Tuesday 1 December 2020

असली और दिखावटी किसान में फर्क भी सामने आना चाहिए




किसान आन्दोलन के संदर्भ में ही सही लेकिन  किसानों की आर्थिक स्थिति पर एक बार फिर पूरे देश में चर्चा चल पड़ी है | हालाँकि अभी तक आन्दोलन की बागडोर पंजाब के किसानों और वह भी मुख्य रूप से संपन्न कृषकों के हाथ में ही है | देश के अनेक राज्य ऐसे हैं जो खेती के रकबे में पंजाब से कहीं बड़े हैं किन्तु वहां के आम किसान से यदि नये कृषि संशोधन कानून के बारे में पूछे तो वह अनभिज्ञता जाहिर कर देगा | जहां तक बात नये कानूनों के विरोध की है तो उसे लेकर जो शंकाएं जताई  जा रही हैं उनका निराकरण प्रधानमन्त्री के स्तर पर किये जाने के बाद भी किसान आन्दोलन को दिल्ली घेरने तक ले आना समझ से परे है | स्मरणीय है विगत 13 नवम्बर को किसान संगठनों के साथ सरकार की वार्ता हो चुकी थी जिसमें सहमति नहीं बन पाने के बाद 3 दिसम्बर की तारीख अगली वार्ता हेतु तय की गयी  , तब क्या कारण था कि आन्दोलन को इतना उग्र रूप दे दिया गया | इसी के साथ ये सवाल भी उठ खड़ा हुआ है कि नए कानूनों के पहले की स्थिति यदि किसानों के लिए हितकारी थी तब फिर सरकारी मंडी में होने वाले भ्रष्टाचार को लेकर हल्ला क्यों मचाया जाता था ? इन कानूनों के बनने के  पहले तक यदि देश के किसान खुशहाली की ज़िन्दगी जी रहे थे और उन्हें उनकी फसल का पर्याप्त मूल्य मिल रहा था तब तो केंद्र सरकार को अपने संशोधन बिना सोचे ही वापिस ले लेना चाहिए | लेकिन पुरानी व्यवस्था में यदि कोई खामी या कमी थी तो उसमें सुधार और बदलाव होना ही चाहिए | कृषि विशेषज्ञ देविन्दर शर्मा के अनुसार देश में सरकारी अनाज की 90 फीसदी खरीदी चूँकि पंजाब और हरियाणा से होती है इसीलिये वहां के किसानों को एमएसपी ( न्यूनतम समर्थन मूल्य ) खत्म किये जाने की चिंता सता रही है | उनके मुताबिक देश के केवल 6 फीसदी किसान ही एमएसपी का लाभ उठा रहे हैं और बाकी के 94 फीसदी इससे वंचित हैं और  पहले से ही बाजार पर निर्भर हैं | हालाँकि अब सरकारी खरीदी में मप्र जैसा  राज्य पंजाब और हरियाणा का मुकाबला कर रहा  है | उप्र और महाराष्ट्र के किसान गन्ना तथा फलों पर ज्यादा ध्यान देने के कारण एमएसपी को लेकर ज्यादा चिंतित नहीं हैं | यही वजह है कि नए कानूनों का विरोध पंजाब से शुरू हुआ और मौजूदा आन्दोलन में भी  उसी की अगुआई है | लेकिन इस सबके बीच एक सवाल ये भी  उठ खड़ा हुआ है कि सीमान्त और लघु किसान की आवाज उठाने  वाला कौन है ? राजनीतिक दल भी बड़े किसानों के प्रति आकर्षित होते  हैं | चुनावी राजनीति पर भी उन किसानों का ही अधिकतर कब्जा है जो अपने इलाके में जमींदार या मालगुजार कहलाते हैं | शासन और  प्रशासन से भी इन्हीं  का सम्पर्क होता है और जब भी कोई मुद्दा उठता है तब यही वर्ग किसानों का प्रतिनिधि बनकर अपने हितों का संरक्षण और संवर्धन कर लेता है | एमएसपी के अंतर्गत होने वाली सरकारी खरीदी और प्राकृतिक आपदा के बाद बंटने वाले मुआवजे का लाभ अधिकतर बड़े किसान ही उठाते रहे हैं | ऐसे में किसानों के बारे में सोचते समय इस बात का संज्ञान भी जरूरी है कि कृषक समुदाय में भी जबरदस्त वर्गभेद है और उसकी वजह से छोटा किसान  लाभों से तो वंचित रहता है किन्तु व्यवस्थाजनित जितनी  भी विसंगतियां हैं उनका नुकसान उसे पूरी तरह भोगना पड़ता है | मौजूदा आन्दोलन भी किसानों की मूलभूत समस्याओं के बजाय  ऐसे विषयों पर केन्द्रित है जिनसे पूरे देश के किसानों को सरोकार नहीं है | यूँ भी कृषि अब केवल गेंहू , धान , दलहन  और तिलहन तक सीमित नहीं रही | उसमें सब्जी , फल , पशुपालन , डेरी  , मत्स्य और मुर्गी पालन भी आ गया है | आयकर मुक्त होने से कृषि के प्रति ऐसे लोग भी आकर्षित हो रहे हैं जिनके लिए वह केवल लाभ कमाने  या फिर काले धन को सफेद करने का जरिया है | इस तबके में  राजनेता , उद्योगपति और नौकरशाह शामिल हैं | कुल मिलाकर अब समय आ गया है जब असली और दिखावटी किसान की  पहिचान स्पष्ट हो | केंद्र सरकार और किसान  संगठनों के बीच आज होने वाली वार्ता किस मुकाम पर पहुँचती है ये तो बाद में पता चलेगा लेकिन ये बात  गंभीरता के साथ विचार योग्य है कि जमींदारी प्रथा भले ही  खत्म कर  दी गई हो  लेकिन  जमींदार आज भी हैं जो किसानों के हक़ पर डाका डालने में पीछे नहीं रहते | आत्महत्या करने वाले किसानों के घर जाकर घड़ियाली आंसू बहाने का चुनावी कर्मकांड करने वाले राजनेता भी आखिर सुनते उन्हीं किसानों की हैं जिनके पास धनबल है | किसान समृद्ध हो ये तो हर कोई चाहता है लेकिन इस समृद्धि का बंटवारा भी यदि विषमता से भरा हो तब उसे दूर करने के बारे में भी तो आन्दोलन होना चाहिए | किसानों को मिलने वाली आयकर छूट यदि समाप्त कर दी जाए तब उससे प्रभावित होने वाले  तबके को किसान क्यों माना जाए ये भी  सवाल लम्बे समय से लंबित है | जो किसान अपनी मेहनत से 25 - 25 लाख की कारें खरीद सकता है वह आयकर क्यों नहीं दे सकता ?

- रवीन्द्र वाजपेयी

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