Wednesday 9 December 2020

बंद के बाद आन्दोलन को लम्बा खींचना मुश्किल होगा



गत दिवस नए कृषि कानूनों के विरोध में आयोजित भारत बंद सफल रहा या नहीं इस बहस में पड़े बिना अब देखने वाली बात ये होगी कि इसके बाद आन्दोलनकारी किसानों और सरकार के बीच चल रही रस्साकशी कहाँ जाकर रुकती है | सबसे रोचक बात ये रही कि जो किसान नेता हाँ या न के अलावा कुछ और सुनने से इंकार कर रहे थे वे बंद के बाद ही केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह के बुलावे पर उनसे बातचीत करने जा पहुंचे | हालाँकि कोई समाधान नहीं निकला और  आज की वार्ता रद्द होने की बात भी सामने आ गई | लेकिन सरकारी सूत्रों से छन - छनकर आ रही खबरों के अनुसार आज की  कैबिनेट बैठक में  कुछ न कुछ  ऐसा कर दिया जावेगा जिसके बाद आम किसान के साथ ही जनता के बीच ये एहसास जाये कि सरकार ने अपनी तरफ से तो लचीला रुख दिखा दिया लेकिन किसान  नेता हठधर्मी दिखा रहे हैं | हालांकि पिछली सभी बैठकों  में सरकार की ओर से लगातार ये कहा गया कि वह किसानों की मांगों के अनुरूप कानूनों में संशोधन हेतु राजी है और जैसा बताया जाता है किसान नेता भी इससे सहमत हो रहे थे लेकिन बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बनकर घुस आये कुछ तत्वों ने कानून वापिस लेने की जिद पकड़ ली जिससे  समझौते के संभावित रास्ते धीरे - धीरे बंद होते गए | ये बात भी चौंकाने वाली रही कि जब वार्ता पूरी तरह बंद नहीं हुई और 9 तारीख को उसका अगला दौर निश्चित हो चुका था तब उसके एक दिन पहले भारत बंद के आह्वान का क्या औचित्य था ? कल दोपहर तक सरकार ने ये  देख लिया कि बंद  को देश के बाकी हिस्सों में वैसा समर्थन नहीं मिला जैसा आन्दोलनकारियों को उम्मीद थी | शहरी इलाकों में जहां जबर्दस्ती बंद करवाने की कोशिश हुई उनको छोड़कर ग्रामीण क्षेत्र तक उससे अछूते रह गये | यहाँ तक कि  दिल्ली तक में बंद का असर न के बराबर दिखा जबकि आम आदमी पार्टी की सरकार के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने उसको समर्थन दे दिया था | बंगाल में ममता बैनर्जी की पार्टी ने किसानों का पक्ष लेने  के बाद भी बंद का समर्थन नहीं किया | कांग्रेस और विपक्ष शासित दूसरे राज्यों में भी वह  महज औपचारिकता बनकर रह गया | किसान नेता कुछ भी कहते रहें लेकिन कल के बाद ये बात स्पष्ट हो चली है कि वे आंदोलन को पंजाब और हरियाणा के बाहर व्यापक रूप नहीं  दे सके | उन्हें राजस्थान और उप्र से जैसे समर्थन की उम्मीद रही  वह पूरी नहीं  हो सकी जिसके कारण राजनीतिक दबाव बनाने में ये आंदोलन अपेक्षित सफलता हासिल नहीं कर पा रहा | और अब  आन्दोलन की मांगों से ज्यादा धरना स्थल पर किये गए बेहतरीन इंतजामों की चर्चा शुरू हो गई है जिससे  वह इवेंट मैनेजमेंट के विद्यार्थियों  के लिए अध्ययन का विषय बनता जा रहा है  | शानदार प्रबंध और आन्दोलन का शांतिपूर्ण बना रहना निश्चित रूप से काबिले तारीफ़ है  लेकिन काजू - बादाम के साथ ही आन्दोलनकारियों की सुख - सुविधा के लिए किये गये प्रबंधों का जिस तरह से प्रचार हो रहा है उससे देश भर में फैले छोटे किसानों  के साथ ही आम जनता में