हें रोकने के प्रति सरकारी स्तर पर जो लापरवाही भरा रवैया होता है वह शर्मनाक ही नहीं घोर अमानवीय भी है | हमारे जनप्रतिनिधियों को तो भूतपूर्व होने के बाद तक मुफ्त और महंगे से महंगा इलाज उपलब्ध है | देश में संभव न हो तो विदेश में महीनों रहकर जनता के पैसे से करोड़ों उन पर खर्च कर दिए जाते हैं लेकिन उन्हें सड़क से उठाकर संसद और विधानसभा पहुँचाने वाली आम जनता को कुत्ते के काटने पर लगने वाला इंजेक्शन तक अपने पैसे से खरीदकर लाना पड़ता है | प्रधानमन्त्री द्वारा कोरोना संक्रमण पर भारत की जीत का जो गौरवगान किया गया उससे किसी को ऐतराज या असहमति नहीं है किन्तु समय आ गया है जब कतार के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति को भी वीआईपी न सही लेकिन साधारण स्तर की  प्राथमिक चिकित्सा तो उपलब्ध कराई जा सके | मप्र दो दशक पहले तक बीमारू राज्य की श्रेणी में आता था |  लेकिन अब उसके  विकास की राह पर बढ़ने  का दावा होने लगा है | बिजली ,पानी और सड़क जैसी  समस्याओं से वह काफी हद तक उबर चुका है लेकिन सरकारी  चिकित्सा सुविधाओं के बारे में अभी भी स्थिति संतोषजनक नहीं है | शहडोल की घटना से एक बार फिर ये विषय विचारणीय हो चला है लेकिन इसे सस्ते में हवा - हवाई कर देना असंवेदनशीलता का उदाहरण होगा | प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जिस तरह मप्र को कृषि के क्षेत्र में देश का अग्रणी राज्य बनाया उसी तरह उन्हें चिकित्सा के क्षेत्र में भी वैसी ही उपलब्धियां अर्जित करने के भगीरथी प्रयास करना चाहिए | ये वाकई शर्म  की बात है कि प्रतिदिन मप्र से सैकड़ों लोग इलाज ही नहीं  जांच तक के लिए नागपुर जाने मजबूर होते हैं | विकास के मापदंडों में चिकित्सा और स्वास्थ्य भी सर्वोच्च प्राथमिकता के विषय होना चाहिए |

