Saturday 12 December 2020

शेर की सवारी करने की गलती कर बैठे किसान नेता



किसान आन्दोलन को एक पखवाड़े से ज्यादा बीत जाने के बाद भी गतिरोध जस का तस बना हुआ है। सरकार के साथ वार्ताओं का सिलसिला भी टूट चुका है । शुरू में किसान कुछ संशोधनों के साथ समझौते के लिए तैयार दिख रहे थे लेकिन बाद में किसान संगठनों ने कानून वापिसी की जिद पकड़ ली। उसके अलावा एमएसपी को कानूनी रूप देने की मांग भी जोड़ दी। शुरु में लग रहा था कि किसान नेताओं द्वारा अतिरिक्त मांगें सौदेबाजी का जरिया थीं लेकिन ज्यों-ज्यों बातचीत का दौर आगे बढ़ा त्यों-त्यों ये महसूस होने लगा कि किसान संगठन सरकार को मजबूर मानकर चौतरफा दबाव बनाने की रणनीति पर चल रहे थे। सरकार ने शुरू में  झुकने का पूरा-पूरा संकेत दिया लेकिन जब उसे लगा कि किसानों का नेतृत्व  करने वाले हठधर्मी पर उतारू हो रहे हैं तो उसने भी चतुराई के साथ चालाकी से पेश आना शुरू कर दिया। प्रधानमन्त्री ने भले ही किसान नेताओं से रूबरू बात न की हो लेकिन उन्होंने अनेक मंचों से ये ऐलान किया कि न तो एमएसपी खत्म होगी और न ही कृषि उपज मंडी बंद की जावेंगी। विवाद की स्थिति में अदालत जाने की सुविधा, व्यापारियों का पंजीयन जैसे अनेक  मुद्दों पर भी सरकार समुचित संशोधन करने को राजी हो गई थी। जब उसे लगा कि किसान संगठन मंत्री द्वय नरेंद्र सिंह तोमर और पीयूष गोयल के मनाने से नहीं  मान रहे तब गृह मंत्री अमित शाह ने मोर्चा संभालते हुए किसान नेताओं को बुलाकर बातचीत की और आश्वासन दिया कि सरकार जो कह रही हुई उस पर उन्हें विश्वास करना चाहिए। गृह मंत्री का वार्ता करने आना एक तरह से प्रधानमन्त्री की अप्रत्यक्ष मौजूदगी ही मानी जानी चाहिए थी।  लेकिन ऐसा लगता है किसान नेताओं को अपनी शक्ति का कुछ ज्यादा गुमान हो चला और उन्होंने गृह मंत्री के आश्वासनों को भी सिरे से ख़ारिज कर दिया । उसके बाद से ही सरकार ने भी सौजन्यता की बजाय बेरुखी दिखाते हुए  हमलावर रुख अपनाया। कृषि मंत्री द्वारा दिल्ली दंगों  के आरोपियों के पक्ष में पोस्टर दिखाए जाने का मामला उठाते हुए सवाल दाग दिया कि किसान आन्दोलन में इसका क्या काम? धरना स्थल पर खाने-पीने के बढ़िया इंतजाम के बाद सुख सुविधा के जो साधन जुटाए गए उनकी जानकारी जैसे-जैसे बाहर आती जा रही है वैसे-वैसे देश भर में न सिर्फ जनता अपितु किसानों के बीच भी ये चर्चा चल पड़ी है कि उनके नाम पर कुछ अज्ञात लोग अपना स्वार्थ साधने में जुटे हुए हैं। जब किसानों को लगा कि दिल्ली की चौखट पर जमे रहने से वे ख़ास दबाव नहीं  बना पा रहे तो उन्होंने आज से टोल नाके मुफ्त करने और 14 तारीख से रेल रोकने जैसे तरीके आजमाने की धमकी दे डाली। साथ ही कुछ और राजमार्ग अवरुद्ध करने का ऐलान भी कर दिया। पंजाब से  तीस हजार किसानों का  जत्था दिल्ली कूच करने की खबर भी आ रही है। इधर दिल्ली में धरना दे रहे किसानों में 11 की मौत हो चुकी है तथा गिरते तापमान के कारण सैकड़ों के बीमार होने की जानकारी सामने आई है। कृषि मंत्री ने इसके बाद किसान संगठनों से एक बार फिर धरना खत्म करने और बातचीत जारी रखने की अपील की किन्तु वे क़ानून रद्द करने के साथ ही अपनी बाकी मांगें पूरी किये बिना कुछ भी सुनने तैयार नहीं हैं। ऐसे में ये साफ़ है कि आन्दोलनकारियों के पास लड़ने के तौर-तरीके सीमित हो चले हैं। धरनास्थल पर बैठे किसान कहें कुछ भी लेकिन बिना  किसी खास उपलब्धि के उन्हें निठल्ला बिठाये रखना लम्बे समय तक संभव नहीं होगा। पहाड़ी इलाकों में बर्फबारी के बाद से उत्तर भारत का मौसम सर्द होने लगा है। ऐसे में हजारों लोगों का खुले क्षेत्र में रहना खतरे से खाली नहीं है।आन्दोलनकारी किसानों के बीच बुजुर्ग और महिलाएं भी हैं। बेहतर होगा उनको घर वापिस भेजा जावे जिससे उनकी जान सुरक्षित रह सके। लेकिन पहले से बड़ी-बड़ी बातें करने वाले नेता शेर की सवारी करने वाली स्थिति में आ गये हैं जिस पर  न तो ज्यादा देर बैठा रहा जा सकता है वहीं उतरना भी खतरे से खाली नहीं है। टोल नाके को फ्री कर देने से तो वहां से गुजरने वाले खुश हो जायेंगे लेकिन रेल रोकने का जनता पर विपरीत असर होगा। रेलवे ने पंजाब जाने वाली तमाम अनेक गाड़ियां इसी के चलते रद्द कर दीं। यदि आन्दोलन तेज हुआ तब ये संख्या बढ़ाई भी जा सकती हैं। इस सबसे अलग हटकर यक्ष प्रश्न है कि आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले किसान नेता जिन प्रदेशों से आते हैं उनमें पंजाब, हरियाणा और दिल्ली से नजदीकी उप्र के पश्चिमी हिस्से के किसानों को छोड़ दें तो बाकी से आन्दोलन में हिस्सेदारी करने वालों की संख्या नगण्य है और अब तक ऐसा  कोई संकेत नहीं मिला जिससे ये लगता कि दिल्ली से दूरी पर स्थित राज्यों में भी किसान आन्दोलन की हलचल हो। केंद्र सरकार ने आन्दोलन के इस कमजोर पक्ष को ठीक तरह से समझ लिया है और इसीलिये वह भी उपेक्षा भाव दर्शाने लगी है। ये कहने में कुछ भी गलत न होगा कि किसान संगठनों ने केवल पंजाब के किसानों की मांगों को प्रतिष्ठा का विषय बनाते हुए उन्हें पूरे देश की किसानों की आवाज मानने की  जो गलती की उसकी वजह से  आन्दोलन पटरी से उतर जाये तो अचरज नहीं  होगा। बेहतर हो किसान नेता व्यर्थ की अकड़ छोड़कर व्यवहारिक सोच को अपनाएं। कूटनीति में प्रयुक्त होने वाली इस उक्ति पर उन्हें अमल  करना चाहिए कि बहादुरी का एक तरीका होशियारी भी होता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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