Thursday 24 December 2020

बेहतर होगा सरकार और किसान संगठन ही बीच का रास्ता निकाल लें



जैसी आशंका थी वैसा ही हो रहा है। दिल्ली घेरकर बैठे किसानों का आंदोलन ठहराव की स्थिति में आ गया है। केंद्र सरकार  और किसान नेताओं के बीच  आधा दर्जन औपचारिक और उससे भी ज्यादा अनौपचारिक वार्ताओं के बाद भी अभी तक यही तय नहीं हो सका कि बातचीत के मुद्दे क्या हों? सरकार की मानें तो पहले दौर में किसान संगठनों ने नए कृषि कानूनों में संशोधन पर सहमति  दी थी लेकिन बाद में वे उन्हें वापिस लेने की जिद पकड़कर बैठ गये, जबकि सरकार का रुख  शुरू से ही ये था कि जिन बिदुओं पर  ज्यादा  ऐतराज है उनमें संशोधन  किया जा सकता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ ही सरकारी मंडियों को जारी रखे जाने का आश्वासन मंत्री से लेकर प्रधानमन्त्री तक दे चुके हैं लेकिन किसान संगठन उस पर विश्वास करने तैयार नहीं है। सरकार की तरफ से आये दिन नए- नए प्रस्ताव भेजकर वार्ता शुरू करने की पेशकश की जाती है लेकिन किसान नेता  ये कहते हुए इंकार कर देते हैं कि कानूनों को वापिस लिए बिना कोई बातचीत नहीं की जायेगी। इस रुख से तो  बातचीत की सम्भावना ही खत्म हो जाती है क्योंकि सरकार  कानूनों को वापिस लेने के  लिए राजी हुई  तब  वह फैसला उसकी पराजय से ज्यादा नई - नई समस्याओं को जन्म देने वाला बन सकता है और  इसी तरह के दबाव बनाकर सरकारी फैसले बदलवाने का अंतहीन सिलसिला शुरू हो जाएगा। ये बात पूरी तरह साफ़ हो चुकी है कि किसान संगठन चाहे कितने भी दावे करते रहें लेकिन अभी तक वे अपने आन्दोलन को पंजाब और हरियाणा के अलावा दिल्ली से सटे पश्चिमी उप्र और राजस्थान के कुछ हिस्सों से आगे नहीं बढ़ा सके। दिल्ली की आपूर्ति रोककर सरकार को घुटने  टेकने जैसी धमकियां भी कारगर नहीं पा रहीं क्योंकि एक तो उससे जनता का विरोध किसानों को झेलना पड़ेगा वहीं राष्ट्रीय राजधानी को दूध और सब्जी की दैनिक आपूर्ति  करने वाले पशुपालक और किसान नाराज हो जायेंगे जिन्हें इस आन्दोलन के चलते पहले ही काफी नुक्सान हो चुका है। गत दिवस महाराष्ट्र के अमरावती से खबर आई कि किसान आन्दोलन के कारण वहां का संतरा दिल्ली की मंडी तक नहीं  पहुँच पाने से संतरा उत्पादक किसानों को भारी घाटा उठाना पड़ रहा है। चूँकि दोनों ही पक्ष  अपनी-अपनी बात पर अड़े हुए हैं इसलिए अब देखने वाली बात ये होगी कि  कौन भारी पड़ेगा? जहां तक बात किसानों की है तो वे इसी तरह बिना किसी फैसले के बैठे रहे तब आन्दोलन की  आक्रामकता में क्रमश: कमी आती जायेगी और हो सकता है सरकार उसी का  इन्तजार कर रही हो। दूसरी तरफ किसान संगठनों के नेताओं ने सरकार के साथ वार्ता के लिए जो शर्त रख दी है वह पूरी तरह मान लेना सरकार के लिए भी  कठिन तो है ही। चूँकि आन्दोलन की दिशा न कहते हुए भी भाजपा और प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी विरोधी हो चुकी है  इसलिए  केंद्र सरकार  आसानी से मान जायेगी इसकी संभावना भी कम लग रही  है। जैसी कि जानकारी सत्ता पक्ष के सूत्रों से आ रही है उसके अनुसार प्रधानमन्त्री सहित भाजपा के रणनीतिकार इस आन्दोलन के राजनीतिक परिणाम का आकलन करने में जुटे हैं। प्रधानमंत्री को लगता है कि  अंतत: जिस तरह नोटबंदी और जीएसटी जैसे फैसलों का जबरदस्त विरोध होने के बाद भी चुनाव में भाजपा को जबरदस्त सफलता मिली वैसी ही सम्भावना इस मुद्दे पर उन्हें नजर आ रही है। इसकी वजह ये है कि इसके प्रति जन साधारण तो क्या आम किसान तक पूरी तरह से निर्विकार बना हुआ है। बीते 9 दिसम्बर को आयोजित भारत बंद का सीमित असर ही हुआ। इसके बाद ये अवधारणा भी राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित होती गई कि आन्दोलन केवल संपन्न किसानों का है और पंजाब तथा हरियाणा के किसान चूंकि पूरी तरह सरकारी खरीद पर निर्भर हैं इसलिए उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकारी मंडियों के खत्म होने की आशंका सता रही है। देश में सबसे ज्यादा  किसानों वाले राज्य उप्र के पश्चिमी इलाके को छोड़कर बाकी हिस्सों में इस  आन्दोलन की चर्चा तो है लेकिन पक्ष - विपक्ष में किसी तरह का माहौल नजर नहीं आ रहा क्योंकि वहां सरकारी खरीद और समर्थन मूल्य से किसान ज्यादा लाभान्वित नहीं हो पाते। पश्चिमी उप्र भी मुख्यत: गन्ने के लिए जाना जाता है। ऐसे में ये आन्दोलन महज एक धरने की शक्ल में  कब तक जारी रखा जा सकेगा ये बड़ा सवाल है। किसान नेता लगातार कहते आ रहे हैं कि सरकार उन्हें थका देने की रणनीति पर चल रही है किन्तु इसके बाद  भी आन्दोलन में  नित नई ऊर्जा का संचार हो रहा  है और जिस तरह से संसाधन और समर्थन उन्हें मिल रहा है उसके आधार पर वे लड़ाई लंबी खींचने में सक्षम हैं। अब तक जो कुछ भी  हुआ उससे एक बात साफ़ है कि किसान  संगठनों  और सरकार के बीच  संवाद का कोई विश्वसनीय  माध्यम नहीं बन सका। आन्दोलन का नेतृत्व सतह पर भले ही गैर राजनीतिक दिखाई देता हो लेकिन धीरे - धीरे ही सही लेकिन ये बात साबित होती जा रहे है कि उसमें सरकार विरोधी मानसिकता वाले लोगों की भरमार होने से संवाद प्रक्रिया पटरी पर आ ही नहीं पा रही। अकाली दल के भाजपा से अलगाव के बाद तो खाई और चौड़ी हो गई। ऐसे में आंदोलन भले ही जारी हो लेकिन बीते लगभग एक महीने में बात एक इंच भी आगे नहीं बढ़ सकी। सच तो ये है कि बीच का रास्ता  निकाले बिना बात शायद ही बने।  और ये तभी सम्भव होगा जब दोनों पक्ष प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाये बिना समाधान का प्रयास करें। यदि किसान संगठनों और सरकार के बीच सुलह नहीं हो पाती तब सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप अवश्यम्भावी हो जाएगा जो कि अपनी इच्छा संकेतों में बता भी चुका है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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