- रवीन्द्र वाजपेयी 



Monday 7 December 2020

लड़ाई में पीछे हटने के रास्ते बंद कर देना हानिकारक होता है



केंद्र सरकार और आन्दोलनकारी किसान संगठनों के बीच कई दौर की बातचीत के बावजूद समाधान नहीं निकला | अगली बातचीत 9 दिसम्बर को होने वाली है | लेकिन उसके पहले 8 तारीख को भारत बंद का आह्वान कर दिया गया जिसे तकरीबन 20 विपक्षी दलों ने अपना समर्थन भी दे दिया | पिछली बैठक में सरकार ने नए कानूनों में संशोधन की मंशा जताई किन्तु किसानों के नेताओं ने उससे असहमत होते हुए कानून वापिस लेने की जिद ठान  ली और उसके बाद कृषि मंत्री भी  अगली बैठक की तरीख तय करते हुए चले गये | गत दिवस कृषि राज्यमंत्री कैलाश चौधरी द्वारा दिये गए संकेतों के अनुसार सरकार कानूनों को वापिस लेने की मांग को शायद ही स्वीकार करे किन्तु वह संशोधन के लिए तैयार है | ऐसा लगता है सरकार किसानों के साथ बातचीत की प्रक्रिया को उस हद तक लाना चाहती है जहाँ उस पर ये आरोप न लग सके कि उसने विवाद हल करने के लिए कुछ नहीं किया | कल के बंद के बाद अब किसानों के पास बातचीत करने के लिए क्या बच रहेगा ये बड़ा सवाल है | सरकार के अब तक के रवैये से नहीं लगता कि वह तीनों कानून वापिस लेकर झुकने जैसा एहसास करवायेगी | यदि वह शुरू में ही ऐसा कर लेती तब शायद पराजयबोध से बच जाती लेकिन अब वैसा करना घुटने टेकना होगा , जिसकी उम्मीद बहुत कम है | दूसरी तरफ किसान भी  कानून वापिसी की जिद पकड़कर पीछे लौटने की स्थिति में नहीं रहे | ऐसे में वे संशोधनों पर राजी होकर आन्दोलन वापिस ले लेंगे ये भी संभव नहीं दिखाई देता |  जहाँ तक बंद का सवाल है तो अब इस हथियार में पहले जैसी धार नहीं रही और वह केवल एक दिन की सुर्खी बनकर रह जाता है | जाहिर है गैर भाजपा  शासित राज्यों में सरकार का संरक्षण मिलने से बंद अपेक्षाकृत सफल दिखेगा जबकि भाजपा के कब्जे वाले राज्यों में मिला जुला | यूँ भी आम जनता को इससे लेना देना नहीं है | और रही बात व्यापारी वर्ग की तो शादी सीजन में व्यापार बंद रखना उसे रास नहीं आएगा | लेकिन तोड़फोड़ के डर से वह दुकान बंद कर घर बैठ जाता है | यूँ भी दोपहर के बाद फिर बाजार खुलने लगते हैं | लेकिन परसों किसान संगठनों और सरकार के बीच बातचीत किस मुद्दे पर होगी ये समझ से परे है | यदि कानून वापिस लेने की घोषणा सरकार तब तक नहीं करती तो किसान बैठक में क्या करने जायेंगे ? और बिना क़ानून वापिस हुए आन्दोलन खत्म नहीं करने की जिद दोहराई जाती रही तब  सरकार के पास भी  किसान नेताओं के साथ बैठने की औपचरिकता का औचित्य नहीं रहेगा | ये देखते हुए हो सकता  है कि सरकार ने किसान संगठनों की आपत्तियों के मद्देनजर  नये कानूनों में जिन  संशोधनों पर रजामंदी दिखाई  है उनकी वह इकतरफा घोषणा कर दे | ऐसा करने से किसानों का एक तबका आन्दोलन को सफल मानकर शांत हो सकता है | सरकार ने भी इतने दिनों के भीतर ये तो पता किया ही होगा कि  बजाय कानूनों को वापिस लेने के वह केवल संशोधन का रास्ता  चुनती है तब उसके बाद आन्दोलन पर उसका क्या असर पड़ेगा ? किसान संगठन कहें कुछ भी लेकिन आन्दोलन के नाम पर राजनीतिक रोटी सेंकने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है | और यही उनके लिए नुकसानदेह हो सकता है |  अभी तक किसान आन्दोलन की हवा से देश का बड़ा हिस्सा अछूता है | ऐसे में सरकार ने एमएसपी , मंडी और कांट्रेक्ट फार्मिंग संबंधी संशोधन कर दिए तब पंजाब - हरियाणा  के अलावा बाकी राज्यों के बहुसंख्यक किसान संतुष्ट हो सकते हैं | वैसे भी उन्हें नए  कानूनों से कुछ लेने देना है नहीं | ये सब देखते हुए अब सबकी निगाहें कल के बंद और उसके बाद 9 दिसम्बर की वार्ता पर लगी रहेंगी | चूंकि किसान संगठनों की तरफ से बीच का रास्ता निकालने की सम्भावनाएं पूरी तरह खत्म कर दी गईं हैं इसलिए बड़ी बात नहीं परसों के  बाद संवादहीनता के हालात बन जाएँ और ऐसे में आन्दोलन अनियंत्रित  होने का खतरा बढ़ जाएगा | सरकार ने अब तक जिस तरह का रवैया अपनाया हुआ है उससे लगता है वह   किसान संगठनों की हठधर्मिता को जिम्मेदार ठहराकर ये सन्देश देना  चाह रही है कि वह तो समझौता चाहती थी किन्तु किसान नेताओं ने उसमें अड़ंगेबाजी की | वैसे भी  किसी  लड़ाई  में हमेशा आक्रामक नहीं रहा जा सकता | कभी - कभी पीछे हटकर भी लड़ाई जीती जा सकती है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 5 December 2020

वैक्सीन के बाद भी एक वर्ष तक सावधानी जरूरी



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा गत दिवस सर्वदलीय बैठक में कोरोना वैक्सीन के कुछ हफ्तों में आने की  जानकारी देते हुए आश्वस्त  किया कि प्राथमिकता के आधार पर टीकाकरण किये जाने की तैयारी प्रशासनिक स्तर पर की जा चुकी है | इस कार्य में राज्यों के साथ समन्वय स्थापित कर सबसे  पहले एक करोड़ स्वास्थ्यकर्मी और उसके बाद तकरीबन दो करोड़  मैदानी  कार्यकर्ताओं को वैक्सीन उपलब्ध  करवाई जावेगी जिनमें पुलिस , सुरक्षाबल  और निकाय कर्मी मुख्य रूप से होंगे | उसके बाद अति बुजुर्गों और वरिष्ठ नागरिकों का क्रम आयेगा | प्रधानमन्त्री ने विस्तार से बात करते हुए कहा कि वैक्सीन की कीमत को लेकर राज्यों के साथ चर्चा उपरान्त ही निर्णय किया जावेगा | उन्होंने कोरोना  संक्रमण से लडाई में भारत की सफलता का ब्यौरा  देते हुए बताया कि बड़े पैमाने पर  जांच किये जाने से संक्रमण को महामारी में बदलने में सफलता हासिल हुई | वैश्विक अनुपात में मृत्यु  दर कम रहने को भी उन्होंने उपलब्धि बताया | भारत द्वारा कोरोना के सामुदायिक फैलाव को रोकने के लिए जो उपाय किये गए उन पर हर्ष  व्यक्त करते हुए श्री मोदी ने भारत में वैक्सीन का विकास करने में जुटे वैज्ञानिकों की प्रशंसा करते हुए कहा कि उनके प्रयासों की सफलता पर पूरी दुनिया की निगाहें लगी हैं क्योंकि किफायती दामों पर वैक्सीन  उत्पादन में भारत विश्व का अग्रणी राष्ट्र है | टीकाकरण के अभियान में राज्य सरकारों की सहभागिता की चर्चा करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि उसकी कीमतों के निर्धारण में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रहेगी | इसी बीच ये मांग भी उठ खडी हुई है कि कोरोना की वजह से चूँकि समाज के प्रत्येक वर्ग को जबरदस्त मानसिक , आर्थिक और शारीरिक परेशानी उठानी पड़ रही है इसलिए बेहतर होगा वैक्सीन लगाने संबंधी पूरा खर्च सरकार वहन  करे | बिहार चुनाव में भाजपा ने अपने  घोषणापत्र में जब इसकी घोषणा की थी तब ये प्रश्न उठा था कि  अन्य राज्यों के निवासी भी तो मतदाता हैं | और तब केंद्र के साथ ही  अनेक राज्य सरकारों की तरफ से निःशुल्क वैक्सीन का आश्वासन दिया गया था | अब जबकि वैक्सीन उपलब्ध होने जा रही है तब ये जरूरी हो गया है कि केंद्र और राज्य मिलकर इस बारे में नीतिगत घोषणा करते हुए आम जनता के मन में व्याप्त अनिश्चितता और भय को दूर करें | वैसे भी एक वर्ग ऐसा है जो सरकारी वैक्सीन के इन्तजार में बैठने की बजाय अपने खर्च से उसे खरीद लेगा | केन्द्रीय स्वास्थ्य  मंत्री डा. हर्षवर्धन तो पहले ही कह चुके हैं कि पूरे देश को वैक्सीन लगाते - लगाते अगले साल का जुलाई महीना आ जाएगा | उनकी बात काफी हद तक सही है क्योंकि 138 करोड़ जनता का टीकाकरण छोटा काम नहीं है | इसलिए ध्यान देने योग्य बात ये है कि  वैक्सीन की खुले बाजार में उपलब्धता रहे और वह कालाबाजारी और मुनाफाखोरी के चंगुल में न फंस जाये | दूसरी तरफ वैक्सीन लगाने के अभियान में सरकारी ढर्रा बाधा न बने | लेकिन इसी के साथ सबसे ज्यादा जरूरत है कोरोना संक्रमण की वापिसी को रोकना | उल्लेखनीय है अमेरिका , ब्रिटेन , फ्रांस और इटली जैसे विकसित देशों में कोरोना की दूसरी लहर ने कहर  बरपा रखा है | नित्यप्रति बड़ी संख्या में  नए संक्रमित सामने आने से चिकित्सा प्रबंध गड़बड़ा गये हैं | अमेरिका में तो रिकॉर्ड संख्या में मौतें  हो रही हैं | वहीं अपनी स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता के लिए विश्व प्रसिद्ध इटली के अस्पतालों में बिस्तर कम पड़ने लगे हैं | भारत के बारे में भी ऐसी ही आशंका व्यक्त की जा रही थी | दीपावली के बाद अचानक से कोरोना संक्रमण तेजी से बढ़ा भी लेकिन जैसा कि सरकारी आंकड़े बता रहे हैं उनके अनुसार बीते एक सप्ताह में कोरोना का फैलाव फिर नियंत्रण में आ रहा है और अस्पताल से स्वस्थ होकर घर लौटने वालों की संख्या नए संक्रमितों से ज्यादा होने से ये उम्मीद बढ़ी है कि दूसरी लहर का प्रकोप शायद आशंका जितना न रहे | लेकिन ध्यान रखने वाली बात ये भी है कि सर्दियों का मौसम कोरोना के प्रारम्भिक लक्षणों के लिए काफी अनुकूल है और ऐसे में विशेष रूप से पहले से बीमार चल रहे बुजुर्गों के स्वास्थ्य के प्रति सतर्कता रखी जानी चाहिए | प्रधानमन्त्री ने भी इस बारे में आगाह किया है | इस बारे में एक बात पक्के तौर पर समझ लेनी होगी कि वैक्सीन लगने के बाद भी कम से कम आने वाले एक साल तक मास्क और  सैनिटाइजर के उपयोग के अलावा शारीरिक दूरी बनाये रखने के प्रति अनुशासित रहना होगा क्योंकि कोरोना एक वायरस है जो दोबारा नहीं आयेगा इसकी गारंटी कोई नहीं दे सकता | दुनिया के अनेक देश कोरोना की पहली लहर के ठंडे  पड़ने के बाद खुशफहमी के शिकार होकर धोखा खा चुके हैं |

-रवीन्द्र वाजपेयी