भी ये धारणा तेजी से घर करती जा रही है कि ये आन्दोलन  पंजाब और सम्पन्न किसानों का है | और देर सवेर  यही बात प. उत्तर प्रदेश के किसान नेता राकेश टिकैत और उन जैसे अन्य किसान संगठनों को हजम नहीं होगी | अमित शाह से मिलने के बाद श्री टिकैत का ये कहना कि बातचीत सकारात्मक रही , बेहद महत्वपूर्ण है | जैसी कि जानकारी मिली है उसके अनुसार सरकार  केन्द्रीय मंत्रीमंडल आज की  बैठक के बाद किसान संगठनों को कृषि कानूनों में कतिपय संशोधनों के साथ सुलह प्रस्ताव भेजेगी   | हालाँकि श्री टिकैत ने कल भी ये दोहराया कि कानून वापिस लिए बिना बात नहीं बनेगी लेकिन सरकार से जुड़े सूत्रों के अनुसार उसे ये एहसास हो गया है कि यदि एमएसपी , मंडी और कान्ट्रेक्ट फार्मिंग जैसे मुद्दों पर  किसानों की आशंकाओं को दूर कर दिया जाये तब आन्दोलन केवल पंजाब और कुछ हद तक हरियाणा में ही सिमटकर रह जाएगा | ऐसे में देखने वाली बात ये होगी कि बंद जैसे ब्रह्मास्त्र का जल्दबाजी में उपयोग करने के बाद भी यदि जीत हासिल न हो सकी तब आखिर कब तक किसान दिल्ली के दरवाजे पर बैठे रहेंगे ?  किसान संगठन भले ही   लंबी तैयारी के दावे करते रहे हों लेकिन ज्यों - ज्यों फसल का समय आने लगेगा त्यों - त्यों किसानों में बेचैनी बढ़ेगी |  सरकार ये समझ गई है कि देश के बहुसंख्यक किसान नये कानूनों को लेकर उदासीन हैं क्योंकि उन्हें इनसे किसी नुकसान की सम्भावना नहीं है | अब जैसा कृषि मंत्री पिछली बैठकों में संकेत देते आये हैं यदि वैसे ही सुधार और संशोधनों के साथ सरकार आगे बढ़ गई तब किसानों के लिए आंदोलन को आगे खींचना कठिन होगा और बड़ी बात नहीं वह  शाहीन बाग़ की तरह से ही विवाद और आलोचना का विषय बनकर रह जाए | आंदोलनकारियों की सभी  मांगें नाजायज कदापि नहीं हैं | पंजाब और हरियाणा के किसानों  ने खाद्यान्न के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने में ऐतिहासिक योगदान दिया है लेकिन प्रतिस्पर्धा के इस युग में वे अपना एकाधिकार बनाकर समूची व्यवस्था पर  नियन्त्रण करने की सोचें तो वह अव्यवहारिक होगा | बेहतर होगा वे सरकार द्वारा दिए गए प्रस्तावों को सिरे से ख़ारिज करने की बजाय उन पर विश्वास करें क्योंकि आन्दोलन का प्रबन्धन कितना भी अच्छा क्यों न हो लेकिन उसकी तीव्रता एक जैसी नहीं रह पायेगी |  किसान संगठनों के सामने ये दुविधा है कि कानून रद्द करवाए बिना आन्दोलन वापिस लेने पर उनकी नाक कट जायेगी लेकिन अगर सरकार ने एकपक्षीय फैसले लेकर बातचीत बंद कर दी तब किसान संगठन अजीबोगरीब स्थिति  में फंस जायेंगे और उनमें बिखराव आने की  संभावना बढ़ जायेगी | कल के बंद के बाद किसान नेताओं को भी ये समझना चाहिए कि राजनीतिक दल केवल अपने फायदे के लिए उनके साथ खड़े होने का दिखावा कर रहे हैं | जिस पल उन्हें महसूस होगा कि ये  आंदोलन उनके लिए बोझ बनने लगा है उसी समय वे पल्ला झाड़कर दूर बैठ जायेंगे | सीएए के आन्दोलन में मुसलमानों को सड़कों पर बिठाकर वे जिस तरह दूर जा बैठे वह ज्यादा  पुरानी बात नहीं है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